होशियार! ‘भारतीय न्याय संहिता’ का हाशिये के समाज पर होगा बेहद भयावह असर

होशियार! ‘भारतीय न्याय संहिता’ का हाशिये के समाज पर होगा बेहद भयावह असर

क्या 1 जुलाई 2024 से भारत में आपातकाल लगने वाला है? एक ऐसा आपातकाल जो हम सबके सामने खड़ा है, और किसी को इसकी जानकारी नहीं है। चुनाव के दौरान पीएम मोदी ने कहा था कि 10 साल में जो किया वो तो ट्रेलर है। 2024 के चुनाव के बाद मैं आपको पूरी तस्वीर दिखाऊंगा। सवाल ये है कि क्या 1 जुलाई से पूरी पिक्चर चलने लगेगी? चर्चा चल रही है कि चुनावों में भाजपा की हार ने उनका घमंड तोड़ दिया है या फिर वे पहले से ही कमज़ोर स्थिति में हैं। इसलिए वे शांत हैं। लेकिन 1 जुलाई से जो होने वाला है, उसकी गहराई को समझने वाले कहते हैं कि यह तूफ़ान से पहले की शांति है।

दुनिया में लोगों को भ्रमित करके, देश के लोगों को फंसाकर, मोदी और शाह की जोड़ी 1 जुलाई का इंतजार कर रही है। क्योंकि 1 जुलाई से भारतीय संविधान समिति लागू होने जा रही है। और जैसा कि देखा गया है कि, भारतीय जनता पार्टी और मोदी-शाह की जोड़ी, आरएसएस की विचारधारा के तहत उनके द्वारा कुछ कहना और उनका काम बिल्कुल उसके विपरीत होता है। कृषि कानूनों को याद कीजिए। नाम तो कृषि सुधार था, लेकिन किसानों ने कहा कि ये खेती को बर्बाद करने वाली व्यवस्था है। युवाओं के लिए सेना की वर्दी याद कीजिए – अग्निवीर योजना का  कितना सुंदर नाम है। और इस योजना की हकीकत क्या है, आप सब देख रहे हैं। युवाओं को 4 साल में बूढ़ा करके रिटायर करने की योजना। देश का कर्ज मिटाने आए थे, कर्ज 3 गुना बढ़ा दिया गया। महंगाई के खिलाफ नारे लेकर आए थे किंतु हुआ क्या? महंगाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। संक्षेप में कहें तो नाम जितना अच्छा होगा, काम उतना ही गंदा और खतरनाक होगा।

अब उन्होंने एक नए कानून का नाम रखा है, भारतीय न्याय संहिता। जबकि इसके अंदर की हकीकत यह कहती है कि यह इस देश की जनता के साथ अन्यायपूर्ण संहिता हो सकती है। यह बहुत गंभीर मामला है। क्योंकि अब मोदी सरकार ने कदम उठा लिए हैं और सारी प्लानिंग आखिरी शेड्यूल में सेट हो चुकी है। अब तो बस तलवार खींचना ही बाकी है। हमारे देश में तो पहले से ही आम लोग पुलिस से डरते हैं। अंग्रेजों के जमाने से ही पुलिस आम आदमी के लिए खास डर का स्रोत रही है। और अब उसी पुलिस को भारत का भगवान बनाया जा रहा है। जब चाहेगा, कॉलर पकड़ कर घर से उठा ले जाएगा। और कोई कुछ नहीं कर पाएगा।

खेद की बात है कि लेखिका अरुंधति राय पर 14 साल पहले एक बयान पर यूएपीए लगाने की बात कही है। पीएमएलए कानून पहले से ही बड़े लोगों को जेल में डालने के लिए बना हुआ है। याद रखिए पीएमएलए कानून वही है जिसके तहत सभी राजनीतिक पार्टियों यानी सभी विपक्षी पार्टियों को जेल में डाल दिया गया था। आगे उन्होंने लिखा है कि इन सबकी जनक भारतीय न्यायपालिका है जो 1 जुलाई से लागू होने जा रही है जिसमें यूएपीए, टाडा, पीएमएलए, रचा बसा यानी इस एक न्यायपालिका में यूएपीए, टाडा, पीएमएलए जितने भी कानूनों का लगातार दुरुपयोग का आरोप लगता है जिनके बारे में कहा जाता है कि ये लोगों के अधिकारों के खिलाफ हैं वो सारी चीजें वो सारी चीजें एक साथ भारतीय न्याय संहिता के रूप में सामने आ रही हैं।

भारतीय न्याय संहिता के तहत पुलिस के पास इतने अधिकार हैं कि वो जिसे चाहे, मिनटों में गिरफ्तार कर सकती है। गिरफ़्तारी करना तो पूरी तरह से गैरकानूनी है और अगर पुलिस ज़मानत नहीं चाहती तो इसे पूरी तरह से गैरकानूनी बना दिया गया है। यानी पुलिस के सामने कोर्ट भी बौनी हो जाएंगी। यानी 1 जुलाई के बाद अगर पुलिस आपको गिरफ्तार करती है तो आपको पुलिस की मर्जी से जमानत मिल जाएगी। यानी कोर्ट, कचहरी, सब कुछ अपने आप में गैरकानूनी हो जाएगा। अब पुलिस सबके ऊपर होगी।

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कहा जाता है कि स्वतंत्र समाज का मूल दर्शन स्वतंत्रता का अधिकार है। यानी पुराने ज़माने के राजा की तरह सरकार किसी को भी जेल में बंद नहीं कर सकती। ऐसा करने के लिए कोई कारण होना चाहिए और उसे कानून में परिभाषित किया जाना चाहिए। फिर कानून को आरोपी को बचने का पूरा मौका देना चाहिए। सौ बार भी अपराधी को सजा नहीं मिलनी चाहिए। जमानत एक नियम होना चाहिए। जेल अपवाद होनी चाहिए। यानी जमानत बराबर मिलनी चाहिए। जेल उल्लंघन के रूप में होनी चाहिए। अपराध को आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिए, न कि उस आदर्श की बेगुनाही को। जब तक अपराध उचित संदेह से परे साबित नहीं हो जाता, तब तक कोई सजा नहीं होनी चाहिए। लेकिन मौजूदा दौर में सतही अदालतों ने ज़मानत देना लगभग बंद कर दिया है। यानि हमारी न्याय व्यवस्था और पुलिस व्यवस्था में जो बुराइयां थीं, उन्हें अब कानून के रूप में रख दिया गया है। इसमें आतंकवाद की परिभाषा में सावधानियां बरती गई हैं। सड़क पर एक साधारण सा प्रदर्शन, वहां नारे लगाना, किसी भी विरोध को आतंकवाद के दायरे में रखने की सुविधा दे दी गई है। पुलिस को यह अधिकार दिया गया है कि अगर वह उचित न समझे तो मामले को समाचार में न दिखाए। यानी न्याय पाने के लिए आप पुलिस और थाने के हाथ छोड़ दें। हम पहले भी देख चुके हैं कि थानों में गरीब, कमजोर, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक  लोगों की कितनी सुनवाई होती है। अब उनकी सुनवाई न हो इसके लिए कहीं न कहीं अधिकारों के रूप में पुलिस को अधिकार दिए जा रहे हैं। सब कुछ उनकी मर्जी पर निर्भर करता है। यानी पहले ये चोरी छुपी रहती थी, लेकिन अब इसे एक अधिकार के रूप में दे दिया गया है। अभी तक अगर पुलिस किसी को गिरफ्तार करती थी, तो 24 घंटे के अंदर उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता था। लेकिन अब इसकी जरूरत नहीं है। गिरफ्तारी के बाद मेडिकल टेस्ट होता था, अब उसकी भी जरूरत नहीं है। गिरफ्तारी के 7 दिन बाद वह एसडीएम से रिमांड बढ़वा सकते हैं। बिना चार्जशीट के 6 महीने तक रिमांड बढ़ाई जा सकती है। मनीष सिंह आगे लिखते हैं, ये दमन का खजाना है, ये अन्याय है। देशभक्त खुश होंगे।

मजा तो अब आएगा।  बदमाश पकड़े जाएंगे। उन्हें उल्टा लटकाकर पीटा जाएगा। देशद्रोहियों की त्वचा क्रोध से भर जाएगी। हां, ऐसा जरूर होगा। लेकिन याद रखना, यह शक्ति पुलिस के लिए है। यानि जहां पर बीजेपी की सरकार नहीं है और आज की तारीख में आधे देश में ऐसा नहीं है, वहां की पुलिस यहां के लोगों की जिंदगी तबाह कर देगी। वहां के लोग वहां के लोगों की जिंदगी तबाह कर देंगे। कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा। ये कानून बेहतरी के लिए नहीं बनाए गए हैं, ये राजनीतिक कारणों से बनाए गए हैं। ये आवाज दबाने और आम लोगों को डराने के लिए बनाए गए हैं। जब बात व्यवस्था की आती है तो न्याय व्यवस्था और शांति के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं है। क्योंकि यह 150 साल पुरानी हो चुकी है। इसे बार-बार चमकाया, निखारा और सुधारा गया है और लंबी प्रक्रियाओं से गुज़ारा गया है। यह हमारी व्यवस्था बन गई है, अंग्रेजों की नहीं।

अब 1 जुलाई आएगा 1 जुलाई को न्याय लागू होगा और उसके बाद बहुमत की तरह ये सारे कानून प्रेस से जुड़े ऑनलाइन मीडिया से जुड़े ऑनलाइन डेटा से जुड़े डिजिटल ब्रॉडकास्टिंग से जुड़े ये सारे कानून लागू हो जाएंगे और देश में अराजकता फैल जाएगी चाहे वो बीजेपी का विरोध करने वाली पार्टियां हों चाहे वो बीजेपी का समर्थन करने वाली पार्टियां हों चाहे वो बीजेपी अगर उनके अपने लोग विरोध कर रहे हैं उन सब को दबा दिया जाएगा विरोध की सारी आवाजें दबा दी जाएंगी और इसके साथ ही वो चुप नहीं होंगे उनके पास एक अभिव्यक्ति होगी जो पूरे देश और समाज को डराने के लिए एक उदाहरण के तौर पर दी जाएगी कि अपना मुंह मत खोलो वरना ये कर दिया जाएगा ये एक कठोर कानून है 1 जुलाई को आपातकालीन कानून लागू हो जाएंगे और मैं सभी से अपील करता हूं कि इस पर रिसर्च करें जनता को शिक्षित करें जैसे कृषि कानूनों पर किसान यूनियनों ने खास तौर पर पंजाब के किसानों को शिक्षित किया और यहां पर बिंदुओं को समझकर कैसे समझाया गया आम लोगों की भाषा में यह जरूरी है कि 1 जुलाई से पहले इसे रोकना होगा क्योंकि नरेंद्र मोदी की सरकार अगर ऐसे ही चलती रही तो कोई कुछ नहीं कर पाएगा फिर ताना शाही देखेंगे कि देश खून के आंसू रोएगा।  

यथोक्त के विषय में कितने ही रिटायर्ड IAS, IPS और IRS हैं। और ये भारत सरकार की तरफ से अलग-अलग राज्यों में अनेक  बड़े पदों पर रहे हैं। ये लोग देश के ज्यादातर सरकारी विभागों में काम कर चुके हैं। इन सबने मिलकर भारत सरकार को यानी प्रधानमंत्री मोदी की सरकार को पत्र लिखा है। और उन्होंने देश के राष्ट्रपति, गृहमंत्री और पूरे देश के सभी राजनीतिक दलों के नेताओं और सांसदों को भी संबोधित किया है। आप सोच रहे होंगे कि ये कैसी समस्या है?

ज्ञात हो कि सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर लोग पुलिस से पहले ही डरते हैं। हो सकता है कि भविष्य में अच्छे लोगों को भी डरना पड़े। और एक जुलाई की तारीख़ निकल जाने के बाद जब ये कानून लागू हो जाएगा, तो शायद कोई भी इन कानूनों का विरोध नहीं कर पाएगा। देशभर के 109 पूर्व IAS, IPS अधिकारियों ने अपने पत्रों में तीन नए आपराधिक कानूनों के नुकसान के बारे में लिखा है।

इस जब भारतीय न्याय संहिता में निहित कानूनों को अब सामान्य रूप से लागू करने की व्यवस्था कर दी गई है। तो इनके लागू होने के बाद भारत में सक्रिय लोकतंत्र नहीं रहेगा। अगर ये कानून 1 जुलाई को लागू हो जाएंगे तो भारत में लोकतंत्र आधिकारिक तौर पर खत्म हो जाएगा। वैसे भी, यदि आपातकाल के कानून सामान्य तौर पर लागू होते हैं। तो लोकतंत्र कहां बचेगा? अगर आपातकालीन शासन का माध्यम बन जाए।तो फिर लोकतंत्र क्या है? चाहे सरकार हो या राज्य सरकारें। जैसा राजनीतिक परिवेश है। इस तरह ये कानून बड़े पैमाने पर राजनीतिक दुरुपयोग के दायरे में तो आएगा ही, अपितु समाज के दलित-दमित अल्पसंख्यक समाज के लोगों की और भी दुर्दशा हो जाएगी।

पीटीआई (10 फरवरी 2021) के हवाले से जान पड़ता है कि एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 65.90% जेल कैदी एससी, एसटी और ओबीसी श्रेणियों से हैं जिसका व्यौरा इस प्रकार है कि 1,62,800 कैदी (34.01%) ओबीसी श्रेणी के थे, 99,273 (20.74%) एससी श्रेणी के थे और 53,336 (11.14%) एसटी श्रेणी के थे। संसद में प्रस्तुत सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश की कुल 4,78,600 जेल कैदियों में से 3,15,409 या 65.90% अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणियों से हैं। इन वैसे भी जो लोग अल्पसंख्यक धार्मिक और जातिगत समुदायों से आते हैं, उनका जेलों में प्रतिनिधित्व अधिक है।  जबकि दोषियों और विचाराधीन कैदियों में हिंदुओं की हिस्सेदारी उनकी जनसंख्या की तुलना में कम है, वहीं दोनों प्रकार के कैदियों में सिखों और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व अधिक है। और विचाराधीन कैदियों और दोषी करार दिए गए कैदियों के बीच धार्मिक संरचना में अंतर है। मुसलमान एकमात्र धार्मिक समूह है जिसकी हिस्सेदारी विचाराधीन कैदियों में दोषियों की तुलना में अधिक है, जबकि अन्य समूहों के लिए प्रवृत्ति विपरीत है। इन आँकड़ों के आधार पर आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि प्रस्तावित कानूनों के लागू होने के बाद इस तबकों की हालत क्या होगी। और जेलों की भौगोलिक अवस्था क्या होगी। जेलें भर जाएंगी।

खबर है कि भारत में हर दस कैदियों में से केवल दो को ही वास्तव में किसी अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है। विचाराधीन कैदियों की संख्या हर साल बढ़ रही है, और मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे कैदी – जिनमें से एक बड़ा हिस्सा हाशिए के समुदायों से आता है – जेलों में लंबे समय तक रह रहे हैं। भारत में दुनिया में प्री-ट्रायल बंदियों की छठी सबसे बड़ी हिस्सेदारी है। 2021 के अंत में, जेल में बंद सभी लोगों में से 77.1 प्रतिशत अंडर-ट्रायल थे

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हर साल अंडर-ट्रायल्स की संख्या बढ़ने के साथ, ट्रायल का इंतज़ार कर रहे लोगों को जेल में लंबा समय बिताना पड़ रहा है। 2021 के अंत में, सभी अंडर-ट्रायल्स में से 29.1 प्रतिशत एक साल से ज़्यादा समय से जेल में थे। धार्मिक अल्पसंख्यकों – विशेष रूप से मुस्लिम और सिखों – का जेल के कैदियों में वर्षों से अधिक प्रतिनिधित्व रहा है, लेकिन पिछले दशक में इसमें कुछ बदलाव हुए हैं भारत के कैदियों में दलित और आदिवासी समुदायों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है, और ओबीसी समुदायों से संबंधित लोगों की हिस्सेदारी भी बढ़ रही है। विचाराधीन कैदी को लम्बे समय तक हिरासत में रखने से स्वतंत्रता और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है, जिससे न्याय प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है

2021 के अंत तक भारत की भीड़भाड़ वाली जेलों में पाँच लाख से ज़्यादा कैदी बंद थे, जिनमें से ज़्यादातर ऐसे थे जिन पर कथित तौर पर किए गए अपराधों के लिए मुकदमा चल रहा था। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के  आंकड़ों से पता चलता है कि भारत की जेलों में बंद 5,54,034 कैदियों में से 77.1 प्रतिशत विचाराधीन थे और 22.2 प्रतिशत ऐसे थे जिन्हें अदालत ने दोषी ठहराया था। विचाराधीन कैदियों की यह बड़ी संख्या कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह दशकों से चली आ रही है। 1979 की विधि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1 जनवरी, 1975 तक विचाराधीन कैदियों की संख्या 57.6 प्रतिशत थी और आयोग ने इस बात पर अफसोस जताया कि “जेलों का मुख्य उद्देश्य दोषियों को रखना होना चाहिए, न कि विचाराधीन कैदियों को ।”

आम जनता के साथ पिछ्ले दस वर्षों से राजनीतिक कैदियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। मौजूदा समय में राजनेताओं के जेल जाने का सिलसिला जारी है। क्या जेल में बंद राजनीतिक कैदियों को कोई विशेष सुविधाएं मिलती हैं? क्या कहते हैं नियम? इस सवाल का जवाब जानने के लिए झांसी जिला जेल के अधीक्षक विनोद कुमार के अनुसार “राजनीतिक कैदियों के लिए किसी भी अलग सुविधा का प्रावधान नहीं है। उन्हें भी आम कैदियों की तरह ही रखा जाता है। अगर कैदी सजायाफ्ता है तो उन्हें भी वही सब काम करने होते हैं जो बाकी कैदी करते हैं। अगर किसी राजनीतिक कैदी का मामला कोर्ट में विचाराधीन है और वो कोई सुविधा चाहते हैं तो कोर्ट से अनुमति ले सकते हैं”। किंतु वास्तविकता इसके विपरीत सुनने को मिलती है कि राजनेताओं को उनकी इच्छानुसार आवश्यक सुविधाएं मुहैया करा दी जाती है, बेशक चोरी-चोरी ही सही। पिछले वर्षों को छोड़़ दें तो राजनेताओं को जमानत भी जल्दी मिल जाती है।

इसके विपरीत आम कैदियों को जल्दी जमानत नहीं मिलती। जेल में सुविधाओं के बारे में तो क्या कहा जाए।  बताया जाता है कि राजनीतिक कैदियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्हें अलग बैरक दिया जाता है। भारत की जेलों में अधिकतर कैदी वह हैं जिन्हें अभी सजा नहीं हुई है।  जमानत ना मिलने की वजह से लोग जेल में ही बंद रहते हैं। लोअर कोर्ट द्वारा आम कैदियों को जमानत न देने की समस्या पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल उठाए हैं। किंतु सुप्रीम कोर्ट के सवाल भी ढाक के वही तीन पात सिद्ध हुए हैं। निचले न्यायालयों पर उनका कोई असर होता नही दिखता। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और झारखण्ड के मुख्य मंत्री सोरेन के उदाहरण हमारे समाने हैं।

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