सत्ता की लालच में नए भगवान रचती राजनीतिक अंधभक्ति
आम विचारधारा है कि अमीर व्यक्ति सोचता है कि हर बुराई की जड़ गरीबी है और आम आदमी सोचता है कि पैसा हर बुराई की जड़ है। एक औसत कमाई वाले व्यक्ति की सोच है कि अमीर आदमी खुशकिस्मत या बेईमान होता है। यह जगजाहिर है कि पैसा खुशियों की गारंटी नहीं देता, उससे जिदंगी आसान जरूर हो जाती है। अमीर कोई भी कार्य करने से पहले सबसे पहले अपना फायदा देखता है, जबकि गरीब मन की शांति को प्राथमिकता देता है। अमीर व्यक्ति दिमाग से काम लेता है जबकि गरीब व्यक्ति दिल से काम लेता है। गरीब व्यक्ति मौके को नहीं पहचान पाता जबकि अमीर व्यक्ति इसे बहुत जल्दी पहचान जाता है। इस माने में राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक अखाड़ों की कलाबाजी पर बात की जाए तो वर्तमान में राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों का तत्कालीन और समकालीन आचरण खुलकर सामने आ जाता है। यहाँ इस बात पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई है कि भारत में ‘’भगवान’ कैसे बनाए गए है या फिर बनाए जाते हैं।
तत्कालीन और समकालीन दोनों ऐसे शब्द हैं जिनके मूल्य सदा एक जैसे नहीं रहते। तत्कालीन मूल्य परम्परागत मूल्यों का हिस्सा हो जाते हैं और समकालीन मूल्य तत्कालीन मूल्यों का हिस्सा हो जाते हैं, ऐसा मैं समझता हूँ। परम्परागत मूल्य किसी एक तत्व का सापेक्ष मूल्य नहीं होता। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक यानी सभी मान्य सिद्धांतों के अपने-अपने परम्परागत मूल्य होते हैं। यहाँ पर केवल कुछेक परम्परागत राजनीतिक सिद्धांतों पर चर्चा करने का मन है। परम्परागत राजनीतिक-सिद्धान्त में मूल्यों, आदर्शों व परम तत्वों को, बेशक वो बदल भी गए हों, सर्वोपरि स्थान ही दिया जाता है। परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त का निर्माण सिद्धान्त निर्माताओं की मान्यताओं से जुड़ा हुआ होता है। इनके सामने नूतन तथ्यों, जांच, प्रमाण तथा अवलोकन का कोई महत्व नहीं माना जाता। परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त में ही नहीं समकालीन राजनीति में भी ‘चाहिए’ शब्द का महत्व सदा बना रहता है। राजनीतिक सिद्धांत हमेशा एक जैसे नहीं रहते अपितु सत्ताधारी राजनीतिक दलों की मान्यताओं के अनुसार समर्थन पाते हैं या फिर विरोध का साधन बनते रहते हैं।
इतना ही नहीं पक्ष और विपक्ष एक दूसरे के मतों को विरोध के जरिए ही दबाना पसंद करते हैं। सच तो ये है कि परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त में मूल्यों व मान्यताओं को इतना महत्व दिया जाता है कि राजनीतिक सिद्धान्त में निहित मानवीय मूल्यों व मान्यताओं में सकारात्मकता और नकारात्मकता का अंतर ही शेष नहीं रहता। यही कारण है कि समस्याओं का समाधान न करके पक्ष-विपक्ष एक दूसरे पर निरंतर सवाल दागता रहता है। जाहिर है कि विपक्ष का काम तो सत्ता से सवाल पूछने का एक संवैधानिक अधिकार है, इसके अलावा विपक्ष के पास शायद ही कोई और काम होता हो। आपातकालीन परिस्तिथियों में जरूर उसकी प्राथमिकता बदल जाती है। किंतु अफसोस तो तब होता है कि जब सत्ता पक्ष अपनी नाकामियों पर परदा डालने के लिए विपक्ष पर सवालों के गोले दागता है। वर्तमान में सवाल का उत्तर खोजने के बजाए पिछली सरकारों के इतिहास में झाँकने का निरर्थक उपक्रम करने लगते है।
पिछ्ले कुछ वर्षों में इस प्रवृति ने कुछ ज्यादा ही पैर जमाए हैं, और तो और राजनीतिक भक्तगण मौके-बेमौके नए-नए भगवानों को जन्म देते रहते हैं। सेंट्रल डेस्क: June 22, 2020: की एक खबर है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के ‘Surender Modi’ वाले ट्वीट पर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पलटवार किया है। पलटवार करते हुए जेपी नड्डा जी जोश में होश खो गए और बड़बोलेपन के जादूगर ने कहा कि नरेंद्र मोदी ही ‘Surender Modi’ हैं यानी वो नरों के ही नेता नहीं, अब सुरों (देवताओं) के भी नेता हैं।
भाजपा अध्यक्ष नड्डा रविवार को यहाँ तक कह गए कि आप (कांग्रेस) के साथ तो भगवान भी नहीं हैं।’ अब तो कांग्रेस को भगवान की भाषा समझनी चाहिए। उन्होंने कहा कि आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सरेंडर (Surender) मोदी कह रहें हैं। इसका मतलब है कि मोदी जी सिर्फ इंसानों के ही नेता नहीं बल्कि भगवानों के भी नेता हैं।
इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि राजनीति अब निराकार भगवानों को भी जमीन पर उतार लाने में सक्षम हो गई है। यह बड़े ही दुख की बात है कि राजनीति का मूल काम लोकतंत्र की रक्षा व जनता की समस्याओं को मज़बूतो के साथ हल करना है किंतु हो इसका उलट रहा है। राजनीति को न लोकतंत्र की चिंता है और न जनता की चिंता, अगर कुछ चिंता है तो वह बस सत्ता पर बने रहने की है। यही कारण है कि आज की राजनीति बिगड़े बोलों के बल पर ही जिन्दा है। जरूरी तो ये है कि राजनीतिक भक्तगण अपने नेता या नायकों को ज़मीन पर ही रहने दें, उसमें ‘अवतरत्व’ का रोपण न करें।।।यानी उन्हें भगवान होने का तमगा न दें। यदि ऐसा किया जाता है तो यह लोकतंत्र व संविधान के साथ विश्वासघात है। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि इस प्रकार की प्रवृति हिन्दू धर्म के अनुयाई भक्तजनों में ही ज्यादा पाई जातो है। अन्य धर्मों में शायद इस प्रकार की प्रवृति का नितांत अभाव है।
“संवैधानिक और कानूनी उपायों के बावजूद लोकतंत्र को कुचलने वाली शक्तियां आज पहले से अधिक मज़बूत हैं। मैं यह नहीं कहता कि राजनैतिक नेतृत्व परिपक्व नहीं है। लेकिन कुछ कमियों के कारण मुझे यह भरोसा नहीं है कि आपातकाल फिर से नहीं होगा…! (भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ;इंडियन एक्सप्रेस; 28 जून,2015) समय, शासन और सत्तारूढ़ अध्यक्षों में विभिन्नता के बावजूद असाधारण महिमा मंडन की अभिन्न मानसिकता की अविच्छन्न निरंतरता को देखकर हैरत होना स्वाभाविक है। 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने ‘इमरजेंसी या आपातकाल’ देश पर थोपा था।
सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के तब के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने प्रधानमंत्री का यशोगान करते हुए एक नायाब नारे का आविष्कार किया था – “इण्डिया इज़ इंदिरा, इंदिरा इज़ इंडिया”… पूरे आपातकाल के दौरान यह नारा कोंग्रेसियों की जबान पर देश भर में ताण्डव करता रहा। भारत और इंदिरा एक दूसरे के पर्याय बना दिए गए या ‘एकमेव‘ हो गए। याद रखना चाहिए, विराट बहुलतामुखी जनसमूह, संस्कृति-सभ्यता-आकांक्षा- निश्चित भूभाग की चरम अभिव्यक्ति है देश व राष्ट्र। जबकि प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष का पद केवल संवैधानिक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का परिणाम होता है। इस पद पर व्यक्ति आते-जाते रहते हैं, लेकिन देश शेष रहता है। इसलिए भारत और इंदिरा एक दूसरे के पर्याय नहीं हो सकते।” लगता है कि आज के अन्धभक्तगण इस सत्य को नकारने का काम ज्यादा कर रहे हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री तो आते-जाते रहेंगे, किंतु देश सदैव रहेगा। इसलिए अपने राजनीतिक आकाओं को भगवानों की पंक्ति में खड़ा करना न तो दल विशेष का ही भला कर सकता और न ही देश का।
कुछ वर्षों पूर्व राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया को देवी बनाने की कवायद चल रही थी। इसी तरह की एक कोशिश महाराष्ट्र में भाजपा के एक विधायक ने की है। उनका कहना है कि नरेंद्र मोदी विष्णु के 11वें अवतार हैं। ऐसा नहीं है कि किसी व्यक्ति को भगवान बनाने का यह पहला मामला है। जैसी मेरी जानकारी है, फिल्मी कलाकार रजनीकांत, अमिताभ बच्चन, क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर आदि के मंदिर पहले से ही बने हुए हैं।
भाजपा के वर्तमान शासनकाल में नाथूराम गोडसे का मन्दिर बनाने की बात भी जोरों पर है। शायद कहीं बना भी दिया गया हो, पता नहीं। इनके पीछे के तर्कशास्त्र को भी अपने-अपने तरीके से ईजाद किया जा चुका है, जैसा कि तर्क दिया जा रहा है कि वसुंधरा का अर्थ धरती माता होता है। यही नहीं वोहरा सिंधिया को मंदिर के माध्यम से मां कल्याणी के रूप में भी स्थापित करने जा रहे थे। लगता है कि हमारे देश में भगवान बनाने की परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है और यही गुलामों की असली पहचान है।
13/10/2018 : एन डी टी वी के हवाले से खबर आई थी कि महाराष्ट्र के भाजपा प्रवक्ता अवधूत वाध ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भगवान विष्णु का ‘ग्यारहवां अवतार’ बताया है। जिसका विपक्ष ने मजाक उड़ाया और कांग्रेस ने देवताओं का ‘अपमान’ करार दिया। प्रदेश भाजपा प्रवक्ता अवधूत वाघ ने ट्वीट किया, ‘सम्मानीय प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी भगवान विष्णु का ग्यारहवां अवतार हैं।’ एक मराठी चैनल के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, ‘देश का सौभाग्य है कि हमें मोदी में भगवान जैसा नेता मिला है।’ उल्लेखनीय है कि आज तक आर एस एस और भाजपा भगवान बुद्ध को विष्णु का दसवां अवतार बताते रहे हैं। अब सवाल ये उठता है कि विष्णु के कितने अवतार होंगे? क्या यह आरएसएस और भाजपा की नजरों में उनके देवी-देवताओं का अपमान नहीं है? क्या यह भाजपा की राजनीतिक जमीन को हासिल करने की कवायद नहीं है?
वैसे तो भाजपा प्रवक्ता अवधूत वाघ की इस टिप्पणी को ज्यादा तवज्जों देने की बात नहीं है किंतु भाजपा की संस्कृति के निम्नस्तर की झलक है, इसलिए इस टिप्पणी पर दिमाग देने की जरूरत तो है। अवधूत वाघ की इस टिप्पणी पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के विधायक जितेंद्र आव्हाड ने तो यहाँ तक कहा, ‘वाघ वीजेटीआई से अभियांत्रिकी स्नातक हैं। अब इस बात की जांच करने की जरुरत है कि उनका (डिग्री) सर्टिफिकेट असली है या नहीं। ऐसी उनसे आशा नहीं थी। ‘वीरमाता जीजाबाई टेक्नोलोजी इंस्टीट्यूट (वीजेटीआई) एशिया में सबसे पुराने अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में एक है।
यह वीरमाता जीजाबाई टेक्नोलोजी इंस्टीट्यूट के शिक्षा स्तर पर भी यह एक दाग है। बताते चलें कि वीरमाता जिजाबाई तकनीकी संस्थान (वीजेटीआई) मुंबई में एक इंजीनियरिंग कॉलेज है। 1887 में स्थापित, यह एशिया के सबसे पुराने इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक है। इसे 26 जनवरी, 1997 को अपना वर्तमान नाम अपनाए जाने तक विक्टोरिया जुबली तकनीकी संस्थान के रूप में जाना जाता था। एक मराठी चैनल के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, ‘देश का सौभाग्य है कि हमें मोदी में भगवान जैसा नेता मिला है।’। कोई वाघ से पूछे – अब तक बनाए गए देवी देवता और भगवानों के बल पर देश का कितना भला हुआ है? अथवा देश कितना सुरक्षित रहा है? तो शायद अवधूत वाघ आसमान की ओर मुंह करके खड़े हो जाएंगे।
यह विडंबनापूर्ण संयोग है कि देश की वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा अपनी पुश्तैनी विरोधी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष बरुआ से सौ कदम आगे बढ़ गए। कांग्रेस के पूर्व युवा अध्यक्ष राहुल गाँधी की भाषा से खिलवाड़ करते हुए उन्होंने घोषित कर दिया कि मोदी जी ‘सुरेंद्र‘ हैं। हालाँकि बताया जाता है कि राहुल का मंतव्य था ‘सरेंडर मोदी’ या दूसरे अर्थ में कह सकते हैं ‘समर्पण मोदी’। राहुल गाँधी ने मज़ाकिया ढंग में ‘सरेंडर’ की स्पेलिंग ‘सुरेन्डर’ लिख दी। नड्डा भी इस मामले में पीछे कहाँ रहने वाले थे। उन्होंने राहुल के ‘सरेंडर’ को ‘सुरेंदर’ बना दिया। सुरेंद्र का दूसरा नाम ‘इंद्र’ या देवताओं के राजा। नड्डा जी द्वारा मोदीजी के लिए प्रयुक्त यह संज्ञा नड्डा जी पर ही उलटी पड़ गयी। जिसका अपभ्रंश हो गया ‘भगवानों का ईश्वर‘ अर्थात मोदीजी इंसानों के ही नहीं, देवताओं या भगवानों के भी नेता हैं।
भाषा का मनोविज्ञान है कि व्यक्ति की उपचेतना में चिंतन-संस्कार-क्रिया-प्रतिक्रिया के अभिव्यक्ति-लोक का निर्माण होता रहता है। शब्द या भाव ‘सुरेंद्र‘ शब्द अकस्मात अभिव्यक्ति हुआ हो ऐसा नहीं है बल्कि लम्बे समय से निर्मित हुई अभिव्यक्ति-लोक की क्रिया है। स्वामी भक्ति, चाटुकारिता, चारणवृति, पदलोलुपता, व्यक्ति-पूजा जैसी प्रवृतियां व्यक्ति की विवेचनात्मक चेतना का अपहरण सबसे पहले करती हैं। उसे विश्लेषण व तर्क शून्य बना डालती हैं। इसके विपरीत समर्पण के भाव को बढ़ाती व गाढ़ा करती रहती हैं। यदि सतर्क न रहें, तो फासीवाद-नाज़ीवाद-नस्लवाद-मोबलिन्चिंग जैसी मानव-विरोधी घटनाओं में इनकी परिणीति होती रहती है। अर्थात त्रासदियां घटती रहती हैं जिसका खामियाजा जन-साधारण को भोगना पड़ता है। राजनैतिक आकाओं और भक्तगणों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पडता। हैरत की बात तो ये कि राजनैतिक आका विशेष अपने आप को भगवान के रूप में देखने ही नहीं लगता अपितु अपने आप को ईश्वर मान ही बैठता है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि बरुआ या नड्डा इन त्रासदियों के समर्थक हैं। लेकिन, इतिहास में मानव विभीषिकाएँ इसलिए घटती रही हैं क्योंकि प्रवृतियों की संस्थागत स्थापना होने लगती है। भक्तजनों की प्रवृति से नेता और राज्य का वैसा ही चरित्र बन जाता है। शासक के रूप में व्यक्ति अपने आप को ईश्वरीय प्रवृतियों को आत्मसमर्पित हो जाता है। जैसे-जैसे वो ईशवरीय माया-जाल में फंसता चला जाता है, वैसे-वैसे वह जनता से अथवा जनता उससे दूर होती चली जाती है। आखिर राजसत्ता को तो एक न एक दिन किसी दूसरे हाथ में जाना ही है। लोकतंत्र की यही एक ऐसी विशेषता है। तब ईश्वर बनाने वालों को नए आकाओं की खोज करनी होगी और ऐसे ही उनकी उम्र तमाम हो जाएगी। औरों को भगवान बनाते-बनाते खुद भगवान को प्यारे हो जाएंगे और भगवान बनने का सपना धरा का धरा रह जाएगा।
नड्डा जी ने मोदीजी के साथ कुछ नया किया है, ऐसा भी नहीं है। अनेक नेता प्रधानमंत्री मोदी को विगत में ‘अवतार‘ घोषित कर चुके हैं। यहाँ ऊपर इसका सिलसिलेवार हवाला दिया गया है। इतना ही नहीं, कतिपय बुद्धिजीवी भी उन्हें अवतारी पुरुष कह चुके हैं। कांग्रेस से भाजपा में जानेवाले एक प्रख्यात भारतविद ने तो प्रवेश के साथ मोदी जी को ‘भगवान् का अवतार’ घोषित कर दिया था। कथित भारतविद के पिता प्रख्यात भाषाविद व पूर्व जनसंघ के वरिष्ठ नेता भी थे। सच तो ये है कि सत्ता के लालची नेता मोदी जी में ‘ईश्वरत्व’ रोप देते हैं। उन्हें ‘डमी गॉड’ बना देते हैं।
माना जाता है कि वास्तव में पिछड़े समाजों व देशों में जनता नेताओं को काफी हद तक भूमि पर देवताओं के रोल मॉडल के रूप में देखती है। शातिर राजनीतिक दल मिथकीय मिसालों, प्रतीकों, बिम्बों, रूपकों, उपमाओं, कथाओं का खूब इस्तेमाल करते हैं। ऐसा करके वह मतदाताओं की भावनाओं को जाग्रत कर और फिर उसका दोहन करते हैं। मिथकों की बाढ़ में विवेक, तर्क, विश्लेषण, विवेचना बहते चले जाते हैं, शेष रह जातो है ‘भावना’ और भक्तगण इसका अकूत दोहन कर सत्ता पर काबिज़ हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में लोकतंत्र हाशिये पर खिसकता चला जाता है।
राजनीतिक बुद्धिजीवियों के इस वर्तमान प्रकरण में, मुझे बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा बुद्धिजीवियों के विषय में लिखी गई कुछेक पंक्तियां याद आ रही हैं। बाबा साहेब कहते हैं कि प्रत्येक देश में बुद्धिजीवी वर्ग सर्वाधिक प्रभावशाली वर्ग रहा है। वह भले ही शासक वर्ग न रहा हो। बुद्धिजीवी वर्ग वह है, जो दूरदर्शी होता है, सलाह दे सकता है और नेतृत्व प्रदान कर सकता है। बुद्धिजीवी वर्ग धोखेबाजों का गिरोह या संकीर्ण गुट के वकीलों का निकाय भी हो सकता है, जहां से उसे सहायता मिलती है। अब आप स्वयं सोचिए कि आज की भारतोय राजनीति में क्या हो रहा है? आप ऐसे नेताओं को बुद्धिजीवियों की कौन सी श्रेणी में रखना चाहेंगे? क्या धर्म व संस्कृति के ठेकेदारों को इस दिशा में ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है? कहने की जरूरत नहीं कि स्वार्थी तत्वों व अवसरवादियों ने सदैव धर्म का दुरुपयोग किया है। आतंकवाद भी धर्म के दुरुपयोग का एक बेहद घिनौना रूप है। यूं कहने को सब ये ही कहते हैं कि आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता किंतु आतंकवाद का मुख्य बिन्दु धर्म ही है, इसमें किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं है।
हाल हीं में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे जी का यह कथन इस सोच को और बल देता है। खडगे जी ने कहा था कि प्रधानमंत्री मोदी अब भगवान विष्णु का 11 वां अवतार बनना चाहते हैं। खऱगे ने कहा कि सुबह उठते ही लोग अपने भगवान या गुरुओं का चेहरा देखते हैं लेकिन अब हर जगह मोदी दिखाई देते हैं। मोदी अब 11 वां अवतार बनने निकले हैं। मोदी पर धर्म और राजनीति को मिलाने का आरोप लगाते हुए खऱगे ने कहा कि जब ये दोनों चीजें मिल जाती हैं तो अच्छे और बुरे में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। उन्होंने कहा कि धर्म के नाम पर वोट लेना देश के साथ गद्दारी है।
सारांशत: भगवान बनने व बनाने वालों को थोड़ी चिंता इसकी भी होनी चाहिए। यह कवायद हमें सोचने पर विवश करती है, क्या किसी व्यक्ति का नाम ही वह कसौटी है, जिसके आधार पर देवी-देवता व भगवान बनाए जाते हैं? क्या यह देवी-देवता व भगवान बनाने की प्रक्रिया इस हकीकत को पुख्ता नहीं करती है कि अन्य देवी-देवता व भगवान भी संभवतः इसी प्रकार बनाए गए होंगे। कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि राजनीतिक आकाओं को भगवान बनाने की यही विकृत मानसिकता राजनैतिक सागर में जहर घोलने का काम करती है।
वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है कि किस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं