बगलबच्चा पूंजीवाद से माई-बाप पूंजीवाद तक

बगलबच्चा पूंजीवाद से माई-बाप पूंजीवाद तक

क्या क्रोनी कैपीटलिज्म यानी बगलबच्चा पूंजीवाद की संज्ञा पुरानी नहीं पड़ गयी है? क्या विशेष रूप से भारत में हालात अब बगलबच्चा पूंजीवाद से आगे नहीं निकल गए हैं? आम तौर पर देश के राजनीतिक मंच पर और खासतौर पर संसद में पिछले कुछ समय से जो कुछ हो रहा है, उससे तो ऐसा ही लगता है। जहां तक संसद का सवाल है, अब यह करीब-करीब साफ ही हो गया है कि पूरा का पूरा शीतकालीन सत्र मोदी सरकार द्वारा अडानी के बचाव की भेंट चढ़ने जा रहा है।

अमेरिका में अडानी की कंपनियों के खिलाफ प्रतिभूति बाजार नियामक तथा एफबीआई की जांच के बाद, भारत में अडानी ग्रुप की सौर बिजली की खरीद का रास्ता साफ करने के लिए, आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों के अधिकारियों को 2 हजार करोड़ रुपए से अधिक की रिश्वत दिए जाने के प्रकरण के अमेरिका से संबंधित मामले में आरोप तय कर मुकद्दमे की कार्रवाई शुरू किए जाने की खबर आने के बाद, संसद में विपक्ष द्वारा जोरदार तरीके से इस मुद्देे का उठाया जाना स्वाभाविक था। लेकिन, जब सरकार के और उसके अधीन नियामक एजेंसियों तथा विभिन्न जांच एजेंसियों के ‘अडानी जांच से परे है’ की मुद्रा अपनाने से आगे बढ़कर, मोदी राज ने सदनाध्यक्षों के जरिए यह सुनिश्चित किया कि अडानी का नाम संसद में ‘उल्लेख से भी परे’ रहना चाहिए, तभी यह तय हो गया था कि संसद के शीतकालीन सत्र में कम से कम सामान्य तरीके से काम-काज नहीं होने जा रहा है। और वहीं हुआ भी। शीतकालीन सत्र का आधे से ज्यादा हिस्सा, अडानी के मुद्दे पर बहस की विपक्ष की मांग और सत्तापक्ष की किसी भी कीमत पर ऐसी कोई चर्चा नहीं होने देने की जिद के बीच रस्साकशी में ही निकल गया।

बहरहाल, इसी दौरान अपने बगलबच्चा पूंजीपति के बचाव के लिए, मोदी राज के अड़े रहने के सिवा और भी काफी कुछ हो रहा था, जो कम दिलचस्प नहीं था। बगलबच्चे की तरह, सत्ता का संरक्षण पा-पाकर ताकतवर हुए इजारेदार पूंजीपति के हिमायतियों का दायरा सिर्फ सत्ता में बैठी ताकतों तक ही सीमित नहीं होता है। उसकी थैलियों के मुंह सत्तापक्ष से बाहर भी संरक्षण हासिल कर लेते हैं या लिए रहते हैं। इसलिए, संसद में जब सत्तापक्ष पर अडानी प्रकरण पर बहस कराने का दबाव एक हद से ज्यादा बढ़ा, विपक्ष की कतारों में इस बगलबच्चा पूंजीवाद के संरक्षत्व को सामने आने के लिए उत्प्रेरित करना शुरू कर दिया गया। विपक्ष की कतारों में इसकी आवाजें उठनी शुरू हो गयीं कि अडानी का मुद्दा कोई सबसे जरूरी मुद्दा नहीं है। पहले शरद पवार ने गौतम अडानी से अपनी दोस्ती की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति के जरिए, उसके लिए समर्थन को सामान्य बनाने की कोशिश की। उसके बाद, ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने बाकायदा इसका ऐलान कर दिया कि संसद में उसकी प्राथमिकताएं कांग्रेस से भिन्न हैं। अडानी प्रकरण उसकी प्राथमिकता पर नहीं है। अंतत: समाजवादी पार्टी ने भी अपनी ही प्राथमिकताओं को आगे बढ़ाने का राग अलापना शुरू कर दिया। इस तरह, लोकसभा चुनावों के बाद से जो नहीं हुआ था, हो गया और अडानी के ही मुद्दे पर विपक्ष की कतारों में दरारें दिखाई देने लगीं।

लेकिन, अडानी के बचाव के लिए इतना भी काफी नहीं था। इसकी एक सीधी-सी वजह यह थी कि राज्यों के लिए सौर ऊर्जा की आपूर्ति के सौदे में भ्रष्टाचार का तत्व इस कदर आंखों में गड़ने वाला था कि विपक्ष की कतारों में क्रोनी पूंजीपति के सरपरस्तों की मौजूदगी के बावजूद और विपक्ष में इस मामले पर मतभेद उभर आने के बावजूद, इस मामले का दबना आसान नहीं था। इस पृष्ठभूमि में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के अपनी बढ़ी हुई ताकत के साथ इस मुद्दे पर डटेे रहने का नतीजा यह था कि विपक्ष में थोड़ी-बहुत किचकिच के बावजूद, आम तौर पर विपक्ष इस मुद्दे पर कमोबेश एकजुट ही नजर आता था और उसकी आवाज को अनसुना कर के संसद में तथा आम तौर पर राजनीतिक मंच पर सामान्य स्थिति बहाल नहीं की जा सकती थी।

अब क्रोनी पूंजीपति के बचाव की उसी दुहरी कार्यनीति का अगला औैर ज्यादा आक्रामक दांव शुरू किया गया। विपक्ष के स्तर पर, खासतौर पर हरियाणा और अब महाराष्ट्र की विपक्ष की चुनावी हार के बहाने से, कांग्रेस पर सीधे हमला बोल दिया गया कि वह विपक्ष का सफलतापूर्वक नेतृत्व करने में असमर्थ साबित हो रही है। अब ममता बैनर्जी ने सीधे-सीधे विपक्षी कतारबंदी का नेतृत्व संभालने के लिए अपने तैयार होने का ऐलान कर दिया। चुनाव के धक्के से और अन्यान्य कारणों से भी, जिनमें बड़े धनपतियों से चुनावी चंदे हासिल करने में अपनी हिस्सेदारी भी शामिल है, कुछ अन्य विपक्षी पार्टियों ने भी ममता बैनर्जी की दावेदारी को उचित मानने की बातें करनी शुरू कर दीं। असली मकसद यही था कि लड़ाई के बीच में, इस लड़ाई में आगे-आगे चल रही कांग्रेस के, प्राय: समूचे विपक्ष की ओर से बोलने के दावे को कमजोर किया जाए।

दूसरी ओर, सत्ताधारी भाजपा ने खुद सीधे कांग्रेस पर यह कहते हुए, सारे विधि-निषेधों को ताक पर रखते हुए अंधाधुंध हमला छेड़ दिया कि अडानी पर हमला, अडानी पर हमला नहीं है, वास्तव में नरेंद्र मोदी के राज पर हमला है, भारत के विकास पर हमला है, आदि।

फ्रांसीसी समाचार पोर्टल, मीडियाअपार्ट की एक कथित रूप से खोजी रिपोर्ट के बहाने से और उसके निष्कर्षों पर, अपने ही दावे थोपते हुए, स्वतंत्र मीडिया संस्थान आर्गनाइज्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट (ओसीसीआरपी) की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करने से आगे बढ़कर, उसकी फंडिंग के बहाने उसे जॉर्ज सोरोस से लेकर, अमरीकी विदेश विभाग तक, ‘भारत विरोधियों का हथियार’ तो करार दिया ही गया, कांग्रेस को इस भारत-विरोधी षड्यंत्र का कर्ताधर्ता बना दिया गया। और यह सब किसलिए? गौतम अडानी को बचाने के लिए! इसके बहाने से सत्ताधारी पार्टी ने संसद के दोनों सदनों की कार्रवाई ठप्प करने की जिम्मेदारी खुद ही संभाल ली। इस सब के दूरगामी राजनीतिक नतीजों का तो अभी अनुमान ही लगाया जा सकता है। लेकिन, कांग्रेस के खिलाफ अपने हमले को सत्ताधारी पार्टी ने जिस स्तर पर पहुंचा दिया है, वहां से शेष शीतकालीन सत्र का इसी गतिरोध में निकल जाना तय लगता है।

इसके साथ ही यह गौरतलब है कि मोदी राज किस तरह अडानी को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है! विपक्ष और उसमें भी खासतौर पर कांग्रेस पर उसका हमला करना तो फिर भी समझ में आ सकता है, लेकिन जिस तरह से इस हमले में अमरीकी शासन तथा राज्य को भी घसीट लिया गया है, वह उसकी बदहवासी को ही दिखाता है। बेशक, इसके लिए विपक्ष को ही नहीं, अमेरिका को भी गाली देकर, वे भारत में अपनी कतारों को यह समझाने में मदद मिलने की उम्मीद कर सकते हैं कि क्यों उनका अडानी को बचाना देश के लिए जरूरी है, वगैरह। लेकिन, उनकी अपनी कतारों से भी यह विडंबना पूरी तरह से छुपी तो नहीं रह सकती है कि ‘भारत के विरुद्घ विदेशी षड्यंत्र’ का यह बहाना एक ऐसी सरकार बना रही है, जो सबसे ज्यादा अमेरिका के इशारों पर चलने वाली सरकार रही है। ‘विदेशी हाथ’ के इंदिरा गांधी के नारे का इस्तेमाल करने की कोशिश अब एक ऐसी सरकार कर रही है, जो अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव तक में अपनी भूमिका तलाश करती आई है।

इस सबसे तो ऐसा ही लगता है कि हम क्रोनी के कारनामे देख रहे हैं। क्रोनी यानी बगलबच्चे को एक हद तक ही बचाया जा सकता है। बात उस हद से आगे चली जाए, तो उसे डूबने के लिए छोड़ा भी जा सकता है। लेकिन, माई-बाप पूंजीपति तो माई-बाप पूंजीपति है, उसे बचाने के लिए तो किसी भी हद तक जाना होगा, कुछ भी करना होगा। अब अडानी और मोदी निजाम का ठीक ऐसा ही रिश्ता है। मोदी निजाम को अडानी को बचाने के लिए खुद डूबना भी पड़ा तो, खुद डूबकर भी बचाने की कोशिश करेगा। यह दूसरी बात है कि इसमें पूरे शक की गुंजाइश है कि अडानी, मोदी निजाम के लिए ऐसी ही कुर्बानी देने के लिए तैयार होगा।

Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *