2024 आम चुनाव : भारतीय लोकतंत्र के लिए एक तोहफा
लोकतंत्र को अब तक की सबसे अच्छी शासन प्रणाली माना गया है। ज्यादातर देश इसे पाने या बनाये रखने की रात-दिन कोशिशें करते रहे हैं।लेकिन भारतीय लोकतंत्र की कुछ समस्याएं और लोकतंत्र के समक्ष कुछ चुनौतियां भी है। चार प्रमुख समस्याएं कुछ इस प्रकार हैं – देश की एकता और पूर्णता बनाए रखना, उच्च एवं न्यायिक स्थिति पर व्यापक भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, जलवायु परिवर्तन, आंतरिक सुरक्षा जैसी समस्याएं,) सत्ता में महिलाओं की कम भागीदारी, अशिक्षा, अंधाधुंध चुनावी खर्च आदि राजनीतिक समस्याएं। इन सब समस्याओं से निपटनी के लिए लोकतंत्र के समक्ष जो चुनौतियां हैं वो हैं – भारत का लोकतंत्र निरक्षरता, गरीबी, महिलाओं के खिलाफ भेदभाव, जातिवाद और सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति के अपराधीकरण और हिंसा की चुनौतियों का सामना कर रहा है।
लोकतंत्र की मुख्य दो शर्ते हैं – लोकतन्त्र में ऐसी व्यवस्था रहती है कि जनता अपनी मर्जी से विधायिका चुन सकती है। लोकतन्त्र एक प्रकार का शासन व्यवस्था है, जिसमे सभी व्यक्ति को समान अधिकार होता हैं। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमे राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। लोकतांत्रिक भारत से पता चलता है कि चुनाव के माध्यम से प्रतिनिधियों को चुनने के लिए, भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी भी पंथ के बावजूद, बिना किसी भेदभाव के वोट देने का अधिकार है। जाति, धर्म, क्षेत्र और लिंग। भारत की लोकतांत्रिक सरकार जिन सिद्धांतों पर आधारित है वे हैं स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय।
लेकिन यथोक्त के आलोक में जिन लोगों पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने की जिम्मेदारी है, उन्हें ईमानदारी और समर्पण भाव से अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने की आवश्यकता है-फिर वे चाहें सरकारें हों, संवैधानिक संस्थाएं हों, विपक्षी दल अथवा नागरिक हों। लोकतंत्र अगर लोगों की पहली वरीयता नहीं रह जाता तो नि:संकोच यह माना जा सकता है कि दुनिया एक खतरनाक मोड़ पर जा खड़ी हुई है। किंतु आज के राजनीतिक परिवेश में यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि आज लोकतंत्र के ‘हालात चिंताजनक’ हैं। खेद की बात है कि आज राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र खत्म होता जा रहा है। आज के अधिकतर युवा वर्तमान राजनीति की अराजकता/भ्रष्टाचार के चलते राजनीति से जुड़ऩा चाहते हैं, यह एक अच्छा संकेत नहीं हैं, होना तो ये चाहिए कि युवाओं को लोकतंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में प्रयास करना चाहिए, न कि किसी की अंध भक्ति करना चाहिए। इन युवाओं को सोचना चाहिए कि किसी भी राजनेता की व्यक्तिगत पूजा करने में उनका ही शोषण होता है।
सबसे बड़ी चिंता की बात बड़ी तो ये है कि देश में सत्तासीन राजनीतिक तथा साम्प्रदायिक शक्तियां देश के संविधान में अपने दिमागी दिवालियापन के चलते हुए कुछ न कुछ कमियां ढूंढते रहते हैं और संविधान की समीक्षा के नाम पर संविधान को बदलना चाहते हैं। ये कुछ कारण ऐसे हैं जिनके कारण भारत की अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। देखा तो ये भी गया हैं कि चाहे तो सामाजिक/धार्मिक संगठन हों अथवा राजनीतिक दल सबके अपने-अपने संघर्ष होते है और ये संघर्ष जब आपस में टकराते हैं तो सबकुछ घालमेल हो जाता है। यह एक चिन्ता का विषय है।
सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रुक रहा। देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। दूसरी तरफ “कॉर्पोरेट” देश को लूट रहे हैं और उनके लाखों-करोड़ों रुपये के कर्ज माफ कर दिए गए हैं। साथ ही अनेक पूंजीपति विदेश भाग जाते हैं। भारत के 25 सबसे बड़े विलफुलडिफॉल्टरों (Willful Defaulters) पर देश की विभिन्न बैंकों के जरिए आम जनता की कमाई को लूट रहे हैं और सरकार की इनके कर्जों को वसूलने की मंशा सामने नहीं आ रही है। लोकतांत्रिक देशों की सरकारें जो भी काम करती हैं, वो केवल और केवल चुनाव जीतकर हमेशा सत्ता में बने रहने के लिए करती हैं…राजनेताओं का यही एक भाव है कि सत्ता में बने रहने के लिए वो जो भी अच्छे-बुरे कार्य करते है, वो ऐसे होते हैं कि उनसे भूल से ही जनता का कुछ भला हो जाए तो ठीक…अन्यथा अपने कुकृत्यों को छिपाने के लिए सभी लोकतांत्रिक देशों के सभी सत्ता प्रमुख जनहित में दिखने वाले एक के एक अनेक योजनाओं की घोषणाएं करते रहतें हैं।…उनके क्रियान्वयन का होना न होना, प्रशासन के सिर मढ़ दिया जाता है। इस प्रकार आज के दौर में हर क्षेत्र में पराभव ही हुआ है…चाहे वह धार्मिक हो, सामाजिक हो, शैक्षिक हो, राजनीतिक हो, आर्थिक हो या फिर कोई और।
कहना अतिशयोक्ति न होगा कि इस प्रकार की समस्याओं के केंद्र में ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ ही होता है… सरकार और पूंजीपतियों के बीच एक साठगांठ वाला पूंजीवाद है, जो कुटिल राजनेता और व्यवसायी को धन उपलब्ध कराने की आवश्यकता के अनुरूप होता है। जिससे वह चुनाव लड़ सके। भ्रष्ट व्यवसायी को सार्वजनिक संसाधन और ठेके सस्ते में पाने के लिए कुटिल राजनेता की आवश्यकता होती है। और राजनेता को गरीबों और वंचितों के वोट चाहिए। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र निर्भरता के चक्र में दूसरे से बंधा हुआ है, जो यह सुनिश्चित करता है कि यथास्थिति बनी रहे। आर्थिक व्यवस्था का ऐसा गठबंधन देश के लिए सर्वथा विनाशकारी है जिसमें आम आदमी की उपेक्षा होना लाजिम है। एक सौ चालीस करोड़ के देश में 81 करोड़ लोगों को सरकारी राशन पर जिंदा रहना इसका जिंदा प्रमाण है। जाहिर है कि पिछले दशक में गरीबी के रेखा नीचे जीने वालों की संख्या में खासी बढ़ोतरी हुई है। इस दृष्टि से आज के भारतीय लोकतंत्र को अपाहिज लोकतंत्र ही कहा जाएगा, ऐसा मेरा विचार है।
शरीर के किसी हिस्से या भाग के ठीक काम न करने अथवा उससे वंचित रहने वाले व्यक्ति को विकलांग, अपंग या अपाहिज कहा जाता है। ये बड़े आम शब्द हैं और हिन्दी में खूब इस्तेमाल होते है और इनके विकल्प के तौर पर अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा का दूसरा कोई शब्द इनसे ज्यादा प्रचलन में नहीं है। बतौर मुहावरा अपाहिज या विकलांग जैसे शब्दों का प्रयोग परिस्थिति पर व्यंग्य करने में भी किया जाता है जैसे विकलांग व्यवस्था, अपाहिज कुर्सी वगैरह। आशय किसी प्रणाली के समुचित रूप से कार्य न करने से ही होता है।
एक अपाहिज व्यक्ति की पीड़ा के समरूप अपाहिज लोकतंत्र का चित्रण देखने को मिलेगा, ऐसा मैं समझता हूँ। अपाहिज लोकतंत्र की पीड़ा ठीक एक अपाहिज व्यक्ति की पीड़ा के समकक्ष है। फर्क है तो बस इतना कि एक अपाहित व्यक्ति अपने अपाहिज होने की पीड़ा को स्वयं सहता है लेकिन अपाहिज लोकतंत्र की पीड़ा समूचे देश और उस देश के तमाम वंचित समाज को झेलना पड़ा है। मैं जानता हूँ कि इस विषय को अनेक अनर्गल प्रश्न पूछकर एक अनापेक्षित तमाशा खड़ा किया सकता है किंतु हमें पुस्तक के शीर्षक की भावना और सच्चे लोकतंत्र की भावना को समझने के लिए बहुत जरूरी है। यह भी कि अपाहिज व्यक्ति की पीड़ा की भाँति ही अपाहिज लोकतंत्र की पीड़ा का सार्वजनिक प्रदर्शन अत्यंत अपमानजनक है किंतु इस प्रकार की पीड़ा का उल्लेख करना पीड़ा को गहरे से अनुभव करना एक मानवीय अवस्था होने के साथ-साथ राजनीति में व्याप्त विसंगतियों को दूर करना भी एक मुख्य उद्देश्य है।
हाँ! इतना जरूर कहूँगा कि 2024 के चुनावी दौर में हर मोड़ पर विपक्षी दलों, पत्रकारों, स्वतंत्र पत्रकारों और आम लोगों ने इस सरकार और चुनाव तथा अन्य स्वतंत्र संस्थाओं के खिलाफ लगभग युद्ध ही लड़ा। क्योंकि मोदी, शाह और उनके साथियों ने कई बार आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन किया। इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। पहले के किसी भी चुनाव का ऐसी कार्यप्रणाली नहीं देखी जैसी मैंने चुनाव आयोग को भी देखा है। चुनाव आयुक्त आते हैं और प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं। पारदर्शिता रखते हैं, आदर्श आचार संहिता के अनुसार कार्यवाही करते हैं। वो सारी चीजें नहीं थीं। और इसके बावजूद भी मेरा मानना है कि पत्रकार को हमेशा विपक्ष के साथ रहना चाहिए। क्योंकि पत्रकारिता की संस्था विपक्ष ही है। तो आप देखिए कि सत्ता पक्ष ने विपक्ष को कैसे अंधा, अपाहिज, बहरा, बहरा बनाने की कोशिश की।
उल्लेखनीय है कि किसी भी व्यक्ति की शारीरिक विकलांगता उसके उठने-बैठने, चलने-फिरने यानी उसकी दैनिक गतिविधियों से साक्षात परिलक्षित हो सकती है किंतु संस्थागत विकलांगता बहुत देर तक सुसुप्त अवस्था में संस्था को दीमक की तरह खाती रहती है और धीरे-धीरे यह प्रक्रिया विनाश का कारण बन जाती है। ठीक यही स्थिति किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की होती है। किंतु लोकतंत्र की विलांगता के लिए सरकार और सरकार की चाटुकार संस्थाएं /व्यक्ति जिम्मेदार होते हैं। सत्ता में बने रहने की लोलूपता अपाहिज लोकतंत्र का कारण बनती और लोकतंत्र को राजतंत्र की राह पर ले जाने का काम करती है। अर्थात यूँ भी कह सकते है कि जब राज्याध्यक्ष एक तानाशाह की भूमिका में आ जाता है तो लोकतंत्र अपाहिज हो जाता है। ज्ञात हो कि राजनीतिक दल भी एक प्रकार एक संगठित पंथ अथवा समूह है जिसका उद्देश्य मनोवैज्ञानिक हेरफेर और दबाव रणनीतियों के माध्यम से पंथ/दल के सदस्यों व आम जनता पर हावी होना होता है। सरकार का नेतृत्व आमतौर पर एक शक्तिशाली नेता द्वारा किया जाता है जो सदस्यों को शेष समाज से अलग करता है। और आम जनता पर शासन करता है।
दरअसल आम आदमी की सुरक्षा के लिए कोई सरकार नहीं होती। सरकार सदैव जनता के हित वो कदम उठाती है जिससे उसकी सत्ता बनी रहे। न्याय व्यवस्था भी अक्सर ऊँची पहुँच वाले लोगों के हक में काम करती है। यथा – यदी कोईं पहुंच वाला व्यक्ति किसी की हत्या कर देता है तो उसे केवल एक महीने के लिए जेल में बंद कर दिया जाता है और जेल में डाल दिया जाता है, जबकि कोई वंचित/गरीब व्यक्ति यदि किसी व्यक्ति का चिकन चुरा लेता है तो उसे दो साल के लिए जेल में डाल दिया जाता है। इसलिए, सरकार को देश में सामाजिक न्याय प्रणाली पर ध्यान देना चाहिए लेकिन कागजों में ऐसी व्यवस्था बना दी जाती है किंतु जमीन पर काम करती नजर नहीं आती।
वी-डेम की रिपोर्ट के अनुसार 2018 से भारत एक ‘चुनावी तानाशाह’ राष्ट्र बना हुआ है: ‘डेमोक्रेसी विनिंग एंड लूज़िंग एट द बैलट (चुनाव में लोकतंत्र की जीत और हार)’ शीर्षक वाली रिपोर्ट वी-डेम इंस्टिट्यूट की डेमोक्रेसी रिपोर्ट-2024 में कहा गया है कि भारत 2023 में ऐसे शीर्ष 10 देशों में शामिल रहा जहां अपने आप में पूरी तरह से तानाशाही अथवा निरंकुश शासन व्यवस्था है. वी-डेम (वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी) इंस्टिट्यूट की डेमोक्रेसी रिपोर्ट-2024 के अनुसार, विभिन्न घटकों में गिरते स्कोर के साथ भारत अब भी एक चुनावी तानाशाही (Electoral Autocracy) वाला देश बना हुआ है. रिपोर्ट के अनुसार, भारत 2023 में ऐसे शीर्ष 10 देशों में शामिल रहा, जहां अपने आप में पूरी तरह से तानाशाही अथवा निरंकुश शासन व्यवस्था है. यह एक अपाहिज लोकतंत्र की ही मिसाल है। अपाहिज लोकतंत्र के और भी अनेक कारण हैं जिनसे जनता भली-भाँति परिचित तो होती है किंतु रोजमर्रा की गतिविधियों के चलते कभी उनपर ध्यान देती है।……
दूसरी बात जो सामने आई है, वो यह है कि गृह मंत्री ने जो कहा है, वह विनाश का समर्थक है जबकि गृह मंत्री तो विनाश के विपरीत होते हैं। अगर कोई सरकार सीधे किसी भी राज्य में 356 की धमकी देंगे तो क्या ऐसा करना लोकतांत्रिक माना जा सकता है ? यह संघवाद पर सीधा हमला है। सरकार ने ऐसा पहले भी किया था, इसके कई उदाहरण हैं। पता नहीं – सरकार (गृह मंत्री) जनता को किस बात से डर रहे हैं? वह जनता को क्या धमकी दे रहे हैं?
मेरी उम्र लगभग 80 बरस की होने को है। मैंने भारत में यहाँ-वहाँ हर वक्त ऐसे मंज़र देखे हैं कि सड़कों पर खून बह रहा है। मैंने यहाँ ऐसे मंज़र देखे हैं कि शहर में कर्फ्यू लगा हुआ है, मैंने यहाँ वो मंज़र देखा है कि शहर जल रहे हैं, बस्तियाँ तबाह और बरबाद हो रही हैं। मैंने इसी मुल्क में वो मंज़र भी देखा है कि सरकारी ताकतें आम जनता पर जुल्म कर रही है। दोस्तो! मैंने आज तक कोई ऐसा मंज़र नहीं देखा कि जब इंसान आपस में मोहब्बत की गुफ़्तगू कर रहे हैं। मणीपुर आज तक जल रहा है।
अब जबकि 2024 के आम चुनाव का परिणाम जनता के सामने आ गए हैं तो एक सवाल जोरों से उठ रहा है कि कांग्रेस को सिर्फ़ 100 सीटें मिली हैं। फिर कांग्रेस को इसमें इतना उत्साहित और खुश होने की क्या जरूरत है? एनडीए को बहुमत मिला है। सरकार तो एनडीए की ही बनेगी। तमाम गोदी मीडिया इसी सवाल को बार-बार ही दोहरा रहे है। इस सवाल में समझ का कितना बड़ा स्तर दिखाई देता है। गोदी मीडिया नहीं जानता कि जो भी नतीजे आए हैं, इन नतीजों का मतलब क्या है? इन नतीजों से इस देश में क्या बदलने वाला है? सरकार कोई भी बने, इस देश में क्या बदलाव होने वाला है? इस देश में क्या शुरू होने वाला है? वो कौन सी चीजें होने वाली हैं, जिसकी वजह से हम फिर से एक बेहतर स्वर्णिम युग में आ गए हैं? लोकतंत्र को बचाने का मुद्दा, क्या अब लोकतंत्र बच गया है? इस पर अभी हमें सरकार बनने का इंतजार और आने वाले दिनों में सरकार की कार्यप्रणाली को देखना बाकी है। हाँ! इतना अवश्य है कि अब महज गठबंधन की सरकार बनना नितांत तय है जिसमें शामिल अब कोई भी राजनेता अपनी मनमानी नहीं कर पाएगा, जैसा कि पिछ्ले दस वर्षों की सरकार के कार्यकाल में देखन को मिला है। खैर…..अब देखना यह है कि लोकतंत्र के बंद होते दरवाजे कितने खुलते नजर आते हैं।
सारांशत: कहा जा सकता है कि 2024 के आम चुनाव ने भारत के लोकतंत्र को INDIA ने एक तोहफा दिया है। जिस विपक्ष को पिछले 10 सालों से जांच एजेंसियों के दम पर, न्यायपालिका में बैठे कुछ लोगों के इशारे पर, मीडिया के दम पर कुचला जा रहा है, उसी विपक्ष की बची-खुची मिट्टी को भारत की जनता ने विपक्ष बना कर संसद के अंदर खड़ा कर दिया है।
वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है कि किस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं