लोकशाही के दरकते दरवाजे
लोकतंत्र को अब तक की सबसे अच्छी शासन प्रणाली माना गया है। ज्यादातर देश इसे पाने या बनाये रखने की रात-दिन कोशिशें करते रहे हैं। लेकिन भारतीय लोकतंत्र की कुछ समस्याएं और लोकतंत्र के समक्ष कुछ चुनौतियां भी है। चार प्रमुख समस्याएं कुछ इस प्रकार हैं – देश की एकता और पूर्णता बनाए रखना, उच्च एवं न्यायिक स्थिति पर व्यापक भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, जलवायु परिवर्तन, आंतरिक सुरक्षा जैसी समस्याएं, सत्ता में महिलाओं की कम भागीदारी, अशिक्षा, अंधाधुंध चुनावी खर्च आदि राजनीतिक समस्याएं। इन सब समस्याओं से निपटने के लिए लोकतंत्र के समक्ष जो चुनौतियां हैं वो हैं – भारत का लोकतंत्र निरक्षरता, गरीबी, महिलाओं के खिलाफ भेदभाव, जातिवाद और सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति के अपराधीकरण और हिंसा की चुनौतियों का सामना कर रहा है।
लोकतंत्र की मुख्य दो शर्ते हैं – लोकतन्त्र में ऐसी व्यवस्था रहती है कि जनता अपनी मर्जी से विधायिका चुन सकती है। लोकतन्त्र एक इस प्रकार की शासन व्यवस्था है, जिसमे सभी व्यक्तियों को समान अधिकार होता हैं। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमे राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। लोकतांत्रिक भारत से पता चलता है कि चुनाव के माध्यम से प्रतिनिधियों को चुनने के लिए, भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी भी पंथ के बावजूद, बिना किसी भेदभाव के वोट देने का अधिकार है। भारत की लोकतांत्रिक सरकार जिन सिद्धांतों पर आधारित है-वे हैं स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय। किंतु क्या आज का भारतीय लोकतंत्र इस सिद्धांतों पर चल रहा है? नहीं, सरकार का मनोभाव ही कुछ इन सिद्धांतों के विरुद्ध निरंतर पनपता जा रहा है।
आज भी दबा हुआ मीडिया, आवाज़हीन हाशियाकृत जातियाँ और अल्पसंख्यक समाज के हितों पर छाई चुप्पी, कमाल की बात है… फिर भी भारत, दुनिया का सबसे बड़ा “लोकतंत्र” और अब सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश, निरंकुशता की ओर बराबर आगे खिसक रहा है। 27जनवरी 2023 की एक पोस्ट में जैन ख़ान बताते है कि बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री, इंडिया: द मोदी क्वेश्चन जो यूनाइटेड किंगडम में प्रसारित हुई। डॉक्यूमेंट्री को भारत में आधिकारिक तौर पर प्रसारित नहीं किए जाने के बावजूद, सरकार ने प्रसारण स्टेशन को “औपनिवेशिक मानसिकता” के लिए बुलाते हुए दो-भाग वाली डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगा दिया।
सरकार ने कहा कि डॉक्यूमेंट्री में मोदी विरोधी बयानबाजी की गई है और यह घरेलू राजनीति में हस्तक्षेप करती है। उन्होंने नागरिकों, खासकर मुस्लिम नागरिकों की ओर से किसी भी संभावित आलोचना को प्रभावी ढंग से चुप करा दिया। हालाँकि आज़ के राजनीतिक दौर में उल्लिखित डॉक्यूमेंट्री , देखी तो नहीं है , किंतु शीर्षक की गहराई के चलते सच्चाई के आसपास ही रही होगी ऐसा प्रतीत होता है।
भारतीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगाने के लिए “आईटी नियम 2021” के विशेष आपातकालीन नियम 16 को लागू किया। इस कानून ने सरकार को अपने एजेंडे को बढ़ावा देने और भाजपा और मोदी के खिलाफ जाने वाली किसी भी जानकारी को रोकने की अनुमति दी है। यहाँ यह कहना विषय से बाहर न होगा कि ऐसा ही कुछ आज के सोशल मीडिया पर रोक लगाने के लिए सरकार किसी न किसी तरह काम कराती ही रहती है। गोदी मीडिया के तो लाख खून माँफ हैं क्योंकि गोदी मीडिया स्पष्ट रूप से सरकार के विज्ञापन का काम कर रहे हैं। सीधे-सीधे कहें तो आज मीडिया पूरी तरह सरकार के कब्जे में है।
राजनीति का यह घातक चारित्रिक दर्शन 2002 के गुजरात-दंगों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालता है । जब मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, जो कि भाजपा समर्थक राज्य है, तथा उस समय हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुए दंगों में लगभग 1,000 लोग मारे गए थे। ज्ञात हो कि गुजरात देश के पश्चिमी भाग में स्थित है, जहां 10% से भी कम आबादी मुस्लिम है, जबकि 89% हिंदू हैं। सरकार द्वारा जारी किए गए आँकड़ों के अनुसार, हिंसक झड़पों में निम्नलिखित मौतें हुईं: 790 मुस्लिम मारे गए, 254 हिंदू मारे गए और 200 से ज़्यादा घायल हुए। उस दौरान मोदी के कार्यों की चौतरफा कड़ी आलोचना की गई थी। यहाँ तक कि उस समय सम्मानीय प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने मोदी जी को ‘ राज धर्म’ निभाने का संदेश भी दे डाला था। 2013 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी को निर्दोष करार दिया था, लेकिन पूरे देश में सबूतों के साथ छेड़छाड़ के व्यापक दावे किए गए। कई विद्वान अभी भी मानते हैं कि गुजरात हिंसा किसी नरसंहार से कम नहीं थी। भारतीय न्याय व्यवस्था का इतना क्रूर मजाक?
आज की बात करें तो मोदी सरकार के तहत मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समूहों को हाशिए पर धकेला जा रहा है, जो 2014 में उनके सत्ता में आने के बाद से ही शुरू हो गया था। यह पहली बार नहीं है जब सरकार ने अपने अल्पसंख्यकों पर अत्याचार को छुपाया है। कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक, अल्पसंख्यकों की चीखें अक्सर अनदेखी कर दी जाती हैं क्योंकि उनका अपराध या तो इस “तानाशाह-इन-चीफ” के यहाँ पैदा होना या उसके अधीन रहना है। हाल के वर्षों में, मोदी की भाजपा पार्टी ने अपने अल्पसंख्यकों को धर्मांतरित करने और अपनी हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए हैं।
कुछ प्रमुख उदाहरणों में शामिल हैं: दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक में हिजाब और गोमांस पर प्रतिबंध लगाना ; शैक्षणिक संस्थानों में लड़कियों और महिलाओं को अब हिजाब या सिर पर स्कार्फ़ पहनने की स्वतंत्रता को छीन लेना; राज्य ने गोमांस के सेवन और गायों के वध पर प्रतिबंध लगाना, ऐसे अनेक असंवैधानिक नियम बनाना , क्या लोकतंत्र की गवाही देते हैं? और यह सब इस बिना पर किया गया कि ऐसी परंपरा हिंदू रीति-रिवाजों के खिलाफ है। ‘लव जिहाद’ के नाम पर भारत के कोने-कोने में बवाल मचाया गया। धर्मांतरण की आड़ में
मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश सहित भाजपा शासित कई राज्यों ने हाल ही में ओडिशा, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे अन्य राज्यों में मौजूदा धर्मांतरण विरोधी कानूनों के बहाने अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रूप से ईसाइयों, साथ ही दलित और आदिवासी समुदायों के सदस्यों के खिलाफ दमन किया गया।
यह निर्विवादित सत्य है कि भारत सरकार अपने किसी भी नागरिक को फटकार लगाने के लिए किस हद तक जा सकती है। ऐसा लगता है कि भारत अब केवल नाम का लोकतंत्र रह गया है। यह प्रतिबंध और पहले की ये घटनाएँ एक ऐसे देश की खतरनाक प्रवृत्ति को दर्शाती हैं जो व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं के पूर्ण दमन और कानून के शासन और लोकतंत्र की अवहेलना की राह पर चल पड़ा है। संक्षेप में कहें तो एक निरंकुशता के शासन का उदय होता नजर आ रहा है।
लोकतांत्रिक देश में ऐसा कैसे किया जा सकता है? ऐसा तो केवल एक तानाशाही सरकार के काल में किया जा सकता है। क्योंकि पूरी शक्ति एक ही व्यक्ति यानी तानाशाह के हाथ में होती है। लोकतंत्र तो एक प्रकार की ऐसी सरकार होती है जिसमें बहुमत वाले लोग सरकार चुनते हैं। इसके अलावा, लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण है, देश के नागरिक इसमें भाग लेते हैं और सामाजिक मुद्दों और अपने वोट के अधिकार के बारे में जागरूक होते हैं। लोकतंत्र के कुछ बुनियादी गुण या विशेषताएँ होती हैं जो समानता, राजनीतिक स्वतंत्रता और कानून का शासन पर आधारित होती हैं। लोगों की विधायिका तक पहुँच होती है और वे कानून के सामने समान होते हैं।
यह सरकार का एक ऐसा रूप है जिसमें तानाशाह के हाथ में पूरी शक्ति होती है। साथ ही, तानाशाह इस शक्ति का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करता है। चुनाव का निलंबन, डिक्री द्वारा शासन, नागरिक स्वतंत्रता का अभाव, राजनीतिक विरोधियों का दमन, तथा कानून के शासन के अनुरूप कार्य किए बिना अघोषित आपातकाल की घोषणा के बल पर तानाशाह अपनी स्थिति का फ़ायदा उठाते हैं। वे नागरिकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर रोक लगाकर ऐसा करते हैं। वे ऐसा अपनी राजनीतिक और सामाजिक सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए भी करते हैं। लोगों को उन तरीकों के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार नहीं होता। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि तानाशाह लोगों के अधिकारों के प्रति कम सम्मान रखता है। है। दूसरी ओर, तानाशाही उन सभी अधिकारों और स्वतंत्रता को छीन लेती है। सत्ता एक ही व्यक्ति के हाथ में होती है। तानाशाही में विकास तानाशाह के अनुसार होता है।
यथोक्त के आलोक में गहनता से देखा जाय तो आज देश में अघोषित आपातकाल की स्थिति बनी हुई है। क्योंकि आज भारतीय लोकतंत्र भ्रष्टाचार और अकुशलता का गढ़ बन गया लगता है। आज के अक्सर राजनेता और उनके पैरोकार और अधिकारी भ्रष्ट, बेईमान और अकुशल होते जा रहे हैं। यहाँ मुझे अरस्तू की याद आती है जिन्होंने कहा था कि लोकतंत्र मूर्खों का शासन है..क्योंकि अगर मूर्खों की संख्या ज्यादा होगी तो मूर्ख ही शासन करेगा, जैसा कि हम सब जानते हैं कि हमारे देश में कलक्टर, डॉक्टर, पुलिस अधीक्षक, न्यायाधीश, सेनाध्यक्ष, वैज्ञानिक परीक्षा के बाद ही चुने जाते हैं. यानी देश का हर कर्मचारी कोई न कोई परीक्षा पास करने के बाद ही अपना पद पा सकता है. मगर देश की बागडोर अनपढ़ों के हाथ में क्यों? गांव वार्ड सदस्य, सरपंच, प्रधान, विधायक, नगर पालिका का पार्षद, नगर पालिका का अध्यक्ष, नगर निगम का मेयर, संसद के सदस्य, लोकसभा के सदस्य, यहां तक कि मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री का भी यही हाल है. आखिर इनकी परीक्षा क्यों नहीं ली जाती? क्या इस देश का रक्षा मंत्री सेना में था? देश का स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर क्यों नहीं? देश का शिक्षा मंत्री अध्यापक क्यों नहीं? यह एक बड़ा सवाल है।
अरस्तू का मानना है कि वोट देने वालों में अधिकांश लोग राजनीति से बिल्कुल अनजान होते हैं, उन्हें पता हीं नहीं होता कि हम कैसी सरकार बना रहे हैं और ना ही वे जानने का प्रयास ही करते हैं. अधिकांश लोगों के जेहन में तत्कालिक घटनाक्रम ही अंकित होता है और उसी आधार पर ही सरकार बनाने के प्रयास किए जाते हैं, मतलब की इस मामले में जनता की मेमोरी बहुत ही छोटी होती है. चुनाव के समय जो मुद्दा सबसे ज़्यादा चर्चित होता है, जो जनता के विचार को झकझोरता हो उसी मुद्दे को आधार बना कर ही जनता अपने वोट का निर्धारण करती है. ऐसे में ही सर्वाधिक ग़लत निर्णय लिए जाते हैं इसलिए ये मूर्खों का शासन कहलाता हैं।
अराजक और असामाजिक तत्वों की भूमिका
फलत: लोकतंत्र में अराजक और असामाजिक तत्वों की भूमिका का मोल बढ़ जाता है। वह भी खासकर चुनावों के दौरान असामाजिक तत्वों की भूमिका सामने आती है। बहुत से लोगों को किसी खास उम्मीदवार या पार्टी को वोट देने के लिए मजबूर किया जाता है या रिश्वत दी जाती है। चुनावों के दौरान धांधली भी होती है। लोगों के बीच बहुत सारी सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ बढ़्ती चली जाती हैं।
जातिवाद और सांप्रदायिकता
चुनावों के दौरान बड़ी संख्या में मतदाता उम्मीदवार की जाति और धर्म को महत्व देते हैं। राजनीतिक दल भी चुनाव के लिए टिकट बांटते समय व्यक्ति की जाति या धर्म को ध्यान में रखते हैं। जाति या धर्म के आधार पर चुने गए प्रतिनिधि केवल अपनी जाति या धर्म से संबंधित लोगों के कल्याण के लिए काम करते हैं।
न्याय व्यवस्था सरकार के पक्ष में
इस संबंध में 4PM न्यूज़ नेटवर्क के संपादक संजय शर्मा के अनुसार हर जगह अव्यवस्था के बादल छाए हुए हैं। श्री चंन्द्रचूड़ ने भी पूछा था कि मुझे नहीं पता कि इतिहास मुझे कैसे याद रखेगा। उन्होंने भाव प्रकट कि जब राम मंदिर के निर्माण के बारे में किसी निर्णय पर नहीं पहुँचा जा रहा था उन्होंने भगवान के सामने खड़े होकर उनसे राम मंदिर विवाद का फैसला करने को कहा। क्या ऐसी भावना को न्याय की श्रेणी में रखा जा सकता है? अवना दास नामक पत्रकार ने ट्वीट में लिखा है कि डी वाई चंद्रचूड़ को भविष्य में ऐसे याद रखा जाएगा कि
- उन्होंने भगवान के सामने खड़े होकर उनसे राम मंदिर विवाद का फैसला करने को कहा ये भी कहा कि राम मंदिर का फैसला मुझसे लिखा नहीं जाएगा और उस पर हस्ताक्षर करने की हिम्मत देना। यानी राम मंदिर का फैसला कानून के तहत नहीं, बल्कि आस्था और भावनाओं के आधार पर किया गया।
- चुनाव ईलेक्ट्रोरल बोंड्स को अवैध घोषित कर दिए जाएंगे और इस बात की कोई गारंटी नहीं होगी कि पैसा वापस नहीं किया आएगा और न ही किसी को डंदित किया गया।
- चंडीगढ़ के चुनाव अवैध घोषित किए जाएंगे और आरोपी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी।
- शिंदे, फड़नवीस, अजीत की सरकार को अवैध घोषित किया जाएगा, राज्यपाल के काम को अवैध घोषित किया जाएगा किंतु उसी अवैध सरकार को बाकी कार्यकाल तक चलने दिया जाएगा।
- यह याद रखा जाएगा कि उन्हें हिडनबर्ग पर अमेरिकी अदालतों में मुकदमा चलाना चाहिए, कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करली।
- यह याद रखा जाएगा कि धारा 370 क्या है और फिर फैसला याद रखा जाएगा।
- उमर खालिद एक बहुत ही महत्वपूर्ण मामला था। उमर खालिद की जेल जारी रखना, एक ऐसा व्यक्ति जिसे जमानत से वंचित रखा गया क्योंकि वह अमीर नहीं है, कोई शख्सियत नहीं है, वह मुसलमान है। याद होगा कि वह 4 साल से जेल में है। जब तारीख़ आती है तो जज साहब तारीख़ तय कर देते हैं। कोई पूछने वाला नहीं होता। पता नहीं कौन तय करेगा।
- भीमा कोरेगांव के मामले में आरोपियों को जेल में रखना, प्रोफेसर साईं बाबा की मौत के लिए फादर स्पेन स्वामी की मौत जबकि इस श्वेत गवाह का मामला पूरी तरह से गलत था। कुछ विरासतें हैं जो वह पीछे छोड़ कर जा रहे हैं। अंत में, चाहे उन्होंने न्यायपालिका को बेहतर बनाया हो या विफल, अर्थ वही रहेगा।
- सी जे आई डी वाई, चंन्द्रचूड़ , इन सबके लिए आपको याद किया जाएगा और इस बात के लिए भी कि आपने न्यायिक मूल्यों को थप्पड़ मारा था। उन्हें प्रधानमंत्री के साथ उनकी पूजा करने के लिए याद किया जाएगा, जिसमें उन्होंने कैमरामैन की भूमिका निभाई थी।
कुछ इसी प्रकार की बात न्यूज लांचर पर आशीष चित्रांशी सवाल करते हैं कि देश किसके भरोसे चल रहा है? आप कहेंगे, देश मोदी जी के भरोसे चल रहा है. आज पहली बार मैं इस बात पर जोर दूंगा. देश मोदी जी के भरोसे चल रहा है। क्योंकि मोदी जी खुद को अमर घोषित कर सकते हैं। उन्होंने ऐसा किया है। अमर का मतलब क्या है? भगवान। और देश भगवान के भरोसे चल रहा है।
- इस देश में सुप्रीम कोर्ट भगवान के भरोसे है। सर्वोच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट का सवाल ही नहीं उठता। वे हमारे लिए नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट भगवान भरोसे क्यों है? श्री चंद्रचूड़ ने कहा है। आगे चर्चा में वह यही कहेंगे। पुलिस भगवान भरोसे है। जब अपराध समीक्षा पर बैठक होती है तो कोई प्रेजेंटेशन नहीं होता।
- हरे राम, हरे कृष्ण हैं। और पुलिस के सभी बड़े अधिकारी। पूरा प्रांत भगवान भरोसे है।लाखों लोग भगवान के भरोसे हैं। वे घर बैठे हैं। हां, हमारी जिंदगी सुरक्षित रहेगी।ताली बजाते हैं और भजन में डूब जाते हैं। पुलिस भगवान भरोसे है।
- देश भगवान भरोसे है। न्यायपालिका भगवान भरोसे है। पुलिस का मतलब न्यायपालिका है। जब न्यायपालिका, न्यायपालिका और विधायिका भगवान भरोसे है।तब आप समझिए कि ये देश भगवान भरोसे है। मैं आपको वीडियो दिखाऊंगा। मैं आपको खबर दिखाऊंगा।
- देश का मूल धारा का मीडिया यानी गोदी मीडिया देश के भगवान भरोसे है।
- देश का चुनाव आयोग भी देश क़े भगवान भरोसे है। जिसे अपने भगवान के अलावा और कुछ दिखाई ही नहीं देता।
- देश की तमामा जाँच एजेंसियां (Media, ED, CBI, Income Tax, Election commission, Cots etc. )देश के भगवान के भरोसे हैं। उनकी आँख केवल और केवल भगवान के इशारे पर ही वो भी विपक्षी दलों के ऊपर ही उठती हैं।
यहाँ यह भी याद रखने की बात है कि 2014 से यानी जब भाजपा सरकार केंद्र में आई है, तब ही से संविधान को बदलने का सवाल बार-बार उठाया जाता रहा है। इतना ही नही भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित करने का मुद्दा भाजपा के नेताओं द्वारा मंचों पर तो उठाया जाता ही रहा है। साथ ही साथ कोर्ट के जरिए भी इस बाबत अनेक याचिकाएं डाली जाती रही हैं किंतु सब बेकार।
पिछले कुछ सालों पर नज़र डालें तो तमिलनाडु से आने वाले भारतीय जनता पार्टी के सांसद सुब्रमण्यम स्वामी लगातार भारतीय प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता शब्द को हटाने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि इसे 42वें संशोधन अधिनियम 1976 के ज़रिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में डाला गया था। और यह असंवैधानिक है क्योंकि इसे पूर्वव्यापी तरीके से शामिल किया गया था। यह संशोधन 1976 में आया था 1949 मैं भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं था। और इस याचिका में कहा गया था कि इन्हें हटाया जाना चाहिए।
इनकी सभी दलीलों को सुनने के बाद जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजीव कुमार की बेंच ने सीधे तौर पर कहा कि हमारा संविधान एक धर्मनिरपेक्ष संविधान है, और संविधान में समानता के अधिकार की बात की गई है, बंधुत्व की बात की गई है, और यही वो मूल्य हैं जो भारतीय संविधान को धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाते हैं। ये धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है, और भारतीय समाज एक बहुलतावादी समाज है। इसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, पश्चिमी परिप्रेक्ष्य में नहीं। तो कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने जिस तरह की टिप्पणी की है, उससे भारतीय संविधान के बारे में यह बात बिल्कुल साफ हो गई है कि भारतीय संविधान स्वभाव से ही धर्मनिरपेक्ष है। ऐसा नहीं की 1976 में जो धर्मनिरपेक्ष शब्द इसमें डाला गया, उसकी वजह से भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्ष नहीं है।
भारतीय संविधान समानता के अधिकार की बात करता है, जो बंधुत्व की बात करता है, जो एक बहुलवादी समाज है। इस वजह से भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देता है। और 1973 में केश्वरंत भारती का मामला, अगर आप देखें तो 13 जजों की बेंच सबसे बड़ी बेंच थी, और इसने संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा दी और मूल ढांचे के संविधान में यह स्वीकार किया गया कि भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष संविधान है, और धर्मनिरपेक्षता भी मूल ढांचे का एक हिस्सा है। अगर हम इन सभी दृष्टिकोणों को समेटें, तो एक बात बहुत स्पष्ट हो गई है, कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, और जो लोग लगातार भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, वे भारतीय संविधान को बाधित करने या कमजोर करने की कोशिश करते हैं, उन्हें यह महसूस करना चाहिए और स्वीकार करना चाहिए कि भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष संविधान है, और संविधान के निर्माता दूरदर्शी थे। उन्होंने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाया है, और अगर आप उनके स्वतंत्रता संग्राम को देखें, जिस तरह का आंदोलन उन्होंने किया था, वहाँ उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की बात की, वे धर्मनिरपेक्षता के साथ आगे बढ़े, और धर्मनिरपेक्षता का विचार, उनके पास जो मूल्य थे, उन्हें उन्होंने भारतीय संविधान में डाला। इसलिए, यह सवाल फिर से नहीं उठाया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि निश्चित रूप से ऐसी मांगें आगे भी आती रहेंगी। इसके कुछ राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी आई है, उससे अब यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या भारत हिंदू राष्ट्र बन सकता है, या भारत किसी भी धर्म को अपना राष्ट्रीय धर्म घोषित कर सकता है, नहीं, निश्चित रूप से ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के अब तक के फैसले के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, और एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में, एक राज्य के रूप में भारत का कोई राज्य धर्म नहीं होता। कहने का अर्थ है कि जब तक देश में संविधान जिंदा है, तब तक भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित नहीं किया जा सकता।
हैरत की बात ये भी है कि 2014 के बाद अचानक इस देश में ऐसी कौन सी धारा आ गई है कि हिंदू खतरे में हैं? सेना के सारे नेता हिंदू हैं, एक को छोड़कर सभी राज्यपाल हिंदू हैं, राष्ट्रपति हिंदू हैं, प्रधानमंत्री हिंदू हैं, सभी मुख्यमंत्री हिंदू हैं, सेना प्रमुख हिंदू हैं। फिर हिंदू खतरे में क्यों हैं? और जब राज्य में भयंकर संकट होता है, विविध प्रकार के साम्प्रदायिक नारे लगाए जाने लगते हैं। इस सबके के पीछे केवल और केवल हिंदू –मुसलमान के बीच झगड़े फैलाने का मकसद होता है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद हिंदू राष्ट्र का प्रश्न हमेशा के लिए जैसे पटाक्षेप में चला गया है।
मैं समझता हूँ कि मेरी बात कुछ बड़ी होती जा रही है किंतु इस सरकार के कुछ ऐसे काम है जिनका खुलासा किए बिना मेरी बातअधूरी रह जाएगी। इसलिए उस ओर भी नजर डालने की जरूरत महसूस हो रही है।
कौन नहीं जानता कि आम चुनाव 2024 में क्या-क्या नहीं हुआ… चुनाव आयोग ने भाजपा की एक इकाई की तरह अपने कर्तव्य का निर्वाह किया। सत्ता पक्ष नें चुनाव प्रचार में आदर्श चुनाव संहिता की बखिया उधेड़ कर रख दी किंतु चुनाव आयोग टाँग पर टाँग रखकर सब कुछ मूकदर्शक बना देखता रहा। सत्ता पक्ष ने विपक्ष के प्रति जो जहर समाज के बीच उढ़ेला, वो सदियों तक समेटने में नहीं आ पाएगा। सामप्रदायिक घिर्णा चर्म सीमा तक फैलाई गई, किंतु भला हो जनता का जिसने इस बार सामाजिक सौहार्द को उतना नहीं बिगड़्ने दिया, जितना सत्ता पक्ष का इरादा था।
नई शिक्षा नीति के तहत मनुस्मृति को शैक्षिक पाठ्यक्रम में मनुस्मृति को शामिल कर संविधान की मूल भावना को शिथिल करने की साजिश बराबर हो रही है। ज्ञात हो कि अब दिल्ली विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रम में मनुस्मृति को शामिल करने जा रहा है। वही मनुस्मृति जिसे 1927 में महाराष्ट्र के कोलाबा में डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने जलाया था। दिल्ली विश्वविद्यालय के लोग तर्क दे रहे हैं कि न्याय के क्षेत्र में मनुस्मृति को पढ़ाना इसलिए जरूरी है ताकि छात्रों की क्षमता बढ़े और भारतीय दर्शन और ज्ञान से उनका जुड़ाव बढ़े। दूसरी ओर खेद की बात है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी ने अपने सिलेबस से 300 रामायण, कांचा इलियास की किताबें, महाश्वेता देवी के पाठ को यह कहते हुए हटा दिया है कि इससे उन्हें दिक्कत हो रही है। यहाँ यह सवाल उटता है कि मनुस्मृति क्या है और दिल्ली यूनिवर्सिटी इसे क्यों पढ़ाना चाहती है? इसे सिलेबस में शामिल करने के पीछे क्या तर्क है? इससे क्या बदलाव आएगा? भारत में 2024 में एक यूनिवर्सिटी मनुस्मृति की ओर लौट रही है। यह कितना तर्कसंगत है?
इस प्रस्ताव का विरोधियों ने तर्क दिया कि यदि सत्ता कै लोग मनुस्मृति पढ़ाना चाहते हैं, तो बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की पुस्तकें, जाति का विनाश, शूद्र कौन थे और हिंदू धर्म की पहेलियां क्यों नहीं पढ़ाते? यदि आप मनुस्मृति पढ़ाना चाहते हैं, तो आप महात्मा ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी को उसी पाठ्यक्रम के संदर्भ पुस्तक के रूप में क्यों नहीं शामिल करते? यदि आप बहस करना चाहते हैं, तो आपको अधिक खुला होना चाहिए। आपके पास सत्ता है, आप हिंदू अध्ययन केंद्र बना रहे हैं। अगर दिल्ली विश्वविद्यालय का मुखिया विश्वविद्यालय के माहौल में पुजारी की तरह पूजा-पाठ और यज्ञ कर रहा है और हिंदू अध्ययन केंद्र का अनुसरण कर रहा है, तो क्या यह मुखिया किसी दूसरे धर्म के अध्ययन केंद्र का अनुसरण कर सकता है? इन विश्वविद्यालयों में बौद्ध शोध केंद्र की क्या स्थिति है?
आज सामाजिक हितों की बात तो सरकार जोरों से उठाती तो है किंतु गहराई से देखें तो पत्रिकारिता और राजनीति दोनों मिलकर देश को खा रही हैं। समाज में आए दिन मारकाट, लूटपाट, बलात्कार और समाज के दलित और निरीह तबके के साथ उत्पीड़न की वारदातें बलवती जा रही हैं। उन पर घड़ियाली आँसू बहाकर ही, ये आज के राजनेता और पत्रकार अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि राजनेताओं और पत्रकारों के संबंध मधुर भी हैं और तनावपूर्ण भी। ये तनाव जब और बढ़ जाता है, तब राजनेता कुछ बताना नहीं चाहता और पत्रकार उसे कुछ न कुछ कहने के लिए उकसाता है। अनावश्यक रूप से किसी को उकसाना और उकसाने के लिए प्रयुक्त वाक्य का तरीका ही समस्त विवादों की जड़ है। पत्रकारों के साथ बदसलूकी की बात सब कर रहे हैं
आम जनता के साथ पिछ्ले दस वर्षों से राजनीतिक कैदियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। मौजूदा समय में राजनेताओं के जेल जाने का सिलसिला जारी है। क्या जेल में बंद राजनीतिक कैदियों को कोई विशेष सुविधाएं मिलती हैं? क्या कहते हैं नियम? इस सवाल का जवाब जानने के लिए झांसी जिला जेल के अधीक्षक विनोद कुमार के अनुसार “राजनीतिक कैदियों के लिए किसी भी अलग सुविधा का प्रावधान नहीं है। उन्हें भी आम कैदियों की तरह ही रखा जाता है। अगर कैदी सजायाफ्ता है तो उन्हें भी वही सब काम करने होते हैं जो बाकी कैदी करते हैं। अगर किसी राजनीतिक कैदी का मामला कोर्ट में विचाराधीन है और वो कोई सुविधा चाहते हैं तो कोर्ट से अनुमति ले सकते हैं”। किंतु वास्तविक इसके विपरीत सुनने को मिलती है कि राजनेताओं को उनकी इच्छानुसार आवश्यक सुविधाएं मुहैया करा दी जाती है, बेशक चोरी-चोरी ही सही। पिछले वर्षों को छोड़़ दें तो राजनेताओं को जमानत भी जल्दी मिल जाती है।
इसके विपरीत आम कैदियों को जल्दी जमानत नहीं मिलती। जेल में सुविधाओं के बारे में तो क्या कहा जाए। बताया जाता है कि राजनीतिक कैदियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्हें अलग बैरक दिया जाता है। भारत की जेलों में अधिकतर कैदी वह हैं जिन्हें अभी सजा नहीं हुई है। जमानत ना मिलने की वजह से लोग जेल में ही बंद रहते हैं। लोअर कोर्ट द्वारा आम कैदियों को जमानत न देने की समस्या पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल उठाए हैं। किंतु सुप्रीम कोर्ट के सवाल भी ढाक के वही तीन पात सिद्ध हुए हैं। निचले न्यायालयों पर उनका कोई असर होता नही दिखता। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और झारखण्ड के मुख्य मंत्री सोरेन के उदाहरण हमारे समाने हैं।
एस सी / एसटी क्राइम रेट में एनसीआरबी की रिपोर्ट : एनसीआरबी के आंकड़ों की बात करें तो साल 2022 में आदिवासियों को ऊपर हुए 2979 मामले सामने आए जो कि पिछले साल के क्राइम के मुकाबले में 13 फीसदी अधिक थे। इसमें तीन सालों से प्रदेश टॉप पर बना हुआ है। 2,521 मामलों के साथ राजस्थान दूसरे और 742 मामलों के साथ महाराष्ट्र तीसरे स्थान पर है। इन तीन सालों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। खेद की बात तो यह है कि दलित वर्ग में जन्में सामाजिक और राजनीतिक संगठन अक्सर दलित उत्पीड़न के मामलों पर अक्सर शांत रहते हैं या एक दो दिन गलाफाड़ आक्रोश जताकर शांत हो जाते हैं। विधान सभाओं और लोकसभा में बहुजन वर्ग के तथाकथित प्रतिनिधि भी अपनी-अपनी पार्टियों के दवाब में बग़लें झाँकते रहते हैं। दलित राजनीति की भी जैसे हाशिए पर खिसक गई है।बहुजन समाज में बसपा के अतिरिक्त अनेक राजनीतिक दल भी मैदान उतरने का दम भर रहे हैं। विदित हो कि रिपब्लिक पार्टी के बाद बसपा ने बहुजनों के लिए जो काम किया, वैसा अन्य कोई अन्य बहुजन समाज को एक करने के बजाय अन्यंय राजनीतिक दल बनाकर बहुजनों के वोटों को छितराने का काम कर रहे हैं। और यही कांग्रेस और भाजपा चाहती भी है। यह भी कि बहुत से बहुजनों को कुछ न कुछ लोभ देकर बहुत सी जेबी राजनीतिक पार्टियों का सृजन कराने का काम करती हैं ताकी बहुजनों और ओबीसी के वोट बैंक कहीं एकजुट न हो जाएं। कमाल की बात तो ये है कि बहुजनों के राजनीतिक दल आपस में ही एक दूसरे की टाँग खिचने में लगे रहते है। या यूं कहे कि बहुजन समाज के जेबी राजनीतिक दल ही बहुजनों को बाँटने पर तुले हैं।
अ.जा./अ. जनजाति आरक्षण में उपवर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला तथ्यों पर नहीं, भावनाओं पर आधारित है। आजादी के 70 सालों के बाद भी अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के लिए निर्धारित उनकी आबादी के अनुपात का कोटा केंद्र सरकार के अलग-अलग कैडरों में आज भी अपूर्ण है। राज्य सरकारों की हालत तो और भी अधिक खराब है। अगर sc-st में एक सब्सटेंशियल क्रीमी लेयर है तो केंद्र एवं राज्यों में अलग-अलग सेवाओं में इनका बैकलॉग कैसे रह जाता है। क्या क्रीमी लेयर से आने वाले लोगों के द्वारा इस बैकलॉग को भर नहीं दिया जाना था। अगर एससी एसटी का उनकी आबादी के अनुपात में सेवाओं में प्रतिनिधित्व ही नहीं है तो उनके तथाकथित संपत्तिशाली वर्ग को आरक्षण के दायरे से बाहर करने से क्या यह प्रतिनिधित्व और कम नहीं हो जाएगा। क्योंकि किसी भी सेवा की एक न्यूनतम अर्हता होती है। क्रीमी लेयर लागू हो जाने के बाद तो हालात और भी गंभीर हो जाएंगे। क्योंकि वह लोग जो कई किस्म की न्यूनतम अर्हता धारित करते होंगे वह अपनी क्रीमी लेयर की आर्थिक हैसियत के कारण आरक्षण से बाहर हो जाएंगे और अन्य कई ऐसे लोग जो आरक्षण के दायरे में होंगे लेकिन अपनी आर्थिक हैसियत के कारण कई किस्म की नौकरियों के लिए न्यूनतम अर्हता हासिल नहीं कर पाएंगे। इस तरह प्रतिनिधित्व, जो कि आरक्षण के मूल में है, कभी भी पूरा नहीं किया जा सकेगा। यह एक बहुत ही गंभीर स्थिति है। जिससे आरक्षण लगभग समाप्त हो जाएगा या वंचित समुदायों के गरीब लोगों की चिंता के पीछे असल उद्देश्य आरक्षण को पूरी तरह से निष्प्रभावी बना दिया जाएगा।
गांवों के शिक्षा की पूरी तरह से उपेक्षा की जा रही है
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि सरकारी स्कूलों के बंद होने के कारण गांवों में शिक्षा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है, और निरंतर गिरता ही रहेगा। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मामलों में शहरों और गांवों में पहले से ही बहुत बड़ा अन्तर है। आज जबकि सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं तो आम आदमी को ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ के मुद्दे की आवाज को जोरों से उठाना चाहिए। कभी कभार यह ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ वाला मुद्दा उठाया भी जाता है तो केवल समाज के बुद्धिजीवी शिक्षकों द्वारा उठाया जाता है। संसद में बहुजन के प्रतिनिधि राजनीतिज्ञों द्वारा ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ का मुद्दा क्यों नहीं उठाया जाता?
जाति-प्रथा आज भी बदस्तूर बरकरार है
भारत में जाति-प्रथा हमेशा से क्रूर तरीके से बनी आ रही है।… आज भी वैसे ही है। राजनीति बेशक जाति-प्रथा के कम हो जाने का ढोल पीटती रहे किंतु वास्तविक जीवन में जाति-प्रथा आज भी बदस्तूर बरकरार है। अखबारों के स्थानीय पन्नों में छपने वाले ‘दलित को घोड़ी चढ़ने पर पीटा’ जैसे समाचार छोड़ दीजिए, सोशल मीडिया पर दलित प्रतीकों की ट्रोलिंग इस सत्य के प्रमाण हैं। फ़िर अनुसूचित जातियों/जन जातियों के आरक्षण पर आपत्ति क्यों? आपत्ति तो इस बात पर होनी चाहिए कि भारतीय समाज की 15% आबादी को 50% आरक्षण क्यों? होना तो ये चाहिए कि भारतीय समाज की तमाम जातियों को उनकी संख्या के आधार पर सरकारी नौकरियों में ही नहीं, अपितु हरेक क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान कर दिया जाना चाहिए जिससे ये रोज-रोज का आरक्षण विलाप शायद बन्द हो जाए
“एक देश एक चुनाव” की व्यवस्था
देश में अधिनायकवाद या यूँ कहें कि हिटलरशाही अथवा तानाशाही को ही जन्म देगी। देश में चौतरफा अराजकता का माहौल होगा। सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का आचरण लोकतांत्रिक न होकर पूरी तरह अलोकतांत्रिक हो जाएगा। या यूँ कहें कि यदि “एक देश एक चुनाव” की व्यवस्था देश में लागू हो जाती है तो यह लोकतंत्र की हत्या का प्रस्ताव ही सिद्ध होगा यानी लोकतंत्र की असमय ही हत्या हो जाएगी। यहाँ उस सवाल का उठना जायज ही है कि “एक देश एक चुनाव” का प्रस्ताव : लोकतंत्र की मूल भावना को नकारता है
लैटरल विधि के जरिए सीधी भर्ती का पहला प्रस्ताव 2005 में प्रशासनिक सुधार पर पहली रिपोर्ट में आया था, लेकिन तब इसे सिरे से खारिज कर दिया गया था। फिर 2010 में आई प्रशासनिक सुधार पर दूसरी रिपोर्ट में भी ऐसा करने की सिफारिश की गई, वो भी बेनतीजा रही। लेकिन पहली गम्भीर पहल पर 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हुई। पीएम ने 2016 में इसकी संभावना तलाशने के लिए फिर कमिटी बनाई, जिसने अपनी रिपोर्ट में इस प्रस्ताव पर आगे बढ़ने की अनुशंसा करदी।…. भला करती भी क्यों न?… कमिटी मोदी सरकार द्वारा जो बनाई गई थी। खैर! प्रस्तुत हालातों के चलते ऐसा लगने लगा है कि भारतीय लोकतंत्र के दरवाजे दरकने लगे हैं।
यहाँ पुन: उल्लिखित है कि भाजपा के शीर्ष नेता सुब्रहमनियम स्वामी का यह कहना, ‘सरकारी नौकरियों में एस सी और एस टी को मिलने वाले आरक्षण के नियमों को इतना शिथिल कर दिया जाएगा कि आरक्षण को किसी भी नीति के तहत समाप्त करने की जरूरत ही नहीं होगी, धीरे-धीरे स्वत: ही शिथिल हो जाएगा।’
यहाँ ये सवाल अति प्रासंगिक है कि ऐसे में सरकार यूपीएससी को बाइपास करके और बगैर किसी परीक्षा और आरक्षण के अफसरों को सीधे नीतिगत पदों पर नियुक्त कैसे कर सकती है? यह मामला जटिल है और बहुत बड़ा मामला है। आम जनता को इसे समझाना होगा ताकि वह सरकार पर दबाव डालने के लिए आया जा सके। यह काम समाज के प्रबुद्ध यानी पढ़े-लिखे लोगों का है। अगर आज सरकार ज्वायंट सेक्रेटरी की नियुक्ति बिना परीक्षा और बिना आरक्षण के कर ले गई, तो आगे चलकर क्या हो सकता है, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। ऐसे ही अनेक समसामयिक संदर्भ हैं जिनके आधार पर मेरे ये आलेख शब्द प्राप्त कर पाये हैं । ऐसे अनेक उदाहरण है जिनका खुलासा यहाँ करना न तो संभव है और न ही तर्कसंगत। खैर! मेरी विचारधारा और पाठक की विचारधारा में अंतर होना स्वाभाविक है। क्योंकि पाठक की अपने परिवेश और सोच होती है, लेखक की अपनी।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।