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लोग धर्म-सुख की तलाश में  लोकतांत्रिक सुख खोते जा रहे हैं

लोग धर्म-सुख की तलाश में  लोकतांत्रिक सुख खोते जा रहे हैं

विदित हो  कि भारतीय राजनीति में धर्म का बहुत महत्व है। यह देश की राजनीति और लोकतंत्र को प्रभावित करता है । भारत में कई धर्म हैं और लोगों की उनमें गहरी आस्था है। ये आस्थाएँ राजनीति को प्रभावित करती हैं। भारत में धर्म का इस्तेमाल अलग-अलग तरीकों से किया जाता रहा है। राजनीति में धर्म का इस्तेमाल सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से किया जाता रहा है। इसका इस्तेमाल लोगों का समर्थन पाने के लिए किया जाता रहा है। चुनाव जीतने या हारने में राजनीति ने अहम भूमिका निभाई है। सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों से जन-मानस को भटकाने  में भी धर्म ने अहम भूमिका निभाई है।

देखा गया है कि राजनीतिक दल कुछ खास धार्मिक समूहों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं जिसका मकसद केवल और केवल  वोट बैंक की राजनीति करना होता जिसके जरिए चुनाव जीतना ही मुख्य मकसद होता है।  राजनेता  धर्म को बैसाखी बनाकार लोगों की समस्याओं को हल करने और उनकी ज़रूरतों को पूरा करने का वादा करते हैं, ताकि उनका समर्थन हासिल किया जा सके। योजना धार्मिक समूहों से धर्म, समाज और धन की ज़रूरतों को पूरा करके अधिक समर्थन प्राप्त करना चाहती है। राजनीतिक दल बेजोड़ धार्मिक बयानबाजी करते है ताकि राजनीतिक दल मतदाताओं से जुड़ने के लिए धार्मिक भाषा और प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं। लोग धार्मिक ग्रंथों, नेताओं या समारोहों का इस्तेमाल यह दिखाने के लिए कर सकते हैं कि वे उनसे जुड़े हुए हैं और दूसरों से का भी आदर-सम्मान करनी का उपक्रम करते हैं। कुछ राजनीतिक दल वोट हासिल करने के लिए धार्मिक मतभेदों का इस्तेमाल करते हैं। वे विभिन्न समूहों के बीच तनाव पैदा करसांप्रदायिक ध्रुवीकरण करके धार्मिक संघर्षों को भड़का सकते हैं और हानिकारक विश्वास फैला सकते हैं। वे लोगों को धार्मिक संकट का झूठा प्रचार करके लोगों को डराने और असुरक्षित महसूस कराने के लिए विभिन्न समूहों के बीच हिंसा को बढ़ावा देते हैं। यह तरीका दूसरे समूहों को खतरे के रूप में पेश करके अपने धार्मिक अनुयायियों से समर्थन हासिल करने की कोशिश करता है।

यथोक्त के आलोक में यह मान लिया जाय कि क्या भारत में लोक तंत्र की जगह धर्म तंत्र ने ले ली है।  इस धर्म तंत्र के सामने भारत के लोक तंत्र की तस्वीर धुंधली होती जा रही है। दरअसल धर्म तंत्र इतना हावी हो चुका है कि इसके बिना आज के भारत में आप लोक तंत्र को देख भी नहीं सकते। धर्म तंत्र का अर्थ ऐसा हो गया है कि पार्टियां धार्मिक व्यवस्था करने वाली संस्थाओं में बदल रही हैं। पहले वे धर्म से दूरी बनाए रखते थे, लेकिन अब पार्टियां राजनीति से दूरी बनाने लगी हैं। पूंजी के दबाव में राजनीतिक दलों के भीतर राजनीति खत्म हो गई। अब धर्म के नाम पर राजनीतिक दल लोक तंत्र के मैदान से खत्म होते दिख रहे हैं। ऐसा लगता है कि ये भारत की राजनीतिक पार्टियाँ नहीं, बल्कि अलग-अलग धार्मिक समुदायों की पार्टियाँ हैं। राजनीति में धर्म चाबियों की एक किताब की तरह हो गया है जिसे कोई भी कमज़ोर छात्र खरीदकर अपनी मेज़ पर रखना चाहता है।

अगर आप पिछले 10 सालों की राजनीति पर नज़र डालें तो ऐसा लगेगा कि हर नेता पुजारी बनने की चाह में दौड़ा जा रहा है। भाजपा और आरएसएस ने 22 जनवरी 2024 के लिए कार्यक्रमों और व्यवस्थाओं का जाल बिछाया।2024 तो आम आदमी पार्टी भी धर्म के तालाब में कूद पड़ी है अपनी जान लेकर। और आई है पोस्टर लेकर। आम आदमी पार्टी आई है अलग राजनीति के सपने लेकर। लेकिन पार्टी अब धर्म का वह सिलेबस छीनना चाहती है जिसे लेकर बीजेपी और आरएसएस के लोग घूम रहे हैं। एक राजनीतिक दल में अलग-अलग धर्मों को मानने वाले लोग हो सकते हैं। लेकिन एक पार्टी से धार्मिक व्यवस्था बनाने का क्या मतलब है? दो दलों के बीच अलग-अलग मुद्दों और गतिविधियों पर राजनीतिक प्रतिस्पर्धा समझ में आती है।

लेकिन आम आदमी की पार्टी को बीजेपी से अलग क्यों होना चाहिए जो उसने किया है? बीजेपी में क्यों नहीं होना चाहिए? क्या उसके पास कोई अलग राजनीतिक भाषा नहीं है जिसके साथ वह धर्म की राजनीति से मुकाबला कर सके? या फिर यह सिर्फ़ एक धर्म की बात है? धर्मनिरपेक्ष दिखने का नाटक अब खत्म हो गया है। दूसरे धर्मों को किनारे कर दिया गया है। दरअसल, यह उनके लिए बहुत बढ़िया समय है। कम से कम अब उन पर भारत की राजनीति के पतन का आरोप तो नहीं लगेगा। कोई यह नहीं कहेगा कि इफ़्तार की तैयारी या दरगाह पर चादर चढ़ाना ईशनिंदा है। और अपने वोट बैंक के कारण भारत में अच्छे काम नहीं हो रहे हैं। सबको हिंदू धर्म का एक बहुत बड़ा मैदान दिख रहा है जिसमें हर कोई अपनी-अपनी क्रिकेट टीम के लिए पिच बनाने में व्यस्त है। यह हिंदू धर्म की राजनीति नहीं, बल्कि हिंदू धर्म की राजनीति है। इसीलिए मैंने कहा कि भारत का लोकतंत्र अब धर्म में बदल गया है। यहां धर्म को लेकर ऐसी होड़ मची हुई है कि पहचानना मुश्किल हो गया है। यह कोई राजनीतिक पार्टी है या धार्मिक पार्टी? अब यह खबर खास अंदाज में बताई जा रही है। कि रोहिणी मंदिर में श्री सुंदर कांड पाठ में वह अपनी पत्नी के साथ भगवान की पूजा-अर्चना के लिए शामिल हुए।

यह जानकारी दी जा रही है कि दिल्ली में हर महीने के पहले मंगलवार को आम आदमी पार्टी श्री सुंदर कांड और श्री हनुमान चालीसा का पाठ करवाएगी। पार्टी ने कहा है कि आप के सभी मंत्री और परिषद श्री सुंदर कांड का पाठ करवाएंगे। इसका खर्च कौन उठाएगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है। पार्टी, सरकार या मंत्री या परिषद। श्री सुंदर कांड और श्री हनुमान चालीसा का पूजन अब राजनीतिक कार्यक्रम बन गया है। आम आदमी पार्टी के साथ-साथ भाजपा और संघ ने जिस तरह से इन कार्यक्रमों को शुरू किया है, यह उसी का नतीजा है। वास्तव में यह शर्म की बात है। यह ठीक नहीं है। जनता को समझना चाहिए कि इससे राजनीति का भविष्य खराब हो रहा है। और जब राजनीति का भविष्य खराब हो रहा हो तो जनता का भविष्य अंधकार में है। इस बार जनता, खास तौर पर मध्यम वर्ग, खास तौर पर हाउसिंग सोसाइटी में रहने वाले लोग इस राजनीति को खराब करने में जुट गए हैं। राजनीति तभी अच्छी होती है जब नेता एक नेता के तौर पर आपके सामने जितना हो सके उतना जवाब दे। तभी तो उसे जनता के सवालों से डर लगता है। लेकिन अगर कोई नेता, कोई साधु, संत या देवता संन्यासी का रूप लेकर जनता के बीच चला जाए, तो जनता को नेता से डरना ही पड़ेगा। नेता को बहाना मिल जाएगा कि वह प्रशासन में विफल रहा, लेकिन वह पूजा-पाठ ठीक से कर रहा था, करवा रहा था।

एक अजीब तरह की उलझन दिख रही है। आप धार्मिक हैं, लेकिन सिर्फ़ धार्मिक होने से काम नहीं चलेगा। जब तक आप इस झमेले में नहीं पड़ेंगे, तब तक आपका धार्मिक होना स्वीकार नहीं किया जाएगा। कितनी अजीब बात है। राजनीति में धर्म के खतरे बताने वाले सभी महान लोगों को धर्म की वर्तमान राजनीति ने किनारे कर दिया है। धर्म की वर्तमान राजनीति ने उन्हें किनारे कर दिया है। पूरा राजनीतिक और राजनीतिक क्षेत्र धर्म का एक ही क्षेत्र नजर आने लगा है। जनता के बीच धर्म की आड़ में आने वाले इन नेताओं का धार्मिक होने का भ्रम टूट जाएगा। जैसे ही आप उस नेता की सरकार के सामने विरोध प्रदर्शन करेंगे, आपकी इतनी बुरी तरह पिटाई होगी कि न तो नेता और न ही आपका धर्म आपको बचाने आएगा। लेकिन मंदिरों में पूजा-पाठ करते हुए, व्रत-उपवास करते हुए नेताओं को इस तरह से दिखाया जा रहा है जैसे हम नेता नहीं बल्कि धरती पर देवताओं का अवतार देख रहे हों। भारत की राजनीति इतनी गंदी कभी नहीं रही। लोकतंत्र एक धार्मिक व्यवस्था बन गई है।

प्रधानमंत्री की संवैधानिक गतिविधियां तो वही हैं, लेकिन धार्मिक गतिविधियां ज्यादा देखने को मिलती हैं। उनकी भाषा राजनीतिक है, लेकिन राजनीति के साथ-साथ वह धार्मिक भी हो गई है। वह अपने बारे में इसी भाषा में बात करने लगे हैं कि भगवान ने उन्हें किस उद्देश्य से चुना है। उन्होंने ट्वीट किया, “अयोध्या में रामलला के जीवन में अब केवल 11 दिन शेष रह गए हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं भी इस पावन अवसर का साक्षी बनूंगा। प्रभु ने मुझे प्राण प्रतिष्ठा के दौरान सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने का कारण बनाया है।” इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं आज से 11 दिनों का विशेष अनुष्ठान शुरू कर रहा हूँ। आप सभी का आशीर्वाद पाने के लिए मैं आतुर हूँ। यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। जैसा कि हमारे शास्त्रों में कहा गया है, ईश्वर के यज्ञ के लिए, पूजा के लिए हमें अपने अंदर दिव्य चेतना को जगाना होगा। इसके लिए शास्त्रों में कठोर नियम हैं, जिनका पालन प्राण प्रतिष्ठा से पहले करना होता है। इसलिए, कुछ तपस्वी आत्माओं और आध्यात्मिक यात्रा के महापुरुषों से मुझे जो मार्गदर्शन मिला, उन्होंने जो नियम सुझाए, उसके अनुसार मैं आज से 11 दिनों का विशेष अनुष्ठान शुरू कर रहा हूँ।

धार्मिक गतिविधियों में भाग लेने के साथ-साथ नेताओं की राजनीतिक भाषा भी धार्मिक होती जा रही है। स्थिति यह हो गई है कि अब हर कथावाचक, हर सांसद या हर सांसद खुद को कथावाचक समझने और बनाने में लगा हुआ है। और ऐसा होने भी लगेगा। चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री से पूछा जाता है कि उनका अवतार कौन सा है। विष्णु अवतार से पहले उन्हें शिव का अवतार बताया गया है। कृष्ण का अवतार भी। ये खबरें बता रही हैं कि कैसे भाजपा के सांसद, समर्थक और राजनेता प्रधानमंत्री मोदी को शिव के अवतार के बारे में बता रहे थे। साल 2021 में जब हिमाचल में भाजपा की सरकार थी, तब शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज ने प्रधानमंत्री को शिव के अवतार के बारे में बताया था।

2022 में राजस्थान में पिछली विधानसभा में बीजेपी सांसद ज्ञानचंद पारक ने विधानसभा में कहा था कि मोदी महादेव के अवतार हैं. वैसे, भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष कृपाल परमार ने तत्कालीन मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को कृष्ण अवतार के बारे में बताया था. हिमाचल मंडी लोकसभा से राम स्वरूप शर्मा ने प्रधानमंत्री को कृष्ण अवतार के बारे में बताया है. यद्यपि तत्कालीन राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री से कहा है कि धर्म में आप अपना भगवान नहीं चुनते, बल्कि आपको अपना भगवान चुनने से मिलता है। सेवक के चरणों के चारों ओर प्रजा ने सूक्ष्म रूप धारण कर लिया है। और प्रजा का सेवक राजा अवतार के रूप में बढ़ रहा है। जिस लोकतांत्रिक सुख के लिए भारत ने 100 साल संघर्ष किया, वह 10 साल में ही उसे छोड़कर हिंदू सुख में फंस गया है। चंपत राय प्रधानमंत्री को राजा मानते हैं, विष्णु का अवतार। भारत में धर्म तंत्र चल रहा है। लोक तंत्र अब खिड़की पर लटका हुआ पर्दा मात्र है।

क्या प्रधानमंत्री भी चाहते हैं कि उन्हें अवतार के रूप में पेश किया जाए? लोकतंत्र में नेता दूसरे नेताओं से बेहतर नेता होने का दावा करता है। वह भगवान होने का दावा नहीं करता। खुद प्रधानमंत्री भी इसी भाषा में बात करने लगे हैं कि भगवान ने उन्हें किस काम के लिए चुना है। कुछ दिनों में स्थिति ऐसी हो जाएगी कि हम नेता का इंतजार करेंगे। वह रामलीला के पात्रों के कपड़े पहनकर हमारे बीच आएगा। रामलीला में हम अभी भी यही सोचते हैं कि सामने वाला व्यक्ति कलाकार है। लेकिन यहाँ हम क्या करेंगे जब नेता ही खुद को भगवान या भगवान का प्रतिनिधि कहने लगे? रामलीला में कलाकार और दर्शक के बीच की रेखा बहुत साफ़ होती है। नाटक खत्म हो चुका है, सब अपने-अपने काम पर, अपने-अपने घर पर हैं। लेकिन राजनीति ने धर्म को इस तरह लपेट लिया है कि आम आदमी भी धर्म की तरह घर में इसका नाम लेने लगा है। इन दिनों प्रधानमंत्री किसी न किसी मंदिर में दर्शन के लिए जा रहे हैं। नासिक के कालाराम मंदिर गए तो आंध्र प्रदेश के वीरभद्र मंदिर लेपाक्षी गए।

रवीश कुमार का यह भी कहना है कि आजकल  खबरें खत्म हो गई हैं, अब प्रधानमंत्री खुद खबर बनकर घूम रहे हैं। हमने पीएमओ की साइट पर जाकर देखा कि 12 अक्टूबर से 23 नवंबर के बीच प्रधानमंत्री 10 मंदिरों में पूजा-अर्चना और दर्शन के लिए गए हैं। वह हर चार दिन में एक मंदिर जाते हैं। चुनाव आते नहीं कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के नेताओं के दौरे बढ़ जाते हैं। अब प्रधानमंत्री भी इस प्रक्रिया में शामिल हो गए हैं। राजस्थान चुनाव के दौरान उन्होंने रिकॉर्ड स्तर पर अलग-अलग मंदिरों में दर्शन किए।

क्या भारत की जनता को इस बात की परवाह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट में क्या हो रहा है? क्या इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चुनाव समिति में सिर्फ़ सरकार की ही चलती है? क्या इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार की कमाई और खर्च का हिसाब-किताब रखने वाली संस्था CAG अब संसद में कम रिपोर्ट पेश कर रही है? दूसरी तरफ़ कुछेक बिलों को विपक्ष के बिना पास कराने के भाव से   2023/24 में संसद के दोनों तरफ़ से विपक्ष के सांसदों को निलंबित किया गया।

प्रधानमंत्री ने 10 साल में खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं की? सवालों के जवाब क्यों नहीं दिए? और यदि प्रेस कॉन्फ्रेंस के नाम पर कुछ किया जाता है तो वह केवल दिखावी ही होता है। इन दिनों मंदिरों का उद्घाटन, कॉरिडोर के नाम पर मंदिरों का विकास, इन्होंने एक नई राह पकड़ ली है। अब इस लहर में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी शामिल हो गए हैं। ओडिशा दिल्ली की राजनीति से दूर एक राज्य था। लेकिन वहां भी यह तूफान जारी है। दिल्ली के अखबारों में विज्ञापन छपे हैं। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने जगन्नाथ हेरिटेज कॉरिडोर परियोजना का शुभारंभ किया है। इस पर 943 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। साथ ही एक महीने तक आध्यात्मिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाएंगे। जैसे आम आदमी पार्टी दिल्ली में सुंदर पाठ का आयोजन कर रही है। और पूरे देश में बीजेपी को आमंत्रित किया जा रहा है। अपनी योजनाओं को धार्मिक रूप देना और धार्मिक कार्यों को योजनाओं का रूप देना प्रधानमंत्री की राजनीति का केंद्रीय तत्व बनता जा रहा है। योजनाओं की विफलता का सवाल पूछते ही वे धर्म के रूप में भगवान बनकर सामने आ जाते हैं। भगवान से कोई सवाल कैसे पूछ सकता है? भगवान से पूछा जाता है। 80 करोड़ लोगों को 5 साल तक मुफ्त भोजन की गारंटी दी गई है। प्रधानमंत्री ने भारत के प्रधानमंत्री की स्थिति और स्वरूप को बदल दिया है। अत्यंत व्यस्त प्रधानमंत्री दार्शनिक और धार्मिक होने की चाहत से घिरे हुए हैं। उन्होंने सबसे पहले जनता को परिवार बताया। और उस जनता के सामने अब उन्हें अवतार कहा जा रहा है। प्रधानमंत्री एकता के पुराने भावों को नई थाली में परोस रहे हैं। वे दार्शनिक, धार्मिक राजनेता बन रहे हैं। पिछ्ले कुछ सालों से यह देखा गया है कि उनके भाषणों के जरिए बेशक उनकी पहचान धार्मिक राजनीति से रही है। लेकिन सुशासन पर जोर देकर वे जनता के बीच एक कामकाजी प्रधानमंत्री की तरह ही पेश आते रहे हैं। शुरूआती दौर में उनके ऐसे भी भाषण हैं जिनमें महज काम, काम और काम की बात करते …करते दिखे हैं।… एक बार भी धर्म का ज़िक्र नहीं किया। लेकिन वर्तमान में प्रधानमंत्री के भाषणों केवाल धर्म, धर्म और धर्म ही दिखाई देता है। मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस, सुशासन का उनका नारा विकास की विरासत में कहीं खो गया है। विकास से जुड़े सारे सवाल दीवारों से तब लौटकर आते हैं जब आप उन्हें नहीं ढूंढ़ते।

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आजकल उनका हरेक भाषण  धार्मिक लाभांश के रूप में देखा जाता है। वे अब धर्म के क्षेत्र में विकास की तलाश कर रहे हैं। पिछले दस सालों से प्रधानमंत्री को मंदिरों और धार्मिक पोशाक के बिना पहचाना नहीं जा सकता। उनकी तपस्या, उपवास, मोर को दाना खिलाना, गायों को दुलारना, ये सब खबरें अब मुख्य समाचार बन गई हैं। 2024 का चुनाव जैसे पूरी तरह धर्म की आड़ में हुआ।  शायद लोक्सभा चुनाव जीतने के मकसद से ही नए संसद भवन  के उद्घाटन के दौरान एक धर्मनिर्पेक्ष देश में केवल हिंदू रीति-रिवाजों लोक सभा में एक सेंगोल लाया गया जो बेशक राजतंत्र का प्रतीक है। इस सेंगोल के इर्द-गिर्द पत्रकारों की भाषा भी पुरोहित और पुरोहिती वाली हो गई। और प्रधानमंत्री खुद को राष्ट्रीय पुरोहित के रूप में पेश कर दिया गया। एक बार फिर  उन्हें 22 जनवरी 2024  को यानि अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर के उदधाटन के समय इसी रूप में देखे गए। किंतु राष्ट्रीय पुरोहित अब अच्छे नहीं लगते। अवतार बहुत अच्छा और बहुत मजबूत उपाधि है। संगोल को राजा के दैवीय अधिकार का प्रतीक माना जाता है। देवी राजा को सेंगोल देती हैं ताकि वह उनके नाम पर शासन कर सके। दावा किया गया कि सेंगोल न्याय की याद दिलाता है। संगोल की स्थापना के बाद प्रधानमंत्री ने अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि नेहरू ने इसे ‘लाठी’ बना दिया था। लेकिन द वायर के लिए मीतू जैन ने रिपोर्ट किया कि यह गलत है। आनंद भवन में जहाँ यह छड़ी रखी गई थी, वहाँ सिर्फ़ छड़ी लिखा था, नेहरू का नाम तक नहीं था। सेंगोल राजा बन गया और अब राजा से विष्णु बन गया। प्रचार बहुत तेज है। प्रधानमंत्री जी को बधाई। झूठ आज भारत की राजनीति की सबसे बड़ी पूंजी और संपदा है।

एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि हत्या के ज्यादातर आरोपी भाजपा के सांसद हैं। भाजपा के 36 प्रतिशत सांसदों पर आपराधिक मामले हैं। प्रधानमंत्री ने भी 2014 के भाषणों में कहा था कि चाहे भाजपा के सांसद ही क्यों न हों, एक साल में उनके मामलों पर फैसला होगा। ऐसी व्यवस्था होगी। लेकिन जब बृजभूषण सिंह पर आरोप लगे तो प्रधानमंत्री एक साल तक अपने सांसद के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाए। नतीजा यह हुआ कि आरोपी खिलाड़ी खेल छोड़कर चला गए। प्रधानमंत्री ने सांसद को मंदिर बताया। उनका सिर सीढ़ियों पर नहीं आया। लेकिन उसी सांसद का रिकॉर्ड इस भावना के बिल्कुल उलट है। 2019 से लेकर आज तक कम से कम 149 बार सांसदों को निलंबित किया गया है। पिछले 2023, 26 जुलाई को 19 सांसदों को एक हफ़्ते के लिए राज्यसभा से निलंबित कर दिया गया था। वे महंगाई और जीएसटी में वृद्धि के बारे में बहस कर रहे थे। मणिपुर हिंसा दिल्ली सेवा विधेयक पर सरकार से जवाब मांग रही थी। 29 नवंबर 2021 को सर्दियों के पहले दिन 12 विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया गया। 2020 के मानसून में 8 राज्यसभा सांसदों को निलंबित किया गया था। 5 मार्च 2020 को 5 राज्यसभा सांसदों को निलंबित कर दिया गया था। कांग्रेस के ये सांसद राजस्थान के एक सांसद के बयान का विरोध कर रहे थे, जिन्होंने कहा था कि इस बात की जांच होनी चाहिए कि कहीं सोनिया गांधी के घर से कोरोना वायरस तो नहीं फैल रहा है। 25 नवंबर 2019 को लोकसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस के दो सांसदों को निलंबित कर दिया था। वे देवेंद्र फरहान विज की शपथ लेने की साजिश का विरोध कर रहे थे। मोदी काल में तो विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी कम मंदिर नहीं गए। लेकिन वे उस मूल सिद्धांत पर लौट आए हैं जहां धर्म की आड़ में आकर राजनीति को लोकतंत्र की कठपुतली के रूप में देखा जाता है।

अभी हाल ही में 24.01.2025 को JPC: वक्फ संशोधन बिल पर जेपीसी की बैठक में हंगामे के बाद भारतीय जनता पार्टी के सांसद निशिकांत दुबे के प्रस्ताव पर सभी 10 विपक्षी सांसद दिनभर के लिए समिति की सदस्यता से निलंबित कर दिया। इससे पहले बैठक के दौरान विपक्षी सदस्यों ने दावा किया कि उन्हें मसौदा कानून में प्रस्तावित बदलावों का अध्ययन करने के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया जा रहा है। निलंबित विपक्षी सांसदों में कल्याण बनर्जी, मोहम्मद जावेद, ए राजा, असदुद्दीन ओवैसी, नासिर हुसैन, मोहिबुल्लाह, एम अब्दुल्ला, अरविंद सावंत, नदीमुल हक, इमरान मसूद शामिल हैं।

जो धर्म में विश्वास करता है, उसका धर्म के साथ व्यक्तिगत संबंध होता है। वह अपने जीवन में धर्म का उपयोग करता है। उसका धर्म के साथ सार्वजनिक संबंध होता है। धर्म को धारण करने वाला धर्म का लाभ उठाने की कोशिश करता है। किंतु मैं धर्म में विश्वास नहीं रखता फिर भी मैं अपना जीवन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार जीने की कोशिश करता हूँ। इसलिए, मैं लोगों के साथ सही व्यवहार करता हूँ। मैं लोगों का सम्मान करता हूँ। जब कोई मुझसे कुछ कहता है तो मैं अहंकार से नहीं बोलता, उसकी बात सुनता हूं, नफरत नहीं फैलाता। क्षमा करें….  धार्मिक व्यवस्था में जज कोई फैसला नहीं सुनाएगा। अगर आप किसी एक धर्म के मामले में अदालतों के फैसलों को देखेंगे तो ऐसा लगेगा कि अब उच्च न्यायालय भी धार्मिक न्यायालय बन गया है। यहाँ मेरा निवेदन है कि अब कई विधान सभाई चुनाव आ रहे हैं। कम से कम अब तो अपनी-अपनी जेबों  पर  नज़र रखना। चुनाव आ रहे हैं। इन चुनावों इस बार फिर जेब कटने वाली है। सच बात तो ये है कि अगर धार्मिक चरित्र लोकतांत्रिक चरित्र पर हावी हो जाए तो लोकतंत्र नाटक बन जाएगा। और धर्म भी एक दिन नाटक नजर आने लगेगा। लोग हिंदू सुख की तलाश में  लोकतांत्रिक सुख खोते जा रहे।

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