मनुवाद से राष्ट्र चलाने की नियत से संविधान बदलने की साजिश की जा रही है

मनुवाद से राष्ट्र चलाने की नियत से संविधान बदलने की साजिश की जा रही है

रोजमर्रा की दिनचर्या में न जाने कितनी प्रकार के ख़याल आते-जाते हैं, इतना ही नहीं नित्य-प्रति न जाने कितनी ही घरेलू से लेकर राष्ट्र की समस्‍याओं से रुबरू होना पड़ता है। चिंतन-मनन की रह-रह कर सुलझती और उलझती गुत्थियों में अनायास ही समाधान के उत्‍कृष्‍ट तरीके बनते /बिगड़टे  नज़र आते-जाते हैं। बहुत से मूल्‍यवान निष्‍कर्ष जब कागज पर नहीं लिखे जा पाते हैं, तो उनकी आकस्मिक मृत्‍यु मन को दुखा जाती है। लेकिन यदि कागज पर उतर आते हैं तो समाज को जितना अब तक समझा जा चुका है, उससे आगे सोचने का मार्ग प्रशस्त होता है।  नित्य-प्रति समाज और देश से जुडना, नित्य-प्रति  समाज और देश से निजी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष  मुलाकातें और नित्य-प्रति की नई वैचारिक उधेड़-बुन, जब आगे तक जाती हैं, तो अपनी सही और व्‍याप्‍क भूमिका अदा करती हैं।

एक सच्चे लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति के मत/वोट का मूल्य बराबर होता है । इसका निर्धारण मतदाता की जाति, धर्म, लिंग, भाषा, या सामाजिक, आर्थिक स्थिति से नहीं किया जाता। लोकतंत्र की एक अन्य विशेषता कानून का शासन (rule of law) है। जिसके लिए लोकतंत्र की एक अहम शर्त यह है कि चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष हों।

किंतु आज के भारत में जैसे लोकतंत्र की परिभाषा बदल गई है। देश की लोकशाही पर तानाशाही हावी होती जा रही है। फलत: जनता और सत्ता के बीच अलगाव जैसी स्थिति बनती जा रही है। सत्ताधारी भाजपा और इसकी पैत्रिक संस्था येन-केन प्रकारेण संविधान को बदलने की जुगत लगाती रहती है।

यूँ तो संविधान को बदलने का आर. एस. एस (भाजपा) का कोई नया एजेंडा नही है। भारतीय संविधान भारत की शान है, लेकिन अब इसी संविधान  को बदलने की मांग उठने लगी है।  लेकिन अब सरकार में बैठे कुछ बड़े पदों पर बैठे लोग भी संविधान  को बदलने की मांग करने लगी है।

ये व्यक्ति कोई ऐसा वैसा व्यक्ति नहीं है, जो इस तरह की हरकत कर रहा हो। विवेक देबरोय प्रधानमंत्री की सलाहकार समिति का अध्यक्ष है, वो Economic Advisory Council का चेरमेन भी है।  इसलिए ये मामला बेहद अहम हो जाता है  कि भारत के संविधान को बदलने की मांग कहां से हो रही है।

आप सब जानते होंगे कि जब अटल बिहारी वाजपेयी  सरकार में प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने भी संविधान समीक्षा के बहाने एक समिति बनाई थी और उसको ये काम सोंपा गया था कि वो भारतीय संविधान की समीक्षा करे ताकि संविधान को बदला जा सके किंतु बाद में  उनकी सरकार चली गई। इस प्रकार उनका काम अधूरा रह गया।  लेकिन भारतीय संविधान को आज भी बदलने की कोशिशें जारी हैं।

ज्ञात हो कि भारतीय संविधान  सभी को समानता, न्याय की गारंटी देता है,  सबको मताधिकार देता है,  सबको हर काम करने, अपने मन से घूमने-फिरने, अपनी वाणी की अभिव्यक्ति, धर्म की आस्था की आजादी देता है जो भाजपा और भाजपा की पैत्रिक संस्था आर एस एस उसको बदलना चाहती है। संघी सोच के लोग भारत के संविधान को मानते ही नहीं हैं लेकिन  भारत का संविधान  इस देश का सबसे बड़ा कानून है कितु संघ परिवार संविधान को बदल देना चाहता है।  यहां तक कि बहुत सारे लोग जो हिंदुत्व की राजनीती करने वाले कटरपंथी लोग हैं, वो तो ये भी दावा करते हैं कि मनुस्मृति को लागू किया जाना करना चाहिए  जो हिंदु धर्म के पैरोकारों का विवादित ग्रंथ है।

संविधान को बदलने की बात को लेकर भड़के विपक्ष  ने कहा- बीजेपी-R SS की घृणित सोच आई सामने आई है। इस पर न तो आर एस एस की कोई टिप्प्णी आई है और न ही भाजपा सरकार की।  प्रधानमंत्री मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन विबेक  देबरॉय ने एक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने देश को नया संविधान दिए जाने की जरूरत बताई है।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन विबेक  देबरॉय के संविधान को लेकर लिखे एक लेख पर राजनीतिक घमासान शुरू हो गया है।

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जेडीयू के राष्ट्रीय महासचिव राजीव रंजन

जेडीयू और आरजेडी ने लेख को लेकर बीजेपी पर हमला बोला है। जेडीयू के राष्ट्रीय सचिव राजीव रंजन ने कहा, विबेक  देबरॉय ने जो कहा है उसने बीजेपी, RSS के घृणित सोच को फिर सामने ला दिया है। राजीव रंजन ने कहा, इस तरह की कोशिशों को भारत कभी स्वीकार नहीं करेगा। उन्होंने भारत के संविधान को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान बताया और कहा कि विबेक  देबरॉय सरकार की चाटुकारिता कर रहे हैं। जेडीयू नेता ने कहा, विबेक  देबरॉय कभी भी आर्थिक नीतियों पर विचार व्यक्त नहीं कर पाते लेकिन दूसरे क्षेत्रों के विषयों पर चर्चा करते हैं जिसकी जानकारी उनको नहीं है। वहीं, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेता और राज्यसभा सांसद मनोज झा ने कहा, ये विबेक  देबरॉय की ज़ुबान से बुलवाया गया है। ठहरे हुए पानी में कंकड़ डालो और अगर लहर पैदा हो रही तो और डालो और फिर कहो कि अरे! ये मांग उठने लगी है। मनोज झा ने कहा, संवैधानिक मूल्य पूर्णतः अधिनायकवाद का लाइसेंस इन्हें नहीं दे रहा है इसलिए खटक रहा है। संशोधन और पूरा संविधान बदलने में अंतर हैं। आरजेडी नेता ने कहा, मोदी जी के देश में असामनता चरम पर है। विधान बदलने की ज़रूरत है संविधान बदलने की नहीं। झा ने आगे कहा, ये चाहते हैं कि वैसा कानून बने, जहां के राजा के मुख से निकला शब्द ही कानून हो। माला डाल देने से विचार आत्मसात नहीं होते जब से केंद्र में बीजेपी सरकार सत्तारूढ़ हुई है, उसके मंत्री, जन प्रतिनिधि और नेता समय-समय पर अजीबोगरीब बातें करते रहते हैं। कभी कोई देश की राजनीतिक व्यवस्था के बारे में, कभी कोई संविधान के बारे में कुछ भी बोल देता है तो कभी कोई समाज के कमजोर और अल्पसंख्यक तबकों को धमका देता है। इस प्रकार की मौखिक अराजकता को लेकर दिख रही चुप्पी गैर-जिम्मेदार लोगों का हौसला बढ़ा रही है। ऐसा लगता है जैसे देश में राजतंत्र चल रहा हो और बीजेपी के नेता यहां जीवन भर अपना शासन चलाने के लिए अधिकृत कर दिए गए हों। आश्चर्य है कि इनकी अनर्गल बयानबाजी को कोई नियंत्रित करने वाला भी नहीं है। एकाध बार प्रधानमंत्री ने घुमा-फिराकर इसकी आलोचना जरूर की, पर उसके बाद वह प्राय: चुप ही रहे हैं। दरअसल संविधान पर पुनर्विचार आरएसएस का ‘हिडेन एजेंडा’ है।

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संघ प्रमुख मोहन भागवत

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए। हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित हैं और इसे बदले जाने की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि आज़ादी के 70 साल बाद इस पर ग़ौर किया जाना चाहिए। ‘संविधान पर पुनर्विचार आरएसएस का ‘हिडेन एजेंडा’ है’। संघ का तर्क है कि संविधान तो बीच बीच में बदला जाता है, कई बार इसमें संशोधन हुए हैं, लेकिन सवाल ये है कि आरएसएस किस तरह के बदलावों की बात कर रहा है वो सेक्यूलर संविधान को ख़त्म करके हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। इसकी तो इजाज़त ही नहीं है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कई फ़ैसलों में कहा है कि धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का मूल आधार है और इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता।  चाहे उनके पास दो तिहाई बहुमत ही क्यों ना हो, संविधान को इस तरह से नहीं बदला जा सकता कि उसके मूल आधार ही ख़त्म हो जाए। धर्मनिरपेक्षता को संविधान का मूल स्तंभ माना गया है।

किंतु देश के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के साथ लोकसभा के स्पीकर ओम बिड़ला ने गए दिनों में  जयपुर में जिस तरह से विधायिका के कार्यक्षेत्र में न्यायिक अतिक्रमण का सवाल उठाया, वह सामान्य नहीं है। दोनों ने पीठासीन अधिकारियों के दो दिवसीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए यह बात कही कि जिस तरह से विधायिका न्यायिक फैसले नहीं दे सकती, उसी तरह न्यायपालिका को भी कानून बनाने का अधिकार हड़पने की कोशिशों से बचना चाहिए। ध्यान रहे, राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ खुद एक अच्छे वकील रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस भी कर चुके हैं। ऐसे में उनका यह कहना मायने रखता है कि संविधान की बुनियादी संरचना की अक्षुण्ता से जुड़े बहुचर्चित केशवानंद भारती मामले में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत परंपरा स्थापित करता है। उनकी दलील है कि लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है। ऐसे में संसद में पारित किए गए कानून को कोई दूसरी संस्था अमान्य करार दे तो फिर संसदीय सर्वोच्चता रह कहां जाती है।

दूसरी बात यह है कि चाहे संसदीय सर्वोच्चता का सिद्धांत हो या न्यायपालिका की स्वतंत्रता का, भारतीय शासन व्यवस्था के संदर्भ में, इन सबका मूल स्रोत देश का संविधान ही है। शासन के सभी महत्वपूर्ण अंग संविधान से ही शक्ति लेते हैं। इसलिए संविधान की सर्वोच्चता असंदिग्ध और निर्विवाद है। न्यायपालिका इसी संविधान की संरक्षक है। संविधान की व्याख्या करने की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर डाली गई है। जाहिर है, सरकार के किसी फैसले या संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून को संविधान की कसौटी पर कसना न्यायपालिका का अधिकार ही नहीं, उसकी जिम्मेदारी है। किसी भी दलील से उसे इस जिम्मेदारी से रोकने की कोशिश उचित नहीं कही जाएगी।

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कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदम्बरम

मूल संरचना सिद्धांत पर जोर देते हुए चिदंबरम ने कहा, “मान लीजिए कि संसद ने बहुमत से संसदीय प्रणाली को खत्म करते हुए राष्ट्रपति प्रणाली में बदलने के लिए वोट कर किया या अनुसूची VII से राज्य सूची को निरस्त कर दिया और राज्यों की अनन्य विधायी शक्तियों को खत्म कर दिया। ऐसे में क्या ये संशोधन मान्य होंगे? पार्टी के वरिष्ठ नेता चिदंबरम ने यह दावा भी किया कि धनखड़ की टिप्पणी के बाद संविधान से प्रेम करने वाले हर नागरिक को आगे के खतरों को लेकर सजग हो जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “असल में सभापति के विचार सुनने के बाद हर संविधान प्रेमी नागरिक को आगे के खतरों को लेकर सजग हो जाना चाहिए।”

यह कोई नई बात नहीं है जब से मोदी के नेतृत्व में भाजपा की केन्द्रीय सरकार बनी है, तब से ही संविधान की अवमानना के मामलों में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। हाल ही में मोदी सरकार के मंत्री अनंत हेगड़े ने  एक बार फिर से विवादित बयान दिया है। बैंग्लोर में एक कार्यक्रम के दौरान अनंत हेगड़े ने कहा कि ‘बीजेपी सत्ता में संविधान बदलने के लिए ही आई है।’ इसके साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि जो लोग खुद को धर्मनिरपेक्ष और बुद्धिजीवी मानते हैं, उनकी खुद की कोई पहचान नहीं होती।  (कर्नाटक)। बीजेपी सांसद अनंत कुमार हेगड़े ने रविवार को कहा कि संविधान में संशोधन के लिए पार्टी को लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत सुनिश्चित करना होगा। हेगड़े ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा, “संविधान में संशोधन करने और कांग्रेस द्वारा इसमें की गई विकृतियों और अनावश्यक रूप से जोड़ी गई चीजों को हटाने के लिए भाजपा को संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता है।

भाजपा को इसके लिए 20 से अधिक राज्यों में भी सत्ता में आना होगा।”  इससे पूर्व भी उत्तर कन्नड़ से 5 बार लोकसभा सांसद रहे अनंत हेगड़े ने सोमवार को कहा कि ‘मुझे खुशी होगी कि अगर कोई गर्व के साथ ये दावा करे कि वो मुस्लिम, ईसाई, ब्राह्मण या हिंदू है, क्योंकि वो अपनी रगों में बह रहे खून के बारे में जानता है।’ उन्होंने आगे कहा कि ‘लेकिन मुझे ये नहीं पता कि उन्हें क्या कहकर बुलाया जाए, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं। ‘ कोप्पल जिले के कूकानूर में एक कार्यक्रम में बोलते हुए अनंत हेगड़े ने कहा कि ‘वो लोग जो खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, उनकी खुद की कोई पहचान नहीं होती, लेकिन वो बुद्धिजीवी होते हैं।’

अनंत हेगड़े ने आगे कहा कि ‘मैं आपके आगे सिर झुकाउंगा, क्योंकि आपको अपनी रगों में बहने वाले खून का पता है। अगर आप धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते हैं, तो आप कौन हैं, इसको लेकर संदेह पैदा होता है।’  उन्होंने आगे कहा कि ‘हम संविधान का सम्मान करते हैं, लेकिन ये आने वाले दिनों में संविधान बदला जाएगा।  हम संविधान बदलने ही आए हैं। हेगड़े ने संविधान की प्रस्तावना पर सीधा हमला किया है। कर्नाटक के कोप्पल ज़िले में रविवार को ब्राह्मण युवा परिषद के कार्यक्रम में बोलते हुए ‘सेक्युलरिज़्म’ का विचार उनके निशाने पर था। यहाँ यह सवाल उठता है कि क्या सरकार  ‘सेक्युलर’  शब्द को संविधान से हटा सकती है?  जैसी इच्छा केंद्रीय राज्य मंत्री अनंतकुमार हेगड़े ने जताई है? माना कि अब तक संविधान में अनेक संशोधन किए जा चुके हैं, लेकिन क्या संसद को यह अधिकार है कि वह संविधान की मूल प्रस्तावना को बदल सके?

विदित हो कि 1973 में पहली बार यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के सामने आया था। मुख्य न्यायाधीश एस एम सिकरी की अध्यक्षता वाली 13 जजों की बेंच ने इस मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया था। यह केस था- ‘केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरला’, जिसकी सुनवाई 68 दिनों तक चली थी। संविधान के आर्टिकल 368 के हिसाब से संसद संविधान में संशोधन कर सकती है। लेकिन इसकी सीमा क्या है? जब 1973 में यह केस सुप्रीम कोर्ट में सुना गया तो जजों की राय बंटी हुई थी। लेकिन सात जजों के बहुमत से फैसला दिया गया कि संसद की शक्ति संविधान संशोधन करने की तो है लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है। कोई भी संशोधन प्रस्तावना की भावना के खिलाफ़ नहीं हो सकता है।

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भारतीय सविधान की प्रस्तावना

यह केस इसलिए भी ऐतिहासिक रहा क्योंकि इसने संविधान को सर्वोपरि माना। न्यायिक समीक्षा, पंथनिरपेक्षता, स्वतंत्र चुनाव व्यवस्था और लोकतंत्र को संविधान का मूल ढांचा कहा और साफ़ किया कि संसद की शक्तियां संविधान के मूल ढांचे को बिगाड़ नहीं सकतीं। संविधान की प्रस्तावना इसकी आत्मा है और पूरा संविधान इसी पर आधारित है। यूं भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी एक बार 1976 में संशोधन किया गया है जिसमें ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को शामिल किया गया। लेकिन इससे पहले भी ‘पंथनिरपेक्षता’ का भाव प्रस्तावना में शामिल था। यानी भारत के संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्षता हमेशा से है। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता और समानता का अधिकार पहले से ही लिखित है। 1976 के 42वें संशोधन में ‘सेक्युलर’ शब्द को जोड़कर सिर्फ इसे ही स्पष्ट किया गया था।

नवभारत टाइम्स के मत से कि जब देश के नीति-निर्माता सरकारी मंचों से अपराधियों की भाषा बोलने लगें तो फिर देश का भविष्य क्या होगा?, कत्तई सहमत हुआ जा सकता है। एक समय था यदि कोई नेता संविधान या व्यवस्था को लेकर जरा भी हल्की बात कह देता तो लोग उस पर आपत्ति करते थे। लेकिन अभी लोग भी चुप हैं। उनको समझना होगा कि यह सिलसिला जारी रहा तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब संविधान से मिले अधिकारों पर कैंची चलाने की कोशिशें गंभीरता से शुरू हो जाएंगी।

दरअसल आर एस एस और भाजपा को संविधान की आत्मा से कोई खास परहेज नहीं है। इनकी दिक्कत ये है कि संविधान निर्माता के रूप में बाबा साहेब डा। अम्बेडकर का नाम संविधान से जुड़ा है। ये मौके-बेमौके दलित बस्तियों में समरसता भोज तो आयोजित करते हैं लेकिन छूआछूत और शोषण की पैरोकार वर्णव्यवस्था के ख़िलाफ़ चुप क्यों रहते हैं?  संविधान समीक्षा करने के बहाने आर एस एस का जो मूल मकसद है, वो है –  भारतीय संविधान के रचियता के रूप में बाबा साहेब अम्बेडकर का होना। आर एस एस अथवा समस्त हिन्दूवादी संगठन केवल इस बात को लेकर ही ज्यादा परेशान हैं इसलिए नहीं कि संविधान अच्छा या बुरा है।

यथोक्त की आलोक में समाज के बहुजनों/अल्पसंख्यकों और संविधान में विश्वास रखने वालो लोगों को आपसी मतभेद भुलाकर संविधान को बचाने के लिए काम करना होगा। और वह काम है – 2024 के आमचुनावों में वर्तमान सत्ताधारी राजनीतिक दल को सता से बाहर करना।    प्रत्येक वर्ष 26 नवंबर को संविधान दिवस और संविधान दिवस पर जो हजारों प्रकार की यात्राएं;  संविधान को घर घर बांटना;  संविधान को बचाने  के लिए बड़-बड़े सम्मेलन करना; संविधान बचाओ के नारे लगाना; संविधान बचाओ संघर्ष समिति गठित करना; संविधान का ये,  संविधान का वो क्या। किंतु  इस पर तरह तरह से गहराई से  कोई बात नहीं करना चाहता। संविधान बचाने का एक नया काम मिल गया है लोगों को। पैसा इकट्ठा करने का, अपने संगठन के अस्तित्व को बचाने के लिए कार्यक्रम लगाने का, अपनी नेतागिरी चमकाने की,  चुनाव लड़्ने के अपने टिकट पक्का करने का, अपनी फोटो खिंचवाने  का, संविधान के साथ अपना फोटो के साथ लगाने का, अपनी-अपनी करनी नाकरनी की चर्चा करने का, एक नया काम और मिल गया। कुछ दिन पहले तक यही लोग आरक्षण बचा रहे थे। अभी आरक्षण  बचाने का जिक्र कोई नहीं करता। आरक्षण बचाओ, संघर्ष समिति, आरक्षण बचाओ मेला, आरक्षण बचाओ अभियान, आरक्षण ऐसा।।। आरक्षण वैसा करना सब कुछ  भूल गए।

अब संविधान को बचाने का नया काम आ गया। जो लोग पुराने हैं उन्हें  याद होगा कि  इससे पहले लोग एट्रोसिटीज़/ उत्पीड़न बचाने के लिए उत्पीड़न विरोधी आंदोलन, उत्पीड़न विरोधी  सम्मेलन, इकट्ठे होने का आह्वान करने तथा इसके लिए संगोष्ठियां सारे काम करते थे। आए रोज नेता नए नए मुद्दों को पकड़ लेते हैं। जैसे आरक्षण नहीं बचा, वैसे ही संविधान भी नहीं बचेगा अगर संविधान खतरे में है। तो पता कर लेना चाहिए कि संविधान खतरे में है या नहीं है? संविधान बचेगा तो कैसे बचेगा इस प्रकार की बात करते नजर आते है। भारत में इस बात के लिए जितने संगठन है आपस में बैठकर बात करने की वकालत करनी होगी। अलग-अलग छोटे-छोटे मुद्दों को भुलाकर आपस में एक दूसरे से उलझने से बचना होगा ताकि तमाम संगठन आपस मिलकर संविधान को बचाने के लिए काम किया जा सके। अन्यथा समाज के दलित/दमित/अल्पसंख्यकों/ अन्य समाज के गरीब तबकों को मनुस्मृति में उल्लिखित समाज विरोधी प्रावधानों का पुन: शिकर होना पड़ेगा।

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