बाबरी से मुरादाबाद वाया रतलाम : बाड़ाबंदी का अभियान

बाबरी से मुरादाबाद वाया रतलाम : बाड़ाबंदी का अभियान

हादसे वक्त के गुजरने के साथ अपने आप बेअसर नहीं होते, जख्म खुद-ब-खुद नहीं भरते। इसका उलट जरूर होता है, गुनाह अगर सही तरीके से, बिना कोई रू-रियायत किये हिसाब में नहीं लिए जाएँ, तो उनके ढेर से उठने वाली सड़ांध सिर्फ बदबू ही नहीं फैलाती, अनगिनत बीमारियों के संक्रमण का जरिया भी बन जाती है। कभी कभी तो इस कदर, इतनी चौतरफा व्याप्त हो जाती है कि नासमझ होना ही समझदारी और बीमार होना ही अच्छे स्वास्थ्य का लक्षण माना जाने लगता है। यह कालखण्ड कुछ इसी तरह का होने लगा है।

बाबरी मस्जिद के आपराधिक ध्वंस के बाद जो हुआ या योजना बनाकर सिलसिलेवार तरीके से जो किया गया, वह नित नए विषाणुओं के हमलों के रूप में दिखने लगा है। हिन्दू राष्ट्र की विस्फोटक परिकल्पना को सार्वदेशिक बनाने की यात्रा नीचे, एकदम नीचे सुरंगें बिछाकर, पलीते लगाने से शुरू कर दी गयी और मुरादाबाद से वाया रतलाम मुम्बई होते हुए पूरे देश को अलग-अलग घेरों में बाँधने तक आ पहुंची हैं। खुदाई के महाअनुष्ठान का शंख पहले ही फूँका जा चुका था ; आगाज़ संभल की मस्जिद से शुरू होकर अभी अजमेर की दरगाह तक पहुंचा है। कहां-कहाँ जाएगा, यह वक़्त बताएगा। सबसे बड़ी अदालत के सबसे बेतुके फैसले की पूंछ पकड़ कर अब छोटी-मोटी अदालतें भी खुदाई अनुष्ठान में जुट गयी हैं और देश के संविधान, विधिमान्य कानूनों की आहुतियाँ देकर स्वाहा, स्वाहा किये जा रही हैं।

माननीय उच्च न्यायालय के एक ‘माननीय’ न्यायाधीश इस पर अपनी सील मुहर लगाने के लिए इतने तत्पर हुए पड़े हैं कि सारी दिखावटी गरिमा, लाज-शरम खूँटी पर टांगकर विश्व हिन्दू परिषद् जैसे घोषित सांप्रदायिक संगठनों के खूंटे पर जाकर पगुरा रहे हैं और जो बोल रहे हैं, उससे जो थोड़ी बहुत न्यायपालिका की विश्वसनीयता बची थी, उसकी भी आहुति दे रहे हैं। अपने इस आचरण से अधीनस्थ न्यायपालिकाओं में अब तक जो दबी-छुपी बांबी थीं, उनके ढक्कन खोल रहे हैं। संभल, अजमेर बड़े पूजा स्थल हैं, उनके साथ हुआ चर्चा में भी आ जाता है। छोटे गाँवों-कस्बों में इस तरह की कारगुजारियां क्या कहर बरपा करेंगी, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।

हाल में एक और पिटारा मुरादाबाद में खोला गया है। यहाँ के नवधनाढ्यों की एक हाउसिंग सोसायटी में रहने वाले डॉ. बजाज ने अपना मकान एक अन्य काबिल डॉक्टर दंपत्ति को बेच दिया। संयोग से यह दंपत्ति चिकित्सक होने के अलावा मुसलमान भी हैं। मकान का सौदा होते ही बाबेला शुरू हो गया। पहले महिलाओं का प्रदर्शन कराया गया, इसके बाद कुछ पुरुष इकट्ठा हुए और ज्ञापन वगैरा दिए गए। दावा किया गया कि यदि यहां मुस्लिम परिवार रहेगा, तो इस से परेशानी होगी और कानून व्यवस्था बिगड़ सकती है। कहा गया कि हम नहीं चाहते कि कोई दूसरे समुदाय का व्यक्ति इस कालोनी में आकर बसे। यहाँ तक कहा कि हम कॉलोनी वालों ने तय कर लिया है कि किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति के लिए हम कॉलोनी का गेट नहीं खोलेंगे।

यह ठीक वही – घेट्टोआईजेशन – बाड़ाबंदी है, जिसे कोई 90 साल पहले नाज़ी जर्मनी में हिटलर और उसके दस्तों ने आजमाया था ; उसके निशाने पर यहूदी थे, इनके निशाने पर फिलहाल मुसलमान है। ‘दूसरे धर्मों के लोग हमारे साथ नहीं रह सकते, सिर्फ हिन्दू ही रहेंगे’ का आधार नीचे से सुरंगें बिछाकर धर्माधारित राष्ट्र की दुष्ट परिकल्पना को व्यवहार में उतारने की कोशिश है।

आज मुरादाबाद की मकान खरीदी की घटना की वजह से जो विद्रूप तरीके से सामने आ गया, वो अचानक नहीं हुआ है। कुछ समय पहले मुम्बई की एक जैन – जो खुद धार्मिक अल्पसंख्यक हैं – बहुल हाउसिंग सोसायटी में भी यह सब इसी तरह खुलेआम हुआ था। मगर मूलतः यह गुजरात मॉडल है, जहाँ पिछली कुछ वर्षों से इसे गाँव-गाँव करके कई गाँवों और बसाहटों में कहीं एलानिया लिखकर, तो कहीं गुपचुप ही लागू किया गया है।

मोदी जिसे अपना मानते हैं, उस गुजरात में अनेक गाँव ऐसे हैं, जिन्होंने स्वयं को हिन्दू राष्ट्र घोषित ही कर दिया है। अपने गाँवों के बाहर बड़े-बड़े बोर्ड्स लटकाकर उन पर लिख दिया है “हिन्दू राष्ट्रनूं गाँव में आपनूं हार्दिक स्वागत करे छे”, मतलब हिन्दू राष्ट्र के गाँव में आपका हार्दिक स्वागत है!! यह एकाध-दो गाँवों तक सीमित मामला नहीं है, ऐसे अनेक गाँव हैं और यह भी कि जैसा दावा किया जाता है कि यह गाँव के कुछ उत्साही नौजवानों ने किया है, वैसा नहीं है ; इन गाँवों में ‘हिन्दू राष्ट्र का गाँव’ होने की घोषणा करने वाले बोर्ड्स पर विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी के नाम गुदे हुए हैं, कहने की जरूरत नहीं कि ये तीनों संगठन किस के साथ जुड़े हैं। इसलिए इन्हें स्थानीय स्वतःस्फूर्तता मान लेना भुलावे में रहना होगा।

यह वैसा ही झांसा है, जैसा 6 दिसम्बर 92 को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद अगले तीन दिनों में एक एक करके दिए बयानों में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण अडवाणी और आर एस एस के तबके सरकार्यवाह, बाद में सरसंघचालक बने राजेन्द्र सिंह रज्जू भैया ने दिया था और इस कार्यवाही की निंदा करते हुए उसकी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ा था। यह ठीक वैसी ही झूठ बयानी है, जो मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने कुछ समय पहले की थी कि ‘हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूँढना हमारा काम नहीं है।’ वे अपने इस कथन के प्रति कितने गम्भीर थे, यह इन दिनों उन्हीं के कुनबे द्वारा युद्ध स्तर पर शुरू किये जा रहे खुदाई अनुष्ठान से साफ हो जाता है।

यह सिर्फ देखने-सुनने में ही कर्कश और बुरा नहीं है, इसके जो नतीजे निकलने हैं, वे इससे भी ज्यादा खराब होंगे। मानव समाज का निर्माण और सभ्यताओं का विकास बंद बाड़ों से बाहर आने के बाद हुआ है, उसे फिर से अलग-अलग बाड़ों में बंद करके आगे नहीं ले जाया जा सकता, पीछे ही लौटाया जा सकता है। भारतीय समाज के ढाँचे में यह सिर्फ यहीं तक रुकने वाला नहीं है ; इसलिए कि आज जो तर्क मुसलमानों को लेकर दिए जा रहे हैं, वे वही तर्क हैं, जो हमेशा शूद्रों और अन्य कथित निम्न समझे जाने वाले समुदायों और स्त्रियों के बारे में दिए जाते रहे हैं और सिर्फ दिए ही नहीं गए, लागू भी किये जाते रहे हैं।

यह सिर्फ कहासुनी भर की बात नहीं है, ये वे ‘नियम’ हैं, जिन पर वह ‘महान’ बताई जाने वाली संस्कृति पली-बढ़ी, जिसकी पुनर्बहाली इस कुनबे का अंतिम लक्ष्य है आज भी भारत के गाँव और ज्यादातर पुराने शहर इसी तर्ज पर बसे हुए हैं। आज भी शूद्रों के घर गाँव की दक्षिण दिशा में होते हैं और उन्हें दक्खिन टोला कहकर पुकारा जाता है। दक्षिण दिशा अत्यंत अशुभ दिशा मानी जाती है। मनु स्मृति सहित वर्णाश्रमजीवी सभी ग्रन्थ किसे, कहाँ, किस दिशा में बसाया जाना चाहिये, का स्पष्ट प्रावधान करते हैं और चांडालों तथा शूद्रों को बाकी वर्णों के रहने के इलाके से दूर दक्षिण दिशा में रहने को ही ‘धर्मसम्मत’ बताते हैं।

वास्तुशास्त्र सहित कई ग्रन्थ तो और आगे बढ़कर भूमि को भी वर्ण के अनुरूप विभाजित करते हुए श्वेत वर्ण की कोमल भूमि ब्राह्मणी भूमि, दिखने में थोड़ी लाल को क्षत्रिय भूमि, जिस मिट्टी का रंग पीला हो, उसे वैश्य भूमि बताते हुए निर्धारित करता है कि जहाँ की मिट्टी काली हो, वही स्थान शूद्रों का है। वृहसंहिता तो मकान के रंग और उसमे कमरों की संख्या भी तय कर कहती है कि शूद्रों के घर किसी भी हालत में 2 कमरों से अधिक के नहीं होने चाहिए।

ये चंद याद आये उदाहरण हैं, ऐसे अनेक हैं। मुरादाबाद के नवधनाढ्य यदि सिर्फ हिन्दू धर्म के लोगों को ही अपने साथ रखने पर इस कदर जोर देंगे, तो उसी धर्मसम्मत व्यवहार के लिए भी तैयार रहना चाहिए, जिस के आधार पर वे अपना बाड़ा बनाने को आतुर हैं। बात जब शुरू होगी तो यही तक थोड़ी रुकेगी। यह न तो ज्यादा दूर की कौड़ी है, ना ही अब कालातीत हो गयी बात है। नयी और आधुनिक टाउनशिप्स और कालोनियों में बसे लोगों का सामाजिक प्रोफाइल जांचेंगे, तो आज भी विरले ही अपवाद मिलेंगे।

◾ कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से पूरी डिग्री लेकर और लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से आधी पढ़ाई करके वजीफे के साथ हुए अनुबंध की शर्तें पूरी करने बड़ोदा राजघराने की नौकरी करने आये डॉ बी आर अम्बेडकर को अपनी जाति छुपाकर पारसी बनकर कमरा किराए पर लेना पड़ा था। बाद में जाति का पता लगने पर उन्हें घेरकर हमला करने की जो कोशिश हुई थी, वह भी पुरानी कहानी नहीं है।

◾ बनारस में अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी का स्वास्थ्य देखने गए उन्हीं की पार्टी के अध्यक्ष बाबू जगजीवन राम के वापस लौटने पर पंडित जी ने अपने घर का शुद्धीकरण किस तरह किया था, यह भी कोई पाषाण कालीन घटना नहीं है।

◾ अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री न रहने के बाद नए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सीएम हाउस में प्रवेश करने से पहले उसकी इंच-इंच को गंगाजल से धुलवाकर किस तरह ‘पवित्र’ किया था, यह तो अभी-अभी 2017 की बात है। मुरादाबाद में मुस्लिम डॉक्टर के बहाने जो बाड़ाबंदी – घेट्टोआईजेशन – किया जा रहा है, वह अंत में यहीं तक पहुँचने वाला है।

इस तरह के पैकेजों के थोक व्यापारी नौसिखिये नहीं हैं। वे जानते हैं कि दारुण दुःख देने से पहले मति हर लेना, बुद्धि और विवेक का हरण कर लेना जरूरी होता है। गुजरात के जिन गाँवों का जिक्र ऊपर किया है, उनमें भीतर घुसकर देखने पर पता चलता है कि खाना पकाने के लिए स्त्रियाँ जंगल से लकडियाँ बीनकर ला रही हैं, क्योंकि रसोई गैस इतनी महँगी हो गयी है कि उज्ज्वला का सिलेंडर भरवाना उनके लिए संभव नहीं है ; रोजगार की आस में युवा या तो निठल्ले घरों में बैठे हैं या नाममात्र की मजूरी में 12-12 घंटे किसी ठेकेदार की अस्थायी नौकरी में खट रहे हैं, मगर इस सबके बाद भी गाँव को हिन्दू राष्ट्र बनाने में खुश हैं और चाय वाले मोदी के बाद गाय वाले योगी के आने की उम्मीद से तर बैठे हैं। खुद के जीवन की उलझनों से खीजे हुए हैं और उससे उपजी चिढ़ को रतलाम में 6, 9 और 11 साल के मासूम बच्चों को पीट-पीटकर और उनसे ‘जय श्रीराम’ बुलवाकर निकाल रहे हैं ; अपनी कुंठा को इस तरह बहला-सहला रहे हैं।

कवि धूमिल की उपमा में कहें तो : एक आदमी पीट रहा है, दूसरा उसका वीडियो बना फोटू खींच रहा है, तीसरा आदमी इन्ही के पसीने और लहू से अपनी राजनीति की फसल सींच रहा है।

ये तीसरा आदमी कौन है?

इस तीसरे की शिनाख्त करने का सलीका सिखाने के जरिये ही समाज को बाड़ों में बंद करने और सभ्यता के अब तक के हासिल को कुंद करने की साजिशों को विफल किया जा सकता है।

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लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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