कराहते बुन्देलखण्ड में उन्माद भड़काने की मुहिम

कराहते बुन्देलखण्ड में उन्माद भड़काने की मुहिम

इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय तक बागेश्वर धाम के धामाधीश धीरेन्द्र शास्त्री की कथित यात्रा चलायमान है। कहने को इसे हिन्दू धर्म के प्रचार और हिन्दुओं के एकीकरण की धार्मिक उद्देश्यों वाली यात्रा बताया जा रहा है, मगर अपने सार और रूप, संदेश और उदघोष, हर मामले में यह धार्मिक को छोड़कर बाकी सब कुछ है। जिस तरह के बयान इस यात्रा की अगुआई करने वाले दे रहे हैं, जैसी भाषा में उपयोग में ला रहे है, उसे देखकर यह साफ हो जाता है कि यह यात्रा 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद भाजपा द्वारा तय की गयी कार्यनीति का कथित धर्माचार्यों के जरिये कराया जा रहा अमल है। राजनीतिक फिसलन को रोकने के लिए साम्प्रदायिकता की नागफनी लहलहाने, विषबेल फैलाने  की परियोजना है ; उन्माद को उग्र से उग्रतर किये जाने की जी-तोड़ कोशिशें हैं।

 21 नवम्बर को बागेश्वर धाम से शुरू हुई इस यात्रा का आरंभ ही ‘हिंदुओं की एकता, सनातन का वर्चस्व’ ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ के घोष के साथ हुई और जैसे-जैसे आगे बढती गयी, वैसे-वैसे और उग्र वर्तनी में बदलती गयी। अपनी कर्कश बोली के लिए जाने जाने वाले दुर्भाषा धामाधीश ने इस मुहिम का असली मंतव्य छुपाया नहीं और सीधे साम्प्रदायिक राजनीति के जुमलों ; लव जेहाद, लैंड जेहाद पर आ गए। युद्ध जैसा आह्वान करते हुए 1 करोड़ हिन्दुओं की भर्ती का खुला आह्वान किया और कहा कि “100 करोड़ में से यदि 1 करोड़ हिन्दू कट्टर हिन्दू के रूप में एकजुट हो जाएँ, तो एक हजार साल तक सनातन का कब्जा कोई नहीं हटा सकता।”

 इस स्वघोषित हिन्दू एकीकरण के लिए हो रही इस यात्रा का दावा है कि वह जातिवाद और छुआछूत को भी दूर करने के लिए निकली हैं ; ‘पिछडों और बिछड़ों’ से सम्पर्क बनाया जा रहा है, उनकी भीड़ को भंडारों में भोज के लिए जुटा कर इसे सहभोज बताया जा रहा है। हालांकि असली मकसद क्या है — न यह छुपा है, न ही इसे छुपाने की कोशिश ही की जा रही है। यात्रा के दौरान पड़े एक गाँव अलीपुरा का नाम हरिपुरा करने का एलान भी इस धामाधीश ने खड़े-खड़े ही कर दिया।

  यह यात्रा न तो अकस्मात निकली है, ना ही इसमें भागीदारी में कोई स्वतःस्फूर्तता है। पहले से सारी तैयारियां करके ऐसा जताया जा रहा है, जैसे नामचीन लोग और हजारो की भीड़ अपने आप चली आ रही हो ; किसी दिन  फिल्म अभिनेता संजय दत्त दिख रहे हैं, तो किसी दिन खली पहलवान की हाजिरी दर्शाई जा रही है। किसी दिन अमरीका से आया कोई भगत अपनी हाईटेक कार की वजह से अजूबा बनता है, तो कही नेपाली टोपियाँ पहने सौ-सवा सौ लोग पंक्तिबद्ध चलकर इसे नेपाल की भागीदारी वाली यात्रा बता दिया जा रहा है। इस यात्रा के कवरेज के लिए खुद बागेश्वर धाम की मीडिया टीम तो है ही, बाकियों को भी बुलाकर, ठहराकर साधा जा रहा है।

 बागेश्वर धाम के मौजूदा धामाधीश इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के पुरजोर समर्थक हैं, पिछले कई वर्षो से वे इसका एलान करते रहते है ; इसलिए जाहिर है कि वे भाजपा की आँखों के तारे होंगे ही, है भी। मगर सब कुछ कहने-सुनने के बावजूद वे कांग्रेस के भी कम दुलारे नहीं है। इसके नेता कमलनाथ मुख्यमंत्री रहते हुए भी इनके दरबार में ढोक लगा चुके हैं, नकद दक्षिणा देकर उनके प्रवचन अपने छिंदवाड़ा में करवा चुके हैं। इस बार भी उनके साथ यात्रा में सिर्फ भाजपा या उसके संगी-साथी-बाबे इत्यादि ही नही चल रहे, कांग्रेस के विधायक जयवर्धन सिंह भी पहले ही दिन पहुंच गए।

 जयवर्धन सिर्फ विधायक भर नहीं हैं, वे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के पुत्र और उनके राजनीतिक वारिस भी हैं। उनके जाने से ज्यादा चौंकाने वाला उनका बयान था, जो उन्होंने इस यात्रा में चलते हुए दिया। कांग्रेस के इस युवा विधायक ने सिद्धांत जैसा  देते हुए कहा कि “हर धर्म की शुरुआत किसी न किसी स्थान से हुई है और हिन्दू धर्म की शुरुआत भारत से हुई है। इसलिए भारत स्वाभाविक रूप से हिन्दू राष्ट्र है।“ यह ठीक वही बात है, जिसे पहले कभी कमलनाथ ने कहा था।

 ऐसी बातों से कांग्रेस का राजनीतिक-वैचारिक दारिद्र्य और साम्प्रदायिकता की उसकी अधकचरी समझ का नमूना मिल जाता है। यह पता चल जाता है कि उन्होंने महात्मा गाँधी को कितना पढ़ा है, नेहरू को कितना जाना है। जयवर्धन के जाने के बाद तो जैसे बाकी कांग्रेसियों को हरी झंडी ही मिल गयी और जिस पार्टी से संविधान सम्मत अवधारणा के अनुरूप धर्माधारित राष्ट्र के विरोध में जनता को संगठित कर उसे मैदान में उतारने की उम्मीद की जाती है, उसके बड़के नेता हिन्दू राष्ट्र बनाने की चाहत के साथ सडकों पर उतर रहे हैं।

 160 किलोमीटर चलकर 9 दिन में बागेश्वर से ओरछा पहुँचने वाली सनातनी हिन्दू राष्ट्र बनाने की घोषित इच्छा वाली यह यात्रा उस इलाके में घूम रही है, जिसे बुंदेलखंड कहा जाता है। आर्थिक शैक्षणिक और मानव विकास सूचकांक के मामले में भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक यह बुन्देलखंड पिछले 5-7 वर्षो से लगातार सूखे की चपेट में है। खेती लगभग चौपट है, उद्योग धंधे पहले से ही कम थे, जो थे, वे कराह रहे हैं। दीनहीन रोजगार की तलाश में पलायन करने वाले सबसे ज्यादा भारतीय इसी बुंदेलखंड से होते हैं। इतना ही नहीं,  सामाजिक रूप से भी यह इलाका अभी भी सामंती क्रूरता की जकड़न में है। दलितों और स्त्रियों की तो बात ही दूर रही, तुलनात्मक रूप से बेहतर हालात वाली, ओबीसी में आने वाली खेतिहर जातियां सामंतों के जुल्मो-सितम से परेशान है, उनकी यातनाओ के बूटों तले रौंदी जा रही हैं ।

  फिल्मों में दिखाए जाने वाले सामंती जुल्मों वाले इस इलाके से शायद ही ऐसा कोई दिन गुजरता हो, जब कोई न कोई भयावह खबर न आती हो । 

 छतरपुर से निवाड़ी. मऊरानीपुर होते हुए ओरछा पहुँचने वाला यह उन्मादी अभियान जीवन के वास्तविक सवालों को पीछे धकेल अंततः जिस तरह का समाज बनाना चाहता है, खुद ये इलाके और जिनमें ये आते है, वह बुंदेलखंड उसका जीता जागता उदाहरण है। वह इस बात का भी उदाहरण है कि यदि वंचनाओं और यातनाओं को आंदोलनों और संघर्षों में संगठित नहीं किया जाता, तो उनके विडम्बनाओं में तब्दील होने की आशंकाओं के संभावनाओं में बदलने में देर नहीं लगती।

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