लोकतंत्र के लिए खतरनाक है मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला
सर्व विदित है कि मीडिया की समाज में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मीडिया को लोकतांत्रिक व्यवस्था का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है, क्योंकि इसकी जिम्मेदारी देश और लोगों की समस्याओं को सामने लाने के साथ-साथ सरकार के कामकाज पर नजर रखना भी है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मीडिया की कार्यप्रणाली और रुख पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। यह सवाल यह अब आम हो गया है कि मीडिया निरंतर अपना रुख बदल रहा है? मीडिया के नैतिक पक्ष पर अनेक ऐसे सवाल भी उठ रहे हैं जो मीडिया की स्वतंत्रता पर राजनीतिक जकडन का घेरा बन गया है और मीडिया की स्वतंत्रता राजशाही के दबाव में आ गई है।
इसमें दो राय नहीं कि मीडिया के काम करने के तरीके और चरित्र में बहुत बदलाव आया है। लेकिन यह बदलाव कितना सही और कितना गलत, यह बता पाना अब मुश्किल नहीं है। कहा जाता है कि आजादी से पहले की तुलना में देखें तो मीडिया के स्वरूप में एक बुनियादी फर्क आया है। पहले मीडिया को आज की तरह आजादी हासिल नहीं थी। जेम्स ऑगस्टस ने भारत का पहला समाचार पत्र ‘द बंगाल गजट’ 1780 में शुरू किया था। उस वक्त के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स की पत्नी की आलोचना करने के बदले में उन्हें चार महीने जेल की सजा काटने के साथ-साथ पांच सौ रुपये जुर्माना देना पड़ा था। तब अंग्रेज अपनी हैसियत से प्रेस को संचालित करते थे। लेकिन आजादी के बाद बहुत कुछ बदलाव आया है। प्रेस को आजादी मिली। सरकार और प्रेस के बीच जो दूरियां थीं, वे काफी कम हुई हैं।
यहां अगर हम दूसरे देशों की बात करें तो फिनलैंड, नार्वे और नीदरलैंड मीडिया की आजादी के मामले में सबसे ऊपर हैं। इस कसौटी पर इरीट्रिया, उत्तर कोरिया और सीरिया जैसे देश सबसे निचले पायदान पर हैं। इन देशों में मीडिया को अपने हिसाब से मुद्दों पर खबरें देने या बात करने की कोई आजादी हासिल नहीं है। वहां मीडिया एक तरह से सरकार के अधीन काम करता है। हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इरीट्रिया में सबसे ज्यादा पत्रकार जेल में बंद हैं। गहरे से देखा जाय तो पिछ्ली 9/10 सालों से भारत की हालत भी ऐसी ही दिखने लगी है। मूल मीडिया की बात करें तो वह पूरी तरह से चंद पूंजीपतियों के मालिकाना हक में हैं जिनकी सरकार के साथ पूंजीगत साठगांठ है या यूं कहें कि आज भारत में क्रोनीकैपीटलिज्म के चपेट में है। आखिर मीडिया की आजादी का मतलब क्या है? क्या सिर्फ सरकार के नियंत्रण से बाहर रहने को हम उसकी आजादी मान लें? आमतौर पर मीडिया को सरकार नियंत्रित नहीं करती। लेकिन मीडिया सरकार और कॉरपोरेट जगत के स्वार्थ के लिए काम करता है, यह स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। इतना ही नहीं एक अच्छा-खासे पत्रकार बंधु जेलों में बंद जीवन बीता रहे हैं। हाँ! इतना अवश्य है कि सोशल मीडिया में बहुत-से ऐसे यूट्यूब समाचार चैनल अपनी ईमानदार रिपोर्टिंग और विश्लेषणों से मीडिया की छवि अच्छी बनाए रखने की कोशिश करते हुए समाज के व्यापक हित के लिए काम करते हैं किंतु सरकार उनपर भी अब टेढ़ी नजर रखे हुए है। उनमें से या तो कुछ चैनल बंद करा दिए जा रहे है या फिर कुछ का मोनीटाईजेशन बंद करा दिया है।
मेन स्ट्रीम मीडिया के कवरेज में काफी बदलाव आया है। कई बार ऐसा लगता है कि में मीडिया व्यक्ति-केंद्रित हो चुका है। कुछ नाटकीयता और अतिरंजना के साथ कार्यक्रम परोस कर दर्शकों को लुभाने की कोशिश की जा रही है। ऐसा लगता है कि मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से भाग रहा है। सामाजिक खबरें कम दिखाई देती हैं। आजकल टीवी चैनलों पर नेता ही दिखाई देते हैं। टीवी पर नेताओं के भाषणों और बयानों से ही समाचार के वक्त भरे रहते हैं, वहीं अखबारों में विज्ञापन ज्यादा और खबरें कम दिखाई देती हैं। मीडिया की पहुंच का विस्तार हुआ है, पर यही बात कवरेज के बारे में नहीं कही जा सकती। वह गांवों के लोगों की समस्याओं से अछूता नजर आता है।
देश में बहुत सारी समस्याएं हैं, लेकिन मीडियो को शायद उनसे कोई सरोकार नहीं है। चाहे हम किसानों की आत्महत्या की बात करें या फिर महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों या अपराधों की, मीडिया में ऐसे मामलों को जगह देने में या तो कंजूसी दिखाई जाती है या फिर जरूरी संवेदनशीलता नहीं बरती जाती। फिर एक और चिंताजनक पहलू मीडिया का दोहरा रवैया है; वह सिर्फ शहरों की घटनाओं और समस्याओं को लेकर गंभीर दिखता है।
शहरों में भी, मध्यवर्ग की समस्याएं ही उसे अधिक परेशान करती हैं। मसलन, बारिश से घंटे-दो घंटे भी यातायात जाम हो जाए तो टीवी चैनलों पर चीख-पुकार शुरू हो जाती है, मगर जिन इलाकों के लोग बरसों से पानी के लिए तरसते रहते हैं उनकी सुध नहीं ली जाती। ऐसा नहीं कि मीडिया कोई अच्छा काम नहीं करता। देश में हुए बड़े-बड़े घोटालों को मीडिया ने ही उठाया है। सोशल मीडिया के कई ऐसे चैनल है जो समाज की समस्याओं के प्रति सचेत हैं। सारांशत: कहा जा तो वर्तमान सरकार के दौर में ‘गोदी मीडिया के लिए सत्ता के चरण में बैठना ही मीडिया की आज़ादी है’
राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं कि डिजिटल तकनीक ने पत्रकारिता को बिल्कुल एक नए फलक पर लाकर खड़ा कर दिया है। डिजिटल तकनीक,सोशल मीडिया के असर से जहां पत्रकारिता ने रफ्तार पकड़ी है तो विश्वसनीयता की कसौटी पर कसने की चुनौतियां पहले से ज्यादा बढ़ गई हैं। यहाँ तक कि रफ्तार की प्रतिस्पर्धा से नए खतरों का अंदेशा भी बढ़ा है। सोशल मीडिया के असर ने पत्रकार और पत्रकारिता को कहीं ज्यादा जवाबदेह बनाया है। अब पत्रकारिता पहले से ज्यादा जीवंत हुई है। दूसरे सिरे पर बैठा पाठक केवल पढ़कर चुपचाप बैठे रहने वाला नहीं रहा। वो न केवल कहीं अधिक प्रतिक्रियावादी हुआ है बल्कि किसी समाचार में अगर जरूरी लगे तो बदलाव की वजह तक बनने की हिम्मत रखता है। वो अपनी मर्जी से अपने स्रोत को चुन सकता है और उस पर प्रतिक्रिया देने की आजादी रखता है। पत्रकारों के सामने तथ्यों, तस्वीरों की विश्वसनीयता परखने की चुनौतियां तकनीक के इस युग में पहले से कहीं अधिक बढ़ गई हैं। अब वो जमाना नहीं रहा जब हम पत्रकारिता को केवल कलम और स्याही के लिए जानते थे। लेकिन आज कलम पर पहरा बैठ गया है।
स्थानीय पत्रकारिता का दायरा भी अब ग्लोबल हो चुका है। भारत के एक छोटे कस्बे की खबरें अब रूस में बैठा भारतवंशी भी पढ़ रहा है। ना केवल पढ़ रहा है बल्कि उस पर अपनी प्रतिक्रया भी दे रहा है। अखबारों और चैनलों की अपनी वेबसाइट हैं, जहां लाखों लोग हर रोज किसी भी समाचार को पढ़ने-जानने के लिए आते हैं। सोचने की बात है कि क्या यह संभव है कि हम हर रोज कम से कम 50 रुपए खर्च कर हर अखबार खरीद सकें और उसे उतनी ही तसल्ली से पढ़ सकें जितना की हम एक अखबार को पढ़ते हैं। किसी भी सामान्य आदमी के लिए यह संभव नहीं है। तकनीक के विकास के साथ-साथ पत्रकारिता और पत्रकार भी कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं।
वर्तमान में पत्रकारों को फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइट्स ने खबरों का जहां नया स्रोत दिया हैं वहीं विश्ववसनीयता का नया पैमाना भी। तकनीक ने खबरों के स्रोत बदलने के साथ-साथ पत्रकारों को एक आरामदेह साधन मिल गया है ।आज के इस तकनीक युग ने पत्रकार और पाठक के बीच की दूरी को कम किया है। समाचार पत्रों, टीवी चैनलों और विभिन्न रेडियो चैनल्स के फेसबुक और ट्विटर पर आने के बाद पत्रकार और जनता के बीच की दूरियां कम हुईं है। आज के डिजिटल युग ने पत्रकारिता को बहुत ही आसान कर दिया है तो चुनौतीपूर्ण भी।। बीते कुछ दशक में पत्रकारिता को कई ऐसे तकनीकी साधन मिले हैं जिनकी मदद से पत्रकार सूचनाओं को तुरंत अपने संज्ञान में लेकर समाचार का रूप में पेश कर सकता है। इन साधनों में खासकर सोशल मीडिया ज्यादा मददगार साबित हो रहा है।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि पत्रिकारिता में अधिकाधिक सकारात्मक बदलाव होने के बावजूद देश में पत्रिकारिता बहुत से प्रश्नों की बीच फंसी हुई है। आजादी के अमृत काल में भी देश की जो तस्वीर सामने आई है, इतनी भयावह और शर्मनाक है कि देखते-सुनते नहीं बनती। सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला है। संत्री से लेकर मंत्री तक भ्रष्टाचार की लपेट में हैं। सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक भ्रष्टाचार सिर चढ़ कर बोल रहा है। अब मीडिया का गैर- जिम्मेदाराना चरित्र भी उजागर होने लगा है। राजनैतिक भ्रष्टाचार की तरह अख़बारी तंत्र का भ्रष्टाचार भी नया नहीं रह गया है। उदाहरणार्थ – वर्ष 1968 के आसपास की बात है कि उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले में ‘जय जगत’ नामक एक वृद्धजन एक-दो पेज का अख़बार निकाला करते थे जिनका मकसद पत्रिकारिता कतई नहीं था। वे प्रशासनिक और राजनैतिक हस्तियों से कुछ न कुछ करवाने के भाव से पत्र निकाला करते थे।
अधिकारियों और राजनेताओं को सीधे-सीधे धमकियाँ दिया करते थे कि यह काम हो जाना चाहिए वरना कल के अखबार में तुम ही तुम होगे। बस! मानों काम हो गया। मुझे लगता है कि ‘जय जगत’ नामक उस वृद्धजन ने भ्रष्टाचार की जड़ों को पहचान लिया था। वह ऐसा समय था जब अधिकारी और राजनेता अख़बारों से डरते थे। आज की पत्रकारिता का चरित्र, माना और उन्मुक्त हुआ है किंतु पहले जैसा प्रभाव कतई नहीं रहा है। आज की पत्रकारिता प्रभावी कम, तमाशाई ज्यादा हो गई है। मध्यस्ता करने लगी है आज की पत्रकारिता। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने तो जैसे तमाम मान्यताएं ताक पर उठ कर रख दी हैं। गैर-जिम्मेदार अधिकारियों और राजनेताओं पर कीचड़ तो उछालती है किंतु समाधान का कोई मार्ग नहीं सुझाती। कारण है कि आज प्रत्येक राजनैतिक दल के अपने-अपने चैनल हैं। कहने का अर्थ ये है कि गैर-जिम्मेदार अधिकारियों और राजनेताओं की ढाल बनकर भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। पत्रिकारिता भी राजनैतिक दलों की भाँति दलगत होकर रह गई है। स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता को लील गई है आज की पत्रकारिता।
आज सामाजिक हितों की बात की जा रही है। गहराई से देखें तो पत्रिकारिता और राजनीति दोनों मिलकर देश को खा रही हैं। समाज में आए दिन मारकाट, लूटपाट, बलात्कार और समाज के दलित और निरीह तबके के साथ उत्पीड़न की वारदातें बढ़ती जा रही हैं। उन पर घड़ियाली आँसू बहाकर ही, ये आज के राजनेता और पत्रकार अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं।
कितनी शर्मनाक बात यह है कि मेन स्ट्रीम की पूरी पत्रकारिता मिथ्या और आदर्शहीन हो चुकी है। महम की घटना, क्षैना का नंगापन, कानपुर की वहशीयापन,हाथरस का जघन्य बलात्कार काण्ड, मणीपुर में निरंतर चल रहा महिलाओं के साथ अत्याचार, सरकार एलेक्ट्रोकल बोण्ड काण्ड, प्र्धान मंत्री केयर फंड, हरियाणा की अंतर्राष्टीय खिलाडियों की समस्याओं की अनदेखी, किसी भी राजनैतिक दल के दागी नेताओं भाजपा की वाशिंग मशीन से गुजार कर उन्हे पाक-साफ करके भाजपा में शामिल करके महत्वपूर्ण पदों पर तैनात कर देना, संवैधानिक स्वतंत्र संस्थाओं को निष्कृय कर देना, तथाकथित स्वतंत्र चुनाव आयोग को सरकार द्वारा पंगू बना देना, ईमानदार पत्रकारों को वर्षों तक जेलों में डाल देना, ईडी, सीबीआई और आयकर विभागों को सरकार द्वारा अनैतिक प्र्योग करना, गलत – सही में अंतर न करके सरकार द्वारा अपने हक में निर्णय लेना, संविधान को बदलने की निरंतर कोशिश करना, वंचितों संविधान प्रदत्त आरक्षण को समाप्त करने की आर एस एस भाजपा की कोशिशें, दलितों और अल्पसंख्यकों को सामाजिक और मानवीय न्याय न प्रदान करन आदि और भी न जाने कितनी ही ऐसी घटनाएं हैं जो सामर्थ्य मीडिया को नजर नहीं आतीं।
सरकारी संपत्तियों को निजी हाथों में सौंप देने के घृणित उपक्रम के कारण बेरोजगारी और भुखमरी बेहिसाब बढ़ चुकी है। ये हाल है कि 140 करोड़ जनसंख्या वाले देश में 80 करोड़ जनता सरकार द्वारा प्रदत्त राशन पर जीवन यापन कर रहा है और प्रधानमंत्री जी विकास का गीत गा रहे हैं। संसद की मर्यादा को तारतार करने, किसानों के आंदोलनों को बलपूर्वक दबा देना जैसे कष्टकारी कारनामों की तरफ मेन स्ट्रीम मीडिया का मुंह मोड़े रखना तो मीडिया का मुख्य कार्य बन गया है। अब इसे सरकारी दबाव का असर माना जाय या मीडिया की निष्क्रियता – यह सोचना ही होगा।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि राजनेताओं और पत्रकारों के संबंध मधुर भी हैं और तनावपूर्ण भी। ये तनाव जब और बढ़ जाता है, तब राजनेता कुछ बताना नहीं चाहता और पत्रकार उसे कुछ न कुछ कहने के लिए उकसाता है। अनावश्यक रूप से किसी को उकसाना और उकसाने के लिए प्रयुक्त वाक्य का तरीका ही समस्त विवादों की जड़ है। पत्रकारों के साथ बदसलूकी की बात सब कर रहे हैं किंतु ऐसी स्थिति क्यूँ और कैसे उत्पन्न हुई, यह जानने का प्रयास कोई नहीं करता, आखिर क्यों? इसकी जाँच की जानी चाहिए। आखिर ऐसी क्या बात थी जिसकी वजह से एक राष्ट्रीय स्तर के नेता की उत्तेजना भड़क उठी? क्या किसी ने इस ओर ध्यान दिया है? नहीं। पत्रकारों ने इस बारे में जो भी शोर-शराबा किया वो तो अलग, राजनैतिक दलों ने इस बारे में आग में घी डालने का काम ज्यादा किया। किंतु यदि भविष्य में भी मीडिया अमर्यादित बना रहेगा, अपने पाले के गर्क में डूबा रहेगा, उकसाऊ भाषा का सहारा लेता रहेगा तो स्थिति और भी भयावह हो सकती है। स्मरण रहे कि आत्म-हत्या करने वाले से, आत्म-हत्या के लिए उकसाने वाला ज्यादा गुनहगार होता है। राजनेता और पत्रकार दोनों को ही संयम से काम लेना होगा। मर्यादाओं के अतिक्रमण पर अंकुश लगाना ही होगा अन्यथा लोकतंत्र के हनन की कीमत जनता को ही नहीं अपितु राजनीति और मीडिया को भी एक न एक दिन चुकानी ही होगी।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।