नफरती उन्माद को अंधड़ में बदलने की बदहवासी
बादल सरोज
देश में सीधे-सीधे फांक करना, जनता के समूहों के बीच अलगाव की खाई खोद कर उसे लगातार चौड़े से और अधिक चौड़ा करना, एक दूसरे के प्रति नफरती उन्माद को कटु से कटुतर, तीव्र से तीव्रतर और शाब्दिक हिंसा से सीधे हमलावर बनाया जाना हमारे समकाल की लाक्षणिक पहचान बनती जा रही है। वैसे यह फिनोमिना आज का नहीं है, पिछले तीन दशक खासकर 1991 से आहिस्ता-आहिस्ता तेज होते आज के भस्मासुरी रूप तक विकसित होकर आया है। इसमें भी पिछले 6 महीने में लोकसभा चुनाव परिणामों में भाजपा को धक्का लगने के बाद यह कुछ ज्यादा ही तड़ित तीव्रता के साथ आक्रामक हुआ है। लगता है कि इसके सूत्रधारों का इरादा इस नफरती लहर को अगली साल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी पूरी होने, तक अन्धड़ में बदलने का, निर्णायक आर-पार की स्थिति तक पहुँचा देने का है। इसके नतीजे भारत दैट इज इण्डिया के लिए कितने भयावह होंगे, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती।
इन तीन दशकों में इसका सबसे पहला शिकार तो वह धर्म ही बना, जिसके बहाने, बल्कि जिसे ‘बचाने’ के नाम पर ढोंग धतूरे का यह सारा टंडीला खड़ा किया गया था। हिन्दू को पहले हिन्दुत्व में बदला और इस तरह उसकी विविधता और समावेशिता की स्वाभाविक प्रवृत्ति ही खत्म करने की आपराधिक कोशिश की, उसे नए तरीके से पुनर्व्याख्यायित और पुनर्परिभाषित कर उसका रूप और सार ही बदलना चाहा।
ऐसा नहीं है कि वे इसमें कामयाब नहीं हुए, अपने इरादों को काफी हद तक आगे ले जाने में उन्हें सफलता मिली है। हिन्दू धर्म के ‘भगवानों’ की छवि ही बदल डाली गयी है। तुलसी की मानस से लेकर सारी रामायणों में जिस तरह के राम नहीं मिलते, उन्होंने वैसे क्रोधी और प्रत्यंचा ताने राम बना दिए। हनुमान की नयी छवि गढ़कर उनसे उनकी सुलभ सौम्यता छीन ली गयी। नए बिम्बों और छवियों की रचना से शुरू हुआ यह व्यापार सिर्फ यहीं तक नहीं रुका, व्यावहारिक और सांसारिक छवि वाले कृष्ण से लेकर अनार्य देवता शिव से होते हुए हनुमान सहित हरेक ‘भगवान’ की जातियों, यहाँ तक कि गोत्रों की भी ढूँढ तलाश कर ली गयी। हरेक जाति समुदाय को मनु-निर्धारित श्रेणीक्रम में उनकी हैसियत के हिसाब से अलग-अलग देवी-देवता पकड़ा दिए गये।
इस करतब को हिन्दू की व्याप्ति में समाना और धर्मसम्मत साबित कर पाना इनके लिए भी कठिन, लगभग असंभव काम था, इसलिए हाल के कुछ वर्षों में इस कुनबे ने अंततः हिन्दू, यहाँ तक कि हिंदुत्व शब्द को त्यागते हुए सनातन का इस्तेमाल शुरू कर दिया। यह सिर्फ शब्द चुनने का मामला नहीं है, यह समग्र बदलने का मामला है। यह पिछले दो-ढाई हजार वर्षों में धरा के इस हिस्से में हुए सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के चलते धर्म में हुई हलचल और बदलावों की उस मजबूत परम्परा का निषेध करने की खतरनाक कोशिश है, जिसने समाज को काफी हद तक जड़ता मुक्त किया, सभ्य और रहने योग्य बनाया। यह स्वयं भारत की धार्मिक परम्परा में चले उस पहले बड़े धार्मिक आंदोलन – श्रमण परम्परा — को खारिज करना है, जिसने उस समय आजीविक, जैन, बौद्ध और योग जैसे नये और कर्मकाण्ड विरोधी सशक्त धर्मों को जन्म दिया और जो बाद में सिख धर्म के रूप में अभिव्यक्त हुई।
इस राजनीतिक परियोजना के लिए पुराने का लेबल लगाकर जिस ‘नए धर्म’ का आविर्भाव किया जा रहा है, वह सिर्फ अब तक जिसे धर्म कहा, माना, जाना और समयानुकूल बनाने के लिए सुधारा जाता रहा था, उसकी ही वाट नहीं लगाता, उसके मान्य और प्रतिनिधि धर्माचार्यों की भी खाट खड़ी कर रहा है। सबको सन्मति देने वाले रघुपति राघव राजा राम से बात राम जादे और हरामजादे तक लानी है, तो पुरानों को प्रतिस्थापित कर नए भाष्य के योग्य नए प्रवक्ताओं को स्थापित भी करना होगा।
प्रसंगवश यह कि ठीक यही काम नाज़ी जर्मनी में हिटलर ने किया था ; कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट दोनों मे एनिमल इंस्टिंक्ट – पशु वृत्ति – यानि हिंसक मारकता का अभाव बताते हुए, उन्हें बहुत नरम करार देते हुए, उसने न सिर्फ अपना ‘जर्मन चर्च’ स्थापित किया, बल्कि ईसा पूर्व देवता वोटन को भी कब्र से निकाल लाया।
इधर के नए सनातनी सिर्फ गैर-सनातनियों तक ही सीमित नहीं हैं, वे सनातनियों को भी पांत से बाहर बिठा रहे हैं। चार शंकराचार्यों के साथ जो किया गया, वह इसका उदाहरण है – यह सिर्फ राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के सन्दर्भ में नहीं है, उसके बाद तक निरंतरित है। स्थापित शंकराचार्यों को धकेल बाहर कर उस जगह को रामभद्राचार्यों से पूरा जाना इसी राजनीतिक परियोजना का हिस्सा है, जिसके सबसे ताजे हॉट केक हैं बागेश्वर धाम के धामाधीश धीरेन्द्र शास्त्री !! इन्होने हाल ही में 160 किलोमीटर चलकर 9 दिन में बागेश्वर से ओरछा तक की यात्रा की। कहने को इसे हिन्दू धर्म के प्रचार और हिन्दुओं के एकीकरण की धार्मिक उद्देश्यों वाली यात्रा बताया गया, मगर अपने सार और रूप, संदेश और उदघोष हर मामले में यह धार्मिक को छोड़कर बाकी सब कुछ थी ; एकदम खालिस राजनीतिक थी।
जिस तरह के बयान इस यात्रा में जैसी भाषा में इस धामाधीश ने दिए, उनसे साफ़ हो गया कि यह यात्रा 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद संघ भाजपा द्वारा तय की गयी कार्यनीति का कथित धर्माचार्यों के जरिये कराया जा रहा अमल है। राजनीतिक फिसलन को रोकने के लिए साम्प्रदायिकता की नागफनी लहलहाने, विषबेल फैलाने की परियोजना है ; उन्माद को उग्र से उग्रतर किये जाने की जी-तोड़ कोशिशें हैं।
इस यात्रा का आरम्भ ही ‘हिंदुओं की एकता, सनातन का वर्चस्व’ ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ के नारे के साथ हुआ और जैसे-जैसे यह आगे बढती गयी, वैसे-वैसे और उग्र वर्तनी में बदलती गयी। अपनी कर्कश बोली के लिए जाने जाने वाले दुर्भाषा ने इस मुहिम का असली मंतव्य छुपाया नहीं और सीधे साम्प्रदायिक राजनीति के जुमलों ; लव जेहाद, लैंड जेहाद पर आ गए – ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का कुनबे का नया मन्त्र जापने लगे। ‘जिन जिन प्रदेशों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, वहां उनका धर्म ही नहीं, सब कुछ खतरे में पडा हुआ है’ का डर फैलाते हए, मां-बहन-बेटियों के अपहरण औरर धर्मांतरण तक का खतरा गिनाते हुए आव्हान किया कि “100 करोड़ में से यदि 1 करोड़ हिन्दू कट्टर हिन्दू के रूप में एकजुट हो जाएँ, तो एक हजार साल तक सनातन का कब्जा कोई नहीं हटा सकता।” असली मकसद क्या है, इसे छुपाने की कोशिश भी नहीं की गयी। यात्रा के दौरान पड़े एक गाँव अलीपुरा का नाम हरिपुरा करने का एलान भी इस धामाधीश ने खड़े-खड़े ही कर दिया।
बहरहाल यह यात्रा न तो अकस्मात निकली थी, ना ही इसमें भागीदारी में कोई स्वतःस्फूर्तता थी। पहले से सारी तैयारियां करके ऐसा जताया जा गया, जैसे नामचीन लोग और हजारो की भीड़ अपने आप चली आ रही हो ; किसी दिन फिल्म अभिनेता संजय दत्त दिखे, तो किसी दिन खली पहलवान की हाजिरी दर्शाई गयी । किसी दिन अमरीका से आया कोई भगत अपनी हाईटेक कार की वजह से अजूबा बना, तो कही नेपाली टोपियाँ पहने सौ सवा सौ लोग पंक्तिबद्ध चलकर इसे नेपाल की भागीदारी वाली यात्रा बताया गया। इस यात्रा के कवरेज के लिए खुद बागेश्वर धाम की मीडिया टीम तो थी ही, बाकियों को भी बुलाकर, ठहराकर साधा गया।
यह धमाचौकड़ी ऐन्वेई नहीं है – यह उन्मादी जनउभार के लिए की जा रही कवायद है। दुनिया में जहाँ-जहाँ फासीवाद उभरा है, उसने इसी तरह के नफरती उन्मादों को केंद्र में रखकर जनता के बड़े हिस्से को गुमराह किया है। यह जो हो रहा है, वह उसी की तर्ज पर, उसी दिशा में ले जाने वाले घोर प्रतिक्रियावादी जनांदोलन को भडकाने की सोची-समझी प्रक्रिया का हिस्सा है। फासीवाद के भारतीय संस्करण की सबसे बड़ी मुश्किल को हल करने के लिए इस तरह की यात्राओं में असाध्य को साधने की कोशिशें भी की जा रही हैं ; इसी कड़ी में इस यात्रा के उस दावे को पढ़ा जाना चाहिए, जिसमे कहा गया कि यह जातिवाद और छुआछूत को भी दूर करने के लिए निकली हैं ; ‘पिछडों और बिछड़ों’ को जोड़ने के लिए निकली है। उनकी भीड़ को भंडारों में भोज के लिए जुटा कर इसे सहभोज बताया जा रहा है।
हालांकि इस ठगी का पर्दाफ़ाश ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का बयान ने कर दिया। उन्होंने इस यात्रा को वोट जुटाने के लिए कराई गयी भाजपा की राजनीतिक यात्रा बताते हुए कहा कि बिना वर्ण और जाति के सनातन हो ही नहीं सकता। सनातन यही है – धीरेन्द्र शास्त्री भी यही मानते और बोलते रहे हैं। यूं भी उन्हें वे रामभद्राचार्य अपनी आँख बताते हैं, जो जाति की ऊँच-नीच और वर्णाश्रम के इतने कट्टर समर्थक हैं कि शूद्रों को शिक्षा देने वाले ब्राह्मणों को भी अधम और नीच बता देते हैं। फिर यह झांसा क्यों दिया जा रहा है? यही वह असाध्य है, जिसे साधने की कोशिश ऐसी यात्राओं और उनके साथ जारी मस्जिद खुदाई की मुहिमों से की जा रही है। अगर उनकी चली, तो आगामी दिनों में इसे और तेज, तेजतर से तेजतम किया जाना है।
उग्र से उग्रतर होते जाने की यह प्रक्रिया चौतरफा है ; राजनीतिक भुजा के शब्दकोष और व्याकरण बदलने के रूप में भी साफ-साफ़ दिखती है – राजनीतिक विमर्श की भाषा में से अटल बिहारी वाजपेयी की प्रांजलता, अडवाणी की सचेत दुरूहता अब सीधे-सीधे योगी की आक्रामकता और हिमंता विषसर्मा की आपराधिक अभद्रता में तब्दील हो चुकी है। आर्थिक जगत में यह टाटा-बिड़लाओं की सत्ता से दिखावटी दूरी और लोक-लाज को तज कर गौतम अडानी के सैयां भये कोतवाल भाव के निर्लज्ज प्रदर्शन तक आ गयी है। कार्यपालिका में इसका असर कितना हुआ है, इसे संभल की मस्जिद का सर्वे करने गयी पुलिस के अफसरों, प्रशासनिक अधिकारीयों की नारेबाजी और बर्ताव में देखा जा सकता है। रही न्यायपालिका, सो उसकी दुर्दशा की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति बुलन्द आवाज में चन्द्रचूड कर गए थे, जिसकी अनुगूंज अब छुटके मजिस्ट्रेटों के अजमेर की दरगाह के सर्वे जैसे तू कौन मैं खामखाँ मार्का फैसलों में सुनाई दे रही है।
बहरहाल इस तरह के प्रायोजित उभारों को थामने की कार्यनीति भी है, उसे व्यवहार में उतारने के औजार भी है ; भारत की विरासत में भी हैं। उन्हें चीन्ह-पहचान कर आजमाना ही रास्ता है¸ कोई शॉर्टकट नहीं हैं। फासीवाद के उन्मत्त होते सांड को सींग से पकड़ना होता है, उसकी पूंछ से बंधकर लिथडना नहीं होता, जैसा मुख्यमंत्री रहते हुए कमलनाथ ने किया था। हिन्दू राष्ट्र के स्वयंभू ध्वजाधारी धीरेन्द्र शास्त्री के दरबार में ढोक लगाई, उन्हें करोड़ों की नकद दक्षिणा देकर उनके प्रवचन अपने छिंदवाड़ा में करवाये। इस बार भी इस के उग्र एजेंडे की यात्रा में सिर्फ भाजपा या उसके संगी-साथी-बाबे इत्यादि ही नही चले, कांग्रेस के विधायक जयवर्धन सिंह भी पहले ही दिन पहुंच गए। जयवर्धन सिर्फ विधायक भर नहीं हैं, वे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के पुत्र और उनके राजनीतिक वारिस भी हैं। उनके जाने से ज्यादा चौंकाने वाला उनका बयान था, जो उन्होंने इस यात्रा में चलते हुए दिया कि “हर धर्म की शुरुआत किसी न किसी स्थान से हुई है और हिन्दू धर्म की शुरुआत भारत से हुई है। इसलिए भारत स्वाभाविक रूप से हिन्दू राष्ट्र है।“ यह ठीक वही बात है, जिसे पहले कभी कमलनाथ ने कहा था। ऐसी बातों से कांग्रेस का राजनीतिक-वैचारिक दारिद्रय और साम्प्रदायिकता की उसकी अधकचरी समझ का नमूना मिल जाता है। यह पता चल जाता है कि उन्होंने महात्मा गाँधी को कितना पढ़ा है, नेहरू को कितना जाना है।
ऐसे बुन्देलखण्ड में चला यह उन्मादी अभियान जीवन के वास्तविक सवालों को पीछे धकेल अंततः जिस तरह का समाज बनाना चाहता है, खुद ये इलाके और जिनमें ये आते है, वह बुंदेलखंड उसका जीता जागता उदाहरण है। वह इस बात का भी उदाहरण है कि यदि वंचनाओं और यातनाओं को आंदोलनों और संघर्षों में संगठित नहीं किया जाता, तो उनके विडम्बनाओं में तब्दील होने की आशंकाओं के संभावनाओं में बदलने में देर नहीं लगती।
लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।