ज्ञानवापी में गेट – सिर्फ हिन्दू मुस्लिम भर नहीं है इस खेल के एजेंडे में

ज्ञानवापी में गेट – सिर्फ हिन्दू मुस्लिम भर नहीं है इस खेल के एजेंडे में

ज्ञानवापी मस्जिद के बहाने उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से सांप्रदायिक विभाजन की कोशिश की जा रही है। आज जिस तरह से आस्थाई गेट लगाने का प्रयास किया गया और मुस्लिम समाज के विरोध के बाद गेट लगाने का काम रोका गया उसके निहतार्थ बड़े हैं। दरअसल लोकसभा चुनाव में भाजपा के मोहरे जिस तरह से उत्तर प्रदेश में पिटे हैं और अयोध्या में समाजवादी पार्टी ने सामान्य सीट पर दलित उम्मीदवार को उतारकर भाजपा को पटखनी दी है उसने भाजपा खेमे में भारी हलचल पैदा कर दी है।

अयोध्या से सपा के अवधेश प्रसाद की जीत के बाद सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा था कि उत्तर प्रदेश के लोगों ने सांप्रदायिक राजनीति को पूरी तरह से नकार दिया है। एक तरफ हार और दूसरी तरफ हिन्दुत्व के कट्टरवादी नशे में भाजपा के साथ खड़े दलित और अन्य पिछड़ा समाज का उस नशे से निकलकर सपा की तरफ बढ़ता कदम भाजपा के भविष्य की लिए बड़ी चुनौती बनता दिख रहा है। बेतहाशा बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और सरकार द्वारा लॉ एंड ऑर्डर का झण्डा उठाने की तमाम कोशिशों की राज्य में लगातार भद पिट रही है। विकास के नाम मुफ़्त राशन का कटोरा लिये खड़ा राज्य अब नई उम्मीद तलाश रहा है।

भाजपा अपने एजेंडे जिसमें उसका सबसे बड़ा एजेंडा कहीं न कहीं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का है को ताकतवर बनाने के लिए दलित, पिछड़े और अल्प संख्यक समाज की उम्मीदें कत्तई पूरा नहीं कर सकती। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में जीत का सेहरा बांधने को तो सब तैयार रहते पर हार की नैतिक जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं दिख रहा है।

दिल्ली इकाई हार की जिम्मेदारी प्रदेश की योगी सरकार पर डालना चाहती है पर योगी आदित्यनाथ बेवजह अपनी कुर्बानी देने को तैयार नहीं दिख रहे हैं। बल्कि वह पूरी तरह से दिल्ली से दो-दो हाथ करने के मूड में दिख रहे हैं। स्थित यहाँ तक आ चुकी है कि सामान्य व्यवहार का अभिवादन भी बंद हो चुका है। इसके साथ ही दिल्ली की सह पर ही योगी के दोनों डिप्टी भी चुनाव के बाद से योगी पर हमला करने से नहीं चूक रहे हैं। भविष्य की भाजपा को जो लोग अपने इशारे पर नचाना चाहते हैं उन्हें भी योगी से लगातार खतरा महसूस हो रहा है।

इस तरह से देखा जाए तो मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के पर कतरने के लिए एक पूरा चक्रव्यूह रचा जा रहा है और योगी जी इस चक्रव्यूह को नेस्तनाबूत करने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। योगी जानते हैं कि यह लड़ाई वह तभी जीत सकते हैं जब उनकी पीठ पर आरएसएस की ढाल चिपकी रहे। अब इसके लिए जरूरी हो जाता है कि वह हर संभव तरीके से सत्ता का फ़ोकश आरएसएस के एजेंडे को स्थापित करने में लगाएं।

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इस कोशिश का सबसे बड़ा रास्ता सांप्रदायिक सौहार्द को खत्म करना है ताकि मुस्लिम समाज के खिलाफ धार्मिक उन्माद के सहारे घृणा और आक्रोश पैदा करके एक बार फिर से हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में किया जा सके। इसी सोच के तहत योगी आदित्यनाथ की सरकार ने बिभाजनकारी सोच के तहत एक बड़ा फैसला लेते हुए सावन माह में होने वाली काँवड़ यात्रा के रूट पर पड़ने वाली दुकानों के बाहर दुकानदारों के लिए नाम लिखना अनिवार्य कर दिया था। इस फरमान को विपक्ष और प्रगतिशील विचारधारा के लोग भले ही तुगलकी कहें पर यह फरमान पूरे प्रदेश में बड़ी बिभाजक त्रासदी बनने की ओर बढ़ता दिख रहा था। मुस्लिम समाज जहां इस फैसले को पूरी तरह से सरकार का नफरती फरमान मान रहा था वहीं हिन्दुत्व की परिधि पर खड़ा दलित समाज भी इस फरमान से सिहर गया था।

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जाति और संप्रदाय की आड़ में कहीं ना कहीं यह एक बड़ी साजिश थी कि उनके रोजगार पर अछूत नाम की आर्थिक वैरीकेटिंग की जा सके।

फिलहाल घृणा की यह बेल सामाजिक विभाजन के नए मकबरे बना पाती उससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने इस फरमान को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। इससे प्रदेश के आम आदमी को भले ही राहत मिल गई हो पर राज्य सरकार कि बेचैनी बढ़ गई। सरकार जानती है और सरकार से ज्यादा संघ जानता है उसकी सत्ता का सबसे ताकतवर पिलर सांप्रदायिकता ही है। वह दो धर्मों के बीच नफरत की बाड़ लगाए बिना सत्ता में नहीं बनी रह सकती है और अब जबकि उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत का जादुई मुखौटा पूरी तरह से अपना असर खो चुका है तब यह ही एक मात्र सहारा है।

जब मामला कोर्ट में है तब इस तरह से आनन-फानन में सांप्रदायिक सौहार्द को क्षतिग्रस्त करने की जो कोशिश की जा रही है है वह दरअसल दरकती जमीन को बचा लेने का यत्न है। स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा, और मंहगाई जैसे मुद्दों पर चौतरफा घिरी सरकार प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से उसी सांप्रदायिक आग को फिर से ताकतवर बनाना चाहती है जिसके सहारे सत्ता की खीर पका सके। यह आग ही योगी आदित्यनाथ की कुर्सी का तापमान भी बढ़ाए रख सकती है कि उसकी गर्माहट के डर से लखनऊ से दिल्ली तक कोई हाथ लगाने की हिम्मत ना कर सके।

वाराणसी ही वह जगह है जहां लखनऊ की किक पर बाल रोल करेगी और दिल्ली को मन मारकर गोलकीपर की भूमिका निभानी पड़ेगी। फिलहाल उत्तर प्रदेश में सुलगाई जा रही आग क्या कुछ जलाएगी यह तो व्यक्त बताएगा पर विधानसभा चुनाव से पहले सांप्रदायिक विभाजन के नए-नए खेल प्रदेश को देखने को मिलेंगे।  

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