महाकुंभ में त्रासदी : कुंभ के पथ में ‘हिन्दू राष्ट्र’ की पताका?

महाकुंभ में त्रासदी : कुंभ के पथ में ‘हिन्दू राष्ट्र’ की पताका?

ऊपरी तौर पर भले ही सब कुछ सामान्य लगे, मगर महाकुंभ में मची इस भगदड़ ने, फौरी तौर पर ही सही, सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चेहरे की चमक फीकी अवश्य की है।

वैसे अभी ज्यादा दिन दूर जाने की आवश्यकता नहीं। 2013 में इसी तरह कुंभ का आयोजन था। सूबे में समाजवादी पार्टी की सरकार थी। अखिलेश यादव वजीरे आला थे, तो शहरी विकास मंत्री के पद पर आजम खान थे। कुंभ मेला कमेटी के अध्यक्ष वही थे। इसी दौरान रेल स्टेशन पर मची भगदड़ में 43 लोगों की मौत हुई थीं। यूं तो यह मौतें मेला क्षेत्र से बाहर हुई थी, जिसके लिए रेल प्रशासन के इन्तज़ाम को जिम्मेदार ठहराया जा सकता था, मगर मेला कमेटी के सदर के तौर पर आजम खान ने कोई दलील नहीं दी थी, उन्होंने नैतिक आधार पर तुरंत इस्तीफा दे दिया था।

यह अलग बात है कि कुंभ मेला की उस दुर्घटना के ‘खलनायक’ के तौर पर भाजपा हमेशा आज़म खान को याद करती रही। आज़म खान का नाम आते ही हिन्दुत्ववादी जमातें अपनी संकीर्ण, नफरती सोच का बखूबी प्रमाण भी देती रही और इन मौतों के लिए आज़म खान की आस्था में जड़ें तलाशती रहीं।

अहम बात यह है कि सब कुछ दुनिया की निगाहों के सामने घटित हुआ है। फिर चाहे छह माह से अधिक समय से डबल इंजन सरकार के मातहत हो रहे इस ‘भव्य ऐतिहासिक आयोजन’ की तैयारियों को लेकर जारी प्रचार हो, सूबाई सरकार द्वारा इसके लिए आबंटित किए गए धन के समाचार हों, जनता की सुरक्षा के लिए क्या-क्या कदम उठाए जा रहे हैं, इसकी फेहरिस्त हो।

सभी कुछ बार-बार बताया जा रहा था। अलबत्ता जब 29 जनवरी की अलसुबह अत्यधिक भीड़ के चलते भगदड़ मची, कहीं वीआईपी के आगमन को सुगम बनाने के लिए फलां पुल लोगों के आवागमन के लिए बंद किया जा रहा है, ऐसी ख़बर फैली और जब लोग भागने लगे, तो फिर सारी फुलप्रूफ व्यवस्था धरी की धरी रह गयी। लोग जब भागने लगे, तो उन्होंने इस बात पर भी सोचा नहीं कि उनके कदमों के नीचे जमीन है या कोई जिन्दा शख्स। सब कुछ दुनिया के सामने ही घटित हुआ है

एक तरफ कसीदे पढ़े जा रहे थे, कुंभ में स्नान के लिए कितने लोग आए हैं, इसका घंटेवार ब्यौरा सौंपा जा रहा था, किन-किन वीआईपी ने संगम पर स्नान किया, इसकी तस्वीरें छापी जा रही थीं और मौनी अमावस्या की सुबह जब दुर्घटना हुई, लोग हताहत हुए, तो लोगों की संख्या बताना दूर, सब ठीक है, अफवाहों पर ध्यान न दें, यह सलाह दिन भर दी जाती रही। ट्रेजेडी में मारे गए मासूमों की गिनती करने में तथा मौतों की खबर प्रसारित करने में लगभग सत्रह घंटे का वक्त़ लगा।

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तीन दिन बाद यह भी पता चला कि मौनी अमावस्या के दिन प्रयागराज में एक नहीं, तीन जगह भगदड़ मची थी, जिसमें लोग मारे गए थे। एक जगह इस वजह से सात लोग मारे गए, क्योंकि किसी महामंडलेश्वर की गाड़ी फर्राटे से आ रही थी, जिसने सात श्रद्धालुओं को कुचल दिया, इन सभी श्रद्धालुओं की शिनाख्त तक नहीं हो सकी है। सत्य को स्वीकारने में हिचकिचाहट इतनी रही है कि तीन दिन बाद यह ख़बर मुख्यधारा की मीडिया में पिछले पन्नों पर छपी है। पूछा जाना चाहिए कि उस महामंडलेश्वर का क्या हुआ? क्या उसके कारिंदे जेल की सलाखों के पीछे भेज दिए गए ? क्या उस गाड़ी को जब्त किया गया?

सब कुछ दुनिया के सामने ही घटित हुआ है, जब मुख्यधारा के मीडिया ने भी त्रासदी को बयां करने के बजाय संतों-महात्माओं के स्नान की, उन पर बरसते फूलों की, स्नान के लिए वहां पहुंचे किसी हेमा मालिनी या किसी अन्य सेलिब्रिटी की ख़बर को जरूरी समझा। आज़ाद भारत में यह शायद पहला ऐसा मौका होगा कि किसी बड़े समागम में भगदड़ में साधारण लोग कुचल जाएं, जख्मी हो जाए, मगर इसके बारे में मीडिया के समाचारों में सुनने के लिए 17-18 घंटे का वक्त जाया हो।

निश्चित ही, आज जब मेला क्षेत्र के अंदर कथित बदइंतजामी की ख़बरें आ रही है, जिससे लोगों को किस तरह जान से हाथ धोना पड़ा, इसका खुलासा हो रहा है। इतना ही नहीं, वीआईपी संस्कृति से किस तरह आम लोगों की दिक्कतों में इजाफा होता रहा, यह सब कुछ सामने आ रहा है, तो क्या यह सवाल पूछना जरूरी नहीं कि दुनिया के इस ‘सबसे बड़े समागम’ में हुई त्रासदी की जिम्मेदारी कैसे तय की जाएगी?

दूसरी अहम बात, हाथरस में कुछ माह पहले किसी संत के समागम में हुई भगदड़ के बाद — जिसमें 60 हजार लोगों के जुटने का अनुमान था और वैसी ही अनुमति ली गयी थी, मगर जुटे दो लाख से अधिक लोग — जिसमें 120 से अधिक लोग मारे गए थे, तब इस समागम के आयोजकों और कई अन्य लोगों पर मुकदमे कायम हुए थे, क्योंकि उनकी लापरवाही से इतने अधिक लोग जुटे और दुर्घटना हुई।

वैसे दिल्ली की सत्ता के गलियारों में भले ही बजट के ऐलान के सहारे बहस को अलग दिशा में ले जाने की कोशिश शुरू हुई हो, इस बड़ी दुर्घटना के बाद, जिसके परफेक्ट इन्तज़ामात को लेकर बहुत ढोल-नगाड़े बज रहे थे, उसकी असलियत रफ़्ता- रफ़्ता उजागर हो रही है।

दरअसल मामले को लेकर प्रशासकीय बेरूखी महज इन्तज़ामात को लेकर ही नहीं थी, बल्कि ऐसे दुखद मौके पर आत्मपरीक्षण करने के बजाय एक तरह से श्रद्धालुओं को ही इस मौत का जिम्मेदार ठहराने की तरफ थी, जबकि इस मेले में जिस तरह वीआईपी कल्चर को बढ़ावा दिया जा रहा था, कारों के लिए एक अलग रास्ता सुरक्षित कर दिया गया था, उसे लेकर तमाम शिकायतें आम लोगों ने की थीं।

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क्या यह कहना उचित होगा कि कितने बड़े पैमाने पर भीड़ जुटेगी, इसका समग्रता में आकलन भी नहीं किया गया था। इतना ही नहीं, पहले के आयोजनों से भीड़ प्रबंधन को लेकर जो शिक्षा मिली थी, उससे भी सही नतीजे निकाले नहीं गए थे?

हाथरस में पिछले दिनों मची भगदड़, यह मानव निर्मित त्रासदी, उत्तर प्रदेश सरकार के लिए एक चेतावनी होनी चाहिए थी कि कुंभ में मात्रा से अधिक संख्या में लोग जुटते हैं, तो क्या हो जाएगा, जब उसकी तरफ से देश भर में इस महाकुंभ में आने का आह्वान किया जा रहा था।

वैसे अभी तुरंत इस घटना पर कोई कुछ भी निश्चयात्मक नहीं कह सकता। और जब तक एक विस्तृत, स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच नहीं होती, तब तक इंतजार करना ही सही होगा।

निश्चित ही, यह बात तो जाहिर है कि मेले में वीआईपी संस्कृति को प्रकट रूप में बढ़ावा देकर, यहां तक कि वीआईपी के लिए बाकायदा एक रास्ता आरक्षित करके, जबकि इसके चलते लोगों को हो रही असुविधा की बात बार-बार हो रही थी, सरकार ने जाहिर किया था कि आम लोगों के प्रति वह कितनी संवेदनशील है!

गनीमत है कि देश की मुख्यधारा का मीडिया, जिसे करोड़ों रूपयों के विज्ञापन से मालामाल कर दिया गया है, तथा अन्य सुविधाएं भी दी गयी है, वह सरकार की आलोचना करने के बजाय, उसके चीयरलीडर की भूमिका में है, वरना अगर उसका स्वतंत्र तेवर बना रहता, तो वह आए दिन सरकार की कमियों को उजागर करता और फिर सरकार को प्रोएक्टिव अर्थात खुद सक्रिय होकर उन दिक्कतों का समाधान करना पड़ता। अगर ऐसा होता, तो निश्चित ही कई जानें बच सकती थीं।

इस त्रासदी के विस्तृत विवेचना करने के बाद अग्रणी अख़बार भास्कर ने बाकायदा एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें उसने नाम के साथ कई अधिकारियों की तस्वीरें छापी हैं, जिनकी सक्रियताओं से मेले में भगदड़ की स्थिति बनी।

प्रश्न उठता है कि अधिकारी तो महज हुक्म की तामिल करते हैं, नीति संबंधित निर्णय तो सरकार के अग्रणी लोग लेते हैं या वह नीति की रूपरेखा जाहिर करते हैं। निश्चित ही जांच का यह सिलसिला अगर ईमानदारी से चल पड़ा, तो इस त्रासदी का जिम्मा उन सियासतदानों तक भी आसानी से पहुंच जाएगा, जो सूबाई हुकूमत में दखल रखते हैं।

मौनी अमावस्या के दिन हुई त्रासदी से पैदा क्षोभ एव गुस्से से बचने के लिए फिलवक्त वीआईपी संस्कृति पर रोक लग गयी है। गौरतलब है कि यह छूट महज 4 फरवरी तक ही थी। 5 फरवरी को कुंभ में प्रधानमंत्री मोदी ने स्नान किया। इसी दिन दिल्ली में चुनाव हुए हैं।

आप कल्पना करेंगे, जब लाखों लोग सड़कों पर उमड़े हों और उमड़ने वाले हों, तब वीआईपी के नाम पर रास्ता आरक्षित करने का क्या औचित्य था और अगर इन कथित वीआईपी को पुण्य हासिल करने की इतनी ही चिन्ता थी, तो वह खुद 10-20 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके वहां संगम पहुंचते और डुबकी लगाते, जैसा कि आम श्रद्धालु कर रहे थे।

इस वीआईपी संस्कृति को बढ़ावा देने के पीछे एक ही तर्क दिखता है कि इससे इस सत्ताधारी पार्टी के अग्रणियों और उनके करीबियों को मीडिया में छाए रहने का सुनहरा अवसर मिला है। यह अकारण नहीं था कि योगी मंत्रिमंडल की बाकायदा एक बैठक संगम स्थान पर ही आयोजित की गयी, और जैसी कि रवायत चली आ रही है, गोदी मीडिया ने ऐसी तस्वीरों का दिन-रात प्रसारण किया। कल्पना कर सकते हैं कि समूचे मंत्रिमंडल और उसके करीबी स्टाफ को पहुंचाने में कितने वाहन लग गए होंगे, कितने देर तक उनके आवागमन से श्रद्धालुओं की तकलीफों में नया इजाफा हुआ होगा।

एक टीवी चैनल पर आयोजित पैनल डिस्कशन में जनाब विभूति नारायण राय — जो पुलिस सेवा में वरिष्ठ पद से रिटायर हुए हैं और जो खुद जाने-माने साहित्यकार हैं — ने 1989 के आसपास आयोजित कुंभ मेला का प्रसंग सुनाया, जब वह खुद सीनियर सुपरिटेंडेंट आफ पुलिस के पद पर इलाहाबाद में तैनात थे। उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को श्रद्धालुओं को झेलनी पड़ रही असुविधाओं से अवगत कराया था। उन्होंने बताया था कि वीआईपी संस्कृति के चलते उनकी दिक्कत बढ़ती रहती है। उनके मुताबिक उनकी सलाह का सम्मान करते हुए मुख्यमंत्री महोदय ने तत्काल आदेश जारी कर, कुंभ मेले में वीआईपी संस्कृति तत्काल समाप्त कर दी। उन्होंने मंत्रियों से कहा कि उन्हें भी अगर स्नान करने जाना हो, तो वह बिना सुरक्षा के पैदल ही वहां पहुंचे।

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एक क्षेपक के तौर पर यह भी बता दें कि विद्याधर दाते, जो एक वरिष्ठ पत्रकार रह चुके हैं तथा जो लम्बे समय तक टाइम्स ऑफ इंडिया से जुड़े रहे और जिन्होंने एक दिलचस्प किताब भी लिखी है : ‘ट्रैफिक इन दी एरा ऑफ क्लाइमेट चेंज : प्रायोरिटी नीडेड फॉर वॉकिंग, साइकिलिंग एंड पब्लिक ट्रैफिक।’ उन्होंने अपनी फेसबुक पर एक महत्वपूर्ण बात साझा की कि किस तरह ‘‘पहले कुंभ मेलों का आयोजन बेहतर होता था, जिसका परिणाम यह हुआ कि 2013 के मेले के बाद मुंबई के राहुल मेहरोत्रा और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं आर्किटेक्ट ने मिल कर इस पर अनुसंधान किया और इस पर एक किताब प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था : कुंभ मेला – मैपिंग द इफेमेरल सिटी। इस शोध के पीछे हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पचास प्रोफेसरों, छात्रों, प्रशासकीय कर्मचारियों और चिकित्सकों की मेहनत लगी है। किताब इस बात का विश्लेषण करती है कि इतने बड़े पैमाने पर जब लोग एकत्रित होते हैं, तो किस-किस तरह के मुद्दे उठते हैं।

यह तय बात है कि मीडिया अगर अपनी पेशेवराना निष्पक्षता पर कायम रहता, नेताओं की बैठकों, सेलेब्रिटी के स्नानों की तस्वीरों को ही जारी कर पत्रकारिता की इतिश्री नहीं समझता, तो कुंभ मेले की ‘बदइंतजामी’ की जो तस्वीर अब सामने आ रही है, वह पहले ही उजागर होती और सरकार भी हरकत में आती।

वैसे पत्रकारों, विश्लेषकों के एक हिस्से ने यह चर्चा पहले ही शुरू की थी कि ‘दुनिया का यह सबसे बड़ा समागम’ सियासी आकाओं के लिए अपने आप को चमकाने का, सेल्फ ब्रांडिग’ का अच्छा अवसर प्रदान कर रहा था।

इस बात का आकलन करना मुश्किल नहीं है कि इस त्रासदी से ‘मोदी-योगी के बीच बढ़ते स्वर-वैषम्य /विस्वरता’ की ख़बरें भी आ रही हैं। फौरी तौर पर मोदी के बाद नम्बर 2 पद पर पहुंचने के योगी के इरादे भी फिलवक्त खटाई में पड़ते दिख रहे हैं। मालूम हो कि भले ही योगी को फौरी तौर पर झटका लगा हो – जो महाकुंभ के इस विशाल आयोजन के बाद अपनी इस छवि को अधिक जोरदार ढंग से प्रोजेक्ट करने की कोशिश में थे। मगर इस महाविशाल समागम का यही एकमात्र पहलू नहीं था।

व्यक्तिगत आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं अपनी जगह, मगर हिन्दुओं के इस महाविशाल समागम के बहाने हिन्दुत्व वर्चस्वशाली आंदोलन के विचारक एवं अग्रणी और बहुत कुछ करने की, कम से कम हिन्दुत्व के एजेण्डे को अधिक नार्मलाइज करने, अधिक व्यापक करने की दिशा में सक्रिय थे, हिन्दू राष्ट्र की दिशा में अपने बढ़ते कदमों पर अपनी मुहर लगाने में सक्रिय थे और उसमें वह निश्चित ही सफल होते दिख रहे हैं।

फिर चाहे तो धार्मिक अल्पसंख्यकों — खासकर मुसलमानों को — श्रद्धालुओं की सुरक्षा का बहाना बना कर — कुछ फेक न्यूज के बहाने हाशिये पर डालने या बिल्कुल ही अदृश्य करने का मामला हो या मेले में एकत्रित साधु-महात्माओं – जिन्हें सरकार की तरफ से पहले से ही बहुत कुछ दिया जा चुका है — की मौजूदगी में अपना असमावेशी एजेण्डा आगे बढ़ाने का प्रसंग हो, सब कुछ इरादों के हिसाब से ही घटित होता गया है।

याद रहे, कुछ माह पहले उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर प्रशासन ने एक आदेश जारी किया था (जुलाई 2024), जब कांवड यात्रा होने वाली थी। आदेश में कहा गया था कि यात्रा के रास्ते में जो होटल या ढाबे पड़ते हैं, उन्हें अपने दुकान के आगे मालिकों के तथा वहां कार्यरत लोगों के नाम लिखने होंगे। जिला प्रशासन के इस आदेश से न केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के मन में, बल्कि नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के मन में भी चिन्ता बढ़ी और जिसे अदालत में चुनौती दी गयी। कुछ समय बाद प्रशासन ने ‘आदेश’ के स्थान पर ‘सलाह’ लिखते हुए वही ऑर्डर जारी किया।

बाद में पता चला कि खुद योगी सरकार ने उसी किस्म का आदेश जारी किया, जिसका अनुकरण उत्तराखंड और मध्यप्रदेश सरकार ने किया। इन आदेशों को उच्चतम अदालत में चुनौती दी गयी। ऐसे आदेश भेदभाव को बढ़ावा देते हैं, यह जोर से रखा गया। अंततः इन आदेशों पर सुप्रीम कोर्ट ने स्थगनादेश दिया।

बाद में पता चला कि यूं तो औपचारिक तौर पर आदेश नहीं है, लेकिन इसके बावजूद दुकानदारों ने, होटल मालिकों ने अपने-अपने दुकानों के सामने यह विवरण दिए थे। अभी इस बात के प्रमाण नहीं हैं कि कहीं उन्हें किसी ने आतंकित किया है या नहीं, लेकिन हक़ीकत सभी के सामने है कि मुसलमानों को अलग-थलग करने के हिन्दुत्व के एजेण्डा पर ‘स्वेच्छा’ से अमल हो रहा था।

महाकुंभ ने इन ताकतों को एक मौका दिया कि वह मुसलमान व्यापारियों एवं छोटे दुकानदारों के खिलाफ अपने एजेण्डे को और मजबूती से आगे बढ़ायें और ‘दुनिया के इस सबसे बड़े समागम’ से उन्हें हाशिये पर डाल दें या एक तरह से गायब कर दें।

हम याद कर सकते हैं कि इस समागम में मुसलमानों के प्रवेश पर पाबंदी लगाने की बात कुछ महीना पहले से ही शुरू हुई थी और उसके लिए तरह-तरह के बहाने तलाशे जा रहे थे। यह खोखला दावा नहीं है, यह बात उस समय जाहिर हुई, जब मेला शुरू हुआ और साझी विरासत की यह परम्परा टूटती दिखाई दी।

‘जैसे ही मेला शुरू हुआ, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद, जो 13 हिन्दू मठों की संचालक निकाय है, की तरफ से ऐलान किया गया कि इस समागम में ‘‘गैर-सनातनी लोगों’’ — जो सनातनी हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है — के मेले में प्रवेश पर तथा स्टाॅल लगाने पर पाबंदी रहेगी।’

जैसे-जैसे मेला आगे बढ़ता गया, हिन्दुत्व का असमावेशी एजेण्डा बढ़ाने की एक्शन प्लान के कई अन्य चिंतित करनेवाले पहलू उजागर होने लगे। मौनी अमावस्या के एक दिन पहले — जिस दिन भगदड़ की दुर्घटना हुई — महाकुंभ में ‘सनातन धर्म संसद’ का आयोजन हुआ, जिसमें विभिन्न मठों के साधुओं ने हिस्सा लिया और जिसमें केन्द्र सरकार के पास भेजने के लिए कई एकांगी प्रस्ताव पेश हुए। इन प्रस्तावों में शामिल थे : एक अध्यादेश के माध्यम से ‘सनातन हिन्दू बोर्ड’ बनाने का प्रस्ताव — जिसके दायरे में पूरा भारत हो — और जिसकी बागडोर साधुओं के हाथ में हो। इतना ही नहीं, यह भी प्रस्ताव भी रखा गया कि कृष्ण जन्मभूमि के मुद्दे को भी राममंदिर की तर्ज पर सुलझा दिया जाए। यह बात रेखांकित करने वाली है कि इस चर्चा में अखाड़ा परिषद के लोगों ने हिस्सा नहीं लिया, क्योंकि वह सनातन बोर्ड के निर्माण के विरोध में है।

हाल के समय में सरकारी नियंत्रण से सभी मंदिर ‘मुक्त’ करने की मांग उठ रही है — जिसकी पहल विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों ने की है। यह प्रतिगामी कदम, इस बात को भी भुला देना चाहता है कि किस तरह इसके पहले तमाम बड़े मंदिर पुजारियों के छोटे-मोटे समूह के कब्जे में थे, जो न केवल इन मंदिरों की कमाई को अपने हाथ में रखते थे, बल्कि उसका बड़ा हिस्सा हड़प लेते थे।

इन समूहों के पास जबरदस्त ताकत हुआ करती थी और जो खुद हर किस्म के सुधार का विरोध करते थे और मंदिरों के फंड को सार्वजनिक कामों में भी नहीं लगाते थे। हम याद कर सकते हैं कि आजादी के बाद संगठित प्रयासों से, सरकारों की तरफ से इन तमाम मंदिरों का अधिग्रहण किया गया, जिसमें उन समाज सुधार आंदोलनों की अहम भूमिका थी, जो मंदिरों पर पुजारियों के समूह के विरोध में उठे थे।

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जिस दिन ‘सनातन बोर्ड’’ बनाने का प्रस्ताव कुंभ मेला में चर्चा में आया, उसी दिन ख़बर आयी कि प्रस्तावित ‘‘अखंड हिन्दू राष्ट्र’’ का ‘‘संविधान’’ अब लिख कर तैयार है और जिसका महाकुंभ में कभी भी विमोचन किया जा सकता है और बसंत पंचमी के दिन उसे केन्द्र को भेजा जा सकता है।

मालूम हो कि 501 पेज के इस ‘‘संविधान’’ को 25 विद्वानों की कमेटी ने तैयार किया है, जिसमें उन्होंने रामायण, कृष्ण, मनु और चाणक्य अर्थशास्त्र से प्रेरणा ली है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी और नई दिल्ली में स्थित सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी से जुड़े विद्वान इसके निर्माण में सक्रिय रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने ‘हिन्दू राष्ट्र संविधान निर्माण समिति’ का गठन किया था। सबसे अधिक विचलित करने वाली बात थी कि इस कमेटी के संरक्षक ने ऐलान किया कि उनका लक्ष्य है वर्ष 2033 तक भारत को हिन्दू राष्ट्र बना देना।

कल्पना करें कि अगर इसी किस्म की तैयारी या ऐलान भारत में रह रहे विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों ने अपने-अपने किसी धार्मिक महोत्सव के दौरान किया होता, तो क्या कानून एवं व्यवस्था की मशीनरी खामोश रहती या उनके खिलाफ कार्रवाई करती।

प्रश्न उठता है कि आजादी के आंदोलन के दौरान जिस संविधान की रूपरेखा बनी और स्वाधीनता के बाद डॉ. अम्बेडकर की अगुआई में उसे आकार दिया गया और जो संविधान विगत 75 साल से अधिक समय से देश को दिशा-निर्देशित कर रहा है, उसको प्रश्नांकित करने के ऐसे प्रयासों पर मौन क्यों है?

वैसे हम यह देखते हैं कि संविधान बदलने की बात छेड़ने का यह कोई पहला मौका नहीं है। हम याद कर सकते हैं कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के चंद दिनों के बाद ही भाजपा के एक संसद सदस्य के घर पर एक बैठक हुई थी, जिसमें एक नए संविधान की बात पर जोर दिया गया था। राम मंदिर आंदोलन से जुड़े स्वामी मुक्तानंद सरस्वती और वामदेव महाराज ने इस प्रेस सम्मेलन को संबाोधित किया था। उन्होंने दावा किया कि ‘‘मौजूदा संविधान हिन्दू विरोधी है और उसे खारिज करना चाहिए। हमें ‘‘देश के कानूनों पर यकीन नहीं है और साधु देश के कानून से ऊपर हैं।”

वाजपेयी सरकार ने भी संविधान में तब्दीली की कोशिश की थी, जब उन्होंने संविधान की समीक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश वेंकटचलैया की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था। यह अलग बात है कि 2004 में सत्ता से बाहर होने के बाद उनका वह एजेण्डा फुस्स हो गया था।

हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि ऐसी कोशिशें कभी खत्म नहीं होंगी, क्योंकि हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतें — जिन्होंने हमेशा आजादी के आंदोलन से दूरी बनाए रखी — उनके मन में संविधान के प्रति गहरा विरोध हमेशा से रहा है और वह यह भी जानते हैं कि उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा संविधान ही है।

फिलवक्त हमें त्रिसूत्री रणनीति अपनानी होगी : एक, संविधान की हिफाजत करना ; दो, ऐसे तत्वों को बेपर्द करना, जो हिन्दुत्व वर्चस्ववाद के पक्ष में तथा संविधान के सिद्धांतों और मूल्यों के खिलाफ खड़े हों ; तीसरे, ऐसी सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों/आंदोलनों का संचालन करना, ताकि आम लोगों को उस विचार के सम्मोहन से दूर किया जा सके।

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