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हिंदुत्व के समर्थक नहीं, विरोधी थे नेताजी

हिंदुत्व के समर्थक नहीं, विरोधी थे नेताजी

ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का भारत के उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवादी नेतृत्व के प्रति प्यार उमड़ पड़ा हैं। ऐसा नहीं है कि वे साम्राज्यवाद विरोध, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता जैसे मूल्यों, जिनके नेताजी हमेशा समर्थक रहे थे, के प्रति अपने प्रेम और सम्मान के कारण ऐसा कर रहे हैं। चूंकि उनके पास अतीत में हिंदुत्व के ऐसे वैचारिक प्रतीक नहीं हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया हो, वे ऐसे प्रतीकों की तलाश में भटक रहे हैं। उनके स्वयं के प्रतीकों का महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आज़ाद, बादशाह खान जैसे कांग्रेस (आईएनसी) नेतृत्व के योगदान से कोई मेल नहीं है। इसलिए वे इन नेताओं को, जो औपनिवेशिक शक्तियों के खिलाफ एक साथ खड़े थे, सबसे अपमानजनक तरीके से एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश करते हैं। यह तरीका उन्होंने अपनी खोखली साख को बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किया है।

पटेल के बाद, हिंदुत्व के ताजा शिकार नेताजी बोस है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की है कि नेताजी का जन्मदिन पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाएगा। एक नजर से देखने पर इसमें कोई बुराई नहीं दिखती, लेकिन समस्या तब पैदा होती है, जब कोई यह देखता है कि सरकार, हिंदुत्व का व्यापक तंत्र और सबसे खराब, खुद प्रधानमंत्री द्वारा इसे कैसे आयोजित किया जाता है और सार्वजनिक रूप से इसे किस तरह प्रचारित किया जाता है।

पश्चिम बंगाल चुनावों के दौरान, आरएसएस-भाजपा ने नेताजी की विरासत को भुनाने के लिए उनके कई जीवित रिश्तेदारों में से एक को भाजपा में शामिल करने और कुछ अस्पष्ट और अप्रमाणिक दस्तावेजों को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने की पूरी कोशिश की। बहरहाल, इससे कोई मदद नहीं मिली और भाजपा राज्य में विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार गई।

हमें यकीन है कि नेताजी की जयंती का जश्न के शुरू होने के बाद यही नाटक शुरू हो जाएगा। लेकिन हमें भाजपा के जाल में फंसने से पहले और नेताजी के खिलाफ दूसरे नेताओं को खड़े करके उन्हें बदनाम करना शुरू करने से पहले, कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरण के लिए, भले ही नेताजी ने गांधी से असहमति जताते हुए कांग्रेस छोड़ दी थी, लेकिन उन्होंने कभी गांधी, नेहरू और कांग्रेस की निंदा नहीं की। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी (आइएनए) की रेजिमेंटों का नाम कैसे रखा था। उन्होंने इनका नाम गांधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड और रानी लक्ष्मी बाई ब्रिगेड रखा। महारानी लक्ष्मीबाई को छोड़कर, सभी रेजिमेंटों का नाम कांग्रेस के दिग्गजों के नाम पर रखा गया था।

नेताजी ने कांग्रेस नेतृत्व के प्रति आदर और सम्मान के कारण ऐसा किया था, भले ही वे उनसे अलग हो गए थे। वीडी सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी या उस समय सक्रिय किसी अन्य आरएसएस विचारक के नाम पर किसी रेजिमेंट का नाम उन्होंने नहीं रखा था। उनके लिए, राष्ट्रीय आंदोलन के सच्चे नेता नेहरू, गांधी और आज़ाद थे। यह 1943 में बैंकॉक से निर्वासन में नेताजी द्वारा गांधी के 74वें जन्मदिन पर दिए गए भाषण से साबित होता है, जिसमें उन्होंने गांधी के योगदान को ‘अद्वितीय और बेमिसाल’ बताया था। नेताजी ने आगे कहा था कि ”कोई भी व्यक्ति समान परिस्थितियों में एक ही जीवन काल में इससे अधिक हासिल नहीं कर सकता।”

नेताजी ने कांग्रेस के वामपंथी धड़े से खुलकर अपनी पहचान बनाई। उन्होंने नेहरू को अपने वामपंथी साथियों में गिना और अपनी पुस्तक ‘द इंडियन स्ट्रगल’ में उनका वर्णन इस तरह किया : ‘उनका दिमाग वामपंथियों के साथ है, लेकिन उनका दिल महात्मा गांधी के साथ है।’ इस किताब में नेताजी ने बोल्शेविक क्रांति की बहुत प्रशंसा की है और भारत की नियति को उससे जोड़ा है। उन्होंने लिखा :

‘बीसवीं सदी के दौरान, रूस ने सर्वहारा क्रांति, सर्वहारा सरकार और सर्वहारा संस्कृति में अपनी उपलब्धियों के माध्यम से संस्कृति और सभ्यता को समृद्ध किया है। दुनिया की संस्कृति और सभ्यता में अगला उल्लेखनीय योगदान भारत से ही करने का आह्वान किया जाएगा। (पृष्ठ 372)

उन्होंने आगे विस्तार से बताया :

‘‘मैं इस बात से पूरी तरह संतुष्ट हूं कि साम्यवाद, जैसा कि मार्क्स और लेनिन के लेखन और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की नीति के आधिकारिक बयानों में व्यक्त किया गया है, राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संघर्ष को पूर्ण समर्थन देता है और इसे अपने विश्व दृष्टिकोण का अभिन्न अंग मानता है। आज मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे के रूप में संगठित किया जाना चाहिए और इसका दोहरा उद्देश्य होना चाहिए — राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करना और समाजवादी शासन की स्थापना करना।’’ (पृष्ठ 394)

चूंकि आरएसएस-बीजेपी ने हमेशा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद का मजाक उड़ाया है और सभी तरह के कम्युनिस्टों को “राष्ट्र-विरोधी” बताया है, इसलिए उन्हें नेताजी को भी ऐसा ही कहना चाहिए, क्योंकि उन्होंने खुले तौर पर समाजवाद और कम्युनिस्टों से सहानुभूति जताई थी। लेकिन वे ऐसा करने की कभी हिम्मत नहीं करेंगे। इसके बजाय, वे भारत के लोगों के बीच नेहरू और गांधी के विरोध में नेताजी की तस्वीर पेश करेंगे, ताकि खुद के लिए झूठी राजनीतिक शान बटोर सकें।

चूँकि नेताजी ने राजनीति के अपने पाठ देशबंधु चित्तरंजन दास से सीखे थे, जिन्होंने बंगाल में मुस्लिमों के सामाजिक-राजनीतिक उत्थान के लिए 60% सीटें आसानी से आबंटित कर दीं थी, इसलिए वे दिल से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी थे। नेताजी ने घोषणा की थी, “अगर हम भारत को वास्तव में महान बनाना चाहते हैं, तो हमें एक लोकतांत्रिक समाज के आधार पर एक राजनीतिक लोकतंत्र का निर्माण करना होगा। जन्म, जाति या नस्ल के आधार पर विशेषाधिकार समाप्त होने चाहिए और जाति, नस्ल या धर्म के भेदभाव के बिना सभी के लिए समान अवसर खुले होने चाहिए।” उन्होंने भारतीयों को यह भी चेतावनी दी कि “धार्मिक कट्टरता सांस्कृतिक अंतरंगता के मार्ग में सबसे बड़ा कांटा है… और कट्टरता से निपटने के लिए धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक शिक्षा देने से बेहतर कोई उपाय नहीं है।”

नेताजी के धर्मनिरपेक्षता के खांचे पर टिप्पणी करते हुए हार्वर्ड विश्वविद्यालय के इतिहासकार सुगाता बोस (जो नेताजी के परपोते भी हैं) ने अपनी पुस्तक ‘हिज मैजेस्टीज ऑपोजिशन’ में लिखा है कि : “नेहरू की धर्मनिरपेक्षता, जिसमें धार्मिक मतभेदों को अभिव्यक्ति करने के प्रति अरुचि थी, और गांधीजी द्वारा जन राजनीति को सक्रिय करने के लिए विभिन्न धार्मिक विश्वासों का उपयोग करने के बीच एक मध्य मार्ग की तलाश नेताजी कर रहे थे।” (पृष्ठ. 59)

आज जब राजनेता अपनी हिंदू पहचान साबित करने के लिए मंदिर-मंदिर घूमने में व्यस्त हैं, नेताजी ने राजनीति और धर्म के बीच सख्त विभाजन रखा था।

नेताजी के पुराने हमवतन आबिद हसन सिंगापुर में हुई एक घटना को याद करते हैं, जब नेताजी को अनिच्छा से चेट्टियार मंदिर में प्रवेश करने के लिए मजबूर किया गया था। नेताजी, हसन और मोहम्मद ज़मान कियानी के सिर पर चंदन के तिलक लगाए गए थे। मंदिर से बाहर निकलने के बाद नेताजी ने इसे पोंछ दिया, और उनके अनुयायियों ने भी ऐसा ही किया। दिलचस्प बात यह है कि नेताजी ने मंदिर में प्रवेश करने का फैसला केवल इसलिए किया था, क्योंकि मंदिर के अधिकारी सभी जातियों और समुदायों के लिए एक राष्ट्रीय बैठक आयोजित करने के लिए सहमत हुए थे। (वही, 256)

नेताजी संस्कृतनिष्ठ हिंदी की जगह उदारवादी हिंदुस्तानी का उपयोग करने के प्रति भी सचेत थे। परिणामस्वरूप, टैगोर के ‘जन गण मन’ का एक सरल हिंदुस्तानी अनुवाद राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया। इसके साथ ही, तीन उर्दू शब्द, एत्माद (विश्वास), इत्तेफ़ाक (एकता), और कुर्बानी (बलिदान) – को आईएनए के आदर्श वाक्य के रूप में समाहित किया गया।

नेताजी ने आईएनए सैनिकों के कंधे के बैज के लिए, उछलते हुए बाघ के प्रतीक चिन्ह को भी अपनाया था, जो टीपू सुल्तान से लिया गया था।

समाजवाद की तरह ही धर्मनिरपेक्षता भी आरएसएस-बीजेपी के लिए बड़ी समस्या है, जबकि नेताजी इसके कट्टर और अडिग समर्थक थे। क्या आरएसएस-बीजेपी नेताजी की धर्मनिरपेक्ष साख का मजाक उड़ाने की हिम्मत करेगी? बेशक नहीं। वे झूठ का सहारा लेंगे और हिंदू-मुस्लिम एकता के महत्वपूर्ण आधार पर जोर दिए बिना ही उनकी सैन्य वीरता के बारे में बात करेंगे।

हिंदुत्व और उसके कुख्यात जनक सावरकर के बारे में नेताजी ने बहुत ही अप्रिय बातें कहीं थीं। अपनी पुस्तक ‘द इंडियन स्ट्रगल’ में नेताजी ने सावरकर और जिन्ना के साथ हुई मुलाकात का जिक्र किया है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की राजनीति बहुत हद तक एक जैसी थी और उन्होंने उन्हें एक ही राजनीतिक आधार पर रखा। नेताजी ने लिखा,

‘‘उस समय श्री जिन्ना केवल यही सोच रहे थे कि अंग्रेजों की मदद से पाकिस्तान (भारत का विभाजन) के अपने विचार को कैसे साकार किया जाए। भारतीय स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ने का विचार उन्हें पसंद नहीं आया… श्री सावरकर अंतर्राष्ट्रीय स्थिति से बेखबर लग रहे थे और केवल यही सोच रहे थे कि कैसे हिंदू भारत में ब्रिटेन की सेना में प्रवेश करके सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं। इन साक्षात्कारों से, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मजबूर हुआ कि मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा से कुछ भी उम्मीद नहीं की जा सकती।” (पृष्ठ 344)

बंगाल में नेताजी के जुझारूपन और आधुनिकता ने उच्च जाति/वर्ग के ब्राह्मणवादी तत्वों की नाराजगी को भी आमंत्रित किया, जिनकी आज आरएसएस-बीजेपी के भीतर मजबूत पैठ है। बंगीय ब्राह्मण सभा ने नेताजी और उनके भाई शरत बोस की आलोचना की और कहा,

‘‘कांग्रेस अपनी पुरानी जड़ों से भटक गई है और अपना चरित्र बदल चुकी है। इसके राजनेता और उनके अनुयायी अब ज्यादातर अशिक्षित और कम जानकारी वाले लोग हैं, जो आधुनिक आयरिश इतिहास, इतालवी और ऑस्ट्रियाई क्रांतियों, फ्रांसीसी गणतंत्रवाद और सोवियत शासन के आयातित साहित्य से पोषित हैं। वे भारत पर पश्चिमी सभ्यता के प्रयोगों को आजमाने के लिए उत्सुक हैं … और ब्राह्मणवादी पदानुक्रम और जमींदारी प्रथा जैसी स्थापित संस्थाओं को एक संबद्ध प्रणाली के रूप में खत्म करना चाहते हैं … जो सामाजिक सुधार के नाम पर हिंदू धर्म की जड़ों पर प्रहार करती है।’’ (जे. चटर्जी, बंगाल डिवाइडेड, पृष्ठ 134)

यह वह संदर्भ था, जिसमें हिंदू महासभा बंगाल में आगे बढ़ी और कलकत्ता के बड़े व्यापारियों से उसे मजबूत समर्थन मिला। वे बोस बंधुओं के आधुनिक विचारों से असंतुष्ट थे। हिंदू महासभा को धनी बंगालियों का भी समर्थन मिला, जिन्होंने इसके उद्घाटन सम्मेलन के लिए 10,000 रुपये का एक अच्छा-खासा धन जुटाया था।

और जब हिंदुओं का समर्थन जुटाने के लिए मुस्लिम अत्याचार का भूत उठाया गया, तो नेताजी ने इसका तीखा विरोध किया। अपनी आत्मकथात्मक रचना ‘एन इंडियन पिलग्रिम’ में, नेताजी ने भारतीय इतिहास में ‘मुस्लिम काल’ के तर्क का ज़ोरदार तरीक़े से विरोध किया और प्लासी की लड़ाई को एक साझा दुश्मन के ख़िलाफ़ हिंदू-मुस्लिम सहयोग के उदाहरण के रूप में पेश किया। उन्हें विस्तार से उद्धृत करना उचित है। उन्होंने लिखा है :

‘‘इतिहास मेरे द्वारा कही गई इस बात की पुष्टि करेगा कि अंग्रेजों के आगमन से पहले भारत में राजनीतिक व्यवस्था का वर्णन करते समय मुस्लिम शासन की बात करना गलत है। चाहे हम दिल्ली में मुगल सम्राटों की बात करें या बंगाल के मुस्लिम राजाओं की, हम पाएंगे कि दोनों ही मामलों में प्रशासन हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा मिलकर चलाया जाता था, कई प्रमुख कैबिनेट मंत्री और सेनापति हिंदू थे। इसके अलावा, भारत में मुगल साम्राज्य का सुदृढ़ीकरण हिंदू सेनापतियों की मदद से हुआ था। नवाब सिराजुदौला का सेनापति, जिसके खिलाफ अंग्रेजों ने 1757 में प्लासी में लड़ाई लड़ी थी और हराया था, एक हिंदू था।’’ (एस बोस. (संपादक), नेताजी कलेक्टेड वर्क्स, खंड-1, पृष्ठ 15).

निष्कर्ष के तौर पर, 23 जनवरी को जब प्रधानमंत्री एक जम्बूरी की स्थापना करेंगे, हमें असली नेताजी को याद करना चाहिए। और समाजवाद की चाह रखने वाले धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक भारतीय के रूप में हमें अपने आपको भाजपा द्वारा महान नेता सुभाषचंद्र बोस के (गलत) इस्तेमाल से खुद को दूर रखना चाहिए।

अनुवाद : संजय पराते

लेखक शुभम शर्मा एक स्वतंत्र शोध अध्येता हैं।

अनुवादक संजय पराते अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

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