‘वन नेशन वन इलेक्शन’ तो ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ क्यों नहीं?
जब किसी का हक मारा जाता है, किसी की परंपरा तोड़ी जाती है, किसी को आपने हरा दिया है तो क्या वो चुप बैठेगा? नहीं…वो बात अलग है कि वो किसी वजह से चुप रह जाए। यही राजनीति है। अनुसूचित जाति आरक्षण के मामले में सभी फैसले न्यायालय से आए हैं। लेकिन यह संभव नहीं है कि कोई लोकसभा या विधानसभा में अनुसूचित जाति के खिलाफ फैसला सुनाए। अगर आप लोकसभा या विधानसभा में अनुसूचित जाति के खिलाफ फैसला सुनाते हैं, अगर आप डॉ. अंबेडकर के खिलाफ फैसला सुनाते हैं, अगर आप तथाकथित बाल्मीकि के खिलाफ फैसला सुनाते हैं, अगर आप बुद्ध के खिलाफ फैसला सुनाते हैं, तो अनुसूचित जाति वर्ग अब इतना मजबूत हो गया है कि वह बहुत तेजी से प्रतिक्रिया करता है।
यहाँ सुप्रीम कोर्ट द्वारा सवाल उठा दिया गया है कि जो लोग काम करना शुरू कर चुके हैं, आप उनको धमकाते हैं कि आपको क्रीमी लेयर के जाल में फंसा दिया जाएगा। तो फिर सबको क्रीमी लेयर के जाल में फांस देना चाहिए….क्यों नहीं? जैसा कि OBC के मामले में सरकार द्वारा किया गया है किंतु यह व्यवस्था EWS वर्ग के बारे में क्यों नहीं की गई? और यह भी कि यदि ओबीसी के बच्चे शिक्षित नहीं होंगे। क्योंकि उनके पास शिक्षा के लिए पैसे नहीं हैं, वे किसान हैं। तो वो आरक्षण का लाभ उठाने के लिए वांछित अहर्ता पूरी नहीं करते तो उन्हें 27% का लाभ भी नहीं ले पायेंगे। यही पैमाना अनुसूचित / अनुसूचित जनजाति वर्गे के मामले में भी लागू होता है। ऐसे में इस वर्ग में आने वाली जातियों के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनके मामले में उपवर्गीकरण का सवाल उठाना किस प्रकार जायज ठहराया जा सकता है। यूँ भी कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के 1 अगस्त के फरमान ने खासकर चमार और वाल्मीकि के बीच दरार डालने का काम किया है। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट का ये सुझाव परदे के पीछे का एक राजनीतिक खेल लगता है। वह इसलिए कि इस प्रकार की सभी विवादित निर्णय राजनीतिक दल नहीं लेते। अनुसूचित जातियों के मामले में सभी निर्णय न्यायालय द्वारा लिए जाते हैं। सीधे-सीधे लोकसभा या विधानसभा में कोई फैसलाढाई नहीं लिया जाता। हाँ! अब सुप्रीम कोर्ट ने पूरा का पूरा मामला लोकसभा तथा विधान सभाओं के पाले में डाल दिया है।
आम तौर पर यह सवाल आमतौर पर उठाया जाता है कि नौकरियों में आरक्षण का लाभ मुख्यत: जाटव और यादव द्वारा हड़प लिया गया है। लेकिन यह कोई नहीं देखता कि इन वर्गों के लोगों में शिक्षा के प्रति अधिकाधिक आकर्षण पैदा हुआ है… इन वर्गों की अन्य जातियों में नहीं। ऐसे में यदि ईमानदारी से देखा जाये तो कम से कम यह तो कहा ही जा सकता है कि पिछड़े वर्ग का हक अधिकार यादवों और एससी-एसटी वर्ग का हक अधिकार जाटवों की वजह से सुरक्षित है। क्योंकि ये दोनों जातियां अपने अधिकारों को लेकर सैकड़ों वर्षों से जागरूक और संघर्षशील रही हैं। लगता है कि यही एक कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के फरमान को पूरे ‘पिछड़े समाज’ को ‘यादव समाज’ से लड़ाने और एससी-एसटी वर्ग की अन्य जातियों को ‘जाटव समाज’ से लड़ाने के षडयंत्र के रूप में देखा जा रहा है। अनुसूचित / अनुसूचित जनजाति वर्गे के बीच दरार डालने का प्रमाण भी अब हरियाणा से हमारे सामने आ गया है। जिसका खुलासा न्यूजवीक फाउंडेशन ने अपनी 20.10. 2024 एक खबर में किया है
बजरिए न्यूज़वीक फाउंडेशन यूट्यूब चैनल हरियाणा की बीजेपी सरकार ने आरक्षण के बंटवारे को मंजूरी दे दी है. बीजेपी सरकार ने कैबिनेट की पहली बैठक में ही अपने चुनावी वादों को पूरा कर दिया है क्योंकि दलितों को बांटकर चुनाव जीतने वाली बीजेपी का एजेंडा पूरा हो रहा है. हरियाणा की नायब सिंह सैनी सरकार ने दूसरे कार्यकाल के लिए सरकार बनते ही पहली कैबिनेट बैठक की और इस बैठक में हरियाणा में दलितों को आपस में बांटने के फैसले पर मुहर लगा दी. हरियाणा सरकार ने अनुसूचित जाति को आरक्षण दो हिस्सों में बांटा है। सुप्रीम कोर्ट की 8वीं सुनवाई में आरक्षण को मंजूरी दी गई। हरियाणा में अज्ञात जाति को कुल 20% आरक्षण मिलता है। अब इस 20% को 10-10 भागों में बांट दिया गया है। यानि 10% अनुसूचित जाति में वंचित वर्ग को दिया जाएगा, जिसे DSC कहते हैं। और 10% OSC यानि अन्य अनुसूचित जाति को दिया जाएगा।
यहाँ यह भी जानना जरूरी है कि हरियाणा की डीएससी और ओएससी की सूची में कौन-कौन सी जातियां शामिल हैं। अन्य अनुसूचित जाति यानी ओएससी (Other Scheduled Casts) में चमार, रैगर, रामदासी, रविदासी, बलाई, बटाई, मोची और जाटव जाति को शामिल किया गया है। डीएससी यानी वंचित अनुसूचित जाति में वाल्मीकि, धानक, ओढ़, बाजीगर, माजवी और माजवी सिख समेत 36 अन्य जातियों को भी इस सूची में शामिल किया गया है। यानी आरक्षण को जातियों में आधा-आधा बांट दिया गया है। नायब सिंह सैनी ने चुनाव से ठीक पहले वादा किया था कि अगर उनकी सरकार बनी तो वो आरक्षण बांटेंगे। और अब उन्होंने उस चुनावी वादे पर मुहर लगा दी है।
हालांकि इस फैसले को दलितों में आपस में बंटवारे और आरक्षण पर हमले के तौर पर देखा जा रहा है। बसपा सुप्रीमो बहन कुमारी मायावती ने इस फैसले पर कड़ी आपत्ति जताते हुए इसका विरोध किया है। बहनजी ने ट्विटर पर लिखा – हरियाणा की नई भाजपा सरकार का आरक्षण के कोटे के भीतर कोटे की नई व्यवस्था लागू करने का फैसला दलितों में फिर से बंटवारा करने और उन्हें आपस में लड़ाए रखने की साजिश है। यह दलित विरोध ही नहीं, आरक्षण का भी प्रबल विरोध है। हरियाणा सरकार को ऐसा करने से रोकने के लिए भाजपा के नेताओं का आगे न आना भी सिद्ध करता है कि कांग्रेस की तरह भाजपा भी पहले आरक्षण को खत्म करने, उसे अप्रभावी बनाने तथा अंत में समाप्त करने के षडयंत्र में लगी हुई है। जिसका प्रबल विरोध हो रहा है।
हरियाणा में बीजेपी का फार्मूला काम कर गया। हरियाणा में तीसरी बार बीजेपी की सरकार बनी। और अब महाराष्ट्र में भी यही फार्मूला लागू हो रहा है। महाराष्ट्र में भी आरक्षण का ऐलान हो चुका है, क्योंकि अगले महीने वहां भी चुनाव होने वाले हैं। चुनावी नफा-नुकसान को देखते हुए बीजेपी आरक्षण में बंटवारे के एजेंडे पर लंबे समय से काम कर रही है। लोकसभा चुनाव में माला और मादिगा समुदाय के बीच बहस में खुद पीएम मोदी ने आग उगलते हुए ऐलान किया था कि अगर वे सत्ता में आए तो आरक्षण में बंटवारा जरूर करेंगे।
एक तरफ तो भाजपा दलित वर्ग को बांटने की ओर राजनीति की नीति पर आगे बढ़ रही हैं। दूसरी तरफ भाजपा ने दलितों को क्रीमी लेयर पर लॉलीपॉप देने की भी घोषणा कर रही है। पिछले दिनों मोदी सरकार ने कहा था कि आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू नहीं होगी, लेकिन सरकार ने चुपचाप आरक्षण में वर्गीकरण को भाजपा राज्य में लागू भी कर दिया। खेद की बात तो यह है कि दलित वर्ग की बहुत सी जातियां शिक्षा के महत्त्व को न समझकर अपने ही वर्ग की कुछ जातियों के खिलाफ खड़े होकर अपनी जीत मान रही हैं। वे नहीं समझती कि भाजपा दलित जातियों को दो फाड़ करके “ बांटो और राज करो” की चाल चल रही है। यहाँ यह भी समझना होगा कि भाजपा/ एनडीए सरकार बाबा साहब अंबेडकर के बनाए संविधान के खिलाफ है। बाबा साहब अंबेडकर के संविधान के अनुसार एससी और एसटीके आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू नहीं होती है। एससी और एसटीके आरक्षण में क्रीमी लेयर भी लागू नहीं होती है।
यानी बीजेपी सरकार ने दोनों हाथों में मिठाई रखी, क्रीमी लेयर पर बयान देकर दलितों का गुस्सा शांत किया, उपवर्गीकरण लागू किया और कुछ दलित जातियों का वोट भी हासिल किया। हरियाणा में कोटा के भीतर कोटा लागू होने के बाद कुछ जातियां इसका खुले दिल से स्वागत कर रही हैं। सोशल मीडिया पर दिवाली मनाने के वीडियो शेयर किए जा रहे हैं। इन जातियों को लगता है कि अब उनकी जाति के सभी लोगों को अच्छी नौकरी मिलेगी और उनकी जाति के लोग बड़े अधिकारी बन सकेंगे। लेकिन क्या ऐसा सोचना सही है? आंकड़े क्या कहते हैं? हरियाणा की अनुमानित जनसंख्या करीब 3 करोड़ है। लेकिन हरियाणा में सरकारी कर्मचारियों की संख्या सिर्फ 2,85,000 है। यानी करीब 100 लोगों पर एक व्यक्ति को नौकरी मिलती है। अगर इस संख्या के हिसाब से अनुमान लगाया जाए तो कुल 2,85,000 नौकरियां, उसमें से 10% यानी 28,500 नौकरियां DSC सोसायटी से आईं। यानी सिर्फ 28,500 नौकरियां ही DSC सोसायटी से आईं। यह एक अनुमानित संख्या है। वास्तव में डीएससी को इससे भी कम नौकरियां मिलेंगी। क्योंकि हरियाणा में बहुत अधिक रिक्तियां नहीं हैं।
लेकिन इतनी नौकरियों के लिए समाज को आपस में बांट दिया गया और एक जाति को दूसरी जाति से लड़ा दिया गया। मुद्दा यह होना चाहिए था कि सवर्णों ने सबके अधिकार क्यों छीन लिए? क्यों गैरदलित जातियां सभी सरकारी नौकरियों की 50% नौकरियों पर कब्जा कर रही हैं? उन्होंने सभी संस्थानों पर कब्जा कर लिया है। यानी जिसने सब कुछ खा लिया, सब कुछ पचा लिया, उसकी बात नहीं होती। लेकिन जिसने थोड़े निवाले खाए, उस पर सबसे ज्यादा खाने का आरोप लगा दिया गया। एससी-एसटी के आरक्षण में एससी-एसटी को आपस में बांटने का मतलब है ताकि वंचित जातियां कभी एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ न सकें। यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी लगता है कि दलित वर्ग की चमार/जाटव जाति नें अपने परंपरागत पेशे यानी चमड़े के काम को सिरे से छोड दिया किंतु वाल्मीकी समाज के वंचित तबके ने झाड़ू का मोह नहीं छोड़ा जबकि वाल्मीकी समाज में जो पढ़ा- लिखा तबका है, उनमें बहुत से लोग आरक्षण नीति के तहत सरकार के उच्चतर पदों पर तैनात है।
सबसे पहले, जो आरक्षण पा रहे हैं और जो इसके लायक नहीं हैं, उन्हें उन श्रेणियों से आरक्षण दिया गया। लेकिन ये लोग वर्गीकरण करके क्या करेंगे? जो इसके लायक नहीं हैं, उन्हें एससी-एसटी से आरक्षण मिलता था, जो एक मजबूत जाति थी। अब ये चुपचाप क्या करेंगे? अब वंचित दलित जातियों में रिक्त रह जने वाली नौकरियों को सामान्य वर्ग के लोगों के लिए आरक्षित कर दिया जाएगा । आरक्षण में बंटवारा और क्रिमिलयार का तर्क अंततः आरक्षण के अंत का कारण बनेगा। कुछ वर्षों बाद यह कहा जाएगा कि आरक्षण का सबसे अधिक लाभ इन्हीं जातियों ने उठाया है। इसलिए इन जातियों को आरक्षण से बाहर कर देना चाहिए। और फिर यह भी कहा जाएगा कि आरक्षण जाति के आधार पर नहीं, बल्कि गरीबी के आधार पर होना चाहिए। और हो सकता है कि सभी तरह के आरक्षण खत्म होने के बाद गरीबी के आधार पर ही आरक्षण लागू हो जाए। और इसका सबसे ज्यादा फायदा संप्रभु लोगों को होगा। जैसे EWS में सबसे ज्यादा फायदा उठा रहे हैं। ये बहुत बड़ी साजिश है, लेकिन फिर भी कुछ दलित जातियों को लगता है कि ये उनके भले के लिए हो रहा है। अब ये फैसला कितना अच्छा होगा? ये तो आने वाले समय में पता चलेगा जब हरियाणा में भर्ती निकलेगी। उसमें किसको कितनी नौकरियाँ मिलती हैं, वंचित समाज के कितने ISI, IPS अधिकारी बनते हैं, वो आपके सामने आ जाएगा।
समझने की बात तो यह है कि एक अगस्त को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एससीएसटी के आरक्षण में वर्गीकरण के बाद अब भाजपा सरकार के सामने ‘एक देश एक चुनाव’ का मुद्दा है कि मोदी जी को बार बार चुनावों पर खर्चा करने की चिंता सताने लगी है। लेकिन इस मुद्दे के इतर ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ का महत्वपूर्ण मुद्दे को कतई भुला दिया गया है। खेद की बात यह है कि शिक्षा पर सरकारी स्कूलों पर ना के बराबर खर्च होता है। अधिकतर गांवों में अवस्थित सरकारी स्कूलों को आर्थिक स्थिति कमजोर होने के बहाने बंद कर दिया गया है। ऐसा करने के पीछे इस साजिश की बू आती है कि गरीबों के बच्चे पढ़ ही नहीं पाएं। ऐसा नहीं है कि गांवों में सभी सवर्ण धनाढ्य है या शिक्षा के प्रति जागरूक हैं, हां इसमें कोई शंका नहीं कि समाज में उनकी स्थिति अछूत और मुस्लिम जैसी अल्पसंख्यक जातियों से बेहतर है। सबसे .पहली तो ये कि उन्हें सामाजिक अपमान का शिकार होना नहीं पड़ता। फलत: उनका मनोबल समाज की अन्य कमजोर जातियों के मुकाबले जबर होता है।
1 अगस्त को उपवर्गीकरण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फरमान जारी किया है, वो निरानिरी अनुसूचित/अनुसूचित जाति वर्ग की जातियों के बीच तकरार कराने का मकसद स्पष्ट दिखाई देता है जिसमें सुप्रीम कोर्ट कुछ हद तक सफल भी हो गया लगता है। दरअसल 1 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फरमान को निर्णय नहीं है, वो केवल एक सुझाव है। जिसको लागू करना सहज और सरल नहीं है। वह इसलिए कि जब तक देश में जाति जनगणना नहीं हो जाएगी और अनुसूचित/अनुसूचित जाति वर्ग की जातियों के शिक्षागत और नौकरी पेशा लोगों की जातिवार आँकड़े सामने नहीं आते। और इस प्रस्तावित सुझाव को लोकसभा द्वारा पारित अधिनियम के बिना लागू नहीं किया जा सकता है।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि सरकारी स्कूलों के बंद होने के कारण गांवों में शिक्षा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है, और निरंतर गिरता ही रहेगा। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मामलों में शहरों और गांवों में पहले से ही बहुत बड़ा अन्तर है। आँज जबकि सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं तो आम आदमी को ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ के मुद्दे की आवाज को जोरों से उठाना चाहिए। कभी कभार यह ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ वाला मुद्दा उठाया भी जाता है तो केवल समाज के बुद्धिजीवी शिक्षकों द्वारा उठाया जाता है। संसद में बहुजन के प्रतिनिधि राजनीतिज्ञों द्वारा ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ का मुद्दा क्यों नहीं उठाया जाता?
यह भी कि रिज़र्वेशन का विरोध करने वालों की सबसे बड़ी आपत्ति सरकारी नौकरियों पर होती है… राजनीति में आरक्षण पर नहीं। जबकि आज के समय में सरकारी नौकरियों पर तो मोदी सरकार पालथी मारकर बैठी है। निजी क्षेत्रों की व्यावसायिक इकाईयों को बल प्रदान किया जा रहा है जो अक्सर ठेका-आधार पर कर्मचारियों की भर्ती करते हैं। न केवल इतना वो संस्थान सरकार द्वारा तय वेतन तक भी नहीं देते। ऐसे में आरक्षण के खिलाफ बगावत करना, कितना तर्कसंगत है, ये विरोधी ही सोचें। दूसरे, समूचे समाज में देश की 85% जनता को केवल 50% प्रतिशत का आरक्षण तय है, इसके विपरीत देश की 15% जनता के लिए भी 50%….. इस व्यवस्था को कैसे न्याय संगत ठहराया जा सकता है? कहना अतिशयोक्ति न होगा कि रिजर्वेशन वास्तव में जैसा है और इसे जैसे पेश किया जाता है, इसमें में बड़ा फर्क है। आरक्षण का विरोध करने वाले राजनीति से ज्यादा अक्सर जाति के दंभ के जरिए सियासत करते हैं। उमेश चन्द ने गोयल जी हौसला अफजाई करते हुए लिखा कि गोयल जी! बात तो सही कही है आपने… किंतु लोग लोग समझे तब न… उनकी चिंता ये है कि यदि देश में गठबंधन की सरकार आ गई तो हिन्दुओं को सरंक्षण भी नहीं मिलने वाला। अब ये शंका इन्हें किस वजह से है ये समझ से परे की बात इसलिए है कि हिन्दुओं के पास तो अनेकानेक भगवान हैं…क्या वे इनकी रक्षा करने में असक्षम हैं। उमेश जी की चिंता तो शायद इस ओर ही इशारा कर रही है।
भारत में जाति-प्रथा हमेशा से क्रूर तरीके से बनी आ रही है।… आज भी वैसे ही है। राजनीति बेशक जाति-प्रथा के कम हो जाने का ढोल पीटती रहे किंतु वास्तविक जीवन में जाति-प्रथा आज भी बदस्तूर बरकरार है। अखबारों के स्थानीय पन्नों में छपने वाले ‘दलित को घोड़ी चढ़ने पर पीटा’ जैसे समाचार छोड़ दीजिए, सोशल मीडिया पर दलित प्रतीकों की ट्रोलिंग इस सत्य के प्रमाण हैं। फ़िर अनुसूचित जातियों/जन जातियों के आरक्षण पर आपत्ति क्यों? आपत्ति तो इस बात पर होनी चाहिए कि भारतीय समाज की 15% आबादी को 50% आरक्षण क्यों? होना तो ये चाहिए कि भारतीय समाज की तमाम जातियों को उनकी संख्या के आधार पर सरकारी नौकरियों में ही नहीं, अपितु हरेक क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान कर दिया जाना चाहिए जिससे ये रोज-रोज का आरक्षण विलाप शायद बन्द हो जाए।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।