झूठ का पुलिंदा है राष्ट्रपति का अभिभाषण!

संजय पराते
राष्ट्रपति द्वारा संसद में दिया जाने वाला वक्तव्य, जिसे राष्ट्रपति का अभिभाषण कहा जाता है, स्वयं उनके द्वारा लिखा गया वक्तव्य नहीं होता है। यह वक्तव्य उस सत्ताधारी पार्टी द्वारा लिखा जाता है, जिसका वह प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए जब अपने अभिभाषण में “मेरी सरकार” कहकर संसद को संबोधित करती है और सरकार और सत्ताधारी पार्टी का गुणगान करती है, तो उस अभिभाषण में लिखे गए प्रत्येक शब्द के उच्चारण, उसके गलत तथ्यों के प्रति वह स्वयं ही जिम्मेदार हो जाती हैं। आदिवासी समुदाय से जुड़ी राष्ट्रपति, जिसका उल्लेख भाजपा बार-बार करती है, से मिथ्या वचन कहलाने के पाप से भाजपा बरी नहीं हो सकती। सोनिया गांधी की टिप्पणी “पुअर लेडी” को इसी संदर्भ में देखना चाहिए।
कुछ भी नया नहीं था इस बार राष्ट्रपति के अभिभाषण में, तो इसलिए कि इस सरकार के पास कॉर्पोरेटपरस्ती के सिवा कुछ करने-बोलने को नया कुछ भी नहीं है। पुराने तथ्यों को ही अप्रमाणित आंकड़ों के साथ पेश करने और विकसित भारत के रूप में आम जनता की भावनाओं को सहलाने के सिवा इस सरकार के पास उसे देने के लिए और कुछ नहीं है। ‘विकसित भारत’ की यह संकल्पना भी अब सरकार के धत्कर्मों से ‘हिन्दू भारत’ में तब्दील होती जा रही है। इस बजट सत्र के पहले ही दिन जिस तरह प्रधानमंत्री ने “लक्ष्मी और महालक्ष्मी” का जाप किया, वह इसी को बताता है कि इस देश की अर्थव्यवस्था भगवान भरोसे ही चलेगी और उसके खिलाफ पनपे असंतोष को बर्बर तरीके से कुचला जाएगा। मोदी सरकार के अब तक के तौर तरीके तो यही बताते हैं, लेकिन इस सब पर राष्ट्रपति महोदया चुप है।
अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति ने 25 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकालने का दावा किया है, किसानों के हित के लिए नई-नई योजनाओं को लाने की बात की है, भारत के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने की रट को फिर रटा है, एक देश, एक चुनाव की परियोजना पर काम आगे बढ़ने की सूचना दी है, मेक इन इंडिया पर अब ग्लोबल लेवल चिपकने की नई जानकारी दी है, बताया है कि देश में उच्च शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ी है और शिक्षा क्षेत्र में भारत के पुराने गौरव को वापस लाने की कोशिश हो रही है, आदि-इत्यादि। इन सब ‘अप्रमाणित’ आंकड़ों, दावों और तथ्यों के साथ उन्होंने यह दावा किया है कि “मेरी सरकार” की प्राथमिकता किसान, गरीब और युवा है, महिलाओं को सशक्त करने का प्रयास किया जा रहा है, गरीबों को गरिमापूर्ण जीवन दे रही है, आदि-इत्यादि। अप्रमाणित इसलिए कि हमारे ही देश के कई अर्थशास्त्रियों ने सरकार की कथित उपलब्धियों को प्रमाणित आंकड़ों के साथ तार्किक चुनौती दी है, अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां भी सरकार के दावों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और उनके शोध कुछ और ही तस्वीर पेश करती हैं और सबसे बड़ी बात, जमीनी हकीकत कुछ और ही कहती है।
मसलन, 25 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकालने के राष्ट्रपति के दावे को ही लें। यह दावा इस तथ्य की संगति में नहीं बैठता कि मोदी सरकार, उसके दावे के ही अनुसार, 80 करोड़ लोगों को जिंदा रहने के लिए 5 किलो अनाज हर माह मुफ्त देने के लिए बाध्य है। हाल ही में, वर्ष 2023-24 के लिए सरकार ने ही उपभोक्ता व्यय के जो आंकड़े प्रकाशित किए हैं, उसके अनुसार चार व्यक्ति के परिवार के लिए औसत मासिक व्यय ग्रामीण क्षेत्रों में 8079 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 14528 रुपए ही है। इस औसत मासिक व्यय की गणना गरीब और अमीर सभी परिवारों को मिलाकर की गई है। इसका अर्थ है कि गरीब परिवार इस औसत से भी काफी नीचे पर गुजारा करते हैं और इस अल्प व्यय के साथ किसी परिवार के गरीबी रेखा से ऊपर होने की कल्पना तो केवल राष्ट्रपति महोदया ही कर सकती है।
इसी प्रकार, यह एक स्थापित तथ्य है कि मोदी शासन के एक दशक में एक लाख से ज्यादा किसानों और खेत मजदूरों ने आत्महत्या की है, जो देश में भयावह कृषि संकट की ओर इशारा करता है। वर्ष 2014 में सत्ता में आने से पूर्व भाजपा का वादा था कि वह किसानों का कर्ज माफ करेगी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार, सकल लागत सी-2 का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देगी। सरकार ने इन दोनों वादों के साथ स्पष्ट धोखाधड़ी की है और इसकी जगह कॉर्पोरेटपरस्त तीन कृषि कानूनों को पारित किया था।
सवा साल तक चले देशव्यापी किसान आंदोलन के दबाव में हालांकि उसे इन किसान विरोधी कदमों को वापस लेना पड़ा था, लेकिन अब फिर कृषि के राष्ट्रीय विपणन की आड़ में इन कानूनों को चोर दरवाजे से घुसाना चाह रही है, जिसके खिलाफ फिर एक बार देशव्यापी आंदोलन की लामबंदी किसान संगठनों द्वारा की जा रही है। सरकार के तमाम दावों के बावजूद सच्चाई यही है कि कृषि और संबद्ध गतिविधियों के क्षेत्र में बजट आबंटन 2019 के 5.44% से घटकर 2024 तक 3.15% तक आ गया है, जिसके कारण इस अवधि में खाद्य और खाद सब्सिडी में लगातार कटौती हुई है। इसी प्रकार, मनरेगा और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, किसान सम्मान निधि आदि जितनी भी योजनाएं किसानों के लिए बनी हैं, उनके बजट में बड़ी कटौतियां जारी हैं। इसलिए, उनकी सरकार का किसान हितैषी होने का दावा भी कहीं से फिट नहीं बैठता।
यह सवाल भी उठाया जा सकता है कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का फायदा किसको मिल रहा है? फिर मानव विकास सूचकांकों में भी हमें दुनिया में तीसरे स्थान पर होना चाहिए था। इसके बजाय हम भूखों की दुनिया के सिरमौर है और गरीबों की सबसे बड़ी आबादी हमारे देश में ही रहती है। फोर्ब्स की रिपोर्ट बताती है कि पिछले एक साल में हमारे देश में डॉलर अरबपतियों की संख्या में 25% की वृद्धि हुई है और देश के सबसे बड़े सौ अरबपतियों ने हमारी जीडीपी के 25% से ज्यादा हिस्से पर अपना कब्जा जमा लिया है। इसके बावजूद देश के तमाम प्राकृतिक संसाधनों को इन्हीं धन पिचाशों को सौंपने का कुचक्र चला जा रहा है। गरीबों के लिए बने कानून या तो निष्क्रिय है या फिर उन्हें कॉरपोरेटों के पक्ष में तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। इसका नतीजा है कि आज हमारा देश दुनिया में सबसे ज्यादा असमानता से ग्रस्त देश है।
राष्ट्रपति महोदया ने जिस सांस में आंबेडकर का नाम लिया है, उसी सांस में एक देश, एक चुनाव का नारा भी लगाया है। राष्ट्रपति संविधान की रक्षक है। संविधान ने हमारे देश के लिए संघवाद को अपनाया है और किसी भी निर्वाचित सरकार के पांच साल तक चलने की योजना बनाई है, यदि वह संसद या विधानसभा में अपना बहुमत बनाए रखती है। चुनावों की इस मूल प्रकृति को ही मोदी सरकार नष्ट करने जा रही है और इसके लिए संविधान के कई प्रावधानों को बदलने की कवायद चल रही है। राष्ट्रपति द्वारा उसकी ही सरकार की संविधान तोड़क की भूमिका को सराहना, निश्चित ही संविधान का अपमान करना है।
जब देश में आदिवासियों पर, दलितों पर और महिलाओं पर उत्पीड़न-हमले बढ़ रहे हैं, हमलावरों को सरकार और प्रशासन का खुला संरक्षण मिला हुआ है, और इसके लिए उदाहरणों की कमी नहीं है। दलितों पर पेशाब करने की घटनाएं, खिलाड़ियों के यौन उत्पीड़न की घटनाएं, प्राकृतिक संसाधनों की कॉरपोरेट लूट को आसान बनाने के लिए आदिवासियों को विस्थापित करने, उनकी बहू-बेटियों के साथ सशस्त्र जवानों द्वारा बलात्कार करने और उनके मानवाधिकारों को कुचलने की घटनाएं — मोदी राज में ही हो रही हैं। इसलिए राष्ट्रपति का यह दावा भी खोखला है कि उनके राज में गरीबों को गरिमापूर्ण ढंग से जीवन जीने का अवसर मिला है।
गरीबों को गरिमापूर्ण ढंग से जीवन जीने का अवसर तब मिलता है, जब उन्हें आजीविका चलाने लायक न्यूनतम वेतन के साथ सम्मानजनक काम मिले, जब उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास और अन्य बुनियादी सुविधाओं तक आसान पहुंच हो, जब उनके मानवाधिकारों की रक्षा की जाएं। निजीकरण और कॉर्पोरेटपरस्ती का रास्ता गरीबों को कुचलकर ही तैयार होता है। राष्ट्रपति के अभिभाषण और उसके बाद पेश आर्थिक सर्वेक्षण ने यह बता दिया है कि कल आने वाले बजट में इस रास्ते को और चौड़ा और पुख्ता किया जाएगा।
लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं
