रूपकों की राजनीति से मनुस्मृति की पुनर्स्थापना और हाशिये पर धकेला जाता भारतीय संविधान
तेजपाल सिंह ‘तेज’
इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि जब 28 मई को नए संसद भवन का उद्घाटन किया जा रहा था। ठीक उसी समय जंतर मंतर पर धरने पर बैठे विश्वविख्यात पहलवानों के साथ दिल्ली पुलिस अपनी कार्यकुशलता का भौंडा प्रदर्शन कर रही थी। ज्ञात हो कि समूचे विपक्ष ने उद्घाटन समारोह का इसलिए बहिष्कार किया कि नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिए, न कि प्रधानमंत्री द्वारा। विपक्ष का मत नितांत तर्कसंगत है। किंतु राजा ने इसे नकार दिया। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि राजा जी को देश की समस्याओं के निराकरण से ऊपर अपने आप को इतिहास पुरूष बनाने में ज्यादा रूचि है।
जिसका ताजा प्रमाण है।नए संसद भवन का उद्घाटन। उद्घाटन समारोह में जैसा प्रदर्शन किया गया उससे तो लग रहा था कि ये आयोजन संसद भवन के उद्घाटन का नहीं, अपितु मोदी जी के राज्याभिषेक का कार्यक्रम है। समारोह में हिन्दू पद्धति से पूजा आर्चना करना वो भी तमिलनाडु के 20 ब्राह्मणों द्वारा , प्रधानमंत्री की मंशा पर न केवल शंका उत्पन्न करता है, अपितु मोदी जी द्वारा सर्वधर्म सम्भाव के संवैधानिक संकल्प को किनारे लगाने के उपक्रम ही रहा है। प्रधानमंत्री द्वारा पूजा-पाठ का कार्यक्रम ही कराना था तो सर्वधर्म की भावना को बल प्रदान करने के भाव से हिंदू पंडितों के साथ-साथ मुस्लिम, सिख, ईसाई, बुद्ध धर्म के पंडितों को भी समारोह में बुलाना चाहिए था। राजदंड की स्थापना तो लोकतंत्र के शासन के बिल्कुल ही विपरीत है। सीधे – सीधे कहे तो लोकशाही/तानाशाही की स्थापना का प्रतीक है जिसका सर्वत्र/सर्वथा विरोध होना ही चाहिए और लोकतंत्र पर आने वाले संकट से निपटने का राजनीतिक/सामाजिक उपाय बिना किसी देरी के सोचना ही चाहिए।
उल्लेखनीय है कि दलित राष्ट्रपति कोविंद जी को नए संसद भवन के शिलान्यास पर भी नहीं बुलाया गया था और अब जनजाति की राष्ट्रपति माननीय मुर्मू जी को नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में आने तक का निमंत्रण नही दिया गया जबकि इन दोनों को राष्ट्रपति बनाने वाली मोदी सरकार ही रही है। क्या यह लोकतंत्र की हत्या की धनक नही,? ऐसे में पीएम मोदी द्वारा यह कहा जाना, ‘गुलामी के बाद हमारे देश ने बहुत कुछ खोकर अपनी नई यात्रा शुरू की थी। यह यात्रा कितने ही उतार-चढ़ावों से होते हुए, कितनी ही चुनौतियों को पार करते हुए आज आजादी के अमृतकाल में प्रवेश कर चुकी है। आजादी का यह अमृतकाल विरासत को सहेजते हुए, विकास के नए आयाम गढ़ने का अमृतकाल है।’ निरा ही विशादपूर्ण और भ्रामक लगता है। कुल मिलाकर तो पी एम की इस प्रकार की कवायद करना ‘मनुस्मृति’ को पुन: लागू करने की मंशा के अलावा और कुछ नहीं है। इस अवसर पर सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति के द्वारा होना चाहिए था, क्योंकि राष्ट्रपति संविधान प्रमुख हैं। भाजपा ने ऐसा न करके न सिर्फ राष्ट्रपति का अपमान किया है, बल्कि संविधान का भी अपमान किया है। मौर्य ने कहा कि भाजपा ने साबित कर दिया कि वे दलित और पिछड़ा विरोधी मानसिकता की है। विपक्ष ने नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधा। एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले ने कहा कि देश में लोकतंत्र नहीं है। विपक्ष की मौजूदगी के बिना नए संसद भवन का उद्घाटन संपन्न नहीं हो सकता। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि प्रधानमंत्री द्वारा नए संसद भवन का उद्घाटन किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसी संस्थाओं में संवैधानिक मुखिया की भूमिका होती है। हमने राजस्थान विधानसभा के उद्घाटन में राष्ट्रपति को बुलाया था। वरिष्ठ नेता शरद पंवार ने कहा, मैंने सुबह घटना देखी। मुझे खुशी है कि मैं वहां नहीं गया। वहां जो कुछ हुआ उसे देखकर मैं चिंतित हूं। क्या हम देश को पीछे ले जा रहे हैं? क्या यह आयोजन सीमित लोगों के लिए ही था? कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर भाजपा पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति, जो इस पद पर बैठने वाली पहली आदिवासी महिला हैं, को अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन नहीं करने दिया जा रहा है। उन्हें 2023 में नए संसद भवन के उद्घाटन की इजाज़त नहीं दी गई। एक आत्ममुग्ध तानाशाह प्रधानमंत्री, जिसे संसदीय प्रक्रियाओं से नफरत है, जो संसद में कम ही उपस्थित रहता है या कार्यवाहियों में भाग लेता है, 2023 में नए संसद भवन का उद्घाटन कर रहा है। रमेश ने एक ट्वीट और किया, जिसमें उन्होंने 28 मई के दिन हुई घटनाओं का जिक्र कर भाजपा पर निशाना साधा।
भाजपा का कहना है कि सेंगोल को सबसे पहले अंग्रेजों द्वारा सत्ता हस्तातंरण के प्रतीक के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरू को सौंपा गया था। नए भवन के इस उद्घाटन मौके पर संसद के दोनों ही सदनों के सदस्यों के साथ ही देश की प्रमुख हस्तियों को भी आमंत्रित किया गया था। किंतु भाजपा यह बताना भूल रही है कि नेहरू जी ने वो संगोल संसद भवन में न रखकर तीनमूर्ति – यानी अपने निवास \पर रखा था।
एनसीपी नेता और सांसद सुप्रिया सुले ने कहा कि बिना विपक्ष की उपस्थिति के नए संसद भवन का उद्घाटन संपन्न नहीं हो सकता। इसका मतलब है कि देश में लोकतंत्र नहीं है। ये एक अधूरा कार्यक्रम है। तीन दिन पहले हमें व्हाट्सएप पर निमंत्रण भेजा गया। वे फोन पर विपक्ष के नेताओं से संपर्क कर सकते थे\।पुराने संसद भवन से हमारी यादें जुड़ी हुई हैं। हम सभी पुराने संसद भवन से प्यार करते हैं, वह भारत की आज़ादी का वास्तविक इतिहास है। लेकिन अब हमें नए संसद भवन में जाना होगा। वहीं, विपक्षी दलों ने इसे लेकर केंद्र सरकार और भाजपा पर निशाना साधा है। राजद सांसद मनोज झा ने कहा कि हमारी राजनीतिक संस्कृति और इसकी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है।
आखिर मनुस्मृति क्या है? मीडिया में छपे कई आर्टिकल में इतिहासकार नराहर कुरुंदकर ने अपनी किताब Manusmriti: contemporary thoughts में इस किताब के कटेंट और फॉरमेट के बारे में समझाते हुए लिखा हैं कि, स्मृति का मतलब धर्मशास्त्र होता है। ऐसे में मनु द्वारा लिखा गया धार्मिक लेख मनुस्मृति कहा जाता है। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं, जिसमें 2684 श्लोक हैं। कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है। इस किताब की रचना ईसा के जन्म से दो-तीन सौ सालों पहले शुरू हुई थी। विदित हो कि 26 जनवरी 1950 को हमारे देश में संविधान लागू किया गया और इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है। मनुस्मृति को जंहा सनातन धर्मियों को जातियों में बांटने का आरोप लगाया जाता है, वंही संविधान को सभी को एकजुट करने वाला माना जाता है।
इस संदर्भ सोचा जा सकता है कि हिंदूवादी ताकतों द्वारा मनुस्मृति को केंद्र में लाकर धीरे-धीरे भारतीय संविधान को पलीता लगाया जा रहा है। संविधान के शिथिलीयकरण के साथ-साथ शैंवे-शैने मनुस्मृति स्वत: लागू हो जाएगी…. आर एस एस और अन्य रूढ़ीवादी संगठनों का यही मिशन है। उनके मन में यह भी डर है कि यदि संविधान को एक साथ निर्मूल करने पर देश में बगावत होने का संशय बेमतलब नहीं है।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।