पलायन नहीं सामाजिक परिवर्तन चाहता है शूद्र मिशन

पलायन नहीं सामाजिक परिवर्तन चाहता है शूद्र मिशन

शूद्र मिशन क्या है?- इन्सान स्वभावतया, जन्मजात स्वार्थी लालची और कामचोर प्रवृत्ति (कम से कम, काम करके अधिक से अधिक, कमाई की लालसा) का होता है- इन्हीं मानवीय अवगुणों के कारण, करीब 2000 साल पहले बौद्ध धर्म के पतन के बाद, कुछ चालक लोगों ने बौद्धों को गुलाम बनाया। करीब गुलाम बनाए गए 85% जनमानस का शोषण और उनपर अत्याचार करने के लिए मनुस्मृति जैसे कानून बना कर वर्ण-व्यवस्था बनाई गई। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य. एक-दूसरे का सहयोग करते हुए अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए आपस मे समझौता कर लिए। शूद्रों को सभी तरह के जीवनोपयोगी वस्तुओं को उत्पादन करने और अपनी सेवाएं कराने की जिम्मेदारी थोप दी गई। कभी बगावत न कर सकें, इसके लिए उन्हें कर्म के अनुसार एक-दूसरे को  सीढ़ीनुमा क्रमिक ऊंच-नीच, दुष्ट, पापी बनाकर हजारों जातियों में बांट दिया। कभी विरोध की भावना जागृत न हो जाए, इसके लिए पुनर्जन्म का फल, भाज्ञ और भगवान द्वारा बनाई व्यवस्था बताकर दिमाग में ठूंस दिया। जिसे हमारे पूर्वज अज्ञानता में स्वीकार कर लिए। जो धीरे-धीरे आगे चलकर परम्परा बनते-बनते एक मानसिक बीमारी का रूप ले लिया है। इस बीमारी को आजकल ब्राह्मणवाद नाम से जाना पहचाना जाता है। इस ब्राह्मणवाद से शूद्रों को मुक्त कराना ही शूद्र मिशन है। इस अभियान को सामाजिक परिवर्तन भी कहा जाता है।

अब सवाल यह उठता है कि, हजारों साल से यह बीमारी ब्राह्मणवाद खत्म क्यों नहीं हो रही है? ऐसा नहीं है कि इसे समाप्त करने की दिशा में कोई काम नहीं हुआ होगा? आज की परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा लगता है कि सदियों से संघर्ष चलते आ रहा है , जिसका वर्णन इतिहास में दर्ज नहीं है या उसे मिटा दिया गया होगा। मुगलों, मुसलमानों और अंग्रेजी हुकूमत होने के कारण कुछ महापुरुषों के संघर्ष के इतिहास मिलते हैं। संत रविदास, संत कबीर, महात्मा फुले, पेरियार आदि सभी महापुरुषों ने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दिया। सदियों से इस देश में दो धाराओं, ब्राह्मणवादी और मानवतावादी विचारों में क्रांति और प्रतिक्रांति होती चली आ रही है। ब्राह्मणवादी यथास्थिति बनाए रखने के लिए पूरी आक्रमकता से प्रचार प्रसार करते हुए मानसिक, आर्थिक, शारीरिक और बौद्धिक क्षमताओं का पूरे देश में भरपूर उपयोग किया। प्रमाण सामने है कि हर गली-मोहल्ले में पाखंडवादी रिसर्च देवी-देवता और सैकड़ों भगवान के मंदिर और उनको महिमा मंडित करने के लिए हजारों स्मृतियां, कथा कहानियां मिल जाएंगी, लेकिन वहीं भारतीय धरती पर, विश्व के करोड़ों वैज्ञानिक रिसर्च में हमारा योगदान शून्य है।

ब्राह्मणवादी मानसिक बीमारी से मुक्ति में सबसे बड़ा रोड़ा, उस बीमारी से आमने-सामने लड़ने के बजाय, उससे पलायन होना है। यहां जितने भी धर्म परिवर्तन हुए हैं सभी ब्राह्मणवाद से लड़ने के बजाय उससे पलायन किए है, लेकिन दुर्भाग्य है कि अपने साथ ब्राह्मणवादी बीमारी भी लेकर चलते गये और उस धर्म को भी कलंकित कर दिया।   

आजकल भी कोई सर नेम बदलकर अपनी जाति को छिपाने की कोशिश कर रहा है। कोई बहुजन, कोई मूलनिवासी, कोई यदुवंशी, कोई मानव तो कोई भारतीय बनकर आदि कई रूपों में, ब्राह्मणवाद से लड़ने के बजाय उससे पलायन का सुविधाजनक रास्ता निकाल रहे है। कुछ लोग तो अपनी नियत मानकर उससे समझौता कर लिये है। इसलिए ब्राह्मणवाद बिना विरोध के अपना साम्राज्य स्थापित करते जा रहा है।

संत रविदास, संत कबीर, फुले पेरियार आदि कयी महापुरुष जिन्दगी भर इस मानसिक बीमारी से आमने-सामने होकर संघर्ष किए लेकिन उससे पलायन नहीं हुए। बाबा साहेब आंबेडकर तो पूरे समाज को इस बीमारी से मुक्त कराने के लिए अंग्रेजी हुकूमत से लड़ें, फिर अपने लोगों से लड़ें। लड़ते, संघर्ष करते और जिनके लिए लड़ रहे थे, वे लोग भी उनका साथ नहीं दे रहे थे, तब अंत मेंआजिज आकर उन्ही लोगों के बीचोंबीच 1935 के एवला कांफ्रेंस में बड़े दुखी मन से कहा था कि, हिन्दू धर्म में पैदा हुआ यह मेरे बस में नहीं था, लेकिन मैं हिन्दू रहकर मरूंगा नहीं एक तरफ से पलायन करने की धमकी भी दे डाली। फिर भी 21सालों तक संघर्ष करते और सुधरने और सुधारने का इन्तजार करते रहे। अंत में ज़िन्दगी के अंतिम पड़ाव पर, अपने वचन को पूरा करते हुए, समाज को अपनी तरफ से 22 प्रतीज्ञा का उपहार देते हुए बौद्ध धम्म की शरण में चले गए। सच कहिए तो बाबा साहेब की पहली प्राथमिकता हिन्दू धर्म में व्याप्त जात-पात, छुआ-छूत, ऊंच-नीच की बीमारी से मुक्त कराना था, वह आज भी अधूरा है। उन्होंने अपने लिए नहीं, अपने शूद्र समाज को एक नया जीवन देने के लिए धर्म परिवर्तन किया था।

गर्व से कहो हम शूद्र हैं, यह किसी को शूद्र नहीं, बल्कि शुद्ध करने का एक मिशन है। शूद्रवाद आमने-सामने होकर ब्राह्मणवाद से लड़ने के लिए एक हथियार है। मेरा मानना है कि सदियों से मनुवादियों नें बड़ी चालाकी और मनोवैज्ञानिक दबाव से शूद्र समाज में एक जनेटिक ट्रांसफरेबल मानसिक बीमारी पैदा कर दे दिया है। इसके साथ और भी बहुत सी बिमारियां भगवान के सहयोग से इनके द्वारा पैदा की गई थी। जैसे हैजा, प्लेग, चेचक, माता माई आदि आदि। इन बिमारियों को विदेशियों ने इंजेक्शन लगाकर भगवान से मुक्त करा दिया। अंग्रेजी हुकूमत उस समय ब्राह्मणवादी मानसिक बीमारी को भी खत्म करने की कोशिश कर रही थी। लेकिन शूदों का दुर्भाग्य था कि इस काम को अधूरा छोड़कर चले गए। फिर भी उन्होंने मानवतावादी दृष्टिकोण और वैज्ञानिक सोच की प्रवृत्ति हम शूदों में पैदा कर गए। हम सभी उनके शूक्रगुजार है।

  अब सिर्फ एक ही जटिल बीमारी जातियों में ऊंच-नीच की भावना और जाति की उच्चता का घमंड, शूद्रों में दिखाई दे रही है, जिसे अंग्रेजों ने  अपराध की श्रेणी में रखा था। शूदों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विफलता का यही सबसे बड़ा कारण भी है। इसे खत्म करना सभी शूदों की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

 पहले आपस में मनुवादियों द्वारा थोपी गई जाति की उच्चता की सीढ़ी को ठीक उल्टा करके अपनी-अपनी मानसिकता को बदलना होगा, जाति की गंदगी से मुक्त होकर शुद्ध होना होगा।, फिर पंडित से भी आमने-सामने होकर पूछना होगा कि, आज बता दीजिए कि आप जाति से हमसे उच्च कैसे और मैं नींच कैसे? इसका सही जवाब आज देना ही होगा, अन्यथा आज के बाद, आप के भगवान और आप के धार्मिक पाखंड से हमारा कोई संबंध नहीं रहेगा। अब मैं मानसिक गुलाम नहीं स्वतंत्र जीवन जीना चाहता हूं।

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