गड़े मुर्दे उखाड़ने पर रोक लगाए सुप्रीम कोर्ट
योगेन्द्र यादव
“जिधर देखो उधर खुदा है
जहाँ नहीं है वहाँ भी खुद जाएगा”
दिल्ली में मेट्रो निर्माण के वक्त पूरे शहर में चल रही खुदाई को लेकर यह चुटकुला सुना था। आज लगता है पूरा देश इस चुटकुले का शिकार है। जहाँ देखो खुदाई चल रही है, नहीं तो खुदाई की तैयारी चल रही है, या फिर खुदाई की माँग चल रही है। गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं, इतिहास में खुंदक खोजी जा रही है, जहाँ खोज से बात ना बने वहाँ आविष्कार किया जा रहा है।
पहले मामला अयोध्या की बाबरी मस्जिद तक सीमित था। फिर बताया गया कि अयोध्या तो सिर्फ़ झांकी थी और काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद का मामला उठा। और अब तो जैसे परनाला ही खुल गया है — संभल की जामा मस्जिद, धार (मप्र) की कमाल मौला मस्जिद, चिकमंगलूर की बाबा बुदान गिरी दरगाह, ठाणे की हाजी मलंग दरगाह और अब अजमेर की दरगाह शरीफ। कोई एक दर्जन जगह ज़मीन के भीतर सर्वे चल रहे हैं। दिलो दिमाग़ के भीतर हर जगह चल रहे हैं। कहीं कॉलेज में मस्जिद खोज कर बंद करवाई जा रही है, कहीं सड़क पर सामूहिक नमाज़ को रोका जा रहा है तो कहीं अकेले व्यक्ति को नमाज़ पढ़ने से। और तो और अब मुरादाबाद से ख़बर है कि एक मुस्लिम डॉक्टर दंपत्ति को हाउसिंग सोसाइटी में क़ानूनी तरीक़े से ख़रीदे हुए अपने फ्लैट में रहने से रोक दिया गया। ऊपर से शुरू किया सांप्रदायिक उन्माद मानो अब नीचे उतर तांडव कर रहा है।
- जरा गौर कीजिए। जहाँ एक ओर हमारे यहाँ अल्पसंख्यक मुसलमानों को हर तरह से उखाड़ने का अभियान छिड़ा हुआ है, वहीं हम सब बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय की दुर्दशा पर आँसू बहा रहे हैं। यहाँ अल्पसंख्यकों की लिंचिंग और बुलडोज़र पर तालियाँ पीट रहे हैं, वहाँ हिंदू अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए खड़े होने वालों को हीरो बता रहे हैं। कोई और देश भारत के अल्पसंख्यकों की स्थिति पर बोले तो उसे संप्रभुता का हनन बताते हैं, विदेशी षड्यंत्र की दुहाई देते हैं और वहां बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की अवस्था पर भारत सरकार बयान देती है, बीजेपी के नेता इस मामले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने की माँग करते हैं। यह पाखंड नहीं है तो और क्या है?
क्या हमें एक बार रुक कर सोचना नहीं चाहिए? ये रास्ता हमें कहाँ ले जाएगा? कहाँ-कहाँ किस-किस को खोदेंगे हम? सब कुछ खोदने पर जो कुछ मिलेगा क्या उस पूरे सच का सामना कैसे करेंगे हम? आज हम जो चाहे मनमानी कर लें, इसका दीर्घकालिक परिणाम देख भी सकते हैं हम
एक बार ठंडे दिमाग़ से सोचिए। पिछले पाँच हज़ार साल से इस देश में किस-किस राजा ने किस-किस धर्मस्थल को तोड़ा होगा? अगर उस सब का हिसाब बराबर करने पर तुल गए, तो इस देश में क्या कुछ खोदना पड़ेगा? बेशक आज हमें मुस्लिम राजाओं द्वारा हिंदू मंदिरों को तोड़ने की कहानी याद रहती है, चूंकि याद दिलाई जा रही है। लेकिन उससे पहले और उस दौरान भी कितने हिंदू राजाओं ने हिंदू मंदिरों को तोड़ा था, दूसरे राजा के कुलदेवता की मूर्ति को तोड़कर अपने कुलदेवता की प्राण प्रतिष्ठा की थी, एक सम्प्रदाय के मंदिर को ध्वस्त कर अपने सम्प्रदाय के मंदिर बनाये थे। उन सबका हिसाब करेंगे हम?
इतिहासकार बताते हैं कि शुंग वंश के ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुंग ने पूर्व से पश्चिम तक अनगिनत बुद्ध और जैन धर्मस्थलों का ध्वंस किया था। मध्यकाल में भी मराठा फौज ने श्रीरंगपट्टनम के मंदिर को ध्वस्त किया था। विभाजन के दंगों में अगर सीमा के उस पार मंदिर और गुरुद्वारे तोड़े गए थे, तो इस पार ना जाने कितनी मस्जिद टूटी थीं। इतिहासकार डी एन झा के अनुसार भूतेश्वर और गोकर्णेश्वर मंदिर संभवतः एक जमाने में बुद्ध विहार रहे थे। इतिहासकारों की छोड़ भी दें तो स्वयं स्वामी विवेकानंद ने दर्ज किया है कि पुरी का जगन्नाथ मंदिर मूलतः एक बौद्ध मंदिर था। आज भले ही जैन धर्मावलंबी यह दावा ना ठोंके, आज बौद्ध लोग इन धर्मस्थलों को वापस मांगने की स्थिति में ना हों, लेकिन भविष्य में ऐसा नहीं होगा इसकी क्या गारंटी है? आज भले ही शक्ति का संतुलन एक पक्ष में है, लेकिन आज के सौ साल बाद क्या होगा, कौन कर सकता है? अगर ऐतिहासिक अन्याय का बदला लेने और अपने-अपने धर्मस्थल को दुबारा हासिल करने का सिलसिला चल निकला तो कौन बच पाएगा? इस खुदाई के उन्माद में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, बौद्ध विहार निकलें या ना निकलें, भारत की जड़ जरूर खुद जाएगी। ना धर्म बचेगा ना देश।
इस पागलपन से बचने का एक ही रास्ता है। सब भारतवासी मिलकर एक लकीर खींच दें और तय कर लें की फ़लाँ तारीख़ से पुराने हर विवाद पर ढक्कन लगा कर उसे बंद कर दिया जाएगा। और वह तारीख़ एक ही हो सकती है — 15 अगस्त 1947, जब हमने एक स्वतंत्रत भारत की यात्रा शुरू की थी। उस यही काम भारत की संसद द्वारा पारित ‘पूजा स्थल अधिनियम, 1991’ ने किया था। उस समय विवादित बाबरी मस्जिद रामजनभूमि स्थल को छोड़कर देश के बाक़ी सब पूजा स्थलों के बारे में यह क़ानून बना था कि 15 अगस्त 1947 के दिन जो धर्मस्थल जिस धर्म-सम्प्रदाय-समुदाय का था, वैसा ही रहेगा। उससे पुराने विवाद को किसी कोर्ट कचहरी ने दुबारा खोला नहीं जा सकेगा। पिछले 33 साल से यह कानून चल रहा है। अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस कानून की पुष्टि की। लेकिन फिर ना जाने क्यों वह फैसला लिखने वाले मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने ही ख़ुद ज्ञानवापी मामले में यह व्यवस्था दी कि पुराने मामले को खोला भले ही ना जाय, सर्वे जरूर किया जा सकता है। उसी दुर्भाग्यपूर्ण व्यवस्था के चलते देश में नित नए सर्वे और विवाद का सिलसिला शुरू हुआ है। मुख्य न्यायाधीश खन्ना के नेतृत्व में एक खंडपीठ 12 दिसंबर से इस मामले की सुनवाई करने जा रही है। इस देश का भला चाहने वाला हर नागरिक यही उम्मीद करेगा की सुप्रीम कोर्ट 1991 के कानून की पुष्टि करते हुए गड़े मुर्दे उखाड़ने पर रोक लगाएगा।
लेखक राजनीतिक विश्लेषक और सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।