एससी, एसटी आरक्षण में वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला तथ्यों पर नहीं, भावनाओं पर आधारित है

एससी, एसटी आरक्षण में वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला तथ्यों पर नहीं, भावनाओं पर आधारित है

विदित हो कि  विन्ध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गो (बीसी) के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत हुई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था। कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 की अधिसूचना जारी की गयी थी। यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है।

केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा विभिन्न अनुपात में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों (मुख्यत: जन्मजात जाति के आधार पर) के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं। यह जाति जन्म के आधार पर निर्धारित होती है और कभी भी बदली नहीं जा सकती।  जबकि कोई व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन कर सकता है और उसकी आर्थिक स्थिति में उतार -चढ़ाव हो सकता है, लेकिन जाति स्थायी होती है।

किंतु यह भी एक सत्य है कि समाज के सवर्ण समाज द्वारा हमेशा ही आरक्षण का विरोध किया जाता रहा है। अनेक लोगों ने जातिवार आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था को समाप्त करने के लिए भारतीय माननीय सुप्रीम कोर्ट में बहुत सी जनहित याचनाएं दाखिल हमेशा ही की जाती रही हैं किंतु इस बार माननीय सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए कुछ ऐसा निर्णय दिया है कि सर्वत्र ही प्रभावित होने वाले और समावादी दृष्टिकोण वाले लोगों द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है।  इस बारे में सत्य हिंदी यूट्यूब चैनल पर  आयोजित एक बहस माननीय मुकेश कुमार, उर्मिलेश, डॉ।  केएस चौहान और शीतल पी।  सिंह ने भाग लिया। जिनके बीच हुई बातचीत के मुख्य अंशों के आधार पर  श्री मुकेश कुमार द्वारा में कहा गया कि  माननीय सुप्रीम कोर्ट ने न केवल बड़ी बहस को जन्म दिया है, बल्कि खंडपीठ के सात सदस्यों की सामाजिक समझ और नीयत पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। यही वजह है कि इस फैसले को दलितों और आदिवासियों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। दलितों और आदिवासियों को लगता है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने के लिए क्रीमी लेयर का इस्तेमाल किया है। उन्हें यह भी संदेह है कि यह आरएसएस-बीजेपी का एजेंडा है, जिसे माननीय सुप्रीम कोर्ट लागू कर रहा है। 

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कई सवाल उठाए हैं। पहला सवाल यह है कि क्या संविधान किसी राज्य को कोटा तय करने की अनुमति देता है, या राष्ट्रपति को ऐसा करने का अधिकार है, या किसी को ऐसा करने का अधिकार नहीं है? दूसरा सवाल यह है कि क्या माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया है कि दलित और आदिवासी चाहे कितनी भी तरक्की कर लें, उनके प्रति समाज का नज़रिया नहीं बदलता। वे उन्हें निचली जाति मानते हैं, और उनके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं। दूसरे शब्दों में, जातियों में विभाजित होने के बावजूद समानता है और कोई भेदभाव नहीं है। तीसरा सवाल यह है कि क्या माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया है कि आरक्षण का आधार न तो सामाजिक है और न ही आर्थिक। दूसरे शब्दों में कहें तो आर्थिक आधार पर न तो किसी जाति को आरक्षण दिया जा सकता है और न ही छीना जा सकता है। यहां वे क्रीमी लेयर को खत्म करके ऐसा ही करने का रास्ता खोल रहे हैं। चौथा सवाल यह है कि क्या माननीय सुप्रीम कोर्ट किसी पूर्वज से प्रेरित है कि बिना संवैधानिक आधार के, आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए 10% आरक्षण सही है और इसमें क्रीमी लेयर नहीं दी जाती। इसके अलावा सवाल यह है कि जिस तरह से माननीय सुप्रीम कोर्ट आरक्षण के पक्ष में है, क्या उससे यह उम्मीद की जा सकती है कि दलितों और आदिवासियों के पक्ष में फ़ैसले आएंगे? क्या माननीय सुप्रीम कोर्ट में साल भर से चल रही बहस को खत्म करने का कोई रास्ता नहीं होना चाहिए? आज की चर्चा इन्हीं सवालों पर केंद्रित होगी। 

सत्य हिंदी यूट्यूब चैनल के हवाले से वरिष्ठ पत्रकार श्री उर्मिलेश  ने कहा कि  बहुत से लोगों को लगता है कि कोटे के अंदर एक वर्ग को लाभ मिलता है, लेकिन कुछ जातियां ऐसी होती हैं जो उनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाती हैं। उन्हें लाभ नहीं मिलता है। इसलिए कोटे के अंदर सब ठीक है। इसी तरह दलित और आदिवासी जो आगे बढ़ गए हैं, वे पीछे रह गए हैं। अगर उन्हें अलग से कोटा मिल जाए तो वे आगे बढ़ सकेंगे।“ कई जवाब में कहा कि यह एक मिथक है जो लंबे समय से चला आ रहा है। अगर कोटे में कोई विभाजन नहीं है, क्योंकि जनसंख्या में अंतर है, कई जातियां और उपजातियां हैं, अगर विभाजन नहीं है, तो कुछ को अलग कोटा मिलता है, कुछ को नहीं मिलता। यह एक मिथक है जो लंबे समय से चला आ रहा है। मैं ऐसा कह रहा हूं कि जो लोग समाज को दिशा देने का दावा करते हैं, जो लोग सरकार पसंद करते हैं, जहां सत्ता के पास हैं, उन्होंने ही ये मिथक बनाया है। समाज को चलाना उनकी जिम्मेदारी है, आर्थिक विकास करना उनकी जिम्मेदारी है। गरीब लोग भी उन्हें योगदान देते हैं।

आज के समय में आजादी की बात कम होती थी, लेकिन आज के समय में चुनावी प्रक्रिया इतनी समृद्ध हो गई है कि एक सामान्य व्यक्ति चुना ही नहीं जा सकता। और अगर चुना भी गया तो बहुत कम अपवाद होंगे। ये मिथक सोशल मीडिया द्वारा, मीडिया द्वारा, राजनेताओं द्वारा बनाया गया है कि अगर आरक्षण नहीं होगा तो ये आपदा होगी। यह अलादीन का उजाला होगा। आरक्षण गरीबी हटाने  की योजना नहीं है, न ही यह समाज में समानता लाने का साधन है।

दरअसल, सामाजिक स्तर पर पिछड़ी जातियों, दबी-कुचली जातियों, सदियों से वंचित लोगों को मुख्यधारा में लाने का एक बहुत कारगर तरीका है, जिसे कई देशों में अपनाया गया है, जहाँ बहुत असमानता है। जब हम छोटे थे, छात्र आंदोलन के दौरान, जब आरक्षण के मुद्दे थे, तब हमें बताया गया था कि दुनिया में कहीं भी आरक्षण नहीं है। अब हमारे यहाँ एक मिथक बना दिया गया है कि आरक्षण केवल भारत में डॉ।  बीआर अंबेडकर ने किया है, अन्यथा यह बहुत अच्छा देश था। आत्मरक्षा की प्रक्रिया उसी तरह पूरी होगी जैसे दूसरे कर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि दलित समुदाय में, तथाकथित  समुदाय में, क्या उसके सभी लोग प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम हैं? कितने प्रतिशत लोग प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम हैं? क्या हमारे देश में ऐसा कोई डेटाबेस है? ठीक है। दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों की भारतीय जनसंख्या में गिनती होती है। लेकिन गिनती होती है। उनके बारे में कई महत्वपूर्ण तथ्य हैं जो सकारात्मक कार्रवाई का मसौदा तैयार करने और फिर से मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण माने जाएंगे। किंतु ऐसे आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए इस बार माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया वह यह है कि क्रिमिनल लेयर्स को फाँसी दी जाए  जो इस याचिका का विषय ही नहीं था। यहाँ सोचने की बात है कि अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने संसद का अधिकार राज्य को दे दिया है। यह   संविधान का बहुत बड़ा उल्लंघन है जो सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के माध्यम से हुआ है। 

यथोक्त के आलोक में फेसबुक वाल पर मोहन मुक्त की एक टिप्पणी को  यहाँ दिया गया है। जो कुछ भी हुआ  है, सरकार  और कोर्ट दोनों की तरफ़ से इसकी तैयारी पहले से चल रही थी। मोहन मुक्त ने इस टिप्पणी को अपनी फेसबुक वाल पर  24 अप्रैल 2020  को लिखा था जिसका पूर्ण  विवरण निम्नानुसार है:- 

“अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिये एक और बुरी खबर है।  माननीय सुप्रीम कोर्ट के नये फैसले के मुताबिक scst के आरक्षण में क्रीमी लेयर  के सिद्धांत को लागू करना अब शायद जरूरी हो जायेगा  सोशल मीडिया से प्राप्त जानकारी के अनुसार ही (अभी इसकी आधिकारिक पुष्टि होनी बाकी है) 2018 में ही केंद्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को प्रदत्त आरक्षण के दायरे से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उन सदस्यों को बाहर करने संबंधी प्रस्ताव को मंजूरी दे दी थी जोकि आयोग के दृष्टिकोण में तथाकथित ‘क्रीमी लेयर’ मे आते हैं।  यानी कि अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में भी ओबीसी के आरक्षण की तरह ही क्रीमी लेयर के प्रस्ताव मंजूरी दे दी गई है।  इस देश का आरक्षण विरोधी वर्चस्वशाली तबका हमेशा से इस बात की मांग करता रहा है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के ‘ संपन्न’  लोगों को आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाए।  कुछ अदूरदर्शी  और मूर्ख दलित भी इस बात का समर्थन कर रहे हैं। इस प्रस्ताव और माननीय सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के क्या निहितार्थ हैं, इसकी संवैधानिकता के क्या प्रश्न है? और इससे  हमारे संविधान के भावना के अनुरूप सामाजिक एवं आर्थिक न्याय का लक्ष्य लक्ष्य किस प्रकार प्रभावित होगा इस पर विचार करना इस लेख का उद्देश्य है।  

– सबसे पहले हमें यह  देखना होगा कि मूल संविधान में और संविधान सभा की बहसों में क्रीमी लेयर या आर्थिक आधार पर आरक्षण को लेकर क्या दृष्टिकोण और निष्कर्ष रहा है। यहां ध्यान रहे sc-st आरक्षण में क्रीमी लेयर के लग जाने से पूरा आरक्षण ही आर्थिक आधार पर हो जाएगा क्योंकि ओबीसी का आरक्षण  पहले ही एक  आर्थिक आरक्षण है जोकि सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के एक अधिकतम आय वर्ग तक की सीमा मे  आने वाले लोगों को मिलता है।  और 10% सवर्ण कोटा अथवा ईवीएस का  आरक्षण पहले ही आर्थिक आधार पर दिया  जाने वाला आरक्षण है । 

संविधान सभा में, आरक्षण के आधार को लेकर पर्याप्त बहस हुई थी जिसमें आर्थिक आधार पर आरक्षण को खारिज कर दिया गया था एवं हमारे देश की पारंपरिक वर्चस्व की संस्थाओं एवं जाति व्यवस्था को देखते हुए सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों के लिए आरक्षण के सिद्धांत को स्वीकार किया गया था।  ‘क्रीमी लेयर’ शब्द अथवा शब्दावली मूल संविधान अथवा संविधान सभा की बहसों में नहीं आया है, यह सबसे पहले न्यायपालिका द्वारा 1992 में, ओबीसी आरक्षण से जुड़े मामले ‘इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ ‘के  वाद में ईजाद किया गया।  जिसके जरिए अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाली जातियों के उन सदस्यों को आरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया गया जिनकी  एक निश्चित आय सीमा से अधिक  वार्षिक आय आंकी गई।  इस तरह मूल संविधान एवं संवैधानिक बहसों के निष्कर्षों को दरकिनार कर क्रीमी लेयर की एक नई श्रेणी ईजाद की गई। 

वर्तमान में अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में इसी तरह की श्रेणी को समाविष्ट करने का प्रस्ताव अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग द्वारा मंजूर किया गया है। क्रीमी लेयर के सिद्धांत के पैरोकारों का यह कहना है कि आरक्षण का फायदा पीढ़ी दर पीढ़ी एक ख़ास  संपत्तिशाली तबका उठा रहा है।  और एससी एसटी के गरीब लोगों को इसका फायदा नहीं मिल पा रहा है।  ऊपर से देखने पर वाजिब लगने वाले इस तर्क की  अगर गहराई से पड़ताल करें तो यह केवल हवा हवाई बात है और इसका मूल उद्देश्य पूरी आरक्षण की व्यवस्था को आर्थिक आधार पर कर दिया जाना है। 

आजादी के 70 सालों के बाद भी अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के लिए निर्धारित उनकी आबादी के अनुपात का कोटा केंद्र सरकार के अलग-अलग कैडरों में आज भी अपूर्ण है।  राज्य सरकारों की हालत तो और भी अधिक खराब है।  अगर sc-st में एक सब्सटेंशियल क्रीमी लेयर है तो केंद्र एवं  राज्यों में अलग-अलग सेवाओं में इनका बैकलॉग कैसे रह जाता है।  क्या क्रीमी लेयर से आने वाले लोगों के द्वारा इस बैकलॉग को भर नहीं दिया जाना था।  अगर एससी एसटी का उनकी आबादी के अनुपात में सेवाओं में प्रतिनिधित्व ही नहीं है तो उनके तथाकथित संपत्तिशाली वर्ग को आरक्षण के दायरे से बाहर करने से क्या यह प्रतिनिधित्व और कम नहीं हो जाएगा।  क्योंकि किसी भी सेवा की एक न्यूनतम अर्हता होती है।  अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के कई पात्र लोगोंके परिदृश्य में मौजूद रहनेके बावजूद भी संबंधित पदों से जाति व्यवस्था जन्य भेदभाव और पूर्वाग्रहों के चलते उन्हें वंचित रखने के कई मामले समय-समय पर प्रकाश में आते रहते हैं।  जब अर्हता  धारित करने वाले लोगों को इस किस्म के भेदभाव का सामना करना पड़ता है तो क्रीमी लेयर लागू हो जाने के बाद तो हालात और भी गंभीर हो जाएंगे।  क्योंकि वह लोग जो कई किस्म की न्यूनतम अर्हता धारित करते होंगे वह अपनी क्रीमी लेयर की आर्थिक हैसियत के कारण आरक्षण से बाहर हो जाएंगे और अन्य कई ऐसे लोग जो आरक्षण के दायरे में होंगे लेकिन अपनी आर्थिक हैसियत के कारण कई किस्म की नौकरियों के लिए न्यूनतम अर्हता हासिल नहीं कर पाएंगे।  इस तरह प्रतिनिधित्व, जो कि आरक्षण  के  मूल  में है, कभी भी पूरा नहीं किया जा सकेगा।  इस स्थिति को एक उदाहरण से समझें।  मान लीजिए किसी  विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति होनी है, कई विश्वविद्यालय एसोसिएट प्रोफेसर के पद  के लिए न्यूनतम अर्हता असिस्टेंट प्रोफेसर की रखते हैं, और क्रीमी लेयर लग जाने से अनुसूचित जाति और जनजाति  के सभी असिस्टेंट प्रोफेसर, आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे।  इस तरह एसोसिएट प्रोफेसर के पदों पर आरक्षण अपने आप समाप्त हो जाएगा।  क्योंकि scst का आर्थिक रूप से कमजोर तबका इस पद की न्यूनतम अर्हता धारित ही नहीं करेगा।  यह एक बहुत ही गंभीर स्थिति है।  जिससे आरक्षण लगभग समाप्त हो जाएगा। 

हाल के समय में माननीय सुप्रीम कोर्ट के द्वारा उत्तराखंड राज्य की सरकार के आरक्षण विरोधी  तर्कों से सहमति जताते हुए यह फैसला दिया है कि, आरक्षण मूल अधिकार नहीं है और सरकारें इसे देने के लिए बाध्य नहीं हैं, यह फैसला प्रमोशन में आरक्षण से संबंधित वाद में प्रमोशन में आरक्षण के विरोध में माननीय सुप्रीम कोर्ट गई उत्तराखंड सरकार के पक्ष में आया है।  और यह बात भी ध्यान देने लायक है कि प्रोमोशन में आरक्षण से जुड़े हुए एक अन्य वाद (जनरैल सिंह के मामले में) माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि sc-st वर्गों में भी ओबीसी वर्ग की तरह क्रीमी लेयर लगाई जा सकती है।  अब यह देखना दिलचस्प है कि यदि sc-st वर्गो में क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू किया जाएगा तो इन वर्गों के लिए प्रमोशन में आरक्षण लगभग नामुमकिन हो जाएगा।  क्योंकि प्रमोशन में आरक्षण का फायदा सरकारी कर्मियों को मिलता है जिनका बड़ा हिस्सा क्रीमी लेयर में आ जाएगा।  इस तरह प्रमोशन में आरक्षण को क्रीमी लेयर के जरिए पूरी तरह से खत्म कर दिया जाएगा। 

अब एक और मुद्दा गौर करने लायक है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के वे लोग जो तथाकथित क्रीमी लेयर में आएंगे, क्या वे लोग समाज में उसी तरह स्वीकार्य हैं जैसे आर्थिक रूप से रूप से उनके वर्ग में आने वाले अपर कास्ट के लोग।  अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बीच जो तैयार होता हुआ मध्यवर्ग है, उसकी सामाजिक सांस्कृतिक स्थिति किसी भी तरह से उनके सह वर्गीय अपर कास्ट जैसी नहीं है।  यह समझना जरूरी है कि एक मध्यवर्गीय सवर्ण और एक मध्यवर्गीय दलित आज भी हमारे देश में दो अलग-अलग दुनियाओं  का प्रतिनिधित्व करते हैं, मध्य वर्गीय दलित यहां तक कि उच्च वर्गीय दलित भी सामाजिक सांस्कृतिक अर्थों में बहिष्कार को एक अलग स्तर पर महसूस करता है।  यह बहुत छोटा हिस्सा जाति संबंधी उत्पीड़न का शिकार होता है।  इस देश के दलित राष्ट्रपति को मन्दिर में प्रवेश करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है राष्ट्रपति तो निश्चित ही क्रीमी लेयर में ही आएंगे।  कई ऐसे मामले लगातार प्रकाश में आते रहते हैं जिनमें पदस्थ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अधिकारियों का अपर कास्ट के द्वारा जातीय उत्पीड़न किया जाता है।  डॉक्टर पायल तड़वी  जैसे ना जाने कितने ही मामले सामने नहीं आ पाते।  संभव है कि कोर्ट द्वारा  तय की गई  परिभाषा के अनुसार  डॉक्टर पायल तड़वी क्रीमी लेयर  में आती,  तो यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का तुलनात्मक रूप से आर्थिक मजबूत वर्ग सामाजिक वंचना और जातीय  शोषण का शिकार नहीं है। 

समाज के वर्चस्वशाली  अपर कास्ट और उसके द्वारा नियंत्रित जनसंचार माध्यमों और निर्णायक रूप से न्यायपालिका के द्वारा बार-बार आरक्षण के विरोध में  मुहिम  चलाई जाती रही है, पिछले कुछ समय से भारत का वर्चस्व शाली तब का और दक्षिणपंथी संगठन इस बात को जनसामान्य के बीच में स्थापित करने में सफल हुए हैं कि आरक्षण का फायदा वंचित समुदायों के केवल कुछ मुट्ठी भर संपन्न लोगों को मिल रहा है और वंचित समुदाय के गरीब लोग इसका फायदा नहीं ले पा रहे हैं, वंचित समुदायों के गरीब लोगों की चिंता के पीछे असल उद्देश्य आरक्षण को पूरी तरह से निष्प्रभावी बना देना है। 

असल में हमें यह समझना होगा कि हाल के समय में दलित और बहुजन राजनीति अपना असर खो रही है और इनके नेता निस्तेज हो गए हैं। ऐसे में दलित आदिवासी समाज से आने वाले प्रोफेसरों अकादमिको और सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों ने अपनी-अपनी सीमाओं में दलित आदिवासी आंदोलन की कमान संभाल ली है, ऐसा लग रहा है कि सत्ताधारी और वर्चस्वशाली तबका इस नेतृत्वकर्ता वर्ग को इनके जनसमुदाय से अलग कर देना चाहता है।  इससे दोहरा फायदा होगा एक तो सीधे-सीधे शासन प्रशासन में सवर्णों का एकाधिकार हो जाएगा और इस एकाधिकार को चुनौती देने वाले किसी भी सामुदायिक गोल बंदी को पनपने का मौका ही नहीं मिल पाएगा।  यह फैसला इस देश में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को और गहरा स्थापित करेगा। 

यदि सरकारों और कोर्ट्स को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के गरीब तबके की वास्तव में ही फिक्र होती तो वह एक ऐसी व्यवस्था प्रस्तावित कर सकती थी जिसमें जातीय आरक्षण के भीतर आर्थिक आरक्षण अथवा प्रेफरेंस सिस्टम होता।  यानी कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के भीतर पहला अधिकार इन  वर्गों के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों का होता और उनमें अर्ह  अभ्यर्थी ना मिलने पर सीटों को तथाकथित क्रीमी लेयर से ही भरा जाता। और सार्वजनिक क्षेत्र के साथ ही निजी क्षेत्र में भी इस व्यवस्था को लागू किया जाता। इस सिद्धांत से भारतीय संविधान के सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के मूल्य की भी पूर्ति होती। लेकिन ऐसा लग रहा है कि  अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति में  क्रीमी लेयर लगाकर इनके समूचे तैयार हो रहे मध्यम वर्ग को आरक्षण प्रतिनिधित्व के लाभ से वंचित कर देना ही संबंधित प्रस्ताव और फैसले का उद्देश्य है।  जो कि एक खतरनाक बात है

राष्ट्र के निर्माण में, शासन प्रशासन में सभी वर्गों की समुचित भागीदारी कुछ हद तक सुनिश्चित करने वाले आरक्षण पर होने वाले हमलों की कड़ी में यह सबसे ताजा और सबसे गहरा हमला होने वाला है।  जो आरक्षण के  सिद्धांत की बुनियाद को ही बदल देगा।  इस प्रस्ताव और ताजा फैसले के खिलाफ और भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों के पक्ष में मजबूती से खड़े होने की जरूरत है।“  

इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में  अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति दोनों को मिलाकर दिए जाने वाले आरक्षण कोटा 22.5% को अनुसूचित जाति और  अनुसूचित जनजाति को अलग-अलग करके क्रमष: 15% तथा 7.5%  में बाँट दिया गया था जिससे कि  अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के बीच एक दीवार खड़ी कर दी गई। दूसरे यह कि अनुसूचित जनजाति के लोगों में समुचित आवेदक न मिलने की अवस्था में खाली रह गए पदों को सामान्य वर्ग के आवेदकों से भरे जाने लगे। कमोबेश यही हालत अनुसूचित जनजातियों के मामले में किया जाने लगा। सबसे बड़ी बात यह भी है कि चयन समितियों द्वारा “ Not Found Suitable” का टैग चस्पा करके इन वर्गों को आरक्षित पदों के बैक लाग को भी देर-सवेर सामान्य वगों से पूरा कर दिया गया और इस तरह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को ठेंग़ा दिखाया जाने लगा। और अब माननीय सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णय से अनुसूचित जातियों के बीच न केवल दरार डालने का काम किया गया है अपितु जातिगत आधार पर प्रदत्त संवैधानिक आरक्षण को आर्थिक आधार को केंद्र में रखकर समाप्त करने उपक्रम भी किया गया है। जो पूरी तरह से गैर-संवैधानिक है। यह एक अनपेक्षित मामला है। इसकी जिम्मेदारी किसकी है? क्या सिस्टम की नहीं? सिस्टम ने संदर्भित वर्ग को  निराश कर दिया है। केवल और केवल जस्टिस बेला कुरान के अलावा किसी ने संविधान के बारे में कोई बात नहीं की है। समस्या यह है कि आप 7 या 70 जजों की बेंच हैं और संविधान के बारे में बात नहीं करते और उस पर कहानियां  बनाते हैं।

जजमेंट के नजरिए से देखें तो यह उदय होता है। अगर मैं जज की लिखी हुई किताब पढ़ता हूं या आप पढ़ते हैं, तो आपको पता चल जाएगा कि राइट विंग्स के लोग फिर से जो डुबा रहे हैं, वह वैसा नहीं है या उसी तरह से लिखा गया है। इसमें यह भी शामिल है कि पूरे फैसले में कोई भी शैक्षणिक योग्यता नहीं है। यह बहुत शर्मनाक है। लेकिन अब क्या कहा जा सकता है? अगर हम माननीय सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर ऐसे फैसले लिए जाते हैं, जिसका पालन करना अंततः असंभव है, तो यह फैसला नीचे जाएगा, इसमें जो शर्तें हैं, और अब इसे लागू करने के लिए, एक राज्य को एक अध्ययन के साथ इसका समर्थन करना होगा। तो सवाल यह है कि इस सामाजिक शिक्षा के सभी फैसले लंबित हैं।

जाने-माने विशेषज्ञ डॉ. के. एस.  चौहान ने अपनी एक टिप्पणी में कहा है कि पहली बात तो ये है कि ये माननीय सुप्रीम कोर्ट का अधिकार नहीं है। संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि वो ये अधिकार लेकर राज्यों को दे दे, कि वो तय करेंगे कि कोटे में सब-कोटा बनाया जा सकता है या नहीं, किस जाति को किस कोटे में रखा जाना चाहिए, ये तय करना है। लेकिन इस पूरी बहस में जो मुख्य सवाल आता है वो ये है कि अगर ऐसा हुआ तो इसका नतीजा क्या होगा? इसका असर क्या होगा? इसका एससी और एसटी पर क्या असर होगा? लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जो प्रावधान दिया है उसका क्या असर होगा? उनहोंने  इस निर्णय का सही विश्लेषण करत्ते हुए कहा कि इसे लागू करना बहुत कठिन है। और आरक्षण की अवधारणा में संविधान में  विशिष्ट क्षेत्र तय किए हैं।  संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में निर्देशित  है, जिसमें कोई ऐसा निर्णय लेने का अधिकार संसद के पास है।

अगर संसद को पहचान करनी है तो उस सूची में कैसे छेड़छाड़ की जा सकती है? राज्य सरकार 10 जातियों को प्राथमिकता देगी या 15 को देगी और बाकी को नहीं देगी, ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि यह शक्ति संविधान ने संसद को दी है। और अटॉर्नी जनरल और हमारे सॉलिसिटर जनरल, तुषार मेहता और वेंकटरमणी, दोनों ने तर्क दिया कि अगर आप इससे असहमत होने का फैसला करते हैं, तो यह शक्ति संविधान की योजना के अनुसार संसद के पास है, और यह शक्ति संसद के पास होनी चाहिए। लेकिन हमें उस तरह के फैसले में कोई प्रतिबिंब नहीं मिलता है। इसमें सिर्फ़ वर्गीकरण ही मुद्दा नहीं है, इसमें और भी कई मुद्दे उठे हैं। क्योंकि अगर आप गहराई से समझेंगे तो सेवाओं में कैडर की व्यवस्था है, कैडर के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था है।  28 जनवरी 2022 को तीन जजों जरनैल सिंह का एक जजमेंट आया, जिस बैंच में जस्टिस नागेश्वर राव, जस्टिस गवई और जस्टिस संजीव खन्ना थे। उन्होंने कैडर के आधार पर पूरा सिद्धांत विकसित किया। अब उन्होंने इसे फिर से व्यक्त नहीं किया है, उन्होंने यह नहीं कहा है कि जजमेंट गलत है, लेकिन उन्होंने जो दृष्टिकोण लिया है, वह उस जजमेंट के बिल्कुल खिलाफ है। यह समझ से परे है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने पहले के अपने ही निर्णय को किस आथार पर पलट दिया? क्या हालिया निर्णय ने पहले निर्णय लेने वाले माननीय जजिज को कठधरे में खड़ा नहीं कर दिया है?  होना तो ये चाहिए कि सरकार समाज में जो लोग ज़्यादा अविकसित हैं, उनकी  ग़रीबी दूर करने के समुचित साधन उपलब्ध कराए उनके आर्थिक विकास के लिए और कदम उठाए। उन्हें उत्तम और नि:शुल्क शिक्षा का प्रबंध करे तथा उन्हें कोचिंग और अन्य सुविधाएँ दे। छात्रावासों की संख्या बढ़ाए। सारांशत: कहा जा सकता है कि अ.जा./अ. जनजातिआरक्षण में उपवर्गीकर्ण पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला तथ्यों पर नहीं, भावनाओं पर आधारित है। 

चलते-चलते बतादूँ कि 04.0802024  को बसपा सुप्रीमों ने एक   प्रेस कांफ्रेस कर इस मामले को ‘इंडिया, गठबंधन और भाजपा के पाले में धकेल दिया है और उनसे माँग की है कि उन्हें चाहिए की लोकसभा में एक विधेयक लाकर और उसे माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिए गए हालिया निर्णय की विवेचना करके अ. जा. /अ. जनाजातियों को मिलने वाले यथावत आरक्षण को संविधान की 9वीं सूचि में डालने का उपक्रम करें।

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