तानाशाही के खात्मे के लिए देश को चाहिए एक मिली जुली समावेशी सरकार
2024 का चुनाव वाकई हमें डरा रहा है। इंदौर सूरत बन गया या सूरत इंदौर । ये एक बड़ा सवाल है। इंदौर और सूरत में जो कुछ हुआ, अगर आप इसे उम्मीदवारों की लूट नहीं कहते हैं, अगर आप इसे चुनाव की लूट नहीं कहते हैं, तो आपने लोकतंत्र और चुनाव की समझ पर पट्टी बांध दी है। आप सब कुछ जानते हैं, लेकिन न जानने का नाटक कर रहे हैं। आपसे भी अच्छे लोग थे जिन्होंने इस देश की आजादी और लोकतंत्र के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। ये कहना है वरिष्ट पत्रकार रवीश कुमार का।
उन्होंने आगे कहा कि यदि आप धर्म का नाम न जानने का नाटक कर रहे हैं। सत्ता हथियाने के सबब इंदौर में जो कुछ भी हुआ, अगर उसका असर वहां के 27 लाख मतदाताओं पर नहीं पड़ा तो इसका मतलब है कि उनके बीच से लोकतंत्र का विचार भी गायब होता जा रहा है। विधानसभा के बाद मतदाता पंजीकरण सूची में 40,000 से अधिक नए नाम जोड़े गए हैं। इनमें से ज्यादातर युवा हैं जो पहली बार वोट डालेंगे। उनके सामने भी दो राष्ट्रीय पार्टियों में से किसी एक को चुनने का विकल्प ख़त्म हो गया है। कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कांति बम अपने भाषण में कहते दिखते हैं कि वह जानते हैं कि उन्होंने जो किया है वह इस देश के लोकतंत्र के खिलाफ अपराध है। इसलिए मैं नजरें झुकाकर चल रहा है। सिर झुका रहा हूँ।
बीजेपी सांसद रमेश नेंदोला ने उनका हाथ पकड़ रखा है। तमाम मोबाइल कैमरों के बीच अक्षय कांति बम सिर झुकाए चुपचाप निकल जाने वाले हैं। और वह लोकतंत्र को पीछे छोड़कर सीढ़ियों से नीचे चल रहे हैं। ताकि किसी तरह बाहरी क्षेत्र आ जाए। अध्यक्ष के कार्यालय से बाहर निकलें और कहीं गायब हो जाएं।’ ताकि आज किसी की तरफ देखने की जरूरत न पड़े। बीजेपी को भी यकीन नहीं है कि उनकी पार्टी में आने वाला ये कांग्रेसी खुद आएगा। उसे अपना रास्ता नहीं बदलना चाहिए और बीच रास्ते से गायब नहीं होना चाहिए।’ इसलिए भाजपा वाले उन्हें अपने साथ ले रहे हैं।
इंदौर का ये वीडियो सूरत से काफी अलग है। उम्मीदवार का टिकट कटने के बाद कांग्रेस प्रत्याशी और उनके समर्थक सूरत से गायब हो गए। लेकिन इंदौर में आप खुली बाहें देख सकते हैं। 29 अप्रैल को नामांकन का आखिरी दिन था।
23 उम्मीदवारों ने आवेदन पत्र भरे। कांग्रेस समेत 8 प्रत्याशियों ने अपना नाम वापस ले लिया। 14 प्रत्याशी अब भी मैदान में हैं। लेकिन राष्ट्रीय पार्टी का एक भी प्रत्याशी मैदान में नहीं है। इंदौर के 27 लाख समर्थकों से उनका विकल्प छिन गया। क्या कांग्रेस के उम्मीदवार को किसी और तरह से डराया गया है? 17 साल पुराने मामले में अक्षय कांति व अन्य पर हत्या का केस चलेगा। इसकी सुनवाई 10 मई को हो चुकी है। दैनिक भास्कर ने लिखा है कि इंदौर लोकसभा से कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कांति और अन्य लोगों पर 17 साल पुराने मामले में हत्या का आरोप लगाया गया है। ये 2007 की घटना है।
यह जमीन विवाद का मामला है। आरोप है कि अक्षय कांति व अन्य ने यूनुस पटेल की जमीन खाली कराने की कोशिश की। उन्होंने विवादित फसल में आग लगा दी और गोली चलाने का प्रयास किया। सतवीर नामक व्यक्ति ने गोली चलाई लेकिन वह यूनुस पटेल को नहीं लगी। इस घटना के लिए कांति लाल और अक्षय जिम्मेदार हैं। न्यायिक दंडाधिकारी प्रथम श्रीनि निधि नीलेश श्रीवास्तव ने आरोपियों को 10 मई को कोर्ट में उपस्थित होने का आदेश दिया है। इस देश में ऐसे कई मामले हैं। क्या इस बात से डर गए थे अक्षय कांति? या फिर कोई वजह थी कि 10 मई को पता नहीं क्या होगा तो हम उम्मीदवार वापस ले लेंगे? कोर्ट को यह भी देखना चाहिए कि उसके फैसले का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है। और चुनाव आयोग को ये भी देखना चाहिए कि ये मामला उम्मीदवार को डराने-धमकाने से जुड़ा है या नहीं।
ये 2007 की बात है। ये सब कानून के मुताबिक हो रहा है। अगर कोर्ट फैसला कर दे तो आप क्या कह सकते हैं? आप ये नहीं कह सकते कि चुनाव की वजह से कोर्ट फैसला नहीं करेगा। लेकिन इस फैसले के बाद अगर उम्मीदवार अपना नाम वापस लेकर बीजेपी के नेताओं के साथ जाकर बीजेपी में शामिल हो जाए तो क्या ये डर और धमकी की बात नहीं है? अगर उम्मीदवार अपना नाम वापस लेने लगेंगे तो इस चुनाव का क्या मतलब रह जायेगा? इंदौर विधानसभा अध्यक्ष के बयान से सब कुछ सामान्य लग रहा है। मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी ने कहा है कि किसी को डराया जा रहा है। इस पर हमारे अधिकारी नजर रखेंगे। जाहिर है, इसमें समर्थक से लेकर प्रत्याशी तक सुरक्षा और निष्पक्षता है। हम 2100 पर्यवेक्षक नियुक्त कर रहे हैं और इस बार हमने उन्हें क्या विशेष निर्देश दिये हैं? प्रलोभन और जोर-जबरदस्ती, डराना-धमकाना, स्वतंत्र चुनाव, इस पर वे विशेष रूप से नजर रखेंगे। वे हमें रिपोर्ट करेंगे। इतने निश्चय के बाद यह तीसरी घटना घटी।
खजुराहो में सोशलिस्ट पार्टी का उम्मीदवार बर्खास्त कर दिया गया। बर्खास्तगी के पीछे कोई साजिश थी या नहीं? इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। सूरत में नीलेश कुम्भानी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इस बार चुनाव नहीं होंगे। सूरत से लेकर इंदौर तक ये बात अलग है कि इंदौर में सबकुछ कैमरे के सामने हुआ। आपने देखा होगा कि बीजेपी के लोग कांग्रेस के उम्मीदवार को अपनी पार्टी में ले जा रहे हैं। मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने खुद ट्वीट कर बताया कि उन्होंने इंदौर से अक्षय कांति का कांग्रेस में स्वागत किया है। और इस ट्वीट को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने टैग किया है। इसमें लिखा है कि अक्षय कांति का उनके नेतृत्व में बीजेपी में स्वागत है। यानी यह बात छिपाने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री इस खेल से अनजान हैं।
आमतौर पर प्रधानमंत्री को ऐसे मामलों से दूर रखा जाता है। लेकिन कैलाश विजयवर्गीय अहंकार में प्रधानमंत्री से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक को टैग और ट्वीट करते हैं। फिर भी प्रवक्ता की प्रतिक्रिया से ऐसा लग रहा है कि सब कुछ रूटीन की तरह हो रहा है। क्योंकि आज नाम वापसी का दिन है। और शाम 3 बजे तक नाम वापसी का समय हो गया है। और इसी क्रम में नाम वापसी को उस प्रारूप में प्रस्तुत किया गया है जिसे 3 प्रतिनिधियों द्वारा प्रबंधित किया जाता है। वहीं इसी क्रम में कांग्रेस के प्रत्याशी रहे अक्षय बम ने भी अपना नाम वापसी के लिए आवेदन जमा कर दिया है। उसमें उनके हस्ताक्षर का मिलान भी किया गया है और बाकायदा वीडियोग्राफी भी करायी गयी है। जब आरोपों की जांच हो रही थी तब भी भाजपा के लीगल सेल ने सवाल उठाया था कि अक्षय कांति बम के नाम में धारा 307 के मामले का जिक्र नहीं है।
खजुराहो में केस खारिज हो गया। पर्दे के पीछे न जाने कैसा खेल खेला गया होगा। कांग्रेस ने सूरत को लेकर चुनाव आयोग से शिकायत की थी। हमें नहीं पता कि सूरत के मामले में चुनाव आयोग ने उस शिकायत पर क्या निर्णय लिया। ऐसा लगता है कि कहीं कुछ ग़लत नहीं हो रहा है। बात सिर्फ इतनी है कि विपक्ष के उम्मीदवारों को खारिज किया जा रहा है। विपक्ष के उम्मीदवारों को वापस लिया जा रहा है। वहीं विपक्ष के उम्मीदवार को बीजेपी में शामिल किया जा रहा है। और ये सब सही चल रहा है। अब वह बीजेपी में शामिल हो रहे हैं। और वह कैलाश विजय की तरह फोटो ट्वीट कर रहे हैं। उन्होंने सभी को इतने आत्मविश्वास के साथ टैग किया कि वे कांग्रेस के उम्मीदवार को अपनी कार में ले जा रहे हैं। अब इस सवाल का मतलब यह नहीं है कि इसमें प्रधानमंत्री की भूमिका है या नहीं। या फिर उसे इसकी जानकारी है या नहीं।
खजुराहो में सोशलिस्ट पार्टी की प्रत्याशी मीरा यादव का टिकट कट गया। इंडिया गठबंधन ने ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के उम्मीदवार आर बी प्रजापति को समर्थन दिया है। जाहिर है कि चुनाव खजुराहो में दिखाने के लिए रह जाएगा। सूरत और खजुराहो में अंतर ये है कि नतीजे सूरत में घोषित हुए हैं। और खजुराहो में मतदान अभी बाकी है। सवाल यह है कि क्या यह धोखाधड़ी का एक रूप नहीं है? अगर इसी तरह से उम्मीदवारों को बीजेपी में वापस ले लिया जाएगा तो फिर बचेगा क्या? फिर चुनाव का कोई मतलब नहीं रह जायेगा।
इंदौर को नागपुर के बाद आरएसएस का दूसरा मुख्यालय कहा जाता है। सुमित्रा महाजन यहां से लगातार 8 बार जीत चुकी हैं। 2019 में उनका टिकट कट गया और बीजेपी ने शंकर लालवानी को टिकट दे दिया। शंकर लालवानी 5 लाख से ज्यादा वोटों से जीते। 2019 में वह देश में सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाले उम्मीदवारों में से एक थे। जिस शहर में बीजेपी को इतने वोट मिलते हैं वहां बीजेपी ने ये तरीका अपनाया है। यह कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है। इंदौर के लोग इतने मासूम नहीं हैं। अगर वे इस खेल में शामिल हैं, मुख्य दर्शक हैं तो अफसोस की बात है।
क्या बीजेपी इस बात की जांच कर रही है कि जनता बीजेपी की इन हरकतों को कितना बर्दाश्त करती है? वे इसे स्वीकार करते हैं। सूरत के 18 लाख मतदाताओं को वोट देने का मौका नहीं मिलेगा। वहीं इंदौर के 27 लाख मतदाताओं के सामने अब सिर्फ एक ही राजनीतिक विकल्प होगा। सूरत की जनता चुप हो गई है। इंदौर की जनता भी चुप रहेगी। क्या कोई परीक्षण चल रहा है? यदि चुनाव नहीं होंगे तो जनता की क्या प्रतिक्रिया होगी? यह तस्वीर इंदौर के 27 लाख मतदाताओं का मजाक उड़ा रही है। इस पाराकारा 27 लाख वोटरों की उम्मीदें कुचली जा सकती हैं। और इस तरह बीजेपी में पाला बदला जा सकता है और पार्टी बनाई जा सकती है। बम ने आज बीजेपी के नेताओं को घर बुलाया और जमकर पार्टी की।
और ये तस्वीर बहुत भयानक हो गई है। अगर इंदौर यह सोचता है कि इससे उसका इतिहास महान हो जायेगा, वह स्वच्छ हो जायेगा, तो यह उसका भ्रम है। इतिहास लिखेगा कि जब सूरत और इंदौर की उम्मीदें लूटी गईं, तब शहर के नागरिक धर्म की राजनीति पर ध्यान दे रहे थे। और वे दूसरी तरफ देखने का नाटक कर रहे थे जैसे कुछ हुआ ही न हो। खजुराहो, सूरत और इंदौर की घटना से पता चलता है कि 2024 में चुनाव न होने के ये तीन मॉडल हैं। और तीनों में कोई अंतर नहीं है। लेकिन अगर यहां के लोग यह मान रहे हैं कि चुनाव नहीं होंगे, या बीजेपी को इस बात का भी डर नहीं है कि लोग क्या कहेंगे, समर्थक क्या कहेंगे, तो यह बहुत चिंता की बात है। आपको याद होगा कि कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे कई बार कह चुके हैं कि अगर इस बार बीजेपी जीती तो देश में 2024 से आगे चुनाव नहीं होंगे। इंदौर में जिस तरह से ये खेल खेला गया है, उससे ये डर पैदा हो गया है कि ये चुनाव कितना भयावह है।
जब चुनाव भयानक नहीं लग रहा तो फिर कितने चुनाव बचे हैं? सूरत से कांग्रेस के उम्मीदवार नीलेश कुम्भानी का टिकट कट गया। अचानक खबर आती है कि उनके उम्मीदवारों के हस्ताक्षर सही नहीं हैं। प्रत्याशी गायब हैं। कांग्रेस के अलावा बाकी सभी उम्मीदवारों ने अपने हस्ताक्षर वापस ले लिए हैं। और बीजेपी प्रत्याशी को जीत का प्रमाण पत्र दिया गया है। इस चुनाव में सूरत के 18 लाख समर्थकों से वोट देने की खुशी छिन गई। पिछले कुछ दशकों में धर्म की राजनीति ने उन्हें ऐसी हालत में पहुंचा दिया है कि वे बोल भी नहीं पा रहे हैं। सुना है कि सूरत के अखबारों में बड़े पैमाने पर खबरें छपी हैं कि बीजेपी ने पर्दे के पीछे से कैसे खेल रचा। लेकिन इंदौर में सबकुछ कैमरे के सामने हुआ। सब देखते रह गए कि बीजेपी के इस्तीफे से कांग्रेस किधर जा रही है। गोदी मीडिया लोकतंत्र का हत्यारा है। सूरत की घटना को वह तुरंत भूल गई। अब तरह-तरह की कहानियां चलाई जा रही हैं जिससे लगे कि कांग्रेस का उम्मीदवार कांग्रेस से नाराज था। या फिर यह कांग्रेस नेतृत्व की गलती है। ऐसी कहानियाँ कभी भी बनाई जा सकती हैं। गोदी मीडिया मिनटों में साबित कर देगी कि इसमें बीजेपी की कोई गलती नहीं है।
इस घटना को सामान्य मान लेना खतरनाक है। चुनाव जनता और प्रत्याशियों के बीच होना चाहिए। किस प्रत्याशी के साथ क्या हो रहा है? उनके परिवार और रिश्तेदारों को केस का डर दिखाया जा रहा है। क्या हो रहा है? विपक्षी उम्मीदवार को कैसे डराया जा रहा है? तुम्हें पता नहीं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो जनता कुछ और ही चाहेगी। और नतीजा कुछ और ही होगा। झारखंड के मुख्यमंत्री चंपई सोरेन ने ट्वीट किया है कि पहले अरुणाचल प्रदेश में 10 सांसद निर्विरोध थे। फिर खजुराहो में नामकरण रद्द कर दिया गया। इसके बाद सूरत में निर्विरोध चुनाव हुआ। अब इंदौर में निर्विरोध चुनाव हो गया है। सूरत में क्राइम ब्रांच ने मोबाइल लोकेशन से बसपा प्रत्याशी की तलाश की और उन्हें होटल पहुंचने के लिए मजबूर किया। इंदौर के कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कांति बम के 17 साल पुराने मामले में तीन दिन पहले धारा 307 की बढ़ोतरी की गई थी। मतलब किसी भी हद तक जाकर, सत्ता के शिखर तक पहुंचना ही उनका एकमात्र लक्ष्य है। चंपई सोरेन सवाल उठाते हैं कि क्या आपको अब भी लगता है कि अगर ये लोग सत्ता में लौट आए तो देश का लोकतंत्र और आपके संवैधानिक अधिकार सुरक्षित रहेंगे? आज इंदौर में कांग्रेस का उम्मीदवार था। तीन दिन पहले कोर्ट से धारा 307 बढ़ाई गई थी। धारा 307 का मामला था। उन्हें धमकाया गया, रात भर धमकाया गया। उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया। मैं पूरे प्रदेश के लोगों से, विशेषकर इंदौर के लोगों से प्रार्थना करता हूं कि अगर आप लोकतंत्र में विश्वास करते हैं, अगर आपकी आस्था है, तो आपको पूरे प्रदेश को इस अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना होगा। अब ये कांग्रेस या बीजेपी का मामला नहीं है। यह एक परिवार के सदस्य का मामला है जो सोचता है कि उसे वोट देना है और अपनी सरकार चुननी है। उन्हें अपनी राजनीति चुननी होगी। उन्हें देश में लोकतंत्र को जिंदा रखना है। उन्हें अपनी सुरक्षा मजबूत रखनी होगी।
बीजेपी एक उम्मीदवार को मैदान से क्यों हटा रही है? क्या बीजेपी को ऐसा करना पड़ेगा? क्या बीजेपी को मतदाताओं को धोखा नहीं देना है? क्या बीजेपी को उन्हें वोट देने के अधिकार से वंचित नहीं करना है? क्या इसीलिए ये सब किया जा रहा है ताकि चुनाव न हों? यहां क्या है बड़ी खबर? इस पर विचार करो। कांग्रेस की कमजोरी या बीजेपी की किसी उम्मीदवार को मैदान से उतारकर पार्टी में शामिल करने की क्षमता। सबकुछ स्पष्ट है।
भारत में कम से कम आज कर्नाटक के सेक्स स्कैंडल के बारे में। जेडीएस उम्मीदवार प्रज्वल रेवन्ना देश छोड़कर भाग गए हैं। उस पर असंख्य महिलाओं से बलात्कार करने और उन्हें यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करने का आरोप है। पीएम मोदी ने इसका प्रचार किया था। इस कांड से देश का मुंह बंद हो जाना चाहिए। लेकिन इस खबर को भी पिछले दरवाजे से धकेल दिया गया। बीजेपी की खबरें पिछले दरवाजे से मैनेज की जा रही हैं। विपक्ष के प्रत्याशियों को पिछले दरवाजे से गिरफ्तार किया जा रहा है। कर्नाटक के गुलबर्गा में प्रियंका की रैली में उमड़ी भीड़ क्या ये भरोसा दिलाती है कि लोगों के पास अभी भी कुछ बचा है? क्या जनता चुनाव लड़ रही है या लड़ाई का मैदान कहीं और शिफ्ट हो गया है? मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आज कर्नाटक में एक बड़ा मुद्दा सामने आया है कि जिस मंच के लिए मोदी जी ने वोट मांगा था, उस मंच पर जो लोग खड़े थे, उन्होंने अनगिनत महिलाओं के साथ बलात्कार किया है। यहाँ यह सवाल उठता है कि हमारे प्रधानमंत्री इस बारे में क्या कहते हैं? हमारे गृह मंत्री इस बारे में क्या कहते हैं?
प्रधानमंत्री, गृह मंत्री ने कहा कि प्रियंका गांधी विदेश गई हैं। मैं कहाँ जाता हूँ, वे जानते हैं। विपक्षी नेता कहां जाते हैं, उन्हें पता है। लेकिन जब ऐसा अपराधी, ऐसा राक्षस इस देश से बाहर चला जाता है और उन्हें कुछ पता नहीं चलता? हम इस पर कैसे विश्वास कर सकते हैं? बलात्कार निठारी कांड से भी बड़ा है। और ये रेप किसी और ने नहीं बल्कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री के पोते ने किया था, जो अब मोदी जी के साथ है। भारत के प्रधान मंत्री को कहना चाहिए कि यह घरेलू हिंसा, बलात्कार, उनके सम्मान के शोषण के खिलाफ अत्याचार का मामला है। किंतु आश्चर्य है कि भारतीय प्रधानमंत्री इतनी बड़ी घटना पर चुप हैं। इंदौर और तेलंगाना से आ रही ख़बरों का कहना है कि 2024 के चुनाव से पहले दो मुख्यमंत्रियों को जेल में डालने के बाद अब दिल्ली पुलिस ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री सरकार के निशाने पर हैं। इसके पीछे कोई पुलिस नहीं है, बल्कि वीडियो के मामले में दिल्ली पुलिस एक मुख्यमंत्री को बुलाना चाहती है।
यथोक्त के आलोक में कहा जा सकता है कि देश का लोकतंत्र जा रहा है और अगर चला जायेगा तो फिर कभी बुलाने पर भी नहीं आयेगा। यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि यथोक्त जैसी सब घटनाएं देश में एक मजबूत सरकार होने के कारण घट रही हैं यदि देश में गठबंधन की मजबूर सरकार होती तो ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला था ।
मजबूत और मजबूर सरकार के सवाल के चलते आज बसपा के संस्थापक माननीय काशीराम जी के कथन याद आ रहे हैं। माननीय कहा करते थे कि हमारे देश को को मज़बूत नहीं, मजूबर सरकार चाहिए। जब-जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकारे रहीं, ज्यादातर फैसले पूंजीपतियों और सामंती शक्तियों के हक़ में किए गए। ऐसे शासन में क्षेत्रीय आकांक्षाओं, लोक-कल्याण और जनहित के कार्यों को नज़रंदाज़ किया गया। भारत विश्व में सबसे अधिक विविधताओं वाले देशों में से है। यह कई स्तरों पर है। वर्ण, जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, पर्यावरण इत्यादि! यही कारण है कि भारत इतिहास में कभी एक ‘राष्ट्र’ के रूप में विकसित नहीं हुआ। इस दिशा में 26 जनवरी 1950 को संविधान का लागू होना एक युगांतरकारी घटना है, जिसमें विभाजित भारत को एक राष्ट्र के रूप में विकसित करने की वैधानिक कोशिश की गई। इसके लिए नागरिकों को कई अधिकार दिए गए। संविधान प्रदत्त सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है – वोट देने का अधिकार, जिससे प्रजा नागरिक के रूप में तब्दील हुई। मंशा यह थी कि अब शासक रानी के पेट से पैदा नहीं होगा, बल्कि जनता द्वारा चुना जाएगा और सरकार जनता और संविधान के प्रति जवाबदेह होगी!
भावी सरकारों के चरित्र पर शंका व्यक्त करते हुए डॉ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में कहा था, ‘संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि उसको क्रियान्वित करने वाले ख़राब लोग हों तो वह संविधान ख़राब ही होगा। किसी संविधान का अच्छी तरह से काम करना सिर्फ उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं करता। संविधान को लागू करने वाले लोगों की इसमें भूमिका महत्वपूर्ण है।’ भारतीय समाज की घोर सामाजिक-आर्थिक विषमता को रेखांकित करते हुए डॉ। आंबेडकर ने कहा, ’26, जनवरी 1950 को हम लोग विसंगति से भरे हुए जीवन में प्रवेश करने वाले हैं। राजनीतिक दृष्टि से लोगों के बीच समता रहेगी, पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में, सामाजिक और आर्थिक रचना के कारण, विषमता रहेगी…।ऐसी विसंगति भरा जीवन हम लोग कब तक जियेंगे? अपने सामाजिक व आर्थिक जीवन में हम कब तक समता को नकारेंगे? यदि दीर्घकाल तक हम उसे नकारते रहे, तो अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल लेंगे। इस विसंगति को यथाशीघ्र दूर करना चाहिए, अन्यथा विषमता के शिकार लोग उसे ध्वस्त कर देंगे।’
भारत में आजादी के बाद एक लम्बे अरसे तक पूर्ण बहुमत की सरकार रही। बीच की मिली-जुली सरकारों के दौर के बाद देश में एक बार फिर पूर्ण बहुमत की सरकार है। यानी देश में ज्यादातर समय पूर्ण बहुमत वाली सरकारे रहीं। यदि पूर्ण बहुमत वाली सरकार से बहु-विविधता वाले भारत की समस्याओं का समाधान होना संभव होता तो आज भारत की ज्यादातर समस्याओं का हल हो चुका होता और सैकड़ों राजनीतिक दलों का अस्तित्व भी न होता। देश में इतने सारे दलों का होना ये साबित करता है कि एक या दो दल देश की तमाम इच्छाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम नहीं हैं।
इतिहास से अनुभव दर्शाता है कि जब-जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकारे रहीं, ज्यादातर फैसले पूंजीपतियों और सामंती शक्तियों के हक़ में किए गए। ऐसे शासन में क्षेत्रीय आकांक्षाओं, लोक-कल्याण और जन-हित के कार्यों को नज़रंदाज़ किया गया है, दबाया गया है। राजनीतिक दलों और पूंजीपतियों के गठजोड़ का खुलासा करते हुए बीएसपी के संस्थापक कांशीराम ने कहा था, ‘मनुवादी राजनीतिक दल अपनी-अपनी पार्टियों के लिए पूंजीपतियों से पैसा लेते हैं। नई सरकार बनने पर वे पूंजीपतियों को मनमाफिक जनता को लूटने की छूट देते हैं।’
देखा गया है कि जनहित के बड़े काम मिलीजुली सरकारों में हुए है। यहां मज़बूर और गठबंधन की सरकार द्वारा लिए गए कुछ अहम फैसलों को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा – पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण अर्थात मंडल कमीशन का लागू होना, सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू करना, डॉ आंबेडकर को भारत-रत्न दिया जाना, ये सब कमजोर मानी गई सरकारों ने किया। अगर आप चाहें तो इसमें सूचना का अधिकार कानून और मनरेगा को भी जोड़ सकते हैं जो यूपीए-1 की अल्पमत सरकार ने किया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही लगातार महागठबंधन (एन डी ए ) को ‘महा-मिलावट’ कहकर आवाम को डराने का प्रयास कर रहे हैं (हालांकि उनके खुद का गठबंधन इस विशेषण से अलग नहीं है)। लेकिन देश को चाहिए एक मिली जुली, समावेशी सरकार। अर्थात एक ऐसी सरकार जो एक तरह से जो विभिन्न प्रकार के लोगों या समूहों को शामिल करने और उनके साथ निष्पक्ष और समान व्यवहार करने का प्रयास करती है। वैसी सरकार जो निरंकुश तानाशाह न हो और जो जन-भावनाओं से डरे। लोहिया कहते थे, ‘यदि सड़क सुनसान हो जाएंगी तो संसद आवारा हो जाएगी। खेद की बात है कि आज क्योंकि सड़के सुनसान हैं तो संसद का आवारा होना स्वाभाविक है। ऊपर से मोदी जी जैसे अस्थिर और साम्प्रदायिक विचारों वाले प्रधान मंत्री का होना, देश के लिए कैसे हितकर हो सकता है।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।