बढ़ती जा रही हैं दलित उत्पीड़न की हिंसक घटनाएं : खामोश है बहुजनों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व
यह सर्व विदित है कि दलितों पर अत्याचार सदियों होता आ रहा है। यह कोई नई बात नहीं है। आज भी यहाँ-वहाँ दिलितों पर अत्याचार की घटनाएं घटती ही रहतीं हैं। न्यूज़ लॉन्चर के हवाले से यह जाना कि हाल ही में मनियारी थाना क्षेत्र के एक गांव में मानवता को शर्मसार करने वाली घटना सामने आई है। बाराती का रास्ता बनाने पर दबंगों ने दलित परिवार के साथ मारपीट की है। दबंगों द्वारा महादलित दंपति को निर्वस्त्र कर पीटा गया और फिर महिला के पति के मुंह में पेशाब किया गया।
पूरा मामला कुछ इस प्रकार बताया जा रहा है कि महादलित टोले में पड़ोसी की बेटी की शादी में बारात आनी थी। बारातीयों को आने में कोई कठिनाई न हो, इसके लिए पगडंडी में कीचड़ से भरे गड्ढे को सभी टोला निवासियों ने मिट्टी डालकर चलने लायक बनाया था। ये बात दबंगों को नागवार गुजरी। इसपार आक्रोशित दबंगों ने मौके पर पहुंचकर दलितों को जातिसूचक गालियां दीं गईं और उनके साथ मारपीट भी की गई। इस दौरान दबंगों में से किसी के द्वारा कथित तौर पर देवेंद्र मांझी के सिर पर चाकू से हमला कर दिया गया। पिटाई की सूचना पर बचाने आई पीड़ित की पत्नी को भी दबंगों ने नही छोड़ा और अर्धनग्न कर उसके साथ भी मारपीट की गई। इसके बाद दबंगों ने उसके पति को जमीन पर पटककर उसके मुंह में पेशाब कर दिया गया। इसके बाद सभी दबंग पीड़ित को धमकी देकर गए कि उनके घर में आग लगाकर उन्हें मार देंगे। पीड़ित दंपति ने मनियारी थाना में गांव के ही दबंग पिता-पुत्र को नामजद करते हुए तीन अज्ञात हमलावरों पर एफआईआर दर्ज कराई गई।
पीड़ित द्वारा बताया गया कि मांझी टोला में देवेंद्र मांझी की बेटी की शादी थी। रास्ते में कीचड़ रहने के कारण ग्रामीणों ने मिट्टी डाल दी, जिससे बाराती गिरें नहीं। इसी से आक्रोशित दबंगों ने उनकी पिटाई कर दी और चाकू से हमला कर दिया। इसके बाद दबंगों ने मुंह में पेशाब कर दी। पत्नी को भी निर्वस्त्र करके पीटा गया। इस मामले में थानाध्यक्ष देवव्रत कुमार ने बताया कि प्राप्त आवेदन के आलोक में प्राथमिकी दर्ज कर जांच-पड़ताल चल रही है। सभी आरोपियों पर लगे आरोपों की जांच की जाएगी। दोष साबित होने पर न्यायोचित कार्रवाई होगी। पुलिस सभी बिंदुओं पर गहराई से जांच कर रही है। आप कल्पना कर सकते हैं कि यह घटना किसी के लिए भी कितनी दिल दहला देने वाली हो सकती है। और क्यों? क्योंकि वे दलित परिवार से हैं। और इसीलिए उनके साथ ऐसा करना इतना आसान था। यह अपमान की परंपरा है। और यह कोई नई बात नहीं है।
असली विद्रोहियों पर होने वाले अत्याचारों का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि सरकार हो या प्रशासन, उनका वहां तक कोई असर नहीं है। और क्योंकि उनकी पहुंच नहीं है, इसलिए उपेक्षित लोगों को पता है कि वे कुछ भी कर लें, वे हमारा कुछ नहीं कर पाएंगे। समस्या यह भी है कि यह एक तरह की सामाजिक विकृति है। दुर्भाग्य से, आप यह जानकर हैरत में पड़ जाएंगे कि यह दलित समाज के बीच की सामाजिक विकृति नहीं है, अपितु यह विकृति के पीछे कथित संस्थागत समाज की सांस्कृतिक विविधता है। तो सवाल ये है कि अगर अत्याचार हुआ है, अगर वो जघन्य है, अगर वो बहुत बुरा है, तो इसकी जिम्मेदारी दलित समाज पर नहीं डाली जा सकती। यह बहुत खतरनाक किस्म की मानसिक बीमारी है। जहाँ देखो, वहाँ कुछ इस प्रकार की घटनाएं निरंतर होती ही रहती है। अफसोस की बात है कि भारतीय समाज किसी भी प्रकार की समानता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। दबंगों की वो हर कोशिश होती है जिससे दलित समाज मानसिक गुलामी में फंस कर रह जाएं और अपना आत्मविश्वास खो दे। और क्योंकि दबंग यह जानते हैं कि पुलिस प्रशासन से लेकर शासकीय प्रशासन तक उनके प्रभाव में है इसलिए दबंग गांव वालों पर दबाव बनाने में सफल हैं, ठीक वैसे ही पुलिस और प्रशासन भी उतने ही दबाव में हैं। और इसीलिए, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती।
आपको याद होगा कि मध्य प्रदेश में पेशाब करने का मामले में दोषी व्यक्ति को आखिर में जमानत मिल गई। और सिर्फ़ प्रतीकात्मक तौर पर, उसके घर पर प्रतिकात्मक तौर पार बुलडोजर चलाया गया। इस प्रकार मामला निपटा दिया गया। चौंकने की बात नहीं कि इस प्रकार की अनेक घटनाएं लगातार देखने को मिलती हैं। और दूसरा, पुलिस और प्रशासन को जिम्मेदार बनाइए। मैं आपको बताना चाहता हूं, देखिए एससी-एसटी एक्ट, संशोधन के बाद और पहले भी, पहले ये था कि, अगर सरकारी तंत्र, चाहे वो पुलिस हो, चाहे वो डॉक्टर हो, चाहे वो अस्पताल हो, चाहे वो सरकारी वकील हो, न्याय व्यवस्था में, अगर कोई व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाता है, तो इस प्रकार के अत्याचार की घटनाओं पर रोक लगने की संभावना की जा सकती है।
अब जब एससी-एसटी एक्ट में संशोधन हुआ तो डिफ़ॉल्ट रूप से यह तय हो गया कि जांच के दौरान अगर पुलिस, या अस्पताल, या सरकारी वकील अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाएंगे तो उन पर जुर्माना लगेगा और उन्हें जेल भी जाना पड़ेगा। दुर्भाग्य से 1995 में एससी-एसटी एक्ट लागू हुआ। तब से लेकर अब तक मुश्किल से 10 ऐसे मामले मिले हैं, जिनमें किसी पुलिस अधिकारी, या किसी अस्पताल, या किसी सरकारी वकील के खिलाफ जांच नहीं हुई हो। तो सवाल ये है कि इसके दो स्तर हैं। पहला, एससी-एसटी एक्ट को सख्ती से लागू किया जाए। ये सरकार की जिम्मेदारी है। दूसरे एससी-एसटी एक्ट में डीएसपी की जांच का स्तर जिम्मेदार होता है। लेकिन बहुत कम मामले ऐसे होते हैं, जिसमें अगर मामला इस तरह चर्चित हो जाए, मामला पब्लिक डोमेन में आ जाए, तो डीएसपी मामले की जांच करता है। नहीं तो जांच करने वाला एसआई रिपोर्ट बनाता है, डीएसपी उस पर हस्ताक्षर करके चला जाता है।
आपको क्या लगता है? क्या वाकई ऐसे परिवारों को न्याय मिलता होगा? क्या कभी पुलिस या किसी की जवाबदेही तय होती है? और फिर इन दलित परिवारों के साथ ज़्यादातर मामलों में दलित अत्याचारों को जायज़ ठहराया जाएगा। ऐसा नहीं होता। एससीएसटी एक्ट में कुछ संशोधन किया गया है और साथ ही कुछ मामलों में अदालत में याचिका भी दर्ज की गई है। लेकिन इससे समाज में कोई गुणात्मक संदेश नहीं गया है।
यथोक्त के आलोक में थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न उफान पर है। मार्च 2023 में भारत सरकार ने संसद को सूचित किया कि 2018 से लेकर अगले 4 वर्षों के बीच में 1.9 लाख मामले दर्ज किए गए हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार, उत्तर प्रदेश में दंगों पर हमलों के 49,613 मामले दर्ज किये गये हैं। (2018 में 11,924, 2019 में 11,829, 2020 में 12,714 और 2021 में 13,146)। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने बीएसपी सांसद बेयर चंद्रा के सवाल पर प्रतिक्रिया में ये सूचना साझा की है .
भारत में कुल 4 जातीय समुदाय के विरोधी अपराध के 1,89,945 मामले दर्ज हैं। (2018 में 42,793 – 2019 में 45,961 – 2020 में 50,291 और 2021 में 50,900) ! इन सभी प्रसंगों में सबसे पहले 1,50,454 प्रसंगों में पूर्वजों की मूर्तियां दर्ज की गईं, जिनके बाद केवल 27,754 मुक़द्दमे दर्ज किए गए। ये असल में रिपोर्ट किए गए केस का कोई पात्र नहीं है, जबकि ऐसे केस जो लॉ इनफोर्समेंट ऑफर्स तक नहीं हैं, उनका कोई कैरेक्टर नहीं है।
टाइम्स न्यूज नेटवर्क 5 Dec 2023 : (एमपी न्यूज) – के हवाले से मध्य प्रदेश में एससी/एसटी के साथ हो रहे अत्याचार मामले में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े हैरान कर देने वाले हैं। यूपी और राजस्थान के बाद प्रदेश इस लिस्ट में तीसरे नंबर पर आ गया है। हालांकि पुलिस का कहना है कि केस कम हुए है। लेकिन आंकडे़ कुछ और ही कहानी बता रहे हैं। देश भर में साल 2022 में एसटी के खिलाफ अपराध के कम से कम 10,064 मामले दर्ज किए गए, जो 14.3% की वार्षिक वृद्धि है। इसके साथ ही प्रदेश में इस केटेगरी में क्राइम रेश्यो साल 2021 में 8.4 फीसदी से बढ़कर साल 2022 में 9.6 हो गया है। एससी अपराध की बात की जाए तो सामान्य चोट के 1607 मामलें और गंभीर चोट के 52 तो वहीं, हत्या के 61 मामले सामने आए हैं। देश का दुर्भाग्य है कि दलितों के साथ अपराध के मामलों में उच्च स्थान पर है।
एसटी क्राइम रेट में एनसीआरबी की रिपोर्ट : एनसीआरबी के आंकड़ों की बात करें तो साल 2022 में आदिवासियों को ऊपर हुए 2979 मामले सामने आए जो कि पिछले साल के क्राइम के मुकाबले में 13 फीसदी अधिक थे। इसमें तीन सालों से प्रदेश टॉप पर बना हुआ है। 2,521 मामलों के साथ राजस्थान दूसरे और 742 मामलों के साथ महाराष्ट्र तीसरे स्थान पर है। इन तीन सालों में कोई बदलाव नहीं हुआ है।
खेद की बात तो यह है कि दलित वर्ग में जन्में सामाजिक और राजनीतिक संगठन अक्सर दलित उत्पीड़न के मामलों पर अक्सर शांत रहते हैं या एक दो दिन गलाफाड़ आक्रोश जताकर शांत हो जाते हैं। विधान सभाओं और लोकसभा में बहुजन वर्ग के तथाकथित प्रतिनिधि भी अपनी-अपनी पार्टियों के दवाब में बग़लें झाँकते रहते हैं। दलित राजनीति की भी जैसे हाशिए पर खिसक गई है।बहुजन समाज में बसपा के अतिरिक्त अनेक राजनीतिक दल भी मैदान उतरने का दम भर रहे हैं। विदित हो कि रिपब्लिक पार्टी के बाद बसपा ने बहुजनों के लिए जो काम किया, वैसा अन्य कोई अन्य बहुजन समाज को एक करने के बजाय अन्यंय राजनीतिक दल बनाकर बहुजनों के वोटों को छितराने का काम कर रहे हैं। और यही कांग्रेस और भाजपा चाहती भी है। यह भी कि बहुत से बहुजनों को कुछ न कुछ लोभ देकर बहुत सी जेबी राजनीतिक पार्टियों का सृजन कराने का काम करती हैं ताकी बहुजनों और ओबीसी के वोट बैंक कहीं एकजुट न हो जाएं। कमाल की बात तो ये है कि बहुजनों के राजनीतिक दल आपस में ही एक दूसरे की टाँग खिचने में लगे रहते है। या यूं कहे कि बहुजन समाज के जेबी राजनीतिक दल ही बहुजनों को बाँटने पर तुले हैं।
उपरोक्त के आलोक में मेरे लिए तो यह कहना अति कठिन कार्य है कि मौजूदा कालखण्ड की राजनीतिक/ सामाजिक गतिविधियों में समाहित जातिगत उटा-पटक से भारतीय समाज में जातियां कमजोर हो रही हैं……..उल्टे और मजबूत हो रही हैं। कारण है कि मौजूदा राजनीति केवल और केवल धर्म और जातियों की गुटबन्दी/जुगलबन्दी पर आधारित है। यह भी कि दलित उत्पीड़न के मामलों पर बहुजनों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी खामोश नजर आता है। इस प्रकार ब्राह्मणवाद का उद्देश आज भी स्थाई बना हुआ है। केवल उसका वर्चस्व और उसकी रणनीति समय के साथ बदलती रहती है।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।