IIT- IIM जैसी संस्थाओं का भगवाकरण: कहाँ गया वैज्ञानिक दृष्टिकोण?

शिक्षा अंधविश्वास को दूर करने में मदद कर सकती है, लेकिन कुछ लोग अपनी पुरानी मान्यताओं और धारणाओं को मानने के लिए तैयार नहीं होते। इसके अलावा, विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से भी अंधविश्वास जड़ा रहता है, और यह कई लोगों के मनोबल को प्रभावित कर सकता है। यहां यह सोचने की बात है कि अंधविश्वास और विश्वास में क्या अंतर है? किसी की बात सुनकर अथवा कहीं पढ़कर बिना विवेक का इस्तेमाल किये, आंख बंद करके मान लेना यह अंधविश्वास है तो किसी बात को विज्ञान की कसौटी पर कस कर मानना विश्वास है। अंधविश्वास से अधोगति होती है। दरअसल अंधविश्वास उन मान्यताओं और प्रथाओं को संदर्भित करता है जो बिना किसी ठोस तर्क या प्रमाण के होती हैं।
अंधविश्वास प्रायः सांस्कृतिक या पारंपरिक मान्यताओं पर आधारित होते हैं और अक्सर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से असंगत होते हैं। ये मान्यताएँ नकारात्मक प्रभाव डाल सकती हैं, जैसे कि डर, भ्रम, और गलतफहमी। अंधविश्वास सामाजिक मान्यताओं, ऐतिहासिक घटनाओं, या अनजानी चीजों के प्रति अवैज्ञानिक और तर्कहीन विश्वासों पर निर्भर करते हैं। इस प्रकार, आस्था/विश्वास और अंधविश्वास के बीच अंतर मुख्य रूप से तर्कसंगतता और वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आधारित होता है। आस्था को समझने और अनुभव करने के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक संदर्भ की जरूरत होती है, जबकि अंधविश्वास मुख्य रूप से निराधार और अवैज्ञानिक विश्वासों पर आधारित होते हैं।
यथोक्त के आलोक में आज खेद की बात है कि हमारे IIT-IIM जैसी संस्थाओं में अवैज्ञानिक पाठ्यक्रम को पढ़ाए जाने का उपक्रम किया जा रहा है। तो क्या ऐसे प्रयास शिक्षा के मूल उद्देश्य को पूरा करने में सक्षम होगा। जरा सोचिए कि क्या अवैज्ञानिक शिक्षा/पाठ्यक्रम पढ़ाने से अंधविश्वास नहीं पनपेगा? फिर शिक्षा में Scientific Temperament की संवैधानिक व्यवस्था का क्या महत्त्व रह जाएगा? विदित हो कि आजादी मिलने के बाद जब इस देश में IIT और IIM जैसी संस्थाएँ बनीं, तब माना गया था कि ये संस्थाएँ देश में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने वाली स्वर्णिम संस्थाएँ हैं।
ये संस्थाएँ देश का नाम रोशन करेंगी। विज्ञान को बढ़ावा देते हुए, शिक्षा को कैसे बढ़ावा दिया जाए और देश में ऐसे लोग कैसे तैयार किए जाएँ जो विज्ञान के नारे के साथ, विज्ञान की सोच के साथ अपने जीवन को सार्थक बनाएँ और देश को आगे बढ़ाएँ। लेकिन जब इन संस्थानों में इस तरह की बातें होने लगती हैं कि भूस्खलन इसलिए हो रहा है क्योंकि लोग मांस खाते हैं और गुण गिनाए जाए गोमूत्र के। इसके अलावा अगर हम प्रेगनेंसी साइंस की बात करें, अगर हम भूत-प्रेत विज्ञान की बात करें तो इंसान सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या हमारे देश के IIT और IIM संस्थानों में वाकई वैज्ञानिक स्वभाव को बढ़ावा दिया जा रहा है या कुछ गड़बड़ है। ऐसा कहना है The Red Mike के संकेत उपाध्याय जी का अपने हालिया कार्यक्रम ‘इशारों इशारों’ में।
दरअसल, पिछले कुछ महीनों में, और काफी समय से, ऐसी खबरें आ रही हैं कि बड़े-बड़े प्रीमियर इंस्टीट्यूट जैसे IIM, IIT, इन सभी जगहों पर टीचर्स, लेक्चर्स, कॉन्फ्रेंस, किस तरह की चीजें हो रही हैं और किस तरह की चीजों का प्रचार-प्रसार हो रहा है। सबसे पहले आपको बताते हैं कि IIT बॉम्बे में क्या हुआ। 18 जनवरी 2025 की इकोनॉमिक टाइम्स की यह रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रेग्नेंसी साइंस, साइंस ऑफ चाइल्डबर्थ पर एक मीटिंग हुई थी। इसे आईआईटी के संस्कृत सेल ने आयोजित किया था, जिसमें संस्कृति आर्य गुरुकुलम के आयुर्वेद विशेषज्ञ को बुलाया गया था। इसके साथ ही कैंपस को एक ईमेल भी भेजा गया था।
प्रेगनेंसी साइंस पर क्या चर्चा हुई? प्रेगनेंसी पर पूर्वजों का क्या असर होता है? प्रेगनेंसी के दौरान माँ और बच्चे के स्वास्थ्य पर चर्चा होनी थी। प्रेगनेंसी के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से कैसे तैयार रहें? हेल्दी प्रेगनेंसी के लिए किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? इन सब बातों पर एक रिपोर्ट है, जो इकनॉमिक टाइम्स के साथ-साथ फ्रंटलाइन में भी छपी है। जिसका शीर्षक है “आईआईटी बॉम्बे का ‘गर्भविज्ञान’ व्याख्यान: शैक्षणिक परिसरों के ‘भगवाकरण’ का प्रतिबिंब?” इस बारे माई आईआईटी बॉम्बे ने आयुर्वेद के समर्थक आचार्य मेहुल शास्त्री द्वारा गर्भाधान के विज्ञान पर व्याख्यान निर्धारित किया गया था। वे बच्चे के आंतरिक और बाहरी गुणों को लागू करने के तरीकों के बारे में बात करेंगे, हमारे पूर्वजों ने बच्चे के गुणों को कैसे पहचाना, माँ और भ्रूण का स्वास्थ्य, गर्भावस्था से पहले मन और शरीर की तैयारी, गर्भाधान के दौरान लापरवाही के परिणाम और गर्भ संस्कार के लिए कुछ नियम।
छात्र और शिक्षक इस कार्यक्रम को परिसर में हिंदुत्व विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए प्रचार के रूप में देखते हैं। एक समझदार पंथ के सदस्य ने नाम न बताने की शर्त पर फ्रंटलाइन को बताया कि यह व्याख्यान केवल अंधविश्वास को बढ़ावा देने का काम करेगा। कॉलेज परिसर वैज्ञानिक आधार वाले विचारों पर बहस के लिए होते हैं। लेकिन ऐसी घटनाएं सूक्ष्म तरीके से अंधविश्वास को बढ़ावा देती हैं’ प्रोफेसर ने कहा। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि ये लेक्चर आयुर्वेद विज्ञान के जानकार आचार्य मेहुल शास्त्री को देना था। इसके बाद कैंपस में जंग छिड़ गई कि IIT, Indian Institute of Technology में Pregnancy Science का क्या स्थान है? और हम इससे क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या हम इसे एक तकनीक के तौर पर देख रहे हैं? क्या इसे उस नजरिए से देखा जा रहा है? और इस तरह के आचार्य आयुर्वेद क्या सिखाएंगे? अब ये बहस का विषय है। क्योंकि अगर आप दक्षिण की सोच की बात करें या जो लोग सरकार के पक्ष में हैं, तो उनका कहना है कि हमारा आयुर्वेद बहुत वैज्ञानिक है। और अगर आप उसके हिसाब से सोचेंगे तो आप उससे सीख लेकर देश को आगे ले जाएंगे। तो इसे नकारिए मत। यह भी एक तरह का विज्ञान है। वहीं, इस आईआईटी बॉम्बे में ऐसे तमाम लोग हैं जो मानते हैं कि यह छद्म विज्ञान को बढ़ावा देने का एक तरीका है। किंतु तमाम डॉक्टर इस बात से खुश नहीं हैं कि आयुर्वेद को विज्ञान के रूप में चिकित्सा के विकल्प के रूप में प्रचारित किया जाए। ये मामला है आईआईटी बॉम्बे का।
इसके अलावा आपको ये भी बता दें कि और भी कई रिपोर्ट हैं। उदाहरण के लिए, गुजरात तकनीकी विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट है, जो इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित है। विज्ञान आधारित अनुसंधान और नवाचारों की स्थापना करके गाय के दूध और गोबर के पारंपरिक उपयोग को बढ़ावा देने के लिए, गुजरात तकनीकी विश्वविद्यालय ने एक गाय अनुसंधान केंद्र “गौ अनुसंधान इकाई” की स्थापना की है। गुजरात टेक्निकल यूनिवर्सिटी में ऐसा हुआ है। द प्रिंट में एक आर्टिकल है जिसमें लिखा है कि एक समर्पित शिक्षक, इस्कॉन शिष्य जो आईआईटी मंडी के प्रमुख हैं, वो मांस खाते हैं, यानी अगर आप मांस खाते हैं तो उसे भूस्खलन कहते हैं यानी मांस खाने से भूस्खलन होता है। वो कहते हैं कि नहीं, आधुनिक विज्ञान नहीं जानता कि आप कौन हैं।आधुनिक विज्ञान यह नहीं समझा सकता कि चेतना क्या है। आप अपने साथी को चुनने के लिए आधुनिक विज्ञान का उपयोग नहीं करते हैं, है न? क्या आप संतान पैदा करने के लिए आधुनिक विज्ञान का उपयोग करते हैं? क्या आप आधुनिक विज्ञान का उपयोग करके किसी से प्यार करते हैं या किसी से नफरत करते हैं? आधुनिक विज्ञान बहुत सीमित है। क्या आधुनिक विज्ञान आपको अमर बना सकता है? इतना सब कहने के बाद, उनका तर्क है कि अगर आप मांस खाते हैं, तो भूसखलन हो रहा है। अगर आप मांस नहीं खाते हैं, तो पहाड़ नहीं हिलेंगे। अब यह आपको सोचना है कि आईआईटी मंडी के प्रमुख के इस तर्क को आप कितना वैज्ञानिक मानते है।
इससे पहले कि इस विषय में और कुछ बात की जाय, हमें यह जानने की जरूरत है कि भारत का संविधान इस बारे में क्या कहता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51A(H) के अनुसार, भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और जांच और सुधार की भावना विकसित करे। अब आप सोचिए, कि भारत का संविधान अनुच्छेद 51A(H) में कहता है कि इस देश के प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण बनाए रखे। जांच और सुधार की भावना, यानी सवाल पूछने की भावना, आपके अंदर जांच की भावना होनी चाहिए। आपके अंदर बदलाव की भावना होनी चाहिए। ये हमारी जिम्मेदारी है। हमारा संविधान हमें यह अधिकार दे रहा है। तो ये जो बयान आ रहे हैं, क्या ये वैज्ञानिक कहे जा सकते है? क्या ये वो वैज्ञानिक स्वभाव है जिसकी चर्चा हमारे संविधान में हो रही है? ज़रा सोचिए।
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट है जिसमें कहा गया है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भूत विद्या एक वैध कोर्स है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में साइंस ऑफ पैरानॉर्मल विषय पर 6 महीने का सर्टिफिकेट कोर्स शुरू हो रहा है। ये कुछ उदाहरण हैं। इसके अलावा 2016 में आई एक रिपोर्ट जरिए यह बताया गया था कि आईआईटी दिल्ली में गाय के मूत्र और गोबर के चिकित्सा चमत्कार को देखते हुए एक कार्यशाला आयोजित की गई थी। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली द्वारा हाल ही में आयोजित एक कार्यशाला में वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने गाय विज्ञान विश्वविद्यालय की स्थापना और गाय के मूत्र के कैंसर रोधी गुणों पर शोध करने सहित 40 प्रस्ताव पेश किए गए हैं। जाहिर है ये 2016 की बात है जिसमें ये भी कहा गया था कि इस कार्यक्रम का उद्देश्य पंचगव्य के स्वास्थ्य लाभों को प्रमाणित करने के लिए एक राष्ट्रीय परियोजना की स्थापना करना था जो गाय के मूत्र, गोबर, दूध, दही और घी से तैयार किया गया मिश्रण है यानि घी, दही, दूध और गाय के मूत्र इन सभी चीजों को मिलाकर जो चीज बनती है उसका उपयोग कैसे करना है? अब आप ही सोचिए कि क्या ये एक वैज्ञानिक विषय है। इस रिसर्च से क्या निकलेगा? उस दृष्टि से मेरे पास देखने के लिए वैज्ञानिक उत्साह है। लेकिन ये सब कहाँ से आया? क्या ये सब अपने आप हो रहा है इन सभी संस्थानों में?
आपको अच्छी तरह याद होगा कि जब 2020 में कोरोना वायरस चल रहा था और उस समय कोरोना की वैक्सीन भी आई थीं। तो ये 2021 की बात है। उन वैक्सीन के आने के बाद, हमने देखा कि डॉ. हर्षवर्धन जो उस समय स्वास्थ्य मंत्री थे, उन्होंने कोरोनिल को लॉन्च किया। कोरोनिल क्या थी? यह थी बाबा रामदेव की एक आयुर्वैदिक दवा जिसे वो कोरोना वैक्सीन के विकल्प के तौर पर पेश कर रहे थे। उनका दावा था कि इससे कोरोना ठीक हो जाएगा। इसे किसने लॉन्च किया? डॉ. हर्षवर्धन ने। उनके साथ कौन था? नितिन गडकरी। मंच पर कौन था? बाबा रामदेव। उसके बाद क्या हुआ? ये भी आपके लिए जानना ज़रूरी है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने इसका पूरा विरोध किया। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने बाबा रामदेव की इस दवा का कड़ा विरोध किया। कोर्ट गए और कोर्ट से बाबा रामदेव को माफ़ी मांगनी पड़ी। सुप्रीम कोर्ट की वो बातें याद कीजिए जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जिस तरह से आपने बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करके कोरोनिल को कोरोना वैक्सीन के विकल्प के तौर पर पेश किया है, उसी तरह बड़े-बड़े विज्ञापनों में माफ़ी भी मांगनी चाहिए।
ये वही बाबा रामदेव थे जो कोरोना वायरस के समय अपने मंच से डॉक्टरों का मज़ाक उड़ाते थे। कि इतने डॉक्टर मर गए। वो क्या बता रहे हैं? कौन सी वैक्सीन काम आएगी? अब आप सोचिए जब कोई मंत्री ऐसी नकली दवा का समर्थन इस्तेमाल करता है जिसे सुप्रीम कोर्ट भी नकली मानता है। बाबा रामदेव को माफ़ी मांगनी पड़ती है। जब वो मंच पर ऐसी दवा दिखाते हैं और फोटो खिंचवाते हैं तो ये सारे संदेश अलग-अलग यूनिवर्सिटी और कॉलेज में जाएंगे। जो फैकल्टी ऊपर बैठी है, जब वो देखती है कि बड़े-बड़े मंत्री ये काम कर रहे हैं, तो वो भी ये काम करेंगे। ऐसे में भारत के संविधान का आर्टिकल 51A(h) कहां है? आर्टिकल 51A(h) में वैज्ञानिक स्वभाव की बात कही गई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51ए(एच) में कहा गया है, “प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और जांच और सुधार की भावना विकसित करे।” चूंकि चीजें स्पष्ट नहीं होती हैं, इसलिए सीमित समझ के साथ व्यापक बयान देने के बजाय.. हमें गंभीरता से सोचने और बुद्धिमानी से तर्क करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए।“
वो वैज्ञानिक स्वभाव कहां चला गया? इन संस्थानों में प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? क्या गोमूत्र प्राथमिकता होनी चाहिए? क्या हमारी प्राथमिकता और प्राथमिकता ये होनी चाहिए कि अगर आप मांस खा रहे हैं, तो भूस्खलन उत्सर्जित हो रहा है? क्या ये हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए? या ये प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए कि इन संस्थानों में जितने भी रिक्त पद हैं, जो अभी भी भरे नहीं गए हैं? उन्हें जल्दी से जल्दी भरा जाए। इस बारे में मार्च 2023 में संसद द्वारा दिया गया एक उत्तर दिया गया था। संसद में डॉ एम थंबीदुरई ने IIT, NIT और IIM में प्रश्न पूछे। उन्होंने पूछा कि क्या ये सच है कि IIT, NIT, IIM इत्यादि जैसे प्रमुख संस्थानों में आज भी खाली पद हैं। अलग-अलग केंद्रीय विश्वविद्यालयों IIT, IIM, IICR, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और दूसरे उच्च शिक्षण संस्थानों की ये रिपोर्ट है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों, IIT, IIIT, NIT, IIM, इन संस्थानों में कुल कितने पद खाली हैं, कितने भरे गए हैं और कितने खाली हैं। यह भी कि कितने स्वीकृत हुए, कितने भरे गए और कितने खाली हैं। क्या इन संस्थाओं में खाली पड़ी रिक्तियों को जल्दी से जल्दी भरना इन संस्थाओं के प्रमुखों की प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए? क्या ये प्राथमिकता सरकार की नहीं होनी चाहिए? क्या ये प्राथमिकता शिक्षा विभाग की नहीं होनी चाहिए? क्या ये प्राथमिकाता अलग-अलग प्रमुखों की नहीं होनी चाहिए? क्या ये प्राथमिकता अलग-अलग छात्र संगठनों की नहीं होनी चाहिए?
कम से कम अलग-अलग छात्र संगठनों की तो ये प्राथमिकता होनी ही चाहिए कि वो एकजुट होकर उठाएं कि , सरकार इन रिक्त पदों को अविलंब भरें ताकि इन संस्थाओं और छात्रों की अपेक्षाएं पूरी हो सकें। ये अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद का वो आंकड़ा है जो आपको साफ तौर पर बताता है कि अगर इन कॉलेजों, यूनिवर्सिटी और संस्थानों में नाखुशी होने लगे तो इसका क्या असर होगा? AICTE की इस रिपोर्ट के मुताबिक, M.Tech कोर्स में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या साल दर साल घटती जा रही है। 2017-18 से लेकर 2023-24 तक कुल सीटों की संख्या के मुकाबले इसमें दाखिला लेने वाले लोगों की संख्या घटती जा रही है। इसके लिए तमाम कारण गिनाए जा रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण ये है कि क्या विद्यार्थियों को लगता है कि इन संस्थानों में वैज्ञानिक स्वभाव नहीं है…वो क्या हासिल करेंगे?
विद्यार्थी जो सवाल खुद से पूछते हैं कि मैं पढ़कर क्या करूंगा। जब ऐसी चीजें होने लगती हैं तो क्या विद्यार्थियों को लगता है कि इन संस्थानों में जाना जरूरी नहीं है? ऐसा क्यों है कि पिछले 7 साल में M.Tech में सबसे कम नामांकन इस देश में हो रहा है? ये कैसे हासिल होगा? छात्रों के दाखिले में इस प्रकार की गिरावट क्या बताती है? क्या इससे जुड़ी नौकरियों की ज़रूरत नहीं है? हाँ, प्रशिक्षित पेशेवरों की ज़रूरत है। तो ऐसा क्यों हो रहा है? बेरोज़गारी क्यों बढ़ रही है? ऐसा क्यों हो रहा है कि बहुत सारे लोगों ने रोज़गार की उम्मीद छोड़ दी है? क्या हम वैज्ञानिक स्वभाव को छोड़ते जा रहे हैं? इन सवालों पर हमको सरकार के सामने सवाल उठाने होंगे। यदि हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो न केवल शिक्षा के वैज्ञानिक स्तर में गिरावट आएगी..शिक्षा का भगवाकरण कर दिया जाएगा अपितु बेरोजगारी का ग्राफ भी बढ़ता जाएगा।

वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्याति लब्ध हैं। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक ऐसे यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन खट्टे-मीठे अनुभवों का उल्लेख किया है, जो अलग-अलग समय की अलग-अलग घटनाओं पर आधारित हैं। अब तक उनकी विविध विधाओं में लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।