कौन है शूद्रों का राजनीतिक दुश्मन और कौन है नायक
बाबासाहेब आंबेडकर जब अपना सब कुछ त्याग कर शूद्र समाज को नारकीय जीवन तथा ब्राह्मणवाद से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब उन्हें अपने लोगों से दुःखी होकर, यह कहना पड़ा था कि, हमारे समाज के पढ़े लिखे लोगों ने, मुझे धोखा दिया। यह भी सर्वविदित है कि, पूना पैक्ट का सहारा लेकर बेशर्म राजनीतिक चमचे, उनके खिलाफ चुनाव भी लड़ने की कायरता पूर्ण हरकत कर जाते थे। उस समय के बंगाल प्रदेश के चांडाल (नमोशूद्रा) और मुस्लिम लोगों ने जिताकर संविधान सभा में पहुंचाया और तभी बाबा साहेब संविधान निर्माता बने।
जब मान्यवर कांशीराम साहब ने उत्तर भारत से निकलकर महाराष्ट्र को अपनी कर्मभूमि बनाई और यहीं से फूले, शाहूजी और बाबा साहेब के जीवन संघर्ष को पढ़कर, समझकर और उस समय के समाज में ब्याप्त भेदभाव और असमानता को महसूस कर उद्वेलित हो गये। बाबासाहेब के अपठनीय, अप्रसारित, अद्वितीय वैज्ञानिक विचार और समाज सुधार की कार्ययोजना, जो किताब के पन्नो में दबी हुई थी, उसे बाहर निकाल कर समाज में प्रैक्टिकल रूप से करने की कोशिश में लग गए।
BAMCEF के संस्थापक, कांशीराम साहब को ही 1985 में कुछ महत्वाकांक्षी लोग, उन्हें बामसेफ से निकालते हुए अपने मनमाफिक रजिस्ट्रेशन कराने में सफल हो गए। आगे चलकर, धीरे-धीरे आपस में ही कई टुकड़े पैदा कर लिए। मनुवादियों के नहीं, बल्कि बहुजन के ही प्रतिद्वंद्वी होकर मूलनिवासी का विचार पैदा किया। सिर्फ एक ही असंवैधानिक मूलमंत्र, ब्राह्मणवादी विदेशी कंसेप्ट को लेकर चलने लगे। जय भीम छोड़कर जय मूलनिवासी संबोधन पर आ गए, सवाल पूछने पर उनका कहना है कि, जय भीम नाम पर पिछड़ी जातियों के लोग नहीं जुड़ते हैं। सभी वामसेफी टुकड़े मेम्बरशिप बनाने के कंपीटिशन में, सभी जातियों और उन जातियों के महापुरुषों को महत्व देने लगे और बाबा साहेब के महत्व को अनजाने में कम करने लगे।
शुरुआत में सिर्फ फुले-अंबेडकरी मिशन था। बाद में कांशीराम साहब ने पिछड़ी जातियों को जोड़ने के लिए पेरियार और शाहू महाराज को भी अपने बैनर पर जगह दी थी। आज बामसेफ और मूलनिवासियों के महापुरुषों के बैनर में बाबा साहेब को ढूंढना पड़ता है। जातियों और उनके नेताओं के वर्चस्व को बढ़ावा देना ही ब्राह्मणवाद मनुवाद को बढ़ावा देना है। आश्चर्य तो तब और होता है, जब चालीस सालों से ये सभी घटक मिलकर महाराष्ट्र के आदिवासियों को ही आजतक मूलनिवासी कंसेप्ट समझाने में पूरी तरह फेल हैं।
केकड़े वाली प्रवृत्ति से आजिज आकर, कांशीराम साहब महाराष्ट्र छोड़कर उत्तर भारत की तरफ अपने मिशन को ले गए और सफलता भी मिलने लगीं। यह देखते हुए प्रतिद्वंदिता में महाराष्ट्र छोड़कर, मूलनिवासी वाले भी, कांशीराम जी के उतर भारत के सफल बहुजन मिशन तथा बिहार और झारखंड के मंडल मिशन में घुसपैठ करने लगे। जिसका एक मुख्य घटक आज-कल काफी सक्रिय है, जिसका नेतृत्व बामन मेश्राम जी कर रहे हैं, अब इनको भी कट्टर चुनौती इन्ही के खासमखास लंगोटिया यार बोरकर जी भी दे रहे हैं। इसी तरह, सभी सम्मानित मानकर, जानकर, बामन, बोरकर, माने, नितनवरे, झल्ली, अतरवीर आदि सभी बामसेफ, बहुजन या मूलनिवासी बनकर, आपस में ही एक दूसरे के लिए चुनौती बनते और बनाते आ रहे हैं।
मान्यवर कांशीराम जी की सफलता के बाद, बामसेफ का दुरुपयोग होने लगा। ज्यादातर लोग उनके मिशन के विरोध में काम करते हुए, उनके नाम पर चंदा इकठ्ठा कर रहे थे। इसका प्रमाण मैं खुद था, एकबार हुआ ऐसा कि दिसंबर 1995 में रजिस्टर्ड बामसेफ के 4-5 लोग प्रभादेवी टेलीफोन इक्स्चेंज बिल्डिंग,मुम्बई की मेरी आफिस में मुझे अपना सदस्य बनाने के लिए प्रेरित कर रहे थे। अनजान बनते हुए, बातचीत में, वे लोग भी मान्यवर कांशीराम जी के लिए ही काम करने का दावा कर रहे थे। मैंने कहा ठीक है, अभी एक हजार तो क्या, आप लोग मुझे कांशी राम जी से मुलाकात करवा दीजिए, मैं उसी समय रू-5000/- देकर सदस्य बन जाऊंगा। तुरंत लोग चलते बने। मैंने भी ऐसी शिकायत खुद कांशीराम जी से की थी। यह जानकार उन्होंने 19 जुलाई 1998 नेहरू मेमोरियल हॉल पूने के बामसेफ के राष्ट्रीय अधिवेशन में बामसेफ बन्द करने का आह्वान किया और उसके बदले पे बैक टू सोसाइटी प्रोग्राम शुरू किया।
आज के राजनीतिक माहौल को देखते हुए उत्तर प्रदेश में शूद्रों की ही राजनीतिक पार्टियां, सपा, बसपा तथा अन्य जातीय पार्टियां तथा बिहार में भी जनता दल-यू और राजद के साथ साथ कई जातीय पार्टियां आपस में ही एक दूसरे को चुनौती दे रही हैं।
प्रमाण के लिए, अभी कुछ महीने पहले सम्पन्न हुए बिहार के चुनाव, जिसमें जातियों की पार्टियों का तथा बामसेफ और मूलनिवासियों का अपरोक्ष रूप में भाजपा को जिताने में बहुत बड़ा योगदान रहा है। अच्छा है कि ऐसा माहौल बंगाल चुनाव में नहीं था।
भाजपा शूद्रों की जातीय पार्टियों से धन-बल पर समझौता करके, शूद्रों को ही हराकर, उन्ही पर शासन करने लगती है। शूद्रों की पार्टियों से पैसे के बल पर आसमान से उतरे नेता भी जीत जाते हैं, हम थोड़े समय के लिए खुश हों जाते हैं, लेकिन देर सबेर वही मौका मिलते ही पद और पैसे की लालच में धोखा दे देते हैं।
यह जानते हुए, धोखा खाते हुए भी सभी शूद्र पार्टियों के लोग सबक नहीं सिखाते हैं। गरीब मिशनरी लोगों को ही मौका नहीं देते हैं। यह सीधी गणित 85% की क्यों नही समझ में आती है? शायद कभी कभी अपमानित होने पर आती हैं, लेकिन पद और पैसे का लोभ, राजशाही जीवन जीने की आदत, भ्रष्टाचार के कारण ईडी, सीबीआई की ब्लैकमेलिंग, नतीजा यह निकलता है कि फिर से पूरा समाज ठगा महसूस करने लगता है।
कांशीराम जी के अच्छे दिनों में, अंबेडकरवादी, या पूरे देश का शूद्र समाज, यदि थोड़ा भी सहयोग कर दिया होता तो आज मोदी और योगी पैदा नहीं होते। कांशीराम जी को मनुवादी वैसाखी मजबूरी में लेनी पड़ी, जो आज तक नासूर बनी हुई है।
उन्होंने शूद्र समाज के कुछ अति पिछड़ी जातियों को, जिनको उस समय तक राजनीतिक पटल पर कोई जानता या कोई भाव भी नहीं देता था, उनको नेता बना कर देश में पहचान दिलाई। आजकल वहीं और उसी शूद्र समाज के अधिकतर जातीय नेता सैकड़ों पार्टी बना कर शूद्रों या बहुजनो के दुश्मन बन कर ब्राह्मणवाद की गोंद में खेल रहे हैं। सबकी अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षा है, आज कांशीराम जैसे नेत्रृत्व की कमी खल रही है।
अभी तक तो शूद्रों के नेता बिकते थे, उससे भी बुरी हालत यह है कि, अब शूद्रो के सामान्य वोटर भी चुनाव के दौरान देखा-देखी बिक रहे हैं। कांशीराम जी का सपना आज टूटते दिखाई दे रहा है। यही नहीं लाखों शूद्रों को आईटी सेल में नौकरी में लगाकर, समाज में मच्छरों की तरह छोड़ दिया गया है, जिनका काम गलत, फालतू, फर्जी, मैसेज दिन रात फैला कर, समाज में हिन्दू-मुस्लिम नफरत पैदा करना और सोशल मीडिया को बदनाम करना है, जिससे अच्छे लोग सोशल मीडिया से दूरी बना लें। यहां भी शूद्र ही शूद्र का दुश्मन बना हुआ है।
मैं भी 1982 से कांशीराम जी के बामसेफ के साथ जुड़ा रहा, पूरी लगन और निष्ठा के साथ काम करता रहा, कभी पद या कोई पोष्ट की लालसा नहीं रखी, फिर भी मेरे ही लीडर साथियों को यह डर बराबर बनता दिखाई दे रहा था कि, कहीं यह हमसे आगे न निकल जाए और मेरी भी टांग खींचते हुए मिशन को कमजोर कर रहे थे। पता नही क्यों? और कुछ इन्ही अनुभवों से भी राजनीतिक नेताओं के प्रति दिलों दिमाग में, न चाहते हुए भी नफरत ने थोड़ी जगह ले ली है।
यही सोचकर थोड़ा सबसे हटकर, एक नई विचारधारा लेकर, सामाजिक संस्था -मिशन- गर्व से कहो हम शूद्र हैं की स्थापना दिनांक 04-05-2015 को किया गया। अपने उद्देश्य में साफ-साफ लिखता रहता हूं कि, यह हमारा मिशन, गौतम बुद्ध जी के वैज्ञानिक सोच और अंबेडकरी विचारधारा पर ही आधारित है। किसी भी शूद्रो की राजनीतिक पार्टी या सामाजिक संस्था का प्रतिद्वंद्वी नहीं है। सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणवाद का खुलकर विरोध करते हुए, संविधान के अनुच्छेद 51AH के अनुसार समाज में वैज्ञानिक सोच पैदा करने की प्रवृत्ति पैदा करना है। ऊंच नींच की भावना से ग्रसित छः हजार जातियों में बंटे हुए लोगों को एक वर्ण, शूद्र वर्ण में प्रतिस्थापित करना है तथा शूद्रो के दिमाग में जो नीचता की भावना, ब्राह्मणों द्वारा भर दी गई है और जो खुद से पनप भी गई है, इसलिए उस जातीय कलंक को अब छिपाना नहीं बल्कि परमानेंट मिटाना ही मुख्य मकसद है। मिशन का मुख्य उद्देश्य घर वापसी के साथ साथ, पहले शिक्षा, बाद में दीक्षा। यदि सही शिक्षा मिल गई तो दीक्षा की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
हमारे इस मिशन से शूद्रों की राजनीतिक पार्टियों का ही भला हो रहा है, फिर भी कुछ लोग लाख समझाने के बाद भी बार-बार विरोध करते हुए, एक ही रट लगाए रहते हैं कि, शूद्र ब्राह्मणों द्वारा दी गई गाली है, तो इस पर हम गर्व क्यों करें? यह कहते हुए, यह क्यों नहीं सोचते हैं कि, हिंदू और कुछ जातियां भी तो किसी की दी हुई गाली हैं तो उसपर हम गर्व क्यों करते हैं?
तात्पर्य यह है कि आज की परिस्थिति में, एक राजनीतिक पार्टी भाजपा के लिए हजारों सामाजिक संगठन रात-दिन एक होकर पूरी लगन से काम कर रहे हैं और वहीं शूद्रों की हजारों राजनीतिक पार्टियां लेकिन राष्ट्रीय लेबल पर एक भी सामाजिक संगठन नहीं है। अपनी कमी छिपाने के लिए हर समय EVM का रोना रोते रहते हैं। इसीलिए राजनीति में, लिमिट से ज्यादा शूद्र ही शूद्र का, अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षा के कारण, एक दूसरे का दुश्मन बना हुआ है। इस विषय पर सभी जागरूक लोगों को विचार विमर्श करने की जरूरत है, अन्यथा सब कुछ, थोड़ा बहुत जो बचा है, वह भी चौपट हो जायेगा।
एक फरवरी 1951 को चंदौली, उत्तर प्रदेश में जन्म। मंडल अभियंता एमटीएनएल मुम्बई से सेवा निवृत्त, वर्तमान में नायगांव वसई में निवास कर रहे हैं।
टेलीफोन विभाग में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए, आप को भारत सरकार से संचार श्री अवार्ड से सम्मानित किया गया है। नौकरी के साथ साथ सामाजिक कार्यों में इनकी लगन और निष्ठा शुरू से रही है। 1982 से मान्यवर कांशीराम जी के साथ बामसेफ में भी इन्होंने काम किया।
2015 से मिशन गर्व से कहो हम शूद्र हैं, के सफल संचालन के लिए इन्होंने अपना नाम शिवशंकर रामकमल सिंह से बदलकर शूद्र शिवशंकर सिंह यादव रख लिया। इन्हीं सामाजिक विषयों पर, इन्होंने अब तक सात पुस्तकें लिखी हैं। इस समय इनकी चार पुस्तकें मानवीय चेतना, गर्व से कहो हम शूद्र हैं, ब्राह्मणवाद का विकल्प शूद्रवाद और यादगार लम्हे, अमाजॉन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है।
Sir, This article is near to reality and a true reflection of society. Thanks to writing a reality of society