गेल ओमवेट: बहुजनों के स्वतंत्रता आंदोलन की प्रतिनिधि इतिहासकार
“अंबेडकर का बुनियादी संघर्ष एक अलग स्वाधीनता का संघर्ष था। यह संघर्ष भारत के सर्वाधिक संतप्त वर्ग की मुक्ति का संघर्ष था। उनका स्वाधीनता संग्राम उपनिवेशवाद के विरूद्ध चलाए जा रहे स्वाधीनता संग्राम से वृहत और गहरा था। उनकी नजर नवराष्ट्र के निर्माण पर थी।”
गेल ओमवेट ( स्रोत- अंबेडकर प्रबुद्ध भारत की ओर, पृ. 149)
गेल ओमवेट भारत के, विशेषकर आधुनिक भारत के बहुजन आंदोलन की एक प्रतिनिधि इतिहासकार थीं। मेरा आधुनिक बहुजन आंदोलन से अर्थ जोतीराव फुले ( 11 अप्रैल 1827-28 नवंबर 1890) से लेकर डॉ. आंबेडकर ( 14 अप्रैल 1891-6 दिसंबर 1956) के नेतृत्व में चले बहुजनों ( पिछड़े-दलितों) के मुक्ति के आंदोलन से है, जिसका नेतृत्व शूद्र या अतिशूद्र कही जाने वाले वर्ण-जाति में पैदा हुए नायक कर रहे थे। जो मुख्यत: ब्राह्मणवाद ( भारत में ब्राह्मणवाद ही सामंतवाद है) से मुक्ति का आंदोलन था। जैसे गांवों की तथाकथित उच्च जातियां दक्खिन टोले को हेय या उपेक्षित दृष्टि से देखते हैं, वैसे ही आधुनिक भारत के इतिहाकार आधुनिक बहुजन आंदोलन और उसके नायकों को देखते थे। ऐसा करने वालों में दक्षिणपंथी और उदारपंथी ( राष्ट्रवादी) इतिहासकारों के साथ भारतीय वामपंथी इतिहासकार भी शामिल थे। आधुनिक भारत के सबसे प्रतिष्ठित इतिहासकार सुमित सरकार की सबसे मान्य और चर्चित किताब ‘आधुनिक भारत ( 1885-1947) भी इसमें शामिल है। वामपंथी इतिहासकारों में और अधिक वामपंथी माने जाने वाले अयोध्या सिंह ने तो अपनी किताब ‘ भारत का मुक्तिसंग्राम’ में तो डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में चले दलित आंदोलन को जी भरकर गालियां दी हैं, यहां तक डॉ. आंबेडकर पर व्यक्तिगत तौर पर हमला करते हुए, वह सबसे भद्दी गाली दी है, जिसे पढ़कर कोई भी न्याय प्रिय व्यक्ति का बेचैन हो उठे। जहां सुमित सरकार ने बहुजन आंदोलन की उपेक्षा किया, वहीं अयोध्या सिंह उसे गालियां दीं। हां बाद में शेखर बंधोपाध्याय ने अपनी किताब ‘ पलासी से विभाजन तक-आधुनिक भारत का इतिहास’ में बहुजन आंदोलन को कुछ हद जगह दी, लेकिन यह जगह हाशिए की ही जगह है।
गेल ओमवेट पहली इतिहासकार थीं, जिन्होंने अपने इतिहास के केंद्र में आधुनिक बहुजन आंदोलन को रखा। इतिहास की बिडंबना देखिए बहुजन आंदोलन का प्रतिनिधि इतिहाकार कोई भारतीय नहीं हुआ, बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका में पैदा हुई एक महिला हुईं। यह संयोग नहीं है, इसका ठोस कारण है। वह ठोस कारण यह है कि भारत के जितने नामी-गिरामी आधुनिक भारत के इतिहासकार हुए, वे तथाकथित अपरकॉस्ट और अपर क्लास के थे। उनकी सामाजिक-आर्थिक, विशेषकर सामाजिक पृष्ठभूमि ने उन्हें गांधी या क्रांतिकारियों के नेतृत्व में चल रहे ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति के संघर्ष के समानांतर चल रहे, ब्राह्मणवाद ( भारतीय सामंतवाद) ब्राह्मणवाद से मुक्ति के आंदोलन को, क्रांतिकारी या प्रगतिशील आंदोलन मानने ही नहीं दिया, बल्कि उसे ब्रिटिश सत्ता द्वारा पोषित उपनिवेशवाद परस्त आंदोलन ठहरा दिया या उस पर चुप्पी लगा ली। वे डॉ. आंबेडकर की यह बात समझ ही नहीं पाए कि भारत का तथाकथित अपरकॉस्ट ब्रिटिश सत्ता का गुलाम है और अंग्रेजों से अपनी आजादी के लिए लड़ रहा है, लेकिन दलित-बहुजन इसी अपरकॉस्ट के गुलाम है यानि गुलामों के गुलाम हैं और ब्रिटिश सत्ता के गुलाम अपरकॉस्ट अपनी आजादी तो चाहते है, लेकिन वे अपने गुलामों ( शूद्र, अतिशूद्र और महिलाओं) को किसी भी सूरत में आजादी नहीं देना चाहते हैं। गेल ओमवेट ने गुलामों के गुलाम समुदाय ( बहुजनों) के संघर्षों का इतिहास लिखने का बीड़ा उठाया और उसे हर कीमत चुकाकर पूरा किया और इस काम में अपनी पूरी जिंदगी खपा दी। मौत पहले वे अपने जीवन-साथी भारत पाटणकर के साथ मिलकर जोतीराव फुले की संपूर्ण रचनावली अंग्रेजी में तैयार कर रही थीं।
उनकी पहली किताब ‘कल्चरल रिवोल्ट इन कोलोनियल सोसायटी: द नान ब्राह्मण मूंवमेंट इन वेस्टर्न इंडिया’ है। दरअसल उन्होंने इसी विषय पर कैलिफोर्निया स्थित बर्कले विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में पीएच-डी की थी। जो बाद में किताब के रूप में प्रकाशित हुई। एक ओर जहां बंगाल अपरकॉस्ट-अपरक्लास के नेतृत्व में चले पुनर्जागरण, सुधार आंदोलन या आधुनिकीकरण के आंदोलन का गढ़ था, तो महाराष्ट्र ( पश्चिमी भारत) शूद्र-अतिशूद्र कही जानी वाली जातियों के नायक-नायिकाओं के नेतृत्व में चले सुधार, पुनर्जागरण और आधुनिकीकरण का केंद्र था। बंगाल के आंदोलन को डॉ. आंबेडकर ने परिवार सुधार आंदोलन की ठीक ही संज्ञा दी है, जबकि महाराष्ट्र में जोतीराव फुले-सावित्रीबाई फुले, शाहू जी महाराज और बाद में डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में चला आंदोलन वर्ण-जाति और पितृसत्ता के खात्में के खिलाफ एक व्यापक क्रांतिकारी सामाजिक सुधार या पुननर्जागरण का आंदोलन था। गेल ओमवेट ने अपनी पहली किताब ( थीसिस) में जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले और बाद में शाहू जी महाराज के नेतृत्व में चले बहुजन आंदोलन और उसके परिणामों एवं प्रभावों का विस्तार लेखा-जोखा लिया है। यह उनका पहला काम था, जिसमें भावी बहुजन इतिहाकार के बीज छिपे हुए, जिस बीज ने बाद में विशाल बरगद का रूप लिया, जिसका नाम गेल ओमवेट था।
बाद में गेल ओमवेट ने भारत को अपना घर बना लिया, महाराष्ट्र के चर्चित एक्टिविस्ट-बुद्धिजीव भरत पाटणकर को अपना जीवन साथी चुना और दोनों ने खुद को एक न्यायपूर्ण भारत के लिए पूरी तरह समर्पित कर दिया। दोनों को यह अच्छी तरह पता था कि उत्पादक और मेहनतक बहुसंख्यक बहुजनों ( शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं, जिसमें बहुजन धार्मिक अल्पसंख्यक भी शामिल हैं) के मुक्ति के बिना एक आधुनिक, समतामूलक, न्यायपूर्ण, बंधुता आधारित भारत का निर्माण नहीं किया जा सकता है,जहां समृद्धि पर सबका समान हक हो। जहां उच्च शिक्षित, प्रखर मेधा और अद्वितीय प्रतिभा के धनी भरत पाटणकर ने जमीनी संघर्षों को अपना मुख्य कार्य-क्षेत्र बनाया और अकादमिक दुनिया से काफी हद तक खुद को बाहर रखा, जबकि वे अकादमिक तौर अत्यन्त प्रतिभाशाली और सक्षम है, उनकी लिखी चंद किताबें इसकी गवाह हैं। वहीं गेल ओमवेट ने बहुजन इतिहास लेखन को अपना मुख्य कार्य-क्षेत्र बनाया। उन्होंने इतनी सारी महत्वपूर्ण किताबें लिखी, जिसने आधुनिक भारत को देखने-समझने का नजरिया बदल दिया और अपने समकालीन बहुजन आंदोलन को वैचारिक दिशा दी। अकारण नहीं है, बहुनज आंदोलन के एक्टिविस्ट-बुद्धिजीवी बार-बार अपने लेखन में गेल ओमवेट की बड़े आदर से चर्चा करते है, क्योंकि उनके इतिहास दृष्टि के निर्माण सबसे निर्णायक भूमिक गेल ओमवेट की रही है, अधिकांश बहुजन एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवियों गेल ओमवेट की किताबों, लेखों और भाषणों को सुनकर अपनी इतिहास दृष्टि का निर्माण किया है।
गेल ओमवेट ने आधुनिक बहुजन इतिहास के वैशिष्ट को रेखांकित करने के लिए कई महत्वपूर्ण किताबें लिखी, जिनमें ‘दलित और प्रजातांत्रिक क्रांति- उपनिवेशीय भारत में डॉ. आंबेडकर एवं दलित आंदोलन’, और ‘आंबेडर प्रबुद्ध भारत की ओर’ शामिल। जाति के सवाल की जड़ों की तलाश में उन्होंने ‘अंडरस्टैंडिंग कॉस्ट, फ्राम बुद्धा टू आंबेडकर एडं वियांड’ और ‘ भारत में बौैद्ध धम्म, ब्राह्मणवाद और जातिवाद को चुनौती’ लिखी। बहुजन नायकों-चिंतकों के न्यायपूर्ण, समता एवं बंधुता आधारित भारत के स्वप्न को रेखांकित करने लिए उन्होंने ‘सीकिंग बेगमपुरा, द सोशल विजिन ऑफ एंटीकास्ट इंटरलेक्टुअल’ जैसी किताब लिखी। गेल की अब तक करीब 25 किताबें प्रकाशित है और कई सारी किताबों पर वह अभी काम कर रही थीं। वे जहां एक ओर बहुजनों के लिए निरंतर बौद्धिक संपदा सृजित कर रही थीं, वही वह बहुजन एवं श्रमिकों के आंदोलनों में सक्रिय हिस्सेदारी भी करती थीं। बामसेफ और मान्यवर कांशीराम एवं बहुजन एक्टिविस्टों एवं बुद्धिजीवियों से उनका जीवंत नाता था। वे एक ओर वर्ण-जाति से मुक्त भारत के लिए लिखकर और जमीन पर संघर्ष कर रही थीं, महिला मुक्ति का प्रश्न उनके लिए उतना ही अहम था। उस मोर्चे पर भी समान रूप में सक्रिय थीं। उन्होंने अपनी जीवन साथी भरत पाटणकर के साथ मिलकर श्रमिक मुक्ति दल भी बनाया। वह विस्थापन के शिकार लोगों के लिए निरंतर संघर्ष करती रही। उनका लेखन एवं संघर्ष एक न्यायपूर्ण भारत के लिए था। वे वर्ण-जाति एवं पितृसत्ता के खिलाफ लिखने और संघर्ष करने के साथ ही निरंतर मेहनकशों के संघर्षों में भी हिस्सेदारी करती रहीं।
गेल ओमवेट ने मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि का बखूबी भारत को समझने के लिए इस्तेमाल किया और जोतीराव फुले, शाहू जी, डॉ. आंबेडकर, रैदास और बुद्ध की क्रांतिकारी परंपरा को भारत की क्रांतिकारी पंरपरा के रूप में रेखांकित किया। ऐसा वे इसलिए कर पाई, क्योंकि उनकी आंखों में जातिवादी चश्मा नहीं लगा था और नही पार्टी लाइन पर लिखने की कोई सांगठिन-वैचारिक मजबूरी थी। गेल भारत को भारत के भीतर से समझने और इसकी क्रांतिकारी-प्रगतिशील धारा रेखांकित करने की आजीवन कोशिश करती रहीं। उनकी किताबें, लेख और भाषण इसके सबूत हैं।
उनका अकादमिक कैरियर भी शानदार था। वह पुणे विश्वविद्यालय में फुले-आंबेडकर चेयर की हेड रहीं, इंस्टीट्यूट ऑफ एशियन स्टडीज, कोपेनेहेगन में प्रोफेसर रहीं, वह इंदिरा गांधी ओपेने यूनिवर्सिटी के डॉ. आंबेडकर चेयर की अध्यक्ष रहीं, वह नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ( नई दिल्ली ) से भी संबद्ध रहीं। उनका जन्म 2 अगस्त 1941 को मिनिआपोलिस ( संयुक्त राज्य अमेरिका) में हुआ था। बाद में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण कर लिया। वे सेवानिवृत्ति के बाद महाराष्ट के कासेगांव में अपने जीवन साथी भरत पाटणकर के साथ रह, रही थीं। 25 अगस्त 2021 को उनका देहांत हो गया।
भारत, विशेष भारत के बहुजन समाज ने एक ऐसी मेधा को खो दिया, जिसके लिए इतिहास लेखन, समाजशास्त्रीय अध्ययन और अध्यापन दुनिया को न्यायपूर्ण और सबसे लिए खूबसूरत बनाने का माध्यम था। ऐसी शख्सियत का न रहना वैसे तो पूरी मानव जाति की क्षति है, लेकिन भारत के बहुजनों ने अपना प्रतिनिधि इतिहाकार खो दिया,जिसने बहुजन चिंतन परंपरा, बहुजन वैचारिकी, बहुजन नायकों, बहुजनों के इतिहास और बहुजनों के स्वप्न से पूरी दुनिया को परिचित कराया।
डॉ सिद्धार्थ रामू स्वतंत्र लेखक और पत्रकार हैं।