शपथ की संवैधानिक प्रक्रियाओं को दरकिनार कर क्या राष्ट्रपति बनाए जाने का एहसान चुका रही हैं महामहिम ?
आज हम भारत की राष्ट्रपति महामहिम द्रौपदी मुर्मू की भूमिका के बारे में बात करेंगे। दरअसल इस अट्ठारहवीं लोकसभा में राष्ट्रपति की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होने वाली है। महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि 2024 के आम चुनावों में किसी भी राजनैतिक दल को बहुमत प्राप्त नहीं हो पाया है। सरकार किसी की भी बने किंतु होगी गठबंधन की ही।
इन हालात में द्रौपदी मुर्मू किस तरह परिस्थितियों से निपटेंगी, यह देखने वाली बात है। आपने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कोई ऐसा बयान या भाषण नहीं सुना होगा जिसे नरेंद्र मोदी ने मंजूरी न दी हो। ये लोग अपनी मर्जी से किसी से नहीं मिल सकते। अगर कोई व्यक्ति इनसे मिलना चाहता है तो उसकी मंजूरी भी पीएम हाउस से आती है। इनसे पूर्व के राष्ट्रपतियों के साथ ऐसा नहीं था।
एक और राष्ट्रपति थे जिनका नाम था फ़ख़रुद्दीन अली अहमद। उन्हें भी इंदिरा गांधी का हस्ताक्षरकर्ता माना जाता था। लेकिन उन्होंने भी रामनाथ कोविंद और द्रौपदी मुर्मू की तरह हस्ताक्षर नहीं किए होंगे। रामनाथ कोविंद की हालत ऐसी थी कि उन्हें सुबह-सुबह महाराष्ट्र विधानसभा का मुख्यमंत्री चुनना था। उन्हें सुबह-सुबह उठाया गया और 3 या 4 बजे उस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करवाए गए। तो आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर किसी व्यक्ति को सुबह 5 बजे से पहले उठा लिया जाए और उसे हस्ताक्षर करने के लिए कहा जाए और फिर वो उस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर दे, तो सत्ता कि नज़र में उसकी क्या पहचान होगी? क्या आपने रामनाथ कोविंद के नाम पर कोई ऐसी उपलब्धि पढ़ी या देखी है, जो उनके खाते में जा सके? उनसे पहले भारत के एक बहुत प्रसिद्ध राष्ट्रपति थे, डॉ. अब्दुल कलाम। वो दिल से बहुत बातें करते थे। वो अलग-अलग मंचों पर जाकर भाषण देते थे। और जो मन में आता था, वो भाषण देते थे। उन्होंने ऐसा भाषण नहीं दिया जो प्रधानमंत्री कार्यालय से लिखा गया हो। ऐसा कभी नहीं हुआ। उन्होंने अपना स्वाभिमान बनाए रखा।
लेकिन ये दोनों राष्ट्रपति, रामनाथ कोविंद और द्रौपदी मुर्मू, आपने कभी भी उनके मुंह से ऐसा कोई बयान नहीं सुना होगा जो उन्होंने अपनी मर्जी से कहा हो मै अपमान या बेइज्जती की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं उनकी अब तक के कार्यप्रणाली की बात कर रहा हूँ। रामनाथ कोविंद को बाद में ‘एक चुनाव एक राष्ट्र’ के कारण एक समिति का सदस्य बनाया गया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि किसी पूर्व राष्ट्रपति को किसी समिति का सदस्य बनाया गया हो। मोदी जी ने कहा, उठो और वहाँ जाओ। और कोविंद जी आ गए। वे कह सकते थे कि मैं भूतपूर्व राष्ट्रपति हूं, मैं किसी समिति का सदस्य नहीं हो सकता, न ही मैं किसी समिति का अध्यक्ष हो सकता हूं। आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं? लेकिन रामनाथ कोविंद का अपना कोई स्वाभिमान नहीं रहा। जो व्यक्ति खुद का सम्मान नहीं कर सकता, वह दूसरों का भी सम्मान नहीं कर सकता। ऐसा खबरें आपने पहले कभी नहीं देखी होंगी। अगर रामनाथ कोविंद का कोई राजकीय अतिथि विदेश से आ रहा हो और नरेंद्र मोदी उनके साथ हों, तो रामनाथ कोविंद ऐसे पीछे हट जाते थे, जैसे मोदी उनके बॉस हों। द्रौपदी मुर्मू जी के बारे में क्या कहा जाए? कम ही कहना बेहतर है। वह एक ऐसी महिला है जिन्होंने अपनी स्त्री शक्ति का भी सम्मान नहीं किया और कभी खुद का भी सम्मान नहीं किया। उदाहरण के रूप में जंतर-मंतर पर हमारे पहलवानों और हमारी बहनों के बीच जो दुर्व्यवहार हुआ, उसके बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। मणिपुर में महिलाओं के साथ हो रहे उत्पीड़न पर भी आज तक कुछ नहीं बोलीं। हमें लगा कि उन्हें महिलाओं के साथ हो रहे अन्याय के बारे में बोलना चाहिए। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। फिर ये कैसे मान लिया जाए कि वो कभी दलितों/जनजातियों के हित में कोई आवाज उठा पाएंगी?
उन्हें राम मंदिर में नहीं बुलाया गया। उन्हें कोई परवाह नहीं है। वो संसद की मुखिया हैं। उन्हें उद्घाटन समारोह में नहीं बुलाया गया। उन्हें इसकी भी कोई परवाह नहीं है। इंडिया गेट पर शहीदों का स्मारक हटा दिया गया और नया बना दिया गया। यह रक्षा मंत्रालय का था। रक्षा मंत्रालय के मुख्य अध्यक्ष को नहीं बुलाया गया। उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई। इसलिए द्रौपदी मुर्मू जी से कोई उम्मीद रखना नितांत बेकार है। वो एक भी शब्द नहीं बोल सकतीं क्योंकि उन्हें जो भी कहना है वो प्रधानमंत्री मोदी ने लिखा है।
आज संसद में त्रिशंकु स्थिति है। अब इन तीनों स्थितियों में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को क्या करना चाहिए? और क्या किया गया? उनका आईना कुछ इस प्रकार है। ध्यान रखिए, राष्ट्रपति जी फिर भी वही करेंगी जो नरेंद्र मोदी जी उनसे करने को कहेंगे। उन्होंने नरेंद्र मोदी को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। चलो! सरकार बनाओ हमें इससे कोई दिक्कत नहीं है।
यथोक्त के आलोक में लोक हित इंडिया के संपादक-अम्बुज कुमार के हवाले से खबर है कि पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के विशेष अधिकारी एस एन साहू ने नरेंद्र मोदी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने और वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त करने को लेकर कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने यहां तक कहा है कि राष्ट्रपति मुर्मू द्वारा स्थापित परंपरा सरकार बनाने की योजना के लिए अच्छा संकेत नहीं है। उन्होंने इसके पीछे दो या उससे अधिक राष्ट्रपतियों के उदाहरण दिए हैं।
अब सवाल यह है कि क्या 2024 में सरकार समेत सभी संवैधानिक संस्थाओं ने भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठे राष्ट्रपति की ओर से कुछ ऐसा किया जो नहीं होना चाहिए था? यह मुद्दा बहुत गंभीर है। स्मरण रहे कि 2024 के चुनाव ने एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। यह चुनाव अपने आप में देश के पहले चुनाव और आपातकाल के बाद हुए चुनाव से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस चुनाव में कई ऐसी चीजें देश और दुनिया ने देखी हैं, जो इतिहास में कभी नहीं देखी गईं। प्रधानमंत्री मोदी समेत बीजेपी के तमाम नेता अक्सर ऐतिहासिक शब्द का इस्तेमाल करते हैं। वे छोटी से छोटी बात को भी ऐतिहासिक बता देते हैं। उन्हें इसकी आदत है। लेकिन कुर्सी का लालच और सत्ता के फिसलने का डर और सत्ता जाने का डर, पुराने कर्मों के फल का डर ने, इन लोगों को इतना बेचैन कर दिया कि 2024 के चुनाव में हर कदम पर इतिहास रच दिया। और सभी संवैधानिक सिद्धांतों को ताक पर रखते हुए दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोगों को सिस्टम से बांधकर नंगा कर दिया।
हम सबने अपनी आंखों से देखा है कि कैसे भारत के इतिहास में शायद ये पहला चुनाव था जब देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी यानी कांग्रेस को वित्तीय संकट में डाल दिया गया। वो भी सत्ता के बल पर। कांग्रेस के खाते सीज कर दिए गए। उनके खातों से पैसे निकाल लिए गए। इससे पहले आप सभी जानते हैं कि कैसे आपातकाल के बाद सभी विपक्षी दलों को आर्थिक रूप से कमजोर करने की योजना बनाई गई थी। हालाँकि बहाना कुछ और था। ज्ञात हो कि मोदी सरकार जो घोषणा करती है, वह महज एक दिखावा होता है। हकीकत में काम ठीक उसके उलट होता है। आपातकाल का नतीजा भी कुछ ऐसा ही था। मोदी सरकार द्वारा सभी दलों को आर्थिक रूप से कमजोर कर दिया गया। लोकसभा चुनाव से पहले हमने देखा कि किस तरह ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों का नाजयज इस्तेमाल विपक्षी नेताओं को डराने-धमकाने और उनकी पार्टियों को तोड़ने के लिए बड़े पैमाने पर किया गया। देश का मीडिया पिछले 10-12 साल से गोदी मीडिया बना हुआ है। जनता के प्रति वह अपनी भूमिका को सिरे से भूल गया है। पत्रकारों के नाम पर सब लोग उपद्रवी बन गए हैं। पिछले 10 सालों में गोदी मीडिया ने सिर्फ और सिर्फ विपक्ष और देश की जनता को बदनाम करने का काम किया है। बड़ी से बड़ी ताकतों के बुरे कामों को भी अच्छा काम बताया गया। अंग्रेजी में इन्हें मास्टरस्टोक का नाम दिया गया।
अदालतों का रवैया भी किसी से छिपा नहीं है। चुनाव के दौरान सभी विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया । लेकिन देश की अदालतें चुप रहीं। पीएम केयर फंड से लेकर इलेक्टोरल बॉन्ड तक अरबों रुपए भाजपा और नरेंद्र मोदी के पास थे। जिसकी मदद से उन्होंने जो चाहा, वो किया। जिस भी तरीके से चाहा, वो किया। बिना किसी बल प्रयोग के उन्होंने इसका प्रचार किया। उन्होंने अपना झूठ जनता तक फैलाया है। उसके लिए सरकारी तंत्र के साथ-साथ पूरी सरकार का इस्तेमाल खुलकर किया गया। इन बातों में नरेंद्र मोदी बिल्कुल भी पीछे नहीं हटते। इन सबके बाद चुनाव आयोग ने सबसे महत्वपूर्ण बदलाव किया। इसी तरह से आयोग ने 2024 के राष्ट्रीय चुनाव को लेकर किया है।
भारतीय जनता पार्टी के भयंकर दुष्प्रचार को चुनाव आयोग द्वारा भी कतई नहीं रोका गया। आचार संहिता के लागू होने के बावजूद सारे पोस्टर भाजपा के पक्ष में थे। और सबसे बड़ी बात नरेंद्र मोदी और आचार संहिता के चलते भाजपा के सभी नेताओं के झूठे बयानों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। मत करो। भारत के इतिहास में पहली चुनाव आयोग को सरकार के दबाव में काम करते हुए देखा। इसने नरेंद्र मोदी को पूरी आजादी दे दी है। और खुद ने झूठ बोलने कोई कमी नहीं रखी। चुनाव आयोग की ओर से मोदी जी को खुली छूट रही कि जितना चाहो उतनी नफरत फैलाओ। अपने ही देश के नागरिकों को डराओ। उन्हें धमाका। चाहे जनता और विपक्ष को गाली दो, हम कुछ नहीं करेंगे। इसके बाद चाहे वोट का मामला हो, या जनता का सवाल, या विपक्ष का सवाल हो, हर बार चुनाव आयोग ने यह साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि वह मोदी के साथ है। लेकिन इतना कुछ होने के बावजूद भाजपा बहुमत नहीं ला पाई। यानी प्रधानमंत्री मोदी तमाम कोशिशों के बाद भी वह देश की जनता से हार गए।
2024 के इस सबसे बड़े चुनाव में भारत के इतिहास में पहली बार देश के सभी संवैधानिक मुद्दों पर नकारात्मक अथवा सकारात्मक तरीके से खासी चर्चा हुई। चाहे वो मीडिया हो या अदालतें , सभी ने ऐतिहासिक काम किया। लेकिन जब चुनाव के नतीजे आए और सरकार बनाने की बारी आई, तो राष्ट्रपति द्रोपदी मूर्मू द्वारा सबसे बड़ा इतिहास रच दिया गया। ये कहना है एसएन साहू का जो भारत के पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के विशेष अधिकारी थे। यानी भारत के पूर्व राष्ट्रपति के विशेष अधिकारी एसएन साहू ने भारत के वर्तमान राष्ट्रपति के कार्यकाल पर बहुत गंभीर सवाल उठाए हैं। प्रश्न क्या हैं? और कैसे भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने एक अद्भुत इतिहास रच दिया है, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
एसएन शाह का यह लेख द वायर की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि मूर्मू जी और नरेंद्र मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में तमाम संवैधानिक परंपराओं को खत्म कर दिया गया है। क्योंकि भारतीय जनता पार्टी को बहुमत नहीं मिला। उन्होंने कहा कि गठबंधन को बहुमत मिला है और भाजपा के अपने 240 सांसदों ने नरेंद्र मोदी को अपना नेता नहीं चुना। यानी भाजपा के नेताओं ने अपना नेता नहीं चुना और राष्ट्रपति ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी। इसके अलावा यह भी ज्ञात है कि भाजपा के पास बहुमत नहीं है, नरेंद्र मोदी को सदन में बहुमत साबित करने की समय सीमा भी निर्धारित नहीं की गई है। एसएन शाहू लिखते हैं कि राष्ट्रपति मुर्मू को मोदी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने से पहले यह पता लगाना चाहिए था कि मोदी को एनडीए का नेता चुनने के अलावा भाजपा ने अपना नेता भी चुना है या नहीं?
ठीक वैसे ही जैसे पहली बार यानी 20 मई 2014 को पुराने संसद भवन के सेंट्रल हॉल में भाजपा पार्टी ने नेता चुना था। उस समय नरेंद्र मोदी के नाम का प्रस्ताव लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू, अरुण जेटली और नितिन गड़करी सहित अन्य लोगों ने रखा था। यह पूरी तरह से समझ से परे है कि 2014 में मोदी द्वारा 2024 में अपना नेता चुनने का उदाहरण भाजपा पार्टी ने क्यों छोड़ दिया? उन्होंने आगे लिखा है कि राष्ट्रपति द्वारा सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किए गए किसी भी व्यक्ति को राष्ट्र के नेता के रूप में चुने जाने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ये सरकार बनाने से जुड़ी हुई एक स्पष्ट आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि आपका मन हुआ तो राष्ट्र की बैठक हो गई, चुनाव हो गया, आपका मन नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह एक स्पष्ट आवश्यकता है, जो हमारी अर्थव्यवस्था के उन्नयन और गौरव का एक अहम हिस्सा है। भारतीय अर्थव्यवस्था के मुखिया के तौर पर राष्ट्रपति को संबंधित पार्टी द्वारा गैर-निर्वाचित नेता को आमंत्रित करने की परंपरा का पालन करना चाहिए। और उन्होंने नरेंद्र मोदी को सरकार बनाने के लिए क्यों आमंत्रित किया? इसके पीछे के कारणों को देश के सामने रखना चाहिए था।
उन्होंने दो उदाहरण भी दिए हैं, जिनसे पता चलता है कि राष्ट्रपति ने 2024 के चुनाव के बाद किस तरह का ऐतिहासिक काम किया है, जो लोकतंत्र के लिए सही परंपरा नहीं है। पहला उदाहरण पूर्व राष्ट्रपति वेंकट रमण का है और दूसरा केआर नारायण का। जब भी इन लोगों ने किसी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, तो उसके पीछे की वजह को विस्तार से देश की जनता के सामने रखा गया। उन्होंने कहा कि 9वीं कांग्रेस के लिए 1989 के चुनाव से पता चला कि राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को सिर्फ 194 सीटें ही मिल पाई थीं, जो सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी। लेकिन कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी उभरी। उनके समर्थक जनता दल और राष्ट्रीय मोर्चा ने 145 सांसदों, वहीं भाजपा ने 52 और सीपीआइएम ने 55 समर्थन में आ गए।
वेंकट रमन ने अपनी किताब में लिखा है कि दिल्ली में हुई कांग्रेस पार्टी की बैठक में सरकार बनाने का दावा न करने का फैसला लिया गया था। यानी कांग्रेस ने साफ कर दिया कि हम सरकार नहीं बनाएंगे क्योंकि हमारे पास बहुमत नहीं है, सिर्फ 194 सीटे प्राप्त हुई हैं। दूसरी तरफ भाजपा और भाजपा नेताओं ने विदेश से वीपी सिंह सरकार को समर्थन देने का ऐलान कर दिया। इसके बाद पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकट रमन ने 1 दिसंबर 1989 को सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से बात करने के बाद एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर देश की जनता को बताया कि उन्होंने किस आधार पर वीपी सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित किया है। यानी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। इसके बावजूद तत्कालीन राष्ट्रपति ने दूसरी पार्टी को सरकार बनाने के लिए क्यों आमंत्रित किया? यह बात देश की जनता के सामने रखी गई। क्योंकि देश की जनता ही असली मालिक है।
तत्कालीन राष्ट्रपति जी की पुस्तक माई प्रेसिडेंशियल इयर्स जो 1994 में प्रकाशित हुई थी, उसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि चूंकि कांग्रेस ने 9वीं कांग्रेस में सबसे बड़ी सदस्यता के साथ सरकार बनाने का दावा नहीं किया था, इसलिए मैंने दूसरी पार्टी और अलग-अलग के नेताओं को आमंत्रित किया है कि वे श्रीमान वी.पी. सिंह के साथ मिलकर सरकार बनाएं और 30 दिन के अंदर प्रधानमंत्री का पद संभालें, ताकि राष्ट्र में विश्वास हासिल हो सके। यानी सभी ने मिलकर वी.पी. सिंह का समर्थन किया। यहां आप सरकार बनाने के लिए पूरी संख्या देख सकते थे। इसके बावजूद राष्ट्रपति ने उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित भी किया और कहा कि सरकार बनाने के 30 दिन के अंदर आप कांग्रेस में साबित कर देंगे कि आपके पास पूरी संख्या है। यहाँ एक और बात ध्यान में रखें।
वर्तमान मामले में अगर राष्ट्रपति ने 30 दिन के अंदर साबित करने की बात कही है तो यह सही है। अब यहां एसएन साहू ने सवाल पूछा है कि क्या मौजूदा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पता चला है कि मोदी बीजेपी के सबसे बड़े दल या एनडीए के नेता हैं? ऐसे में राष्ट्रपति जी ने नरेंद्र मोदी जी से ये क्यों नहीं कहा? और बहुमत साबित करने की समय सीमा क्यों नहीं तय की गई कि सरकार बनने के बाद इतने दिनों के अंदर आपको बहुमत साबित करना करना होगा? जबकि पहले भी पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमण जी ने ऐसा किया था। उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर देश की जनता को बताया था किन्तु इस बार राष्ट्रपति मुर्मू जी ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने कोई कारण नहीं बताया कि नरेंद्र मोदी को सरकार बनाने के लिए क्यों आमंत्रित किया गया। तो इसके पीछे क्या बातें हैं? और नरेंद्र मोदी कब तक बहुमत साबित करेंगे? यह भी देश की जनता के सामने नहीं रखा गया। इसका एक उदाहरण पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन का है।
1998 में उन्हें भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार बनाने का न्योता मिला। इसलिए उन्होंने उसी वर्ष मार्च में एक प्रेस विज्ञप्ति भी प्रकाशित की। वाजपेयी की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी थी। और राष्ट्र गठबंधन के सहयोग से उन्हें भरपूर समर्थन मिल सकता था। लेकिन इसके बावजूद पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन ने खुद को आश्वस्त करने और खुद को सुझाव देने के लिए स्थिर सरकार बनाने की जरूरत पर जोर दिया कि वे वाजपेयी सरकार का समर्थन कर रहे हैं। प्रेस विज्ञप्ति में पूर्व राष्ट्रपति ने क्या लिखा? इसमें लिखा था कि जब तक किसी पार्टी या चुनावी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता, तब तक राष्ट्रपति उस पार्टी या गठबंधन के नेता को पहला मौका देते हैं जो सबसे ज्यादा जीता हो। इस शर्त पर कि नियुक्त प्रधानमंत्री को कम समय में बहुमत का समर्थन मिल जाएगा। हालाँकि, यह प्रक्रिया हर बार आगे नहीं बढ़ती।
कई बार ऐसा भी हो सकता है कि सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन से अलग विरोधियों को भी ज्यादा सांसद मिल जाएं। यानी उन्होंने देश की जनता को यह भी बताया कि पार्टी या गठबंधन के नेता को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। और उन्हें यह भी बताया जाना चाहिए कि वे निश्चित समय में विश्वास हासिल करें। उन्होंने अपने लेख में लिखा है कि पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमण और केआर नारायणम द्वारा स्थापित उदाहरण और परम्परा का राष्ट्रपति मुर्मू जी ने उस समय नियमों का पालन नहीं किया। जब उन्होंने मोदी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और उन्हें यह भी नहीं बताया कि वे निश्चित समय में विश्वास हासिल करें। राष्ट्रपति द्वारा स्थापित परंपरा से इस तरह का डेटाबेस हमारे लोक तंत्र और सरकार बनाने की योजना के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इस बारे में हम लगातार सवाल उठा रहे थे। 2014 में भाजपा नेताओं की बैठक हुई थी।
सभी के द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना नेता चुना गया तो 2024 में क्या बदल गया? भाजपा नेताओं के द्वारा नरेंद्र मोदी को क्यों नहीं चुना? मोदी जी को डर था कि कहीं उनके सांसद ही उन्हें अपना नेता से मना कर देंगे? बगावत हो सकती है। इसलिए उन्होंने पार्टी के अंदर चुनाव को छोड़कर सीधे समर्थक दलों के साथ बैठक की और एनडीए के नेता के रूप में चुन लिए गए। एनडीए के नेता का चुनाव करना कहां तक उचित है? और इन प्रक्रियाओं का पालन किए बिना नरेंद्र मोदी को सरकार बनाने और उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने का फैसला क्या सही माना जाएगा? और देश की जनता को इन सब बातों की जानकारी नहीं होनी चाहिए। क्या यह दुनिया के सबसे बड़े लोक तंत्र के लिए सही है? ऐसे में पाठकों को सोचना ही चाहिए, क्या यह इसके भविष्य के लिए सही है? यह भी सोचना होगा कि क्या राष्ट्रपति मुर्मू द्वारा मोदी जी को दही-चीनी खिलाना किस संवैधानिक कर्तव्य के दायरे में आता है? क्या मुर्मू जी मोदी जी द्वारा राष्ट्रपति बनाए जाने का एहसान चुक्ता कर रही हैं?
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।