क्रोनी पूंजीवाद और भीख के कटोरे में अक्षत बांटती सरकार
भाजपा नीत भारत सरकार को अपने पहले टर्म में आर्थिक मसलों, खासकर महंगाई के मोर्चे पर अधिक सवालों का सामना नहीं करना पड़ा था। किंतु भाजपा की सरकार फिलहाल रोजी-रोटी के मसले से पूरी तरह से घिर गई है तब ही तो पी एम मोदी ने एलान किया है कि फ्री में मिलने वाला राशन अब अगले 5 साल तक के लिए और बढ़ा दिया गया है, भोजन की गारंटी देने वाली इस योजना का लाभ देश के 80/81 करोड़ जरूरतमंदों को होगा। इससे साफ जाहिर होता है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी भूख से लड़ने को मजबूर है। क्या इस पर यह सवाल करना नहीं बनता कि भारत में अति गरीब लोगों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है। फिर हमारे प्रधान मंत्री जी इस प्रकार की घोषणाएँ करके किस प्रकार का एहसान जताने का प्रयास करते हैं? क्या उन मतदाताओं पर जिनके मतों के बल वो प्रधान मंत्री पद पर आसीन हो पाए हैं? क्या गरीबों को दिए जाने की कीमत की भरपाई जनता से वसूले करों से नहीं की जाती?
यथोक्त क़े आलोक में हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की पांच एजेंसियों की तरफ से जारी खाद्य सुरक्षा और पोषण पर 2023 की रिपोर्ट पर दृष्टिपात किया जा सकता है जिसमे कहा गया है कि 74।1 फीसदी भारतीय हेल्दी डाइट नहीं ले पा रहे हैं संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2021 में भारत में 100 करोड़ से अधिक लोगों को हेल्दी डाइट नहीं मिल रही है। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से जारी खाद्य सुरक्षा और पोषण पर 2023 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में करीब 104 करोड़ लोग हेल्दी डाइट लेने में असमर्थ रहे हैं। खैर! यदि आज के भारतीय समाज में गरीबी के आँकड़ों के बात की जाए तो अधोलिखित हालिया घटनाओं को केंद्र में रखा जा सकता है
28 अक्तूबर 2023 की खबर है कि उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में कर्ज में डूबे एक मजबूर पिता को अपने बेटे को 6 से 8 लाख रुपये में बेचने पर मजबूर होना पड़ा। वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ चौराहे पर बैठ गया और उसके बेटे के गले में एक बोर्ड लटका हुआ था जिस पर लिखा था – “मेरा बेटा बिकाऊ है, मैं अपना बेटा बेचना चाहता हूं।“ दरअसल, अलीगढ़ के महुआ खेड़ा थाना क्षेत्र में निहार मीरा स्कूल के पास रहने वाले राजकुमार ने आरोप लगाया कि उसने कुछ संपत्ति खरीदने के लिए प्रसिद्ध लोगों से कर्ज लिया था, लेकिन शक्तिशाली ऋणदाता ने राजकुमार के साथ छेड़छाड़ की और उसे इसका कर्जदार बना दिया। उनकी संपत्ति के दस्तावेज बैंक में जमा कर लोन जारी किया गया था। राजकुमार का आरोप है कि मुझे न तो संपत्ति मिली और न ही मेरे हाथ में कोई पैसा बचा है। अब दबंग कर्जदार लगातार उस पर पैसा वसूलने का दबाव बना रहा है।
राजकुमार का आरोप है कि कुछ दिन पहले उसने (दबंग देनदार) उसका ई-रिक्शा छीन लिया, जिसे चलाकर वह अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। राजकुमार का कहना है कि अब वह इतना परेशान हो गया है कि अपने बेटे को बेचने के लिए पत्नी, बेटे और छोटी बेटी के साथ बस स्टैंड चौराहे पर बैठ गया। राजकुमार ने आगे कहा कि वह चाहते हैं कि अगर कोई मेरे बेटे को 6 से 8 लाख रुपये में खरीद ले तो कम से कम मैं अपनी बेटी को तो पढ़ा सकूं और उसकी शादी कर सकूंगा ।’ साथ ही राजकुमार का यह भी कहना है कि वह पुलिस के पास गए लेकिन कोई मदद नहीं मिली इसलिए अब उन्हें यह कदम उठाना पड़ा। यह सब देख मौके पर राहगीरों की भीड़ जमा होने लगी। उसी भीड़ में मौजूद एक महिला ने राजकुमार और उसकी पत्नी और बच्चों को समझाने की कोशिश की कि बच्चे पैदा करना कितना मुश्किल है। मानव तस्करी गैरकानूनी है। इसके बाद भी अगर कोई परिवार ‘बेटा बिकाऊ है’ लिखकर अपनी मजबूरी जाहिर करता है तो समझा जा सकता है कि उन्हें किस मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ रहा होगा। रोजी-रोटी का सवाल रहा अलग। कमोबेश समाज के कमजोर वर्ग की ऐसी ही कहानी है।
रही किसानों की बात तो भारत में किसान आत्महत्या 1990 के बाद पैदा हुई स्थिति है जिसमें प्रतिवर्ष दस हज़ार से अधिक किसानों के द्वारा आत्महत्या की रपटें दर्ज की गई है। 1997 से 2006 के बीच 1,66,304 किसानों ने आत्महत्या की थी। विदित हो कि भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलों का नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का मुख्य कारण माना जाता रहा है। मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियाँ, समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फँसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएँ की है। ऐसा कहा जाता है कि सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा। देश में हर महीने ७० से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किसानों को आत्महत्या की दशा तक पहुँचा देने के मुख्य कारणों में खेती का आर्थिक दृष्टि से नुकसानदायक होना तथा किसानों के भरण-पोषण में असमर्थ होना है।
यह भी कि खेती आजकल घाटे का धंधा बन गई है। दुनिया का और कोई धंधा घाटे में नहीं चलता, पर खेती हर साल घाटे में चलती है। और पानी का संकट। पानी ज़मीन के काफ़ी नीचे पहुंच गया है, मिट्टी उपजाऊ नहीं रही और जलवायु परिवर्तन किसानों पर सीधा दबाव डाल रहा है। अत: किसानी के अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। किसान अब किसानी करना नहीं चाहता। इस सबसे बड़ा कारण यह है कि किसान को अपनी उपज का यथोचित दाम नहीं मिलता क्योंकि उसकी उपज की कीमत सरकार तय करती है जो वर्षों से की भी नहीं गई।
किसानों का आंदोलन भी सरकार की मनमानी के चलते जैसे पूरी तरह से विफल हो गया। इसके ठीक उलट, पूंजीपतियों/ उद्योगपतियों अपने उत्पाद की कीमत अपने स्तर पर मनमानी कीमत करते हैं। सरकार का जैसे इस बारे कोई हस्तक्षेप नहीं होता। पूंजीपतियों/उद्योगपतियों के उत्पादों की बढ़ी किमतों का भार प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अंतिम पायदान के उपभोक्ता पर ही पड़ता है। यही कारण है कि किसान हमेशा घाटे में और पूंजीपति/उद्योगपति लाभ में रहता है। दलितों / महिलाओं और अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले अत्याचार की गिनती करना जैसे संभव ही नहीं है। सरकार है कि इस ओर से मुँह मोड़े हुए है। मणीपुर की घटना का तो उल्लेख ही क्या किया जाए?
भाजपा के शासन काल में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो बैंकों का कर्ज चुकाए बिना ही विदेश भाग गए और बैंक मुँह ताकते रह गए। और सरकार ऐसे लोगों पर कोई कार्रवाई करने का मन नहीं रखती। 8 वर्ष पहले विजय माल्या 9000 करोड़ का कर्ज लेकर विदेश भाग गए या भगाए गए? माल्या ने कर्ज न लौटाने का दोष उलटे बैंकों पर ही मढ़ दिया , ”बैंकों ने उस खतरे को भांपने के बाद ही लोन दिया था। लोन देने का फैसला बैंकों का था, हमारा नहीं ।” एचडी देवगौड़ा साहेब ने तो माल्या का सपोर्ट करते हुए कहा, ”माल्या भाग नहीं रहे हैं। इन दिनों सभी एयरलाइन्स को घाटा हो रहा है और उनके जैसे इंटरनेशनल बिजनेसमैन को टारगेट करना मेरी समझ में नहीं आता है। वे कर्नाटक के सपूत हैं।” ईडी ने 17 बैंकों को नोटिस देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करदी। हैरत की बात है कि राज्यसभा सांसद के रूप में ये माल्या का दूसरा टर्म है। पहली बार 2002 में और इसके बाद 2010 में। दूसरी बार वो कर्नाटक से बतौर इंडिपेंडेट कैंडिडेट इलेक्ट हुए थे। एक पंक्ति में कहें तो भारत के 25 सबसे बड़े विलफुल डिफॉल्टर (Wailful Defaulters) ( पूंजीपतिओं) पर देश की विभिन्न बैंकों का लगभग 58,958 करोड़ रुपये बकाया है।
विदेश राज्य मंत्री एमजे अकबर ने लोकसभा में बताया था कि विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चोकसी समेत 31 कारोबारी सीबीआई से जुड़े मामले में विदेश फ़रार हैं। अकबर ने कहा कि सीबीआई की सूची के अनुसार, सीबीआई से जुड़े मामलों में विदेश फ़रार होने वाले कारोबारियों में विजय माल्या, सौमित जेना, विजय कुमार रेवा भाई पटेल, सुनील रमेश रूपाणी, पुष्पेश कुमार वैद्य, सुरेंद्र सिंह, अंगद सिंह, हरसाहिब सिंह, हरलीन कौर, अशीष जोबनपुत्र, जतीन मेहता, नीरव मोदी, नीशल मोदी, अमी नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, चेतन जयंतीलाल संदेशरा, दीप्ति चेतन संदेशरा, नितिन जयंतीलाल संदेशरा, सभ्य सेठ, नीलेश पारिख, उमेश पारिख, सन्नी कालरा, आरती कालरा, संजय कालरा, वर्षा कालरा, हेमंत गांधी, ईश्वर भाई भट, एमजी चंद्रशेखर, और सादिक शामिल हैं।
किंतु खेद की बात है कि अमीरों पर 7 लाख करोड़ लुटा चुके बैंकर्स ग़रीब किसानों के कर्जे माफ़ करने पर शोर मचा रहे हैं। इतना ही नहीं, समूचा अर्थ-जगत, समस्त अर्थशास्त्री और सभी बैंकर्स इस समय किसानों की कर्ज-माफ़ी का कड़ा विरोध कर रहे हैं। जो स्टेट बैंक आज किसानों की कर्ज माफ़ी का विरोध कर रहा है – वह इसे सामने लाने में क्यों कतराता है कि उसके 100 सबसे बड़े डिफॉल्टर्स की लिस्ट में कई तो ऐसे हैं जो कूटरचित, नकली कागज़ातों के माध्यम से लोन ले गए थे। जबकि साधारण नागरिकों की पूरी क्रेडिट हिस्ट्री दर्ज होती है। उस पर उसे होम लोन, कार लोन या अन्य कर्जे मिलते हैं। क्या खूब है कि जो किसान और मजदूर भारतीय बाजार के मूल उपभोक्ता हैं, उन ही पर जुर्म किए जाने के ढेरों प्रमाण हैं। किंतु पूजीपतियों-उद्योगपतियों को छूट देने के पीछे बैंकर्स और पॉलिसी मेकर्स द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि वे अर्थव्यवस्था के काम आते हैं। इसलिए जरूरी है। तो क्या 7 लाख करोड़ रुपए खा जाने वाले पूंजीपति अर्थव्यवस्था के काम आने वाले है?
उल्लेखनीय है कि देश के अनेक पूंजीपतियों पर अपना बकाया वसूलने के लिए न तो बैंक ही दवाब बनाते हैं और न ही सरकार। बड़े लोन वाले पूंजीपतियों के लोन को या तो सरकार माफ कर देती है या फिर कर्ज लेकर विदेश भाग जाने का उपक्रम करते हैं। ऐसे जाने कितने ही मामले है। सत्तासीन राजनीतिक दल इस लिए भी शांत रहता है क्योंकि उनको चुनाव लड़ने के लिए पूंजीपति ही तो आर्थिक मदद करते हैं। विदित हो कि बैंकों में जमा अधिकतर धन उन गरीब लोगों का ही होता है जो अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अपनी बचत को बैंकों में जमा करते हैं।
गौरतलब है कि कर्जे लेकर भाग जाने वालों के लिए बैंक कितने उदार होते हैं – इसका पता तो सबसे पहले इससे अधिक चलता है कि कभी भी बैंक इन्हें पैसे हड़प जाने वाला नहीं कहती। इन्हें जानबूझकर पैसा न लौटाने वाला (विलफुल डिफॉल्टर्स) तक कहने में पचासों सावधानियां बरतती हैं – जबकि हम साधारण नागरिकों के खाते में मिनिमम बैलेंस न रहे – तो निर्मम वसूली। लॉकर के किराये की बताए बग़ैर आपके ही किसी अन्य ब्रांच के खाते से सीधे डिडक्शन। हमारे ही पैसे निकालने पर चार्ज। क्या यह सीधा-सीधा सत्ता का पूंजीपतियों के साथ भाईचारावाद और कॉर्पोरेट कल्याण का मामला नहीं है ? ज्ञात हो कि क्या क्रोनी पूंजीवाद का फलसफा नहीं है? क्रोनी पूंजीवाद , जिसे कभी-कभी केवल क्रोनीवाद भी कहा जाता है , एक अपमानजनक शब्द है जिसका उपयोग राजनीतिक प्रवचन में ऐसी स्थिति का वर्णन करने के लिए किया जाता है जिसमें व्यवसायों को प्रतिस्पर्धा-विरोधी नियामक वातावरण, प्रत्यक्ष सरकारी उदारता और/या भ्रष्टाचार के माध्यम से राज्य सत्ता के साथ घनिष्ठ संबंध से लाभ होता है। दूसरे शब्दों में, इसका उपयोग ऐसी स्थिति का वर्णन करने के लिए किया जाता है जहां व्यवसाय मुक्त उद्यम के परिणाम-स्वरूप नहीं , बल्कि व्यवसायी वर्ग और राजनीतिक वर्ग के बीच मिलीभगत/साठगांठ के परिणामस्वरूप पनपते हैं। इस प्रकार समाज के गरीब तबके की उपेक्षा होना लाजिम है।
Crony Capitalism and Government’s Distribution of Sacrificial Offerings
Unfortunately, while bankers who have looted 7 trillion rupees from the rich are demanding debt forgiveness for poor farmers, the entire economic world, including economists and bankers, are strongly opposing the loan waiver for farmers. The State Bank, which is currently opposing the loan waiver for farmers, hesitates to reveal that many of its top 100 defaulters obtained loans through fraudulent and fake documents, while ordinary citizens have their entire credit history recorded for obtaining home loans, car loans, and other debts. It is evident that those who are the backbone of the Indian market, the farmers and laborers, are burdened with numerous criminal cases, while bankers and policymakers argue that they contribute to the economy. Therefore, are the wealthy capitalists who have devoured 7 trillion rupees really serving the economy? Note that banks are much more generous towards those who run away with loans, rather than calling them money snatchers. They handle such non-repaying defaulters with fifty precautions, while we, ordinary citizens, face ruthless recovery even if our accounts lack the minimum balance. Rent from lockers is directly deducted from our own accounts without informing us, and charges are imposed when we withdraw our own money. Isn’t this a clear case of power favoring capitalists, brotherhood with the wealthy, and corporate welfare? Do we not know the philosophy of crony capitalism?
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।