हेमंत कुमार की कहानी – गुलइची
हेमंत कुमार
एकाएक गुलइची ने मूर्ति के हाथ से खंजर खींच लिया। खंजर को हवा में लहराते हुए वह घंटों के संगीत पर थिरकने लगी। यह दृश्य बेहद डरावना हो गया। गाँव वालों ने मान लिया कि अब वह पागल हो गई है। गुलइची चबूतरे पर से नीचे कूदी और हवा में खंजर लहराते हुए भीड़ को चीरकर गांव-समाज की जमीन की तरफ दौड़ी, ‘धरती मैया मैं आ रही हूं, मैं तुम्हें चोरों के चंगुल से छुड़ाऊॅंगी।’
चैत महीने की चांदनी रात आधी से ज्यादा बीत चुका थी। गेहूं की फसल पक चुकी थी लेकिन अभी कटाई नहीं शुरू हुई थी। चांद की रोशनी में पूरा सीवान चांदी की थाल-सा लग रहा था। बड़े भैया अपनी विशाल कोठी की तीसरी मंजिल की छत से उसी थाल के हिस्से को चुपचाप निहार रहे थे। सीवान के अठारह एकड़ के हिस्से को लेकर गुलइची ने तूफान खड़ा कर दिया है। पूरा गांव अंदर ही अंदर खदबदा रहा है। इस अट्ठारह एकड़ जमीन को बड़े भैया ने अपने राजनैतिक वर्चस्व के बूते चकबंदी में पूरे गांव की जमीन से आबादी के नाम पर कटौती कराकर अपने बीस एकड़ के चक के बीच में करवा लिया। इसका बबुआन ने पुरजोर विरोध किया लेकिन अंत में वे हाथ मल कर रह गये। बड़े भइया को वही जमीन पिछले पंद्रह दिनों से कब्र के माफिक दिखती। वह रात-बेरात चौंककर उठ जाते और घंटों बिस्तर पर करवट बदल कर जागना पड़ता।
वह अस्सी घरों का अहिरान था। उसी के बीच में बड़े भैया की कोठी थी। अहिरान से एक फर्लांग उत्तर दिशा में सीवान के उस पार साठ घरों का बबुआन और उसी से सटी चालीस घरों की परजौटी थी। बबुआन से पश्चिम, सड़क के दोनों किनारों पर करीब सौ घरों की चमरौटी थी। चमरौटी के दक्षिण-पश्चिम में नदी के किनारे पलाश के जंगल में बीस घरों की मुसहर टोली थी। पूरे गांव के ऊपर चांदनी कफ़न की तरह तनी हुई थी। सबकी आंखों में बेचैनी, उत्तेजना, सनसनी और दहशत व्याप्त थी। गाँव में चुनाव तो पहले भी हुए थे लेकिन ऐसा खौफनाक मंजर कभी नहीं दिखा था। बड़े भैया ने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे थे। प्रधान से लेकर ब्लाक प्रमुख तक कई चुनाव लड़े। उसमें तमाम दिग्गजों से मुठभेड़ हुई। वह कभी विचलित नहीं हुए। उनका डटकर मुकाबला किया और हमेशा सफल भी हुए, लेकिन अबकी बार एक बेवा गुलइची ने, जिसकी उनके सामने कोई औकात नहीं थी, उन्हें अंदर तक हिला दिया था।
गाँव में पहले लक्ष्मी बाबू का ही परिवार प्रधान हुआ करता था। ग्राम पंचायत में जबसे आरक्षण की व्यवस्था हुई, पहली बार गांव सामान्य सीट वाला हुआ था। बाबू के सामने कोई चुनाव लड़ने वाला नहीं था। इस समय बड़े भैया न तो माफिया और न राजनीतिज्ञ ही थे लेकिन वह इलाके में उभरते हुए गुंडे और ठेकेदार जरूर हो चुके थे। बड़े भैया ने लक्ष्मी बाबू के मुकाबले चुनाव लड़ा। उस चुनाव में बबुआन को छोड़कर पूरा गांव ही उनके साथ खड़ा हो गया। वह चुटकी बजाकर चुनाव जीत गये। उसके बाद यह सीट हमेशा पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित रही। दूसरी बार से बड़े भैया ने प्रधानी का जिम्मा बिचले भैया को सौंपा और खुद ब्लाक प्रमुख बन बैठे। तब से बिचले भैया ही निर्विरोध प्रधान बनते रहे। इस बार भी वैसा ही लग रहा था। चुनाव की घोषणा होते ही गुलइची के नामक की सुगबुगाहट होने लगी। बड़े भैया ने पहले तो इसे बबुआन की अफवाह मानकर कान न दिया लेकिन इसके दो ही दिनों बाद खबर मिली कि गुलइची घर-घर जाकर आशीर्वाद मांग रही है। वह अहिरान के उन दस घरों में घंटों बैठी थी जिन घरों की आबादी की जमीन चकबंदी में फर्जी ढ़ंग से भैया ने अपने या अपने भाई-भतीजों के नाम करा ली थी।
बड़े भैया के सामने गुलइची तिनका मात्र थी लेकिन वह तिनका उनके और परिवार के गले की फांस बना हुआ था, जो रात में खाना खाते समय सबके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उनकी ताकत और राजनीति की अभेद्य दीवार में जैसे कोई भारी सुराख हो गया हो और बड़े भैया उसे हरेक से छिपा रहे हों। उनके और बिचले भैया के अलावा एक भाई और थे जिनको लोग छोटे भैया कहते थे। सभी भाइयों को मिलाकर बारह लड़के थे। ये बारहों अलग-अलग तरह के नमूने थे। सभी किसी न किसी सरकारी विभाग में ठेकेदारी करते थे। सबके पास अपने गिरोह थे और उसी गिरोह की इलाके में दहशत थी। इसी दहशत की नींव पर बड़े भैया के साम्राज्य का महल खड़ा था। बिचले भैया को खेती की जिम्मेदारी मिली थी। गांव के लोग उन्हें झगड़े का बेहनौर (नर्सरी) और गाली में डिप्लोमा पास बताते है। घर में वे अकेले नशेबाज हैं लेकिन नशेबाजी में भी इनका एक उसूल है। दिनभर गांजा पीकर सूर्यास्त होने का इंतजार करते हैं और सूर्यास्त होते ही दारू पर भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़ते हैं। छोटे भैया के जिम्मे देशी-विदेशी शराब की दस दुकानें और ईंट के तीन भट्ठे थे। वह घर में सबसे गंभीर और चालाक माने जाते। वह बिना मतलब के किसी से बात तक नहीं करते लेकिन मतलब आ जाने पर दिन में पांच बार पैर छूते थे।
खाने की मेज पर बैठे सभी लोग सूरमा ही थे लेकिन गुलइची ने सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ा दी थी। सभी लोग चुपचाप खा रहे थे। घर की बहुएं परोस रही थीं। एकाएक बिचले भैया अपनी थाली के ऊपर झूम-झूम कर अभुवाने लगे। – ‘इसकी मां की… नउकट्टी……….’ दो तीन बार अभुवाने के बाद वह कुर्सी पर सीधे होकर बड़े भैया को घूरने लगे। बड़े भैया ने हाथ के इशारे से उन्हें चुचपाप उठ जाने को कहा। वह थाली में हाथ धोकर गुस्से में खड़े हो गये। एकाएक उनका पैर लड़खड़ाया। वह कुर्सी समेत फर्श पर गिर गये। इस तरह से गिरना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी। इसलिए उन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। उनके अगल-बगल बैठे दोनों लड़के खाना खाकर इत्मीनान से उठे। अपना हाथ धोने के बाद उनका दोनों हाथ पकड़कर उठाये और बरामदे में लाकर बिस्तर पर लिटा दिये।
खाना खाकर सभी लोग अपने-अपने कमरे में चले गये। घर की औरतों ने भी खाने के बाद सदर दरवाजा बंद करके बल्ब बुझा दिया। अंधेरा होते ही सन्नाटा पसर गया। किसी की आंख में दूर-दूर तक नींद नहीं थी। सबकी आंखों के सामने गुलइची नाच रही थी। सबको कोठी के सम्मान की चिंता सता रही थी। बड़े भैया को चुनौती देने की गांव में किसी की हिम्मत नहीं थी। लेकिन चुनौती मिली भी तो गांव की एक बेवा से, जिसके पास जुबान, जजमानी, और पांच बिस्वे जमीन के सिवा कुछ भी न था। बड़े भैया को खूब समझ में आ रहा था कि चकबंदी में हारने के बाद बबुआन उनके खिलाफ गहरा षड्यंत्र रच रहा है।
बिचले भैया को नशा कम होने की वजह से नींद नहीं आ रही थी। वह बिस्तर पर उठकर बैठ गये। उन्हें दारू की तेज तलब महसूस होने लगी। उनके घर के सामने मंगरू अहीर का घर था। दिन में बिचले भैया उन्हीं के साथ गांजा पीते थे। मंगरू की खांसी की आवाज सुनकर वे तेज आवाज में चिल्लाये ‘मंगरू काका….मंगरू काका, अब इस कोठी का सूरज डूबने वाला है अगर इसे बचाना है तो बड़े भैया से कह दो कि मुझे छुट्टा छोड़ दें, ‘मुझे जेल से आये बहुत दिन हो गये हैं फिर से मेरा मन जेल की रोटी खाने को कर रहा है।’
घर के अंदर हलचल मच गयी। बड़े भैया भी झटके से उठे और दौड़ते हुए बरामदे में आ गए। उनके पीछे उनकी पत्नी भी दौड़ी आईं। वह दाँत भींचकर उंगली दिखाते हुए गुर्राए – ‘खबरदार! जो कुछ उल्टा-सीधा बोला। जब तक चुनाव खत्म न हो जाय तब तक तुम्हारे मुंह से कुछ भी बदजुबान निकला तो मुझसे बुरा कोई न होगा।’
बिचले भैया गर्दन झुकाए चुपचाप सुनते रहे। बड़े भैया की पत्नी उन्हें खींचकर घर के अंदर वापस ले गईं और दरवाजा अंदर से बंद कर दिया। बिचले भैया चुपचाप उसी तरह बैठे रहे। बड़े भैया अभी बिस्तर पर लेटे ही थे कि बिचले भैया किसी बिगडै़ल साँप की तरह फुंफकारे- ‘मगरूं काका, मेरा भाई कभी किसी ससुरे से नहीं डरा। आज वह एक नउकट्टी से डर गया… साला..।’
बड़े भैया तिलमिलाकर बिस्तर पर उठ बैठे। उनकी पत्नी ने उन्हें जकड़कर पकड़ लिया और बोली – ‘आप झूठ ही गुस्सा करते हैं। जब परिवार में छोटे-बड़े का लिहाज ही नहीं रह गया हो तो ऐसे परिवार को कब तक अपने सिर पर ढोएंगे। मैंने आपसे कितनी बार कहा कि अब हमें इनसे अलग हो जाना चाहिए।’
बड़े भैया ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ पत्नी के गाल पर मारा। वह बिस्तर पर गिरकर सुबक-सुबक कर रोने लगी।
बिचले भैया लगातार चीख-चीखकर गुलइची को गालियां बके जा रहे थे। उनकी पत्नी उनका मुंह पकड़कर चुप कराने की कोशिश कर रही थी। वह उसे बार-बार झटक दे रहे थे। उनकी पत्नी हारकर अपने कमरे से देसी दारू की बोतल ले आई और उसका ढक्कन खोलकर उनके मुंह में लगा दिया। उन्होंने एक ही सांस में पूरी बोतल खाली कर दी। फिर एक लम्बी डकार लेकर कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहे। फिर बिस्तर पर लेटते हुए बड़े इत्मीनान से बोले, ‘जाओ, तुम भी थकी होगी। चुपचाप सो जाओ।’ इसके थोड़े ही देर बाद उनकी नाक बजने लगी।
दूसरे दिन सुबह बड़े भैया ने गुलइची को बुलाने के लिए आदमी भेजा। उन्हें उम्मीद थी कि वह तुरंत आएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह बेचैनी से उसका इंतजार करते रहे लेकिन गुलइची का दूर-दूर तक पता नहीं था। घर में बड़े भैया को छोड़कर सिर्फ औरतें थी। सभी लोग अपने काम से सुबह ही घर छोड़कर जा चुके थे। बिचले भैया ट्रैक्टर का इंजन बनवाने के लिए शहर चले गये थे। बड़ै भैया को भी शहर जाना जरूरी था लेकिन गुलइची के कारण वह घर पर ही रुक गये थे। काफी इंतजार के बाद भी गुलइची नहीं आयी तो वह मन मसोस कर अपने कमरे में चले गये। ठीक दोपहर में गुलइची ने कोठी के सदर दरवाजे की साँकल खड़खड़ाई – ‘दुलहिन।’
‘हां नाइन, बैठो, अभी उन्हें भेजती हूं।’ घर के अंदर से बड़े भैया की पत्नी की आवाज आयी।
गुलइची बरामदे के फर्श पर पालथी मारकर बैठ गयी।
आज के तीस बरस पहले जब वह दुल्हन बनकर सुवई के घर आयी तो गांव मे उसके चर्चे होने लगे थे – जरूर वह किसी बाभन या ठाकुर से जनमी है। आज कोई नहीं कह सकता कि वह वही गुलइची है। समय के थपेड़ों ने उसके शरीर को झुलसा दिया। उसके शरीर की रंगत बदल गयी और उसके चेहरे पर झुर्रियों का राज हो गया। उसकी शादी के पहले ही उसके ससुर मर चुके थे। गौने के दूसरे साल उसकी सास भी मर गयी। गोकुल के पांच साल के होते ही वह भी विधवा हो गयी। ससुर के रहते ही खेत का बड़ा हिस्सा सड़क में चला गया। उसी के मुआवजे से वह रहने लायक कच्चा घर बनवा दिये थे। खेती के नाम पर सिर्फ पांच बिस्वा ही जमीन बची थी, जो चकबंदी में और भी कम हो गई। गांव और उसके मायके वालों ने भी उसको बहुत समझाया कि वह किसी और की हो जाये लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी।
गुलइची के पड़ोस में एक तीरथ नाई हुआ करते थे। वह मंद बुद्धि के थे। उनके हिस्से एक बीघा जमीन भी थी। उनकी शादी नहीं हुई थी। उनके भाई-भतीजों ने उन्हें घर से निकाल दिया था। वह बबुआन में घर-घर जाकर अपना पेट पालते थे। बबुआन ने गुलइची के ऊपर बहुत दबाव बनाया कि वह उन्हीं पर हो जाय लेकिन उसने दो टूक कह दिया, ‘यदि जजमानी नहीं मिली तो मेरे पास पाँच बिस्वा जमीन है। उससे भी मेरा और मेरे बेटे का पेट नहीं भरा तो मजदूरी कर लूंगी लेकिन मैं किसी पर न जाऊॅंगी और न ही गाँव छोड़ूँगी।’
जमीन, जजमानी और बबुआन की बदौलत गुलइची ने अपना और गोकुल का पेट बड़े जीवट से पाला। किसी के सामने उसने अपनी गरीबी नहीं दिखाई और न ही अपनी इज्जत पर आँच आने दी। समय ने उसके कलेजे को फौलाद बना दिया था। उसे किसी से तनिक भी डर नहीं लगता। उसकी शहद-सी ज़ुबान को काली मिर्च में बदलते देर नहीं लगती। दो साल पहले गोकुल दिल्ली जाकर एक बड़े सैलून में नौकरी करने लगा। इसी साल उसने गुलइची को और अकेला छोड़ दिया और अपने बीवी-बच्चे को भी लेता गया।
गुलइची बरामदे में चुपचाप बैठकर बड़े भैया का इंतजार करती रही। बड़े भैया जानबूझ कर देर से बाहर निकले। उनके पीछे उनकी पत्नी भी गुलइची के लिए पीढ़ा लेकर आई। गुलइची पीढ़ा लेकर बैठ गई। बडे़ भैया भी उसके सामने कुर्सी खींच कर बैठ गए और उसका हालचाल पूछने लगे। वह थोड़ी ही देर में मूल बात पर आ गए – ‘गुलइची, यह कैसी अफवाह उड़ी है कि तू प्रधानी का चुनाव लड़ने वाली है?’
‘‘यह अफवाह नहीं है बाबू। सही बात है।” गुलइची हॅंसते हुए बोली, ‘‘अबकी बार मेरा भी मन कर रहा है कि चुनाव लड़ ही जाऊॅं।”
बड़े भैया कुछ पल के लिए सन्नाटे में आ गए। उसे ध्यान से घूरते हुए बोले, ‘‘किसके कहने पर तुमने मन बनाया है? देखो, बबुआन की बातों में मत आना। वे हमेशा दूसरों के कंधों पर बंदूक रखकर चलाते रहे हैं।”
‘‘ऐसी बात नहीं है बाबू। यह फैसला मेरा खुद का है। हाँ, गाँव में सबसे राय ली। सभी ने मुझे आशीर्वाद दिया। मेरा हौसला भी बढ़ाया।”
‘‘देखो, गाँव में कोई किसी को नाराज नहीं करना चाहता है। तुमने जितने लोगों से आशीर्वाद लिया हो। उसमें से किसी एक को मेरे सामने कर दो। मैं मान लूँगा।”
‘‘आप से कौन दुश्मनी लेगा बाबू?’’
‘‘तो क्या एक तुम ही पूरे गाँव में मुझसे दुश्मनी लेने को तैयार हुईं?”
‘‘इसमें दुश्मनी की क्या बात है बाबू? जब सरकार ने हम सबको मौका दिया है तो मुझे लड़ने में क्या हर्ज है?’’
‘‘मेरे सामने तुम्हारी औकात क्या है?’’
गुलइची कुछ देर तक चुपचाप अपने आँचल के कोने को उॅंगली में लपेटती रही। वह बड़े ही इत्मीनान से बोली, ‘‘समय-समय की बात है बाबू, जब आप भी पहली बार चुनाव लड़े थे तो लक्ष्मी बाबू के सामने आपकी क्या औकात थी। मैं तो आपकी परजा हूं। आपके पिता तो उनके हलवाहे थे।’’
बड़े भैया के चेहरे पर सन्नाटा पसर गया। उन्हें इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी। वह तिलमिला गए। खून का घूँट पीकर शांत स्वर में बोले, ‘‘गुलइची, तुम एहसान फ़रामोश हो। अभी कितने दिन हुए तुम्हारे बेटे की शादी हुए ? दुल्हन की गाड़ी पुरुषोत्तम बाबू ने अपने दरवाजे पर रोक दी थी। मेरे भाई नहीं पहुंचे होते तो तुम्हारी बहू गाड़ी से उतर कर पैदल ही घर जाती। मैंने उसी साल पुरुषोत्तम बाबू से दुश्मनी लेकर परजौटी तक खड़ंजा लगवाया। परजौटी के नाबदान दरवाजे पर ही बजबजाते थे। सबके नाबदान के लिए नाली बनवाई। चकबन्दी में तुम्हें सदस्य बनाया। इतना कुछ करने के बावजूद तुम बबुआन के कहने पर मेरा विरोध करने चली हो?’’
‘‘वही तो मेरे लिए गुनाह हो गया बाबू। आपके उसी एहसान से दबकर मैं शेर के जबड़े के बीच रहते हुए आपके हर गलत-सही का गुणगान करती रही। आपके हर मौके पर दस लोगों के साथ आपके पीछे खड़ी रही। आपको अपना तो याद है। मेरे किए की कोई कीमत नहीं है। चकबंदी में मुझे सदस्य बनाकर आपने गाँव के गरीबों की आह मेरे पल्लू में बाँध दी। उसी आह से छुटकारा पाने के लिए ही तो मैंने चुनाव लड़ने का फैसला किया है।”
‘‘तो तुम्हें आह लग रही है? तुम समझ रही हो कि सिर्फ तुम्हारे अॅंगूठे की वजह से वह जमीन मेरी हो गई?
‘‘क्यों नहीं बाबू? मेरे अॅंगूठे की बदौलत तुमने गाँव भर का कलेजा नोचकर अपनी जेब में रख लिया। मैं गॅंवार समझ ही नहीं पाई। यदि मुझे पता होता तो कागद पर लगाने के पहले ही उसे काटकर फेंक दी होती। आप लोगों के लिए तो गरीबों की आह वरदान होती है, लेकिन हम गरीबों की छाती पर किसी की आह हमेशा यमराज बनकर बैठी रहती है। हे भगवान! इस आह से मुझे कब मुक्ति मिलेगी।”
‘‘उस जमीन में तुम्हें भी कुछ हिस्सा दे दूं?’’
‘‘वह जमीन आपकी नहीं है बाबू। उसमें गाँव के गरीबों का भी हिस्सा है। वह मेरे लिए हराम है। उस जमीन का अन्न खाने से मुझे नरक मिलेगा। यदि मुझे जमीन की लालच रही होती तो आज मैं तीरथ की ब्याहता होती।”
‘‘तुम ही बताओ। तुम्हें क्या चाहिए?’’ गुलइची चुपचाप देर तक सोचती रही।
‘‘बोलो गुलइची। क्या दे दूं तुम्हें?’’
‘‘नहीं दे पाओगे बाबू।”
‘‘पहले तुम बोलो तो। तुम्हें देने के लिए मेरे पास बहुत कुछ है।”
‘‘पिछले साल आपके भतीजे की शादी हुई। उसका नेग अभी मुझे नहीं मिला है। वही नेग मुझे चाहिए।”
बड़े भैया ठहाका मारकर हॅंस पड़े, ‘‘आज बता दो गुलइची नेग में तुम्हें क्या चाहिए?’’
‘‘सोच लो बाबू। आप नहीं दे पाओगे।’’
‘‘यदि अपनी परजा को मैं नेग भी नहीं दे सका तो समझो जीवन भर की मेरी कमाई व्यर्थ गई।”
‘‘बाबू, आपके पास धन-संपदा बहुत है। आप ब्लाक प्रमुख हैं। आपका बेटा-भतीजा महाप्रधान हैं। मैं भगवान से यही मनाऊॅंगी कि अबकी बार आप विधायक बनो। इतने बड़े ओहदों में प्रधान किस खेती की मूली है। मुझे नेग में अबकी बार की प्रधानी दे दो। दुनिया में आप मिसाल बनोगे। चारों तरफ आपकी जय-जय होगी।”
यह बात सुनकर बड़े भैया का मुंह खुला का खुला रह गया। वह काफी देर तक उसे निहारते रहे। अपने होठों पर जबरदस्ती मुस्कान लाते हुए, बोले, “मैंने बचपन में एक कहावत सुनी थी – पक्षी में कौआ और जाति में नउआ। ये दोनों काफी चालाक होते हैं। आज साक्षात देख भी लिया। अब से तुम सब कुछ कहना, लेकिन अपनी जबान से प्रधानी का नाम मत लेना। तुम दूसरा कुछ मांग लो।”
“मैं तो पहले ही कह रही थी बाबू कि आप दे नहीं पाओगे। आप कहने के लिए राजा हैं लेकिन असल में आप परजा से भी ज्यादा लालची हैं। मैं दूसरा कुछ मांगूँगी तो आप उसे भी नहीं दे पाओगे। यदि वही मुझे मिल गया तो मैं अपने मरे सुहाग की कसम खाकर कहती हूँ कि मैं चुनाव नहीं लड़ूँगी और न ही किसी को आपके खिलाफ लड़ने दूंगी। यदि नहीं दिए तो आप मुझे चुनाव लड़ने से रोक भी नहीं सकते।”
‘‘चलो ठीक है, तुम बोलो।”
‘‘अहिरान के दस घरों की आबादी की जमीन जो आप चकबन्दी में अपने नाम करा लिए हैं, उसे उन्हें वापस कर दो। सीवान में गाँवसभा की अट्ठारह एकड़ की जमीन से आप अपना कब्जा हटाकर उसे गरीबों में बाँट दो। मैं चुनाव नहीं लड़ूँगी।”
बड़े भैया के अंदर का अपराधी जाग उठा। उनका चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा। वह गुर्राते हुए बोले, “अब तुम कुछ ज्यादा ही बोल रही हो। उस जमीन के लिए पूरे बबुआन ने अपनी एड़ी-चोटी रगड़ मारी, मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सके। अब तेरी बारी है। अपना कान खोलकर सुन ले गुलइची! जो उस जमीन की तरफ नजर उठाकर भी देखेगा, मैं उसकी उसी खेत में कब्र बना दूंगा।”
गुलइची काफी देर तक चुपचाप बैठी रही। इसके बाद वह उठकर जाने लगी। बड़े भैया ने उसे पुकारा, ‘‘एक बात सुनकर जाना गुलइची।”
वह मुड़कर उन्हें देखने लगी। बड़े भैया उसके समीप जाकर दाँत पीसते हुए बोले, ‘‘मेरे हाथ बहुत लंबे हैं। इतने लंबे कि यहीं से बैठकर दिल्ली के सैलून में तेरे बेटे की गरदन मरोड़ सकते हैं।”
इतना कहकर बड़े भैया एक झटके से घर के अंदर चले गए। गुलइची काठ की मानिंद काफी देर तक खुले दरवाजे को निहारती रही। उसी दिन शाम को खबर उड़ी कि अब गुलइची चुनाव नहीं लड़ेगी। बड़े भैया ने उसे बुलाकर धमका दिया है। वह गाँव छोड़कर कहीं चली गई। इस खबर से बड़े भैया और उनके परिवार का तनाव काफी कम हो गया। दूसरे दिन से सभी लोग अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए।
चुनाव प्रक्रिया शुरू हो गई। बड़े भैया ने पुरोहित से शुभ मुहूर्त निकलवाकर पूरे धार्मिक अनुष्ठान के साथ परचा दाखिला का भव्य जुलूस निकाला, जिसमें बबुआन को छोड़कर पूरा गाँव शामिल था। बबुआन से सिर्फ प्रभाकर बाबू थे। परचा दाखिल हो जाने के बाद खूब मिठाइयां बॅंटीं और शाम होते ही शराब का दौर शुरू हो गया। देर रात तक बड़े भैया के दरवाजे पर गाँव के और कुछ बाहरी लोगों का जमघट लगा रहा। उसी दिन सभी लोग मान बैठे थे कि अबकी बार बिचले भैया निर्विरोध प्रधान चुन लिए गए।
परचा दाखिले के अंतिम दिन शाम को एक विस्फोटक खबर आई जो गाँव से लेकर पूरे इलाके में चर्चा का विषय बन गई। गुलइची ने चुपके से अपना परचा दाखिल कर दिया। किसी को भनक तक नहीं लगी। पुरुषोत्तम बाबू उसके प्रस्तावक थे। इस खबर को सुनते ही बड़े भैया सकते में आ गए। पूरे परिवार के चेहरे पर सन्नाटा छा गया।
उसी दिन से गुलइची की खोज शुरू हो गई। उसे गाँव में किसी ने नहीं देखा। वह अपने मायके में भी नहीं मिली। दिल्ली में उसका लड़का दो दिन पहले ही सैलून की नौकरी छोड़कर कहीं चला गया था। उसे सभी संभावित जगहों पर ढूँढ़ा गया, लेकिन वह नहीं मिली।
शहर के देवकी सिंह बड़े ठेकेदार थे। बड़े भैया से उनकी अच्छी दोस्ती थी। वह पुरुषोत्तम बाबू के दूर के रिश्तेदार भी थे। बड़े भैया ने उन्हें पुरुषोत्तम बाबू के यहाँ दबाव बनाने के लिए भेजा - वह कोई भी कीमत ले लें, लेकिन गुलइची का परचा हर हालत में वापस होना चाहिए।
पुरुषोत्तम बाबू के दरवाजे पर आठ-दस लोग बैठकर चुनाव और गुलइची की बात कर रहे थे। उसी समय देवकी सिंह अपने लाव-लश्कर सहित वहाँ पहुँचे। वहाँ पर उनका मेहमान की तरह स्वागत हुआ। काफी देर तक इधर-उधर की बातें होने के बाद देवकी सिंह ने कहा, ‘‘पुरुषोत्तम जी, मैं आपसे कुछ व्यक्तिगत बातें करने आया हूँ। मुझे एकांत चाहिए।” इतना सुनते ही वहाँ पर बैठे लोग उठकर चले गए।
देवकी सिंह ने उन पर अपना पूरा अधिकार जताते हुए बहुत ही करीब से अपनी बात रखी। तरह-तरह से उन्हें हानि-लाभ समझाए। पुरुषोत्तम बाबू चुपचाप सुनते रहे। जब देवकी सिंह की बात खत्म हो गई तो वह बहुत ही विनम्रता से बोले, ‘‘आप मेरे मेहमान हैं। आपके सम्मान में मैं आपकी बात मान लूंगा। बशर्ते आपको भी मेरा मान रखना होगा।”
‘‘आपका सम्मान करना मेरा फर्ज है।”
‘‘मेरी भी कुछ शर्तें हैं। यदि आप उसे पूरा करा दें तो मैं परचा वापस करवा लूंगा।” वह देवकी सिंह की आँखों में झाँकते हुए बोले, ‘‘आज से करीब पच्चीस साल पहले आपके मित्र ने अपने लठैतों के साथ खड़े होकर जबर्दस्ती मेरे दुआर के बीचोंबीच परजौटी के लिए सड़क बनवा कर मेरी इज्जत को मटियामेट कर दिया था। आप उससे कहिए कि वह इस सड़क को तोड़कर पूरे गाँव के सामने मेरे पैर पर गिरकर मुझसे माफी माँगे।”
देवकी सिंह के चेहरे पर खामोशी छा गई। ‘दूसरी शर्त यह है कि गाँव समाज की जमीन को वह खाली कर दे। अहिरान की जमीन का हमसे कोई मतलब नहीं है। वे एक जाति-बिरादर हैं, वे आपस में समझें।’
देवकी सिंह चुपचाप गरदन झुकाकर देर तक सोचते रहे। उन्होंने एक बार फिर उन्हें समझाने की कोशिश की, ‘‘मैं आपकी पहली शर्त उससे मनवा लूँगा लेकिन दूसरी में संशय है। वह जमीन का बहुत बड़ा लालची है। उसे तो वह नहीं छोड़ेगा। मेरे कहने से उसे आप माफ कर दें।”
देवकी सिंह ने काफी देर तक उन्हें तरह-तरह का लालच देकर समझाने की कोशिश की लेकिन पुरुषोत्तम बाबू तैयार नहीं हुए।
गुलइची अपना चुनाव निशान लेकर ही गाँव लौटी। वह गाँव पहुंचते ही लोगों के लिए कौतहूल बन गई। गाँव में जिधर निकलती, उसे लोग घेर लेते थे। बड़े भैया के परिवार ने भी अपना काम छोड़कर गाँव में डेरा डाल दिया। इस बार चुनाव की कमान छोटे भैया के ऊपर थी। उन्होंने दिल खोलकर पैसा लुटाना शुरू कर दिया। रोज शाम को चमरौटी के हर घर में मुर्गा-दारू पहुँचने लगा। चमरौटी में दो पुरवे थे। दोनों पुरवे सड़क से सटे उत्तर-दक्षिण में बसे थे। उत्तर वाले पुरवे में ललसू और दक्षिण वाले में सहजू का घर था। इन दोनों का परिवार काफी लंबा था और ये चमरौटी के शातिर माने जाते थे। गाँव में ये किसके सगे और किसके दुश्मन है, कोई नहीं बता सकता था।
इन दोनों के अलावा चमरौटी में नई उम्र का लड़का राकेश भी था। वह शहर से पढ़ाई करके अंबेडकर दल से जुड़ा हुआ था। वह गाँव में अंबेडकर जयंती पर वार्षिक जलसा करता था और चमरौटी के उत्तर-दक्षिण पुरवे को हमेशा जोड़कर रखता था। चमरौटी की नई पीढ़ी उसे अपना नेता मानती थी।
बड़े भैया ने इन तीनों को बारी-बारी से अपने घर बुलाकर चमरौटी को अपने पक्ष में करने के लिए तीस-तीस हजार रुपये दिए।
बबुआन में बड़े भैया के सबसे करीबी प्रभाकर बाबू थे। वह पुरुषोत्तम बाबू के पट्टीदार और रिश्ते में उनके भतीजे लगते थे। बड़े भैया ने चकबंदी में उनकी काफी मदद की थी। उन्हीं की वजह से वह थाना-तहसील में अच्छी दलाली करते थे। उनके पास गाँव के दस लड़कों की टीम थी। प्रभाकर बाबू के एक काम से वे लोग काफी खुश थे। गाँव के सीवान में कोई भी छुट्टा पशु आ जाता, उनकी टीम उसे पकड़ कर कसाई को बेच देती और उस पैसे से रात में प्रभाकर बाबू के ट्यूबवेल पर शानदार दावत होती। बड़े भैया उनको भी तीस हजार रुपये देने लगे, लेकिन उन्होंने हँसकर वापस कर दिया। उनकी टीम बड़े भैया के पक्ष में हवा बनाने में जुट गई।
प्रचार में बड़े भैया के सामने गुलइची दूर-दूर तक नहीं टिक पा रही थी। उनके आदमियों ने पूरे गाँव पर कब्जा कर लिया था। बड़े भैया से दुश्मनी मोल लेने की वजह से परजौटी-चमरौटी का कोई भी आदमी गुलइची के साथ प्रचार में नहीं निकला। बबुआन ने पहले ही कह दिया था कि उसकी हर तरीके से मदद होगी, लेकिन खुलकर कोई नहीं आएगा। इससे गाँव में गोली भी चल सकती है। गुलइची अकेले ही घर-घर जाकर अपनी बात कहती। उसकी बात में गाँव समाज की जमीन जरूर रहती। दो दिन के प्रचार के बाद बड़े भैया के आदमी उसके पीछे लग गए। वह जिसके पास खड़ी होती, बड़े भैया के आदमी उसके बगल में खड़े हो जाते। दो दिन के बाद गुलइची ने अपने प्रचार का तरीका बदल दिया। जब गाँव की औरतें भोर में शौच के लिए निकलती थीं, गुलइची उनके झुंड में शामिल हो जाती।
इस तरह के प्रचार के बावजूद बड़े भैया अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं थे। उन्हें हमेशा डर की धुकधुकी लगी रहती। एक तरफ से गाँव वाले कह रहे थे कि चुनाव तो बड़े भैया ही जीतेंगे, लेकिन लक्ष्मी बाबू का शातिर दिमाग देखकर उन्हें शक होने लगता।
चुनाव के दो रोज पहले बड़े भैया को रामचेत मास्टर की याद आई। रामचेत मास्टर का घर दस किलोमीटर दूर था। वह किसी विद्यालय में अध्यापक नहीं थे। उनके पिता कहरवा (गोंड़ऊ) नाच में हुड़का बजाते थे। वह इस हुनर को रामचेत को भी सिखाना चाहते थे, लेकिन रामचेत कभी हुड़का नहीं पकड़े। आज के 25 साल पहले वह नौटंकी नाच में हारमोनियम बजाया करते थे। एक बरात में उनकी नाच मंडली गई हुई थी। वह ठाकुरों का इलाका था। रात में नौटंकी नाच का ड्रामा शुरू हुआ। ड्रामे में एक दलित लड़के को राजपूत लड़की से इश्क हो गया। यह दृश्य देखते ही ठाकुरों ने नाच पर हमला बोल दिया। सभी नाच वाले तो भाग गए, लेकिन रामचेत मास्टर पकड़ लिए गए। उनकी वहाँ पर इतनी पिटाई हुई कि वह पूरे एक साल तक बिस्तर पर ही रहे। जब वह बिस्तर से उठे तो बामसेफ की राजनीति करने लगे। वह कुछ ही दिनों में पिछड़ी जाति में काफी लोकप्रिय हो गए। आगे चलकर वह बड़े भैया के संपर्क में आए। बड़े भैया को इलाके में पहचान दिलाने में उनका बहुत बड़ा हाथ था। 15 साल तक दोनों लोग साथ रहे फिर बिना किसी मनमुटाव के धीरे-धीरे अलग हो गए।
बड़े भैया ने भोर में ही गाड़ी भेजकर उन्हें घर बुलाया। उन्हें चुनाव की पूरी स्थिति की जानकारी दी। गाँव की परजौटी से रामचेत मास्टर का काफी लगाव था। तमाम घरों के सुख-दुख में उनका आना-जाना था। वह अकेले ही परजौटी के लिए चले गए।
सुबह के गए वह देर शाम को वापस लौटे। उनका चेहरा मायूस लग रहा था, जिसे देखते ही बड़े भैया की बेचैनी बढ़ गई। वह उन्हें अपने कमरे में ले गए और बेसब्री से पूछा, ‘‘क्या हाल है?’’
‘‘फिलहाल, मुझे तो ऐसा कोई नहीं मिला, जो यह कहे कि वह आपको वोट नहीं देगा। लेकिन……..’’
‘‘लेकिन क्या?’’
‘‘उनके दिल में आपके लिए अथाह नफरत है। इतनी नफरत तो मैंने कभी बबुआन के लिए भी नहीं देखी थी।”
‘‘यह बबुआन ने झूठी अफवाह फैलाई है। उसने तो हमेशा हमें आपस में लड़ाना चाहा है। अब वह कुछ हद तक कामयाब भी हो गया है।”
‘‘वह क्यों कामयाब हुआ? आपने इस बात को कभी सोचा?”
बड़े भैया ने चुपचाप गरदन झुका ली। ‘‘मैं बताऊॅं?” रामचेत मास्टर ने कहा, ‘‘आप जिस रफ्तार से संपन्न होते गए उसी रफ्तार से आप नया ठाकुर बनने लगे। आपकी नाक में नए जमींदारों वाली सड़न होने लगी। आप जिसकी बदौलत यहाँ तक पहुंचे, वे अब आपको बदबू करने लगे। कभी इस कोठी पर इलाके के गरीबों का जमावड़ा लगा रहता था। सुना है अब यह अपराधियों की शरणस्थली है।”
बडे़ भैया खामोश रहे।
“आप 25 सालों से राजनीति कर रहे हैं, लेकिन इतने सालों में आप में राजनीतिक समझ के बजाय धन की लालच बढ़ी। समझदारी यह होनी चाहिए थी कि गुलइची का नाम आते ही आप अपनी तरफ से उसे निर्विरोध प्रधान बनवा देते। आपकी दूर-दूर तक तारीफ होती, जिसका भविष्य में आपको राजनीतिक लाभ मिलता। अब आपकी हवस इतनी बढ़ गयी है कि जो भी कुछ आपके सामने दिखे, वह किसी भी कीमत पर आपकी होनी चाहिए। हवस इंसान को समाज से तोड़ती है। समाज से टूटा व्यक्ति बिखर जाता है। जिसको फिर से जोड़ने में पीढ़ियाँ गुजर जाती हैं।”
“यह चुनाव गुलइची नहीं लड़ रही है, पुरुषोत्तम और लक्ष्मी बाबू लड़ रहे हैं। यह तो उनका मोहरा मात्र है। मैं उनके मोहरे को समर्थन देकर अपनी किरकिरी कराता?’’
“यहीं आप चूक गए। आप अपनी तरफ से परजौटी के किसी पढ़े-लिखे लड़के को खड़ा कर देते। तब गुलइची को आप ही नहीं, पूरा गाँव बबुवान का मोहरा मानकर आपके साथ खड़ा हो जाता।”
“हमसे कहीं चूक नहीं हुई है मास्टर। मेरा परजौटी-चमरौटी के ऊपर एहसान है। बीस साल पहले उसी परजौटी में बबुआन का नरक बहता था। परजौटी-चमरौटी के पास न रास्ता, न नाली और न ही पीने के लिए पानी था। वे बबुआन के सड़े कुओं से पानी पीते थे। यह मेरी देन है कि आज उनके पास सब कुछ है। सबको सस्ती बिजली का कनेक्शन दिलाया। परजौटी-चमरौटी में एक सौ साठ आवास दिलाए। सबका लाल कार्ड बनवाया। उनके लिए क्या नहीं किया? मुझसे गलती एक ही हुई है मास्टर! बबुआन की तरह हर बात में मैंने उनकी बहन-बेटी नहीं की और न ही अपने घर के लड़कों को परजौटी में सोने के लिए भेजा।”
“यह बात तो आप गलत कह रहे हैं बड़े भैया।” रामचेत मास्टर ने तनिक नाराजगी जताते हुए कहा, ‘‘वे आपकी परजा हैं। क्या उनकी बहन-बेटी की इज्जत नहीं है? सब कुछ तो आप ने बनाया। इसके बावजूद आपने और भी कुछ किया है उसे छिपा ले गए। उसे मैं बताऊॅं ?”
बडे़ भैया उनका मुंह देखने लगे।
“आपने आवास देने में भारी कमीशन लिया। जिसमें कुछ को तो अभी मिला भी नहीं। आपने बंजर जमीन का पट्टा करने के लिए दसियों लोगों से पैसा लिया, लेकिन अभी तक किसी का नहीं हुआ। चमरौटी-परजौटी के सात लड़कों ने नौकरी के लिए अपनी जमीन गिरवी रखकर आपको लाखों रुपये दिये। अब आप उनसे बात तक नहीं करते। इतना तो मेरी जानकारी में है। इसके अलावा अभी आपने और क्या किया है भगवान जाने। रही बात किसी के घर में सोने की तो वह जमाना लद गया। अब गरीब से गरीब आदमी इज्जत-आबरू के लिए मरने-मारने के लिए तैयार है।”
“यह परजौटी के लोगों को उनके घर में क्या हो रहा है, नहीं पता है”, बड़े भैया ने व्यंग्य किया, ‘‘एक बार फिर वहाँ जाकर पता कर लो मास्टर! परजौटी के तमाम घर बबुआन के आवारा लड़कों की अय्याशी के अड्डे बने हुए हैं। परजौटी के लड़कों को दारू और बाइक की चाभी चाहिए। इसके बदले उनके घर में क्या हो रहा है, वे जानकर भी अनजान हैं।”
रामचेत मास्टर का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। वह लंबी साँस खींचते हुए बोले, ‘‘इसका मतलब बबुआन और परजौटी दोनों के पुराने दिन वापस आ गए हैं। तभी तो वहाँ के बुजुर्ग तुम्हारी, और नई पीढ़ी बबुआन की तारीफ कर रही थी। कुछ लड़के कह रहे थे कि पुराने दिन ही अच्छे थे। बबुआन पीठ पर मारता था तो पेट को रोटी भी देता था। बड़े भैया ने तो हमारा पेट ही काटकर अपनी बखारी भर ली।”
“उस बखारी में इनका कितना हिस्सा है ? पूरी परजौटी-चमरौटी मिलाकर एक एकड़।” बड़े भैया तिलमिला कर बोले, ‘‘सारी जमीन तो बबुआन की है। वह जमीन सिर्फ जमीन नहीं है मास्टर। वह जमीन मेरा स्वाभिमान है और बबुआन का अभिमान। जिसे मैंने कैद कर रखा है।”
थोड़ी देर तक दोनों चुप रहे। कमरे में सन्नाटा छा गया।
“मेरी समझ में आपकी एक बात नहीं आई कि आपने सब कुछ किया, लेकिन अपने ही भाई-बिरादरी के 10 घरों की आबादी की जमीन क्यों अपने नाम करा ली? इसको लेकर आपकी पूरे इलाके में हॅंसी हो रही है। आपको समाज से शर्म नहीं आती ?”
“ऐसा तो मैंने लक्ष्मी बाबू से सीखा है।” पहली बार बड़े भैया के चेहरे पर मुस्कराहट उभरी, ‘‘परजौटी-चमरौटी के सात घरों की आबादी की जमीन आज भी लक्ष्मी बाबू के नाम है। दुनिया बदल गई लेकिन वे सात घर आज भी लक्ष्मी बाबू के यहाँ आसामी की तरह रहते हैं। इसी तरह से दस घर मेरे पुश्तैनी विरोधी और बबुआन के खास थे। इनकी नाक में नकेल डालना जरूरी था। नकेल पड़ते ही अब ये मेरे खास हो गए। इनका पूरा परिवार चुनाव में लगा हुआ है।”
“आज तो आपकी सरकार है। जिस दिन नहीं रहेगी, उस दिन क्या होगा? सभी लोग अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखने की कोशिश में लगे हैं और आपने उनके लिए कांटे बो दिए।”
“भविष्य का डर देखकर कोई काम नहीं होता मास्टर। हम इतना तो सीख ही चुके हैं कि सरकार किसी की भी रहे लेकिन हमारी सत्ता इसी तरह से बरकरार रहेगी।”
पोलिंग पार्टी के गाँव में आते ही परजौटी-चमरौटी के चेहरे कसाई के खूँटे पर बॅंधे बकरे की तरह हो गए। गांव में भयानक चुप्पी छा गई। शाम होते ही सन्नाटा बढ़ गया। रात के अंधेरे के साथ ही दहशत की धमक हर दरवाजे पर दस्तक देने लगी। छोटे भैया चमरौटी के एक तरफ से घुसे थे। उनके साथ तीन अजनबी लड़के भी थे। उन तीनों ने अपने चेहरे गमछे से ढॅंक रखे थे और उनके कमर में असलहे साफ झलक रहे थे। छोटे भैया के चेहरे पर गहरा तनाव था। वह किसी के दरवाजे पर खड़े नहीं हो रहे थे। उन्हें देखकर लोग खुद ही आगे बढ़कर नमस्ते कर कहते, ‘बाबू, सब ठीक है। हमारी तरफ से निश्चिंत रहिएगा।’ छोटे भैया मुस्करा कर आगे बढ़ जाते। उनको जिस पर शक होता उसे अपने पास बुलाते और घूरते हुए हल्की सी धमकी दे देते, ‘तुम्हारे बारे में मैंने कुछ गलत सुना है। तुम वोट डालने के पहले अच्छी तरह से सोच लेना। चुनाव के बाद तुम्हारे बारे में मुझे न सोचना पड़े।’ इतना सुनते ही सामने वाले की घिग्घी बंध जाती। वह अपनी सात पुश्तों की कसम खाते हुए रिरियाने लगता, ‘बाबू, मेरे किसी दुश्मन ने आपको गलत जानकारी दी है। मैं हमेशा आप के साथ रहा हूँ। भला गुलइची के लिए मैं आपका साथ छोड़ दूंगा? आप मेरे ऊपर विश्वास कीजिए बाबू।’
‘तुम्हारे दिल में मुझे लेकर काला हो तो वोट देने मत जाना। मै तुम्हारे वोट को अपना समझ लूँगा । मगर विश्वासघात मुझे बर्दाश्त नहीं होगा।’
चमरौटी को निपटा कर छोटे भैया परजौटी में पहुंचे। उनका बर्ताव वहाँ पर भी उसी तरह का था, लेकिन बबुआन में उनका तेवर बदल गया। वह लक्ष्मी बाबू और पुरुषोत्तम के घर को छोड़कर सभी के घर गए और अंत में वह प्रभाकर बाबू के घर में बैठ गए। यहाँ पहले से बबुआन और चमरौटी-परजौटी के लगभग बीस लोग बैठे हुए थे।
रात के दस बजे बड़े भैया का बड़ा लड़का राजन अपने साथ अहिरान के और कुछ बाहरी पचास लोगों के साथ चमरौटी में घुसा। वे एक तरफ से हर घर को हर एक वोट पर औरतों में साड़ी, मर्दों के लिए धोती और लड़कों को पैंट-शर्ट का कपड़ा और साथ में एक हजार रुपये बाँटने लगे। शराब और मुर्गा तो दोपहर में ही बॅंट चुका था। इसके बावजूद दारू की कोई कमी नहीं थी। राजन को जिस पर शक होता, उससे वह सीधे कह देता, ‘‘देखो भाई, यह सब वोट के लिए दे रहा हूं। जिसको मुझे वोट नहीं देना है, वह मत दे। मुझे बाद में वसूलने भी आता है।” इसके बावजूद किसी ने इंकार नहीं किया। राजन ने चमरौटी की जबर्दस्त नाकेबंदी कर रखी थी। हर अंधेरी गली के नुक्कड़ पर दो-तीन लोग तैनात थे। हर पाँचवें घर के बाद कुछ लड़के पेड़ों पर चढ़कर छिपे थे। राजन के साथ बीस-पच्चीस लोग सड़क पर गश्त लगा रहे थे। वे किसी भी कीमत पर गुलइची को चमरौटी में घुसने नहीं देना चाहते थे।
पूरी चमरौटी खा-पीकर मदहोश थी। कुछ नई औरतें सड़क पर नशे में धुत होकर ताली बजाकर नाच रही थीं। तमाम लड़के गलियों में इधर-उधर गिरे पड़े थे। उन्हें तनिक भी होश आता तो वे राजन भैया जिंदाबाद के नारे लगाने लगते। इसे सुनते ही राजन का आदमी उनके हाथ में दारू की एक बोतल पकड़ा देता। चमरौटी में सभी लोग तो नजर आ रहे थे, लेकिन सहजू, ललसू और प्रकाश का कहीं पता नहीं था। उन्हें बार-बार बड़े भैया फोन करके माहौल का पता कर रहे थे। हर बार उनका एक ही जवाब मिलता, ‘आप घबराइए नहीं, मैं किसी के घर में बैठकर उन्हें समझा रहा हूं। यह चुनाव आप नहीं, मैं लड़ रहा हूँ।’
रात के करीब ढाई बजे राजन के मोबाइल की घंटी बजी। राजन ने देखा तो वह अपरचित नंबर था। उसने फोन रिसीव किया तो आवाज भी अपरिचित ही थी, ‘राजन भैया, गुलइची बबुआन के लड़कों के साथ मुसहर टोली में घुस रही है।’
राजन एकाएक उत्तेजित हो उठा। वह तेजी से ललकारते हुए मुसहर टोली की तरफ दौड़ पड़ा, ‘पकड़ लो, पकड़ लो! जाने न पाए। उसके पीछे चमरौटी की गलियों और पेड़ों पर छिपे लड़के दौड़ पड़े। वे पचासों की संख्या में थे। सबके हाथ में टार्च जल रही थी और दूसरे हाथ में देशी असलहे लहरा रहे थे। वे गला फाड़कर ललकारते हुए तेजी से मुसहर टोली की तरफ दौड़ रहे थे। एकाएक उठे इस तेज शोर से पूरा गाँव जगह-जगह झुंड बनाकर खड़ा हो गया। चमरौटी का नशा मद्धिम पड़ गया। तमाम लोग सड़क पर आकर इस अचानक शोर का कयास लगाने लगे। राजन के लश्कर ने मुसहर टोली को चारों तरफ से घेर लिया। यहाँ घास-फूस की झोपड़ियां थीं, जिनके चारों तरफ गंदगी फैली हुई थी। हर झोपड़ी के सामने कीचड़ भरे गड्ढे थे जिनमें सुअरों के झुंड लोट रहे थे। गड़्ढों के समीप मर्द और औरतें दारू के नशे में बेसुध गिरे हुए थे। नंग-धड़ंग बच्चे भूख से बिलबिलाते अपनी माताओं को जगा रहे थे। जबकि कुछ मासूम बच्चे अपनी मां की सूखी छाती को मुंह में दबाकर सो गए थे। राजन का लश्कर हर झोपड़ी में दौड़-दौड़कर तलाशी लेने लगा। बच्चे डर से चीख-चीखकर रोने लगे। सुअरों के झुंड कीचड़ से निकलकर चीखते हुए इधर-उधर भागने लगे। इतने हड़कंप के बावजूद किसी को होश नहीं आया। भीड़ के कुछ लोग उन्हें लात मारकर जगाने लगे। वे सिर्फ करवट बदल लेते थे। किसी को तनिक होश भी आता तो वह लड़खडाती आवाज से नारा लगाकर फिर अचेत हो जाता- ‘बाबू की जय हो। बाबू की जय हो।’
भीड़ ने टीले के बाहर जंगल और झाड़ियों में भी ढूँढ़ा, लेकिन गुलइची कहीं नहीं मिली। उसी समय राजन के मोबाइल की घंटी फिर बजी। फोन बड़े भैया का था, ‘क्या बात है राजन ?’ राजन ने पूरी बात बताई।
‘मुसहर टोले का क्या हाल है ?’
‘पूरा टोला दारू के नशे में बेहोश है। यहाँ गुलइची का आना बेकार ही होगा।’
‘कौन सी दारू थी ?’
‘भट्ठे वाली। कच्ची।’
‘देखो कोई मरा तो नहीं है ?’
‘कोई मरेगा तो नहीं, लेकिन कल दोपहर से पहले इन्हें होश नहीं आएगा।’
‘तुम किसके फोन करने पर वहाँ पहुंचे ?’
‘किसी अपरिचित का था। अभी रि-डायल किया तो उसका मोबाइल स्विच आफ मिला।’
‘अरे बेवकूफ! इसी तरह किसी दिन तुम्हारी हत्या भी हो जाएगी। किसी ने तुम्हें मूर्ख बनाकर चमरौटी को खाली करा लिया। जल्दी चमरौटी पहुँचो।’
चमरौटी में से अहिरान के लोगों के जाते ही एकाएक गुलइची चुपके से प्रकाश के घर में से निकली। उसने अपने दोनों हाथ जोड़ रखे थे और आर्तनाद करते हुए अर्धविक्षिप्त-सी होकर चमरौटी में दौड़ने लगी। ‘दोहाई पंचों! इस बेवा की लाज रखना। मैं अकेले तुम्हारे हक उसूल के लिए राक्षसों से लड़ रही हूं, अपनी जबान पर कायम रहना।’
वह निरंतर दौड़ती जा रही थी। वह हर गली, हर दरवाजे पहुंची। कभी खूँटे से तो कभी किसी जानवर से टकरा कर गिर जाती। फिर फुर्ती से उठती और उसी रफ्तार से दौड़ने लगती। उसकी पुरानी साड़ी जगह-जगह से फट चुकी थी। उसके खुले गंदे बाल हवा में लहरा रहे थे। उसका यह रूप और रुदन देखकर चमरौटी के कलेजे में हाहाकार मच गया। सभी लोग भौंचक होकर उसे देख रहे थे। किसी के मुँह से कोई बोल नहीं फूट रहा था। अभी तक जो लड़के नशे में राजन की जयकार कर रहे थे, वे गुलइची काकी जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। उनके घर वाले दौड़कर उनका मुँह बंद करने लगे।
गुलइची चमरौटी से निकल कर उसी तरह से गुहार लगाते हुए परजौटी पहुँची। उसके बाद बबुआन के हर घर की चौखट पर माथा पीट-पीटकर चिल्लाई, ‘मालिक! मैं आपकी प्रजा होकर आपकी आबरू को वापस लाने के लिए शैतानों से लड़ रही हूँ। अपना धरम निभाना मलिकार।’
वहां मर्द तो पहले से ही घर के बाहर खड़े थे। गुलइची की चीत्कार सुनकर घर की औरतें भी निकल कर बाहर आ गईं। रात के सन्नाटे में गुलइची का करुण विलाप सभी को अंदर तक झिंझोड़ रहा था। वह प्रभाकर बाबू के चौखट पर भी गई। उनके घर में छोटे भैया सोए थे। गुलइची की आवाज सुनते ही उनका पूरा शरीर सुन्न हो गया।
बबुआन से निकलकर वह उसी मुद्रा में दौड़ते हुए सीवान में काली चौरा पहुँची। नीम के पेड़ की डाल में बॅंधे पीतल के बड़े-बड़े घंटों को वह जोर-जोर से हिलाते हुए चिंग्घाड़ पड़ी, ‘हे काली मैया, यह बेवा पूरे गाँव के लिए अकेले ही असुरों से लड़ रही है। मुझे आशीर्वाद दो माई, मेरी पीठ पर सवार होकर चलो रण जीतने।’
यह विलाप करके वह बार-बार घंटों को बजाती रही। अहिरान को छोड़कर पूरा गाँव उसके पीछे आ गया था। टार्च की रोशनी से पूरा काली चौरा दमक रहा था। एकाएक गुलइची ने मूर्ति के हाथ से खंजर खींच लिया। खंजर को हवा में लहराते हुए वह घंटों के संगीत पर थिरकने लगी। यह दृश्य बेहद डरावना हो गया। गाँव वालों ने मान लिया कि अब वह पागल हो गई है।
गुलइची चबूतरे पर से नीचे कूदी और हवा में खंजर लहराते हुए भीड़ को चीरकर गांव-समाज की जमीन की तरफ दौड़ी, ‘धरती मैया मैं आ रही हूं, मैं तुम्हें चोरों के चंगुल से छुड़ाऊॅंगी।’
गांव के लोग उसके कुछ पीछे आकर ठहर गए। गुलइची उसी तरह से चीखती हुई गांव-समाज के खेत में पहुंची। खेत में गेहूँ की फसल लहलहा रही थी। वह खेत में चीखते हुए दौड़ने लगी, ‘हे धरती मैया, थोड़ा और सब्र करो। मैं तुम्हें चोरों के चंगुल से छुड़ाकर जल्द ही वापस ले चलूँगी। तुम्हारे बच्चे निवाले के लिए तरस रहे हैं। मुझे आशीर्वाद दो माई…..।’
पूरा अहिरान सीवान की सीमा पर चुपचाप खड़ा था। गुलइची का आर्तनाद सुनकर सबका कलेजा बैठ गया। बड़े भैया भी अपने पत्नी के साथ छत पर खड़े होकर सब कुछ देख रहे थे। एकाएक उनके अंदर का अपराधी जाग उठा लेकिन तुरंत शांत भी हो गया। बिचले भैया पहली मंजिल के कमरे में सोए थे। उनके कानों में गुलइची की आवाज पहुंची। वह चौंक कर उठ बैठे। वह समझने की कोशिश करने लगे। एकाएक वह खूँटी पर टॅंगी कटार खींचकर भद्दी गाली देते हुए चीखे, ‘‘मैं आ रहा हूँ। आज तुझे जिंदा नहीं छोड़ूँगा।” वह दरवाजे की तरफ लपके तो उनकी पत्नी उनकी कमर पकड़कर झूल गई। वह चीख-चीखकर अपने को छुड़ाने लगे। बडे़ भैया चिल्लाए, ‘रोको उसे। वह घर के बाहर न निकलने पाए।’राजन की मां दौड़ते हुए घर के बाहर निकली और सदर दरवाजे को बाहर से बंद कर दिया। बिचले भैया पत्नी से छुड़ाकर नीचे दौड़े। दरवाजा बाहर से बंद देखकर वह उसे पैर से पीटने लगे। दरवाजे की धड़-धड़ की आवाज पूरे अहिरान में गूँज उठी। जब दरवाजा नहीं टूटा तो वह दौड़कर पहली मंजिल पर गए और वहीं से उन्होंने हवा में छलांग लगा दी। वह कटार को लहराते और गुलइची को ललकारते हुए लोगों के बीच से सीवान की तरफ दौड़े। बडे़ भैया छत पर से ही चिल्लाए, ‘पकड़ो, उसे पकड़ो।’
अहिरान ने उन्हें घेर लिया। बिचले भैया पागलों की तरफ कटार भांजने लगे। उनका यह रूप देख सभी लोग डरकर पीछे हट गए। वह गुलइची को गाली देते हुए गांव-समाज के खेत की तरफ दौड़े।
गुलइची चुपचाप गेहूं के खेत के किसी कोने में दुबक गई।
सीवान के एक छोर पर अहिरान और दूसरे छोर पर बाकी सारा गाँव चुपचाप खड़ा होकर किसी अनिष्ट का इंतजार कर रहा था। बिचले भैया खेत में इधर-उधर दौड़कर गुलइची को ढूंढने लगे, ‘आ सामने आ, लक्ष्मी बाबू की रखैल। आज तेरे खून से इस धरती को लाल कर दूंगा।’यह मंजर काफी देर तक चला, लेकिन गुलइची नहीं मिली। धीरे-धीरे बिचले भैया का गला और पैर जवाब देने लगा। वह निढ़ाल होकर खेत में ही पसर गए। राजन अपने समर्थकों के साथ चमरौटी से भागकर आ गया। छोटे भैया और प्रभाकर बाबू भी आ गए। खेत में जाकर लोग बिचले भैया को दरवाजे पर ले आए। वह अब भी मरी हुई आवाज में गुलइची को गाली दे रहे थे। राजन ने एक लड़के को इशारा किया। उसने अपनी जेब से देशी दारू की बोतल निकाली और उसका ढक्कन खोलकर उसे बिचले भैया के मुंह से लगा दिया।
पूरा दरवाजा अहिरान से खचाखच भरा हुआ था। वहां की बातों से ऐसा लग रहा था कि मानो बिचले भैया कोई किला फतह कर आए हों। लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे। मंगरू अहीर एक गूढ़ बात बोले, ‘पंचों, झुट्ठी-जुट्ठी दोनों जाति एक हो गई है।’
इसका क्या मतलब हुआ काका ?’
झुट्ठी का मतलब सोबरन और जुट्ठी का मतलब परजा।’ मंगरू समझाते हुए बोले, ‘आदिकाल से ई सोबरन लोगों ने अपना जूठा खिलाकर इन्हें अपने बस में कर लिया है। ई परजा लोग उनके जूठन के बिना बहुत दिन तक रह ही नहीं सकते।’
दरवाजे पर तेज ठहाका लगा। प्रभाकर बाबू मुस्करा कर रह गए। अभी हॅंसी-मजाक का तेज शोर हो ही रहा था कि सीवान के बबुआन छोर से गुलइची की तेज आवाज उभरी, ‘हे धरती मैया, मैं फिर आऊंगी। तुम्हें मुक्त कराकर ही मैं दम लूंगी।’
बड़े भैया के दरवाजे पर सन्नाटा छा गया। चारपाई पर लेटे हुए बिचले भैया एक झटके से उठकर खड़े हो गए। छोटे भैया ने आँख तरेर कर बैठने का इशारा किया तो वह चुपचाप बैठ गए। सभी लोग आवाज की दिशा में देखने लगे। गुलइची चीखते हुए दौड़ी जा रही थी और बबुआन छोर पर चुपचाप खड़ी सैकड़ों की भीड़ में समा गई। भीड़ में किसी ने गला फाड़कर नारा लगाया- गुलइची काकी जिन्दाबाद। उस नारे में समूची भीड़ शामिल हो गई। नारों की आवाज निरंतर तेज होने लगी और धीरे-धीरे वह बबुआन की तरफ बढ़ गई। नारों की आवाज सुनते ही पूरा अहिरान प्रतिरोध की आग में झुलस उठा। बूढ़े-जवान सभी तिलमिला गए। एक लड़का जोर से चिंग्घाड़ पड़ा, ‘बड़े भैया जिंदाबाद।’
दोनों तरफ से नारे लगने शुरू हो गए। जो रात के सन्नाटे को चीरकर अगल-बगल के गाँवों तक गूँजने लगे। एक लड़के ने जोश में आकर छोटे भैया को अपने कंधे पर उठा लिया और बबुआन की तरफ चल दिया। पूरा अहिरान उसके पीछे हो गया। दरवाजे पर सिर्फ बड़े भैया, बिचले भैया और औरतें-बच्चे बचे। भीड़ नारा लगाते हुए तेजी से बबुआन की तरफ बढ़ रही थी। गुलइची का जुलूस बबुआन पार करके परजौटी होते हुए चमरौटी पहुँच चुका था।
बबुआन पहुँचकर छोटे भैया कंधे से नीचे उतर गये। वह लक्ष्मी बाबू और पुरुषोत्तम बाबू के घर को छोड़कर सभी दरवाजे पर गए और बेहद आत्मीयता से सबका पैर छूकर उन्होंने आशीर्वाद लिया। सभी लोग आगे बढ़कर उनसे हॅंसते हुए मिले और निश्चिंत रहने का आश्वासन भी दिया। लक्ष्मी बाबू और पुरुषोत्तम बाबू के दरवाजे पर काफिले ने रुककर खूब नारेबाजी की। इसके बाद लोग परजौटी में घुसे। छोटे भैया ने ख्याल किया कि बबुआन और परजौटी के तमाम लोग नहीं दिखाई दे रहे। उनके घर वालों से पूछने पर पता चला कि वे सो रहे हैं।
परजौटी से निकल कर जुलूस जब चमरौटी की तरफ मुड़ा तो गुलइची का जुलूस शांत हो गया। लोग इधर-उधर बिखरने लगे। गुलइची अकेले ही चुपके से बबुआन लौट आई। चमरौटी के लोग सहजू, ललसू और राकेश के साथ इकट्ठा होकर बड़े भैया जिंदाबाद के नारे लगाने लगे और आगे बढ़कर जुलूस की अगवानी करने लगे। एक बार फिर चमरौटी देशी दारू की बोतलों से पट गई।
जुलूस खत्म होते-होते सुबह हो गई। सभी लोग थककर चूर थे, लेकिन सुनिश्चित जीत को लेकर काफी उत्साहित भी थे। सभी लोगों को कुछ जरूरी सुझाव देकर अतिशीघ्र तैयार होकर बूथ पर पहुँचने को कहा गया।
सभी लोग तैयार होने के लिए चले गए। दरवाजे पर सिर्फ बड़े भैया बचे थे। उनकी निगाह दुक्खल अहीर के दरवाजे पर टिक गई। वह बड़े भैया के सबसे छोटे चाचा थे और गांव में छोटी सी कास्त के सहारे परिवार चला रहे थे। उनका एक बेटा शहर में नौकरी करता था और एक साथ में ही रहकर हाथ बॅंटाता था। उनसे अलगौझा हुए करीब 35 साल हो चुके थे। बड़े भैया का धनबल, जनबल बढ़ा तो उन्होंने उसका उपयोग सबसे पहले चाचा पर किया और लाठी के बल पर उनके हिस्से की आबादी वाली आधी जमीन को अपने कब्जे में कर लिया। तब से लेकर आज तक उनसे बोलचाल, खाना-पीना बंद ही है। उनके घर में सात वोट हैं। बड़े भैया को लगा कि पुराने दिन बीत चुके हैं। यदि वह अकेले में माफी मांग लें तो हो सकता है कि वे उन्हें माफ कर देंगे और सातों वोट उन्हें मिल जाएंगे।
बड़े भैया दुक्खल के दरवाजे की तरफ बढ़ गए। दुक्खल भैंस दुह रहे थे और उनकी पत्नी गमछे से मक्खी उड़ा रही थीं। बड़े भैया चुपके से पीछे जाकर खड़े हो गए। कुछ देर तक खड़े रहने के बाद उन्होंने धीरे से खॅंखारा। पति-पत्नी दोनों चौंककर पीछे घूमे। बड़े भैया को देखते ही उनके शरीर में आग लग गई। मगर वे कुछ बोले नहीं, नजर फेर ली।
‘काका! मैं माफी माँगने आया हूं।’बड़े भैया ने हाथ जोड़कर रुआंसी आवाज में कहा। ‘‘आज हमारी इज्जत दाँव पर लगी हुई है।” इतना सुनते ही दोनों परानी अगिया बैताल हो गए। दुक्खल गला फाड़कर चिल्लाए, ‘हमारे दरवाजे से भाग जा। भुक्खल के दामाद….। नहीं तो तेरी सारी इज्जत…. अभी तेरी बिटिया…..?’
दुक्खल की पत्नी चिल्लाई, अरे, ‘मूसर ला रे। इ मुंहझौंसे का थूथुन थूर दूं। मोरे बेटवा को अधमरा करके छोड़ा। आज आया है माफी मांगने। थू..थू..थू..।’
अचानक शोर सुनकर भैंस बिदक गई और बाल्टी का दूध जमीन पर पसर गया। दुक्खल लाठी लाने के लिए घर में दौड़े और उनकी पत्नी लगातार बड़े भैया को दुत्कारने लगी।
बड़े भैया चुपचाप गर्दन झुकाकर वापस लौट आए।
बड़े भैया की तरफ से पोलिंग पार्टी की खास मेहमान की तरह खाने-पीने की बेहतरीन व्यवस्था की गई थी। शाम से ही बड़े भैया ने अपनी देख-रेख में उनके सेवा-सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। जिसने जो भी फरमाइश की, उसकी तुरंत व्यवस्था की गई। सभी को खिलाने-पिलाने के बाद सबकी जेब में एक-एक हजार रुपये भी डाल दिए गए। रात में घर लौटते समय बड़े भैया उन्हें मुस्कराते हुए एक हल्की धमकी देना नहीं भूले, ‘‘देखिएगा, चुनाव के बाद आप में से किसी के साथ सत्ता का दुरुपयोग न करना पड़े।”
छोटे भैया ने गांव के बाहर के लड़कों को घर पर ही रुकने के लिए कह दिया और अपने साथ घर व अहिरान के लड़कों को लेकर बूथ पर पहुंचे। उनके घर के सभी लड़के सफेद ड्रेस में थे। उनकी आँखों पर काला चश्मा और माथे पर सफेद गमछे की पगड़ी थी। वे बूथ पर पहुंच कर क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों की तरह मैदान में बिखर गये।
राजन मतदान अभिकर्ता का फार्म भर ही रहा था कि गुलइची भी वंसू को लेकर पहुंची। उसे देखते ही सभी के चेहरे पर तनाव फैल गया। सभी लोग उसे घूरने लगे। गुलइची किसी की परवाह किए बिना वंसू का फार्म भरवाने लगी। वह पुरुषोत्तम बाबू के ट्रैक्टर का चालक था । फार्म पर दस्तखत करते समय उसका हाथ काँप रहा था। वह किसी से नजर भी नहीं मिला पा रहा था। फार्म भर जाने के बाद गुलइची गाँव चली गई।
छोटे भैया ने वंसू को अपने पास बुलाया। उसे घूरते हुए बोले, ‘दस साल पहले तेरे बाप की बीमारी में मेरे सात हजार रुपये लगे थे। मेरे सूद के हिसाब से आज वह सत्तर हजार हुआ। कल सुबह तक उसे मुझे वापस कर देना। नहीं तो काली चौरा वाला तुम्हारा खेत मैं कब्जा कर लूंगा।’
वंसू थर-थर काँपने लगा। उसकी घिग्घी बॅंध गई। वह हाथ जोड़ रुआंसा होकर बोला, ‘चाचा, मुझे पुरुषोत्तम बाबू ने जबर्दस्ती भेजा है। यदि नहीं आता तो वह बंटाई वाली जमीन मुझसे वापस ले लेते और मेरी बकाया मजदूरी भी नहीं देते। मुझे आप अपना ही आदमी समझें। आप जैसा कहेंगे वैसा ही करूंगा।’
‘ठीक है। चल तू मुझे दिखाकर वोट दे दे।’वह झट से अंदर गया। बैलेट पेपर पर मुहर लगाकर उसे छोटे भैया को दिखा दिया।
वंसू के वोट के साथ ही मतदान शुरू हो गया। छोटे भैया ने पुरुषोत्तम बाबू के तथा घर के सभी लड़कों ने बबुआन के लड़कों के नाम पर वोट डाले। अहिरान के लड़के परजौटी-चमरौटी के घर के सदस्य बन गए। मतदानकर्मी चुपचाप अपना काम कर रहे थे। वे किसी से पहचान पत्र भी नहीं मांग रहे थे।
वंसू की माँ दौड़ती हुई आई और उसका बाल पकड़ कर खींचते हुए बोली, ‘पूरे गाँव में एक तू ही वीर बचा है जो आकर गुलइची का एजेंट बना। अपने बेटवा को उसने दिल्ली में छिपाकर रखा है और यहाँ मेरे लड़के को सूली पर चढ़ा दिया।’
वंसू चुपचाप घर जाने लगा। छोटे भैया के सामने उसकी मां हाथ जोड़कर बोली, ‘मैं माफी चाहती हूँ बाबू। मैं आपसे अलग नहीं हूँ।’
‘जाओ अपना वोट देकर राजन को दिखा देना।’
उस उसके बाद दुक्खल वोट देने के लिए कमरे में घुसे। वह मतपत्र और मुहर लेकर वहीं खड़े होकर बड़े भैया के चुनाव निशान को घूरने लगे। उन्हें अचानक वह दिन याद आने लगा जब उनके दरवाजे पर बड़े भैया अपने भाइयों के साथ उनके बड़े बेटे को लाठियों से पीठ रहे थे और वह अपने पूरे परिवार के साथ रो-रोकर उसकी जान की भीख माँग रहे थे, लेकिन भैया को तनिक भी दया नहीं आई। बेमुरव्वत ने उनके बेटे को लाठी से पीटकर अधमरा कर दिया था।
उस समय की याद आते ही दुक्खल की आंखों में खून उतर आया। उनका बदन क्रोध से काँपने लगा। चुनाव चिह्न की जगह उन्हें बड़े भैया की छाती नजर आने लगी और दाहिने हाथ की मुहर खंजर में बदल गई। उन्होंने मतपत्र को मेज पर रख दिया और आंख मूंद दाँत भींचकर खंजर को बड़े भैया के कलेजे में उतार दिया। इस दृश्य को देखकर छोटे भैया दंग रह गए। दुक्खल ने उनके मुंह पर मतपत्र फेंका और कमरे से बाहर निकल गए ।
अभी बबुआन से कोई वोट देने नहीं आया था। परजौटी-चमरौटी से इक्के-दुक्के बूढ़े धीरे-धीरे आना शुरू किए थे, जिन्हें देखते ही बड़े भैया के घर के लड़के उन्हें क्रिकेट की बाल की तरह लपक लेते। उनका हाथ पकड़कर समझाते हुए बूथ के अंदर ले जाते और कर्मचारियों से कहते, ‘देखिए, यह हमारे काका हैं। इनको कम दिखाई देता है, इनका वोट हम डालेंगे।’वह कुछ बोल नहीं पाता और उसका वोट पड़ जाता।
कुछ देर तक इसी तरह से चला। यह नजारा देखकर कुछ लोग वापस चले गए। पूरे गाँव में चर्चा फैल गई कि वंसू बूथ पर से भाग गया है और खूब धड़ल्ले से फर्जी वोटिंग हो रही है। यह सुनते ही गुलइची चमरौटी में से निकलकर बेहताशा दौड़ती हुई बूथ पर पहुँची।
बूथ के दरवाजे पर अहिरान की औरतों की लंबी कतार लगी हुई थी। बड़े भैया बूथ के अंदर कुर्सी पर बैठे हुए थे। गुलइची हाँफते हुए उनके बगल में जाकर खड़ी हो गई। वह कुछ देर तक चुपचाप खड़ी होकर देखती रही। एकाएक वह बिफर पड़ी। हे बाबू, वोट दिलाने का यह कौन-सा तरीका है ? मैं देख रही हूँ कि किसी के पास पहचान का कोई कागद नहीं है और न ही तुम किसी का नाम ही बोल रहे हो।’
किसी ने कुछ नहीं बोला। मतदान उसी तरह से होता रहा। जब अलगू अहीर की शादीशुदा लड़की बैलेट पेपर लेने पहुंची तो गुलइची ने कर्मचारी का हाथ पकड़ लिया, ‘इस तरह से नहीं होगा बाबू। पहले तुम इसका नाम बताओ।’
दूसरे कर्मचारी ने बोल दिया, ‘फूलमती पत्नी गोकुल।’
‘हे भगवान! गुलइची अपना माथा पीटकर चिल्लाई, ‘यह तो मेरे बहू-बेटा का नाम है। यह तो अनर्गल हो रहा है। इस तरह से मैं वोट नहीं डालने दूंगी।’
उसने झपट कर बैलेट पेपर की गड्डी उठा ली और अपने सीने में छिपाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ‘जब तक बड़े साहेब लोग नहीं आएंगे, तब तक मैं वोट नहीं डालने दूंगी।’
उसका शोर सुनकर लोग कतार छोड़कर बूथ के दरवाजे पर इकट्ठा हो गए। पुलिस वालों ने लाठी पीटकर सभी लोगों को हटाया। वोटिंग बंद हो गई। बड़े भैया और उनके परिवार के लोग चुपचाप देखते रहे। कर्मचारियों ने गुलइची को समझा कर किसी तरह से वापस किया। बड़े भैया ने राजन को इशारा किया। राजन ने झपट कर गुलइची का बाल पकड़ा और खींचते हुए उसे बूथ के बाहर पटक दिया। गुलइची कलेजा फाड़कर रोती हुई उठी और बूथ के अंदर वापस जाने लगी। राजन ने उसे फिर पकड़ा और उसके चेहरे पर एक जोरदार थप्पड़ मारा। गुलइची गिर गई। उसकी दाहिनी आंख में खून उतर आया और होंठ कट गया, जिससे खून की धारा बहने लगी। वह पल भर के लिए अचेत हो गई। यह देखकर वहाँ मौजूद लोग सकते में आ गए। गुलइची एकाएक उठ बैठी। उसने हाथ से होंठ को पोंछा। उसका हाथ खून से रंग गया। वह एक झटके से उठी और पागलों की तरह हलक फाड़कर चिल्लाते हुए चमरौटी के तरफ भागी, ‘अरे तुम लोग किस माटी के बने हो। तुम लोग तो इस बेवा से भी गए गुजरे निकले। तुम्हारी जमीन लुटी, तुम चुप रहे। आज वह तुम्हारा वोट लूट रहा है। तब भी तुम लोग चुप हो। जब कल तुम्हारी बहन बेटी की इज्जत लूटेगा, क्या तब बोलोगे ?’
जो जहां था वह वहीं से गुलइची के पीछे चल दिया। वह चमरौटी से निकल कर सीधे बबुआन पहुंची और लक्ष्मी बाबू के पैर पर भहरा कर गिर गई। छाती पीट-पीटकर उनसे गुहार लगाने लगी।
देखते ही देखते लक्ष्मी बाबू के दरवाजे पर भारी भीड़ इकट्ठा हो गई। भीड़ ने लक्ष्मी बाबू को घेर लिया। गुलइची की दशा देखकर हर किसी का कलेजा सुलग उठा। भीड़ में से आवाज आने लगी।
‘अब तो इस बेचारी के साथ अनर्गल हो रहा है।’
‘यह तो पूरे गाँव के साथ सरासर गुंडई हो रही है।’
‘जमीन हड़प कर उसका मन ज्यादा बढ़ गया है।’
‘बबुआन का पानी सूख गया क्या ?’
‘ठाकुर साहब कुछ कीजिए। कुछ कीजिए ठाकुर साहब!’
लक्ष्मी बाबू ने हाथ उठाकर सबको शांत किया, ‘तुम लोग मुझे आधे घंटे का समय दो, मैं कुछ सोचता हूँ।’इतना कहकर वह घर के अंदर चले गए।
बूथ पर उसी तरह से फर्जी वोटिंग हो रही थी। वहां अहिरान के सिवाय कोई नहीं था। अब तक लगभग एक तिहाई वोट पड़ चुके थे। उसी समय पुलिस की पाँच गाड़ियाँ हूटर बजाते हुए आईं। उसके पीछे पैरामिलिट्री जवानों की एक ट्रक भी थी। जवानों ने पूरे मैदान को घेर लिया। जो लोग कतार में नहीं थे, उन्हें वे दौड़ा-दौड़ा कर पीटने लगे। बूथ पर भगदड़ मच गई। बड़े भैया और उनका पूरा परिवार अपने समर्थकों के साथ भागकर सड़क पर आ गया। पुलिस वालों ने कतार को चेक किया। उसमें से आधे से ज्यादा के पास पहचान पत्र नहीं था। कुछ लोगों की उॅंगली में स्याही भी लगी हुई थी। पुलिस ने उन्हें कतार से खींचकर पीटते हुए ट्रक में बैठा लिया। बूथ पर सन्नाटा पसर गया।
बूथ से काफी दूर सड़क पर बड़े भैया अपने लोगों के साथ चुपचाप खड़े थे। सबके चेहरे मुरझाए हुए थे। किसी के पास बोलने के लिए कुछ नहीं था। उसी समय चमरौटी की तरफ से शोर उभरा। सभी लोग चौंककर उधर देखने लगे।
एक लंबा कारवां चला आ रहा था। सबके आगे लक्ष्मी बाबू थे। उनके बगल में पुरुषोत्तम बाबू। इसके बाद बबुआन के मर्द और औरतें थीं। उन लोगों से थोड़ी दूरी पर गुलइची अपने सिर पर ईख की पत्ती का बोझ लादकर चली आ रही थी। उसके पीछे पूरी चमरौटी और परजौटी नारा लगा रही थी।
गुलइची ने थोड़ी दूर आकर सड़क के किनारे बोझ पटक दिया और उसमें आग लगा दी। ईख की पत्ती होलिका की तरह जल उठी। गाँव के लोग रात में बॅंटे हुए कपड़ों को उसमें डालने लगे। होलिका की लपटें बड़े भैया को मुंह चिढ़ाने लगीं।
लक्ष्मी बाबू ने इस होलिका को मुड़कर भी नहीं देखा। वह चुपचाप बबुआन के आगे-आगे चले आ रहे थे। पुरुषोत्तम बाबू ने हंसते हुए कहा, ‘काका, गुलइची ने तो कमाल ही कर दिया।’
‘तुम बेवकूफ हो!’ लक्ष्मी बाबू शांत स्वर में बोले, ‘इसे देखकर तुम्हें खुश नहीं होना चाहिए।’
लक्ष्मी बाबू को आते देखकर बड़े भैया नजरें चुराकर अपने समर्थकों के साथ सड़क के किनारे हो गए। लक्ष्मी बाबू उनके सामने रुक गए। वह कुछ देर तक मुस्कराते हुए उन्हें देखते रहे। फिर बहुत ही मीठी आवाज में बोले, ‘देखो, तुम्हारा बाप जिन्दगी पर तुम लोगों का पेट भरने के लिए हमारे यहां दिन में हलवाही और रात में हमारे खेतों की फसल की चोरी करता था। वह फिर भी तुम लोगों का पेट नहीं भर पाया। तुम बड़े होकर चोरी-चकारी करके कुछ संपत्ति बना लिए। इसके बावजूद तुम लोगों का पेट नहीं भरा। जिस खेत की फसल तुम्हारा बाप चोरी करता था, तुम उस खेत को ही चुरा लिए। इसके बाद भी तुम्हारा पेट खाली है। मैं पूरे गांव की जिम्मेदारी तो नहीं ले सकता लेकिन बबुआन के वोटों से तुम्हारा पेट भर जाय तो बोलो मैं सभी का वोट तुम्हें दिला दूं।’
लक्ष्मी बाबू का हर एक शब्द बड़े भैया के कलेजे में जहरीले तीर की तरह चुभ रहा था। वह तिलमिला कर रह गए। उनके अंदर इतना भी साहस नहीं था कि वह नजरें उठाकर लक्ष्मी बाबू के मुस्कराते चेहरे को देख सकें। लक्ष्मी बाबू अपनी सफेद मूछों को सहलाते हुए उन्हें देर तक निहारते रहे। वह आगे बढ़ते हुए बोले, ‘सोच लो, अभी भी कुछ वक्त बचा है।’
बड़े भैया अपने को इतना अपमानित महसूस कर रहे थे कि उनके पूरे शरीर में सुरसुरी उठने लगी। उनकी गर्दन झुकी की झुकी ही रह गई। जब उनकी गर्दन उठी तो देखा कि गांव के हुजूम के आगे गुलइची किसी योद्धा की तरह उन्हें घूरती चली आ रही थी। उसकी दाहिनी आंख और होंठ काफी सूज चुके थे, जिससे एक आँख पूरी तरह से बंद हो गई थी। उसका चेहरा विकृत हो गया था। उसकी दोनों मुट्ठियां हवा में लहरा रही थीं, उसकी इकलौती आँख का भी सामना वह नहीं कर पाए। बड़े भैया की गर्दन एक बार फिर झुक गई। जब कारवां गुजर गया तो उनके गले से मरी हुई आवाज निकली, ‘चलो घर लौट चलें।’वह भारी कदमों से अपने घर की तरफ चल दिए।
हेमंत कुमार
हिन्दी साहित्य के चर्चित कथाकार हैं। इनकी कहानियों में उत्तर भारत के ग्रामीण समाज को उसके बदलाव के साथ देखा जा सकता है।
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