हेमंत कुमार की कहानी – गुलइची

हेमंत कुमार की कहानी – गुलइची

हेमंत कुमार

चैत महीने की चांदनी रात आधी से ज्यादा बीत चुका थी। गेहूं की फसल पक चुकी थी लेकिन अभी कटाई नहीं शुरू हुई थी। चांद की रोशनी में पूरा सीवान चांदी की थाल-सा लग रहा था। बड़े भैया अपनी विशाल कोठी की तीसरी मंजिल की छत से उसी थाल के हिस्से को चुपचाप निहार रहे थे। सीवान के अठारह एकड़ के हिस्से को लेकर गुलइची ने तूफान खड़ा कर दिया है। पूरा गांव अंदर ही अंदर खदबदा रहा है। इस अट्ठारह एकड़ जमीन को बड़े भैया ने अपने राजनैतिक वर्चस्व के बूते चकबंदी में पूरे गांव की जमीन से आबादी के नाम पर कटौती कराकर अपने बीस एकड़ के चक के बीच में करवा लिया। इसका बबुआन ने पुरजोर विरोध किया लेकिन अंत में वे हाथ मल कर रह गये। बड़े भइया को वही जमीन पिछले पंद्रह   दिनों से कब्र के माफिक दिखती। वह रात-बेरात चौंककर उठ जाते और घंटों बिस्तर पर करवट बदल कर जागना पड़ता।

वह अस्सी घरों का अहिरान था। उसी के बीच में बड़े भैया की कोठी थी। अहिरान से एक  फर्लांग उत्तर दिशा में सीवान के उस पार साठ घरों का बबुआन और उसी से सटी चालीस घरों की परजौटी थी। बबुआन से पश्चिम, सड़क के दोनों किनारों पर करीब सौ घरों की चमरौटी थी। चमरौटी के दक्षिण-पश्चिम में नदी के किनारे पलाश के जंगल में बीस घरों की मुसहर टोली थी। पूरे गांव के ऊपर चांदनी कफ़न की तरह तनी हुई थी। सबकी आंखों में बेचैनी, उत्तेजना, सनसनी और दहशत व्याप्त थी। गाँव में चुनाव तो पहले भी हुए थे लेकिन ऐसा खौफनाक मंजर कभी नहीं दिखा था। बड़े भैया ने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे थे। प्रधान से लेकर ब्लाक प्रमुख तक कई चुनाव लड़े। उसमें तमाम दिग्गजों से मुठभेड़ हुई। वह कभी विचलित नहीं हुए। उनका डटकर मुकाबला किया और हमेशा सफल भी हुए, लेकिन अबकी बार एक बेवा गुलइची ने, जिसकी उनके सामने कोई औकात नहीं थी, उन्हें अंदर तक हिला दिया था।

   गाँव में पहले लक्ष्मी बाबू का ही परिवार प्रधान हुआ करता था। ग्राम पंचायत में जबसे आरक्षण की व्यवस्था हुई, पहली बार गांव सामान्य सीट वाला हुआ था। बाबू के सामने कोई चुनाव लड़ने वाला नहीं था। इस समय बड़े भैया न तो माफिया और न राजनीतिज्ञ ही थे लेकिन वह इलाके में उभरते हुए गुंडे और ठेकेदार जरूर हो चुके थे। बड़े भैया ने लक्ष्मी बाबू के मुकाबले चुनाव लड़ा। उस चुनाव में बबुआन को छोड़कर पूरा गांव ही उनके साथ खड़ा हो गया। वह चुटकी बजाकर चुनाव जीत गये। उसके बाद यह सीट हमेशा पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित रही। दूसरी बार से बड़े भैया ने प्रधानी का जिम्मा बिचले भैया को सौंपा और खुद ब्लाक प्रमुख बन बैठे। तब से बिचले भैया ही निर्विरोध प्रधान बनते रहे। इस बार भी वैसा ही लग रहा था। चुनाव की घोषणा होते ही गुलइची के नामक की सुगबुगाहट होने लगी। बड़े भैया ने पहले तो इसे बबुआन की अफवाह मानकर कान न दिया लेकिन इसके दो ही दिनों बाद खबर मिली कि गुलइची घर-घर जाकर आशीर्वाद मांग रही है। वह अहिरान के उन दस घरों में घंटों बैठी थी जिन घरों की आबादी की जमीन चकबंदी में फर्जी ढ़ंग से भैया ने अपने या अपने भाई-भतीजों के नाम करा ली थी।

 बड़े भैया के सामने गुलइची तिनका मात्र थी लेकिन वह तिनका उनके और परिवार के गले की फांस बना हुआ था, जो रात में खाना खाते समय सबके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उनकी ताकत और राजनीति की अभेद्य दीवार में जैसे कोई भारी सुराख हो गया हो और बड़े भैया उसे हरेक से छिपा रहे हों। उनके और बिचले भैया के अलावा एक भाई और थे जिनको लोग छोटे भैया कहते थे। सभी भाइयों को मिलाकर बारह लड़के थे। ये बारहों अलग-अलग तरह के नमूने थे। सभी किसी न किसी सरकारी विभाग में ठेकेदारी करते थे। सबके पास अपने गिरोह थे और उसी गिरोह की इलाके में दहशत थी। इसी दहशत की नींव पर बड़े भैया के साम्राज्य का महल खड़ा था। बिचले भैया को खेती की जिम्मेदारी मिली थी। गांव के लोग उन्हें झगड़े का बेहनौर (नर्सरी) और गाली में डिप्लोमा पास बताते है। घर में वे अकेले नशेबाज हैं लेकिन नशेबाजी में भी इनका एक उसूल है। दिनभर गांजा पीकर सूर्यास्त होने का  इंतजार करते हैं और सूर्यास्त होते ही दारू पर भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़ते हैं। छोटे भैया  के जिम्मे देशी-विदेशी शराब की दस दुकानें और ईंट के तीन भट्ठे थे। वह घर में सबसे गंभीर और चालाक माने जाते। वह बिना मतलब के किसी से बात तक नहीं करते लेकिन मतलब आ जाने पर दिन में पांच बार पैर छूते थे।

खाने की मेज पर बैठे सभी लोग सूरमा ही थे लेकिन गुलइची ने सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ा दी थी। सभी लोग चुपचाप खा रहे थे। घर की बहुएं परोस रही थीं। एकाएक बिचले भैया अपनी थाली के ऊपर झूम-झूम कर अभुवाने लगे। – ‘इसकी मां की… नउकट्टी……….’ दो तीन बार अभुवाने के बाद वह कुर्सी पर सीधे होकर बड़े भैया को घूरने लगे। बड़े भैया ने हाथ के इशारे से उन्हें चुचपाप उठ जाने को कहा। वह थाली में हाथ धोकर गुस्से में खड़े हो गये। एकाएक उनका पैर लड़खड़ाया। वह कुर्सी समेत फर्श पर गिर गये। इस तरह से गिरना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी। इसलिए उन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। उनके अगल-बगल बैठे दोनों लड़के खाना खाकर इत्मीनान से उठे। अपना हाथ धोने के बाद उनका दोनों हाथ पकड़कर उठाये और बरामदे में लाकर बिस्तर पर लिटा दिये।

खाना खाकर सभी लोग अपने-अपने कमरे में चले गये। घर की औरतों ने भी खाने के बाद सदर दरवाजा बंद करके बल्ब बुझा दिया। अंधेरा होते ही सन्नाटा पसर गया। किसी की आंख में दूर-दूर तक नींद नहीं थी। सबकी आंखों के सामने गुलइची नाच रही थी। सबको कोठी के सम्मान की चिंता सता रही थी। बड़े भैया को चुनौती देने की गांव में किसी की हिम्मत नहीं थी। लेकिन चुनौती मिली भी तो गांव की एक बेवा से, जिसके पास जुबान, जजमानी, और पांच बिस्वे जमीन के सिवा कुछ भी न था। बड़े भैया को खूब समझ में आ रहा था कि चकबंदी में हारने के बाद बबुआन उनके खिलाफ गहरा षड्यंत्र रच रहा है।

     बिचले भैया को नशा कम होने की वजह से नींद नहीं आ रही थी। वह बिस्तर पर उठकर बैठ गये। उन्हें दारू की तेज तलब महसूस होने लगी। उनके घर के सामने मंगरू अहीर का घर था। दिन में बिचले भैया उन्हीं के साथ गांजा पीते थे। मंगरू की खांसी की आवाज सुनकर वे तेज आवाज में चिल्लाये ‘मंगरू काका….मंगरू काका, अब इस कोठी का सूरज डूबने वाला है अगर इसे बचाना है तो बड़े भैया से कह दो कि मुझे छुट्टा छोड़ दें, ‘मुझे जेल से आये बहुत दिन हो गये हैं फिर से मेरा मन जेल की रोटी खाने को कर रहा है।’

     घर के अंदर हलचल मच गयी। बड़े भैया भी झटके से उठे और दौड़ते हुए बरामदे में आ गए। उनके पीछे उनकी पत्नी भी दौड़ी आईं। वह दाँत भींचकर उंगली दिखाते हुए गुर्राए – ‘खबरदार! जो कुछ उल्टा-सीधा बोला। जब तक चुनाव खत्म न हो जाय तब तक तुम्हारे मुंह से कुछ भी बदजुबान निकला तो मुझसे बुरा कोई न होगा।’

     बिचले भैया गर्दन झुकाए चुपचाप सुनते रहे। बड़े भैया की पत्नी उन्हें खींचकर घर के अंदर वापस ले गईं और दरवाजा अंदर से बंद कर दिया। बिचले भैया चुपचाप उसी तरह बैठे रहे। बड़े भैया अभी बिस्तर पर लेटे ही थे कि बिचले भैया किसी बिगडै़ल साँप की तरह फुंफकारे- ‘मगरूं काका, मेरा भाई कभी किसी ससुरे से नहीं डरा। आज वह एक नउकट्टी से डर गया… साला..।’

     बड़े भैया तिलमिलाकर बिस्तर पर उठ बैठे। उनकी पत्नी ने उन्हें जकड़कर पकड़ लिया और बोली – ‘आप झूठ ही गुस्सा करते हैं। जब परिवार में छोटे-बड़े का लिहाज ही नहीं रह गया हो तो ऐसे परिवार को कब तक अपने सिर पर ढोएंगे। मैंने आपसे कितनी बार कहा कि अब हमें इनसे अलग हो जाना चाहिए।’

     बड़े भैया ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ पत्नी के गाल पर मारा। वह बिस्तर पर गिरकर सुबक-सुबक कर रोने लगी।

     बिचले भैया लगातार चीख-चीखकर गुलइची को गालियां बके जा रहे थे। उनकी पत्नी उनका मुंह पकड़कर चुप कराने की कोशिश कर रही थी। वह उसे बार-बार झटक दे रहे थे। उनकी पत्नी हारकर अपने कमरे से देसी दारू की बोतल ले आई और उसका ढक्कन खोलकर उनके मुंह में लगा दिया। उन्होंने एक ही सांस में पूरी बोतल खाली कर दी। फिर एक लम्बी डकार लेकर कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहे। फिर बिस्तर पर लेटते हुए बड़े इत्मीनान से बोले, ‘जाओ, तुम भी थकी होगी। चुपचाप सो जाओ।’ इसके थोड़े ही देर बाद उनकी नाक बजने लगी।

     दूसरे दिन सुबह बड़े भैया ने गुलइची को बुलाने के लिए आदमी भेजा। उन्हें उम्मीद थी कि वह तुरंत आएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह बेचैनी से उसका इंतजार करते रहे लेकिन गुलइची का दूर-दूर तक पता नहीं था। घर में बड़े भैया को छोड़कर सिर्फ औरतें थी। सभी लोग अपने काम से सुबह ही घर छोड़कर जा चुके थे। बिचले भैया ट्रैक्टर का इंजन  बनवाने के लिए शहर चले गये थे। बड़ै भैया को भी शहर जाना जरूरी था लेकिन गुलइची के कारण वह घर पर ही रुक गये थे। काफी इंतजार के बाद भी गुलइची नहीं आयी तो वह मन मसोस कर अपने कमरे में चले गये। ठीक दोपहर में गुलइची ने कोठी के सदर दरवाजे की साँकल खड़खड़ाई – ‘दुलहिन।’

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जो जहां था वह वहीं से गुलइची के पीछे चल दिया। वह चमरौटी से निकल कर सीधे बबुआन पहुंची और लक्ष्मी बाबू के पैर पर भहरा कर गिर गई। छाती पीट-पीटकर उनसे गुहार लगाने लगी।

     देखते ही देखते लक्ष्मी बाबू के दरवाजे पर भारी भीड़ इकट्ठा हो गई। भीड़ ने लक्ष्मी बाबू को घेर लिया। गुलइची की दशा देखकर हर किसी का कलेजा सुलग उठा। भीड़ में से आवाज आने लगी।

       ‘अब तो इस बेचारी के साथ अनर्गल हो रहा है।’

       ‘यह तो पूरे गाँव के साथ सरासर गुंडई हो रही है।’

      ‘जमीन हड़प कर उसका मन ज्यादा बढ़ गया है।’

       ‘बबुआन का पानी सूख गया क्या ?’

      ‘ठाकुर साहब कुछ कीजिए। कुछ कीजिए ठाकुर साहब!’

लक्ष्मी बाबू ने हाथ उठाकर सबको शांत किया, ‘तुम लोग मुझे आधे घंटे का समय दो, मैं कुछ सोचता हूँ।’इतना कहकर वह घर के अंदर चले गए।

     बूथ पर उसी तरह से फर्जी वोटिंग हो रही थी। वहां अहिरान के सिवाय कोई नहीं था। अब तक लगभग एक तिहाई वोट पड़ चुके थे। उसी समय पुलिस की पाँच गाड़ियाँ हूटर बजाते हुए आईं। उसके पीछे पैरामिलिट्री जवानों की एक ट्रक भी थी। जवानों ने पूरे मैदान को घेर लिया। जो लोग कतार में नहीं थे, उन्हें वे दौड़ा-दौड़ा कर पीटने लगे। बूथ पर भगदड़ मच गई। बड़े भैया और उनका पूरा परिवार अपने समर्थकों के साथ भागकर सड़क पर आ गया। पुलिस वालों ने कतार को चेक किया। उसमें से आधे से ज्यादा के पास पहचान पत्र नहीं था। कुछ लोगों की उॅंगली में स्याही भी लगी हुई थी। पुलिस ने उन्हें कतार से खींचकर पीटते हुए ट्रक में बैठा लिया। बूथ पर सन्नाटा पसर गया।

बूथ से काफी दूर सड़क पर बड़े भैया अपने लोगों के साथ चुपचाप खड़े थे। सबके चेहरे मुरझाए हुए थे। किसी के पास बोलने के लिए कुछ नहीं था। उसी समय चमरौटी की तरफ से शोर उभरा। सभी लोग चौंककर उधर देखने लगे।

एक लंबा कारवां चला आ रहा था। सबके आगे लक्ष्मी बाबू थे। उनके बगल में पुरुषोत्तम बाबू। इसके बाद बबुआन के मर्द और औरतें थीं। उन लोगों से थोड़ी दूरी पर गुलइची अपने सिर पर ईख की पत्ती का बोझ लादकर चली आ रही थी। उसके पीछे पूरी चमरौटी और परजौटी नारा लगा रही थी।

     गुलइची ने थोड़ी दूर आकर सड़क के किनारे बोझ पटक दिया और उसमें आग लगा दी। ईख की पत्ती होलिका की तरह जल उठी। गाँव के लोग रात में बॅंटे हुए कपड़ों को उसमें डालने लगे। होलिका की लपटें बड़े भैया को मुंह चिढ़ाने लगीं।

लक्ष्मी बाबू ने इस होलिका को मुड़कर भी नहीं देखा। वह चुपचाप बबुआन के आगे-आगे चले आ रहे थे। पुरुषोत्तम बाबू ने हंसते हुए कहा, ‘काका, गुलइची ने तो कमाल ही कर दिया।’

     ‘तुम बेवकूफ हो!’ लक्ष्मी बाबू शांत स्वर में बोले, ‘इसे देखकर तुम्हें खुश नहीं होना चाहिए।’

     लक्ष्मी बाबू को आते देखकर बड़े भैया नजरें चुराकर अपने समर्थकों के साथ सड़क के किनारे हो गए। लक्ष्मी बाबू उनके सामने रुक गए। वह कुछ देर तक मुस्कराते हुए उन्हें देखते रहे। फिर बहुत ही मीठी आवाज में बोले, ‘देखो, तुम्हारा बाप जिन्दगी पर तुम लोगों का पेट भरने के लिए हमारे यहां दिन में हलवाही और रात में हमारे खेतों की फसल की चोरी करता था। वह फिर भी तुम लोगों का पेट नहीं भर पाया। तुम बड़े होकर चोरी-चकारी करके कुछ संपत्ति बना लिए। इसके बावजूद तुम लोगों का पेट नहीं भरा। जिस खेत की फसल तुम्हारा बाप चोरी करता था, तुम उस खेत को ही चुरा लिए। इसके बाद भी तुम्हारा पेट खाली है। मैं पूरे गांव की जिम्मेदारी तो नहीं ले सकता लेकिन बबुआन के वोटों से तुम्हारा पेट भर जाय तो बोलो मैं सभी का वोट तुम्हें दिला दूं।’

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हेमंत कुमार

हिन्दी साहित्य के चर्चित कथाकार हैं। इनकी कहानियों में उत्तर भारत के ग्रामीण समाज को उसके बदलाव के साथ देखा जा सकता है।

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