वर्तमान भारत में आर्थिक नियोजन और उसकी बजटीय व्यवस्था
प्रोफेसर महेश विक्रम
एक विशुद्ध मानवतावादी दृष्टि से देखें तो महात्मा गाँधी की यह बात सही मानी जा सकती है कि दुनिया में प्रकृति ने मनुष्य को इतना कुछ प्रदान किया है कि वह प्रत्येक की न्यूनतम् आवश्यकता को पूरा कर सकता है, परन्तु इतना नहीं कि वह कुछ की भी अतिशय लिप्सा की पूर्ति कर सके। कार्ल माक्र्स ने भी ‘श्रम के अतिरिक्त मूल्य’ के सिद्धान्त के प्रतिपादन के साथ यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि ‘बहुसंख्य उत्पादक मानव समाज की गरीबी का कारण कुछ थोड़े से लोगों के हाथ में दुनिया के अधिकांश आर्थिक स्रोतों और संपदा पर अधिकार ही है, जिसका समान वितरण जरूरी होगा’। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य प्रकृति पर अपनी निर्भरता समाप्त करने की दिशा में लगातार उपकरणों और साधनों का अविष्कार करता आया है और इसीलिये कहा जाता रहा है कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है। परन्तु पूँजी के निर्माण की लालसा में आज वह बाजार के निर्माण की उस अवस्था में पहुंच गया है कि नए-नए अविष्कारों के साथ उसकी आवश्यकताओं ने ही नया नया रूप लेना प्रारम्भ कर दिया और अब यह कहना पड़ रहा है कि अविष्कार भी आवश्यकताओं के जनक होते हैं। इसी का बड़ा दुष्परिणाम यह भी है कि दुनिया के अधिकांश आर्थिक स्रोतों और संसाधनों पर पूंजी और नयी तकनीकि रखने और बनाने वाले कुछ मालिकों और कम्पनियों का कब्जा़ होता गया है और बहुसंख्य मानवता उससे वंचित किए जाते हुए गरीबी और विस्थापन की भयानक त्रासदी का शिकार होती गयी है।
भारत जैसे देशों के लिए यह और भी बड़ी चुनौती है क्योंकि वह औपनिवेशिक दासता के उस लंबे दौर से गुजरे हैं जब औपनिवेशिक शक्तियाँ उनके स्रोतों को चूसते हुए पूंजी और तकनीकि वर्चस्व के एक नए शिखर पर पहुंचने में सफल हो चुकी थीं और अब उनके गुलाम रहे देशों के लिए उन्हीं के रास्ते पर चलकर अपनी सम्पन्नता का निर्माण करना कभी भी संभव नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि वह स्वयं अपने अपने देशों और क्षेत्रों में पूंजी और तकनीक के स्वामियों का ऐसा वर्ग निर्मित करते रहें जो उनके अपने ही देशों में ‘आन्तरिक औपनिवेशीकरण’ का रूप लेता रहे और अपने ही देशज बहुसंख्यकों की नयी गुलामी का निर्माण कर दे। दूसरी ओर साम्यवादी और समाजवादी विचारों के साथ राष्ट्रों के नवनिर्माण के स्वप्न को पूरा करने की दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति तथा ईमानदारी के अभाव में अक्सर राष्ट्रवादी सरकारें अपने गंतव्य से भटकती रहीं हैं जिसने उन देशों में गम्भीर संकट और विडम्बनाओं को जन्म दे दिया है। स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व के महान आदर्शों के विपरीत वहां पूंजी के स्वामियों या उसपर येन केन प्रकारेण अधिकार करने वाले लोगों या उनके संगठनों और धार्मिक पाखण्डों से आम जनता को साधने के लिए सांप्रदायिक विद्वेष का सहारा लेने वाली उनकी समर्थक फासीवादी सरकारों का कब्ज़ा होता गया है। अपनी भौगोलिक स्थिति, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और जनसंख्या के घनत्व एवं बहुरूपता की दृष्टि से हमारा देश भारत आज भयानक अनिश्चितता से ग्रस्त होते हुए एक बड़ी परीक्षा के दौर में फंसा है। ऐसे में हमें बीसवीं शताब्दी के तीसरे चैथे दशक की महान वैश्विक आर्थिक मन्दी के दौर में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट के इन शब्दों को याद कर लेना अच्छा होगा कि जब कोई रास्ता न सूझ रहा हो तो हमें एकदम अपने प्रस्थान बिंदु पर पहुंच कर सोचना प्रारम्भ करना चाहिए। शायद वहीं हमें हमारे जटिल सवालों का उत्तर भी मिल सके।
इस परिप्रेक्ष्य में हमें अपने स्ंविधान में निहित उन नीति निदेशक सिद्धान्तों की ओर देखना आवश्यक होगा जिन्हें हम निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत कर सकते हंै- आर्थिक और समाजवादी, राजनीतिक और प्रशासनिक, न्याय और कानूनी, पर्यावरण, स्मारकों की सुरक्षा। आर्थिक नियोजन की दृष्टि से हमें इसके आर्थिक और समाजवादी पक्ष पर ध्यान देना होगा जिसमे प्रत्येक नागरिक के लिए जीवनयापन के अनिवार्य/पर्याप्त साधनों की उपलब्धता का अधिकार निहित है। इसके लिए भौतिक स्रोतों पर अधिकार एवं नियंत्रण को इस प्रकार संगठित करना ज़रूरी है कि वह सभी के लिए हितकारी हो। यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह सम्पत्ति को कुछ थोड़े से हाथों में केन्द्रित न होने दे। पुरूष और स्त्री दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाना सुनिश्चित हो। कुछ अन्य महत्वपूर्ण नीति निदेशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत सभी बच्चों के स्वस्थ्य विकास के लिए अवसरों और सुविधाओं के प्राविधानों का निर्माण, चैदह वर्ष की आयु तक सभी को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था तथा अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य कमजोर तबकों के शैक्षिक एवं आर्थिक विकास/उत्थान के लिए आरक्षण या अन्य उपक्रम अपेक्षित हैं।
वर्तमान भारत में आर्थिक नियोजन और उसकी बजटीय व्यवस्था पर विचार करके हम इसके कुछ सूत्र तलाश कर सकते हैं। सर्वप्रथम हमारे नीति निदेशक सिद्धान्तों के अनुसार हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिएं इसे भी यहां समझ लेना उचित होगा। तदनुसार-
1. सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य संरक्षा के समान अवसर और सुविधाएं जो सार्वजनिक क्षेत्र में ही संभव थीं जिसमें जनसंख्या के घनत्व के अनुरूप प्राथमिक, द्वितियक एवं उच्चस्तरीय चिकित्सालयों की व्यवस्था निहित होती।
2. सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के समान अवसर जो सार्वजनिक क्षेत्र में ही संभव थे। तदनुसार जनसंख्या के घनत्व के अनुरूप प्राथमिक, द्वितियक एवं उच्चस्तरीय शिक्षण संस्थाओं का निर्माण अपेक्षित था।
3. सभी वयस्क नागरिकों के लिए जीवनयापन एवं उपार्जन के उपयुक्त रोजगार के अवसर। 4. असहाय एवं असमर्थ लोगों के लिए भोजन, वस्त्र और आवास की व्यवस्था के उपरान्त ही किसी प्रकार की सापेक्षिक लक्ज़री की सुविधा।
अ. जीवनयापन तथा कृषि एवं अन्य क्षेत्र, कारीगरी आदि, में उत्पादन के न्यूनतम मूल्य/लागत को ध्यान में रखते हुए वेतन/मूल्य का निर्धारण।
ब. श्रमिकों को सम्मानजनक पारिश्रमिक उपलब्ध कराना।
स. जीवनोपयोगी आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं यथा खाद्यान्न आदि के बाजार मूल्य का नियमन एवं नियंत्रण। द. कार्यकुशलता, क्षमता, परिश्रम, व्यवस्थापन आदि के आधार पर पारिश्रमिक अथवा प्रतिलाभों के बीच सम्यक अन्तर रखना तथा वास्तविक/मूल उत्पादकों/कारीगरों और बिचैलियों के बीच मुनाफे के अन्तर का नियमन
5. एकाधिपत्यों एवं बड़े व्यावसायिक संगठनों पर नियंत्रण। देश की सम्पदा और स्रोतों का सम्यक वितरण। छलावायुक्त एवं सतही वित्तीय कारोबार पर रोक।
आजादी मिलने के बाद से लंबे काल तक हमारी सरकारें इसे आधारभूत सिद्धान्त मानते हुए इस दिशा में प्रयास करती दिखीं भी। जमीनी तौर पर इसमें कुछ प्रगति भी दिखायी दी। परन्तु समस्याओं के परिमाण, जटिलताओं, अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों, अपेक्षित इच्छाशक्ति की कमी आदि विभिन्न कारणों से यह न तो पूरी तरह समाजवादी दिशा की ओर बढ़ सकी और न हीं पूँजीवादी लालसाओं को पूरा करती दिखी। इसी बीच हमारे देश में नई अपेक्षाओं और लालसाओं से युक्त एक बड़ा मध्यम वर्ग और नयी आकांक्षाओं से युक्त एक विशाल युवा जमात भी पैदा हो गयी जिसे अपनी प्रगति के नए अवसरों की तलाश थी और जो विकसित पश्चिमी देशों की चमक दमक से प्रभावित था। राजनीतिक उठापटक, भ्रष्टाचार और अपराधों के बढ़ते स्वरूप के चलते देश में निराशा का एक नया दौर शुरू हुआ। परिणाम हुआ कि देश ने अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवादी व्यवस्थाओं से समझौता कर लिया और अन्ततः एक पूरी पूंजीवादी सरकार ने देश पर कब्ज़ा कर लिया। इसके चलते निसन्देह निजी क्षेत्र के उद्यमों के विस्तार के साथ कुछ सीमित क्षेत्र और समय के लिए नए प्रकार के व्यवसायों और गुलामी की मानसिकता को बढ़ाने वाले रोजगारों का सृजन हुआ। देश में बड़ी कम्पनियों और कार्पोरेट के कार्य व्यापार को सुविधा पहुंचाने वाले यातायात के साधनों, सड़कों, फ्लाईओवरों आदि के निर्माण तथा मालों, मल्टीप्लेक्सों और नए प्रकार के मेले ठेलों से युक्त एक नई चकाचैंध भी पैदा हुयी। परन्तु दूसरी ओर इसके स्वाभाविक परिणामस्वरूप देश में भयानक असमानताओं और विस्थापन का बड़ा संकट उत्पन्न होता गया।
आज जब हमारी सरकारें देश का वार्षिक बजट तैयार कर रही होती हैं तब उसके निम्नलिखित सन्दर्भ अवश्य होते हैं-
1. अपने संसाधनों की समीक्षा और निर्माण जिसके अन्तर्गत राजस्व के स्रोतों का निर्धारण निहित है। राजस्व के यह स्रोत उत्पादन और निर्माण, व्यापार और वाणिज्य, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर तो होते ही हैं, इसके साथ राज्य के प्राकृतिक स्रोतों/संसाधनों/संपदा आदि को निजी क्षेत्र के संगठनों को लीज़ पर देना या बेचना और अपने स्वयं के खजाने से ऋण लेना एवं आम जनता को ऋणपत्र बेचना आदि सभी कुछ शामिल है।
2. अपने निर्यात और आयात के सापेक्ष अन्य देशों से उधार पर वस्तुएं एवं संसाधनो की आपूर्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से ऋण लेना और तदनुसार अपने ‘बैलेंस आॅफ पेंमेंट’ का निर्धारण करना।
3. आधारभूत एवं सुपर स्ट्रक्चर का निर्माण जिसमें सड़क, रेल, नदी, समुद्र एवं वायु परिवहन की व्यवस्थाएं, जल आपूर्ति एवं ऊर्जा के स्रोतों आदि का निर्माण सम्मिलित है।
4. समाज-कल्याण के उपक्रम जिसके अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य और असमर्थों के लिए रोजगार के अवसर तथा भोजन एवं आवास की सुविधा उपलब्ध कराना अपेक्षित है।
5. राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा या प्रतिरक्षा की व्यवस्था।
6. विज्ञान एवं तकनीकि क्षेत्र का विकास जिसमें आधुनिकतम् कम्यूटर से लेकर अन्तरिक्ष विज्ञान और यानों तक का निर्माण आदि सम्मिलित है।
परन्तु व्यवहारतः वह निम्नलिखित प्राथमिकताओं तक ही सीमित दिखाई देती हैं-
1. सभी नागरिकों की स्वास्थ्य संरक्षा के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार और उसकी गुणवत्ता में सुधार के बजाय उसे पीपीपी या अन्य तरीके से निजी क्षेत्र को सौपना। कमजोर तबकों को इलाज के खर्च में राहत देने के नाम पर भी निजी क्षेत्र के मुनाफे को सार्वजनिक व्यय से सब्सिडियों द्वारा संरक्षित करना।
2. सार्वजनिक क्षेत्र में शि़क्षण संस्थाओं- स्कूलों, कालेजों, संस्थानों आदि के विस्तार के बजाय पीपीपी या अन्य माध्यमों से निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देना। बच्चों को मुफ्त तथा गुणवत्ता युक्त शिक्षा की सार्वजनिक व्यवस्था की बजाय निजी क्षेत्र को नाममात्र के लिए उसकी आंशिक जिम्मेदारी देते हुए उन्हें सार्वजनिक व्यय से संरक्षित करना। सार्वजनिक स्तर पर वजीफ़े, स्कॉलरशिप आदि को कम या समाप्त करते हुए छात्रों पर बैंकों से ऋण का बोझ डालना।
3. प्राथमिक उत्पादकों- किसानों, कारीगरों, वन्य पदार्थ आपूर्ति करने वाले आदिवासियों, श्रमिकों आदि को संरक्षण की बजाय निजी क्षेत्र की कम्पनियों के उनके क्षेत्र में प्रवेश को प्रोत्साहित और संरक्षित करना।
4. वस्तुओं के मूल्य और बाजार के नियमन की बजाय बिचैलियों और बाजारी वस्तुओं के निर्माताओं, कम्पनियों को अपने मुनाफे की खुली छूट देना।
5. सार्वजनिक स्रोतों एवं सम्पत्ति- जल (नदी, तालाब, समुद्र), जंगल, जमीन, खदान और उद्यमों/उपक्रमों- यातायात, ऊर्जा के स्रोतों के निर्माण आदि और यहां तक कि ऐतिहासिक स्मारकों/धरोहरों को भी निजी क्षेत्र के हवाले करना और उन्हें उस पर मुनाफा कमाने की छूट देना।
6. आभासी वित्तीय कारोबार, शेयर मार्केट आदि को प्रोत्साहित करना।
7. उत्पादन और मांग तथा आयात-निर्यात के असन्तुलन के कारण आन्तरिक एवं वैदेशिक ऋणों पर निर्भरता का बढ़ना।
8. प्राथमिक उत्पादकों- किसानों, कारीगरों, श्रमिकों की दयनीय आर्थिक स्थिति में सुधार और उन्हें अपनी आय के बल पर आत्मसक्षम बनाने के बजाय देश की बहुसंख्यक जनता को मुफ्त राशन और सतही आर्थिक सहायता के बल पर जीवित रखने के उपाय करना।
9. समाज-कल्याण की अधिक व्यावहारिक योजनाओं और कार्यक्रमों पर व्यय में कटौती या उन्हें बंद करते जाना।
10. प्रतिरक्षा सामग्रियों के निर्माण और व्यवस्थाओं को भी निजी क्षेत्र के हवाले करते जाना। स्थायी सैनिकों की भर्ती और उनके संरक्षण के मदों में कटौती करना।
इस प्रकार आज हमारी सरकारें हमारे संविधान में निहित नीति निदेशक सिद्धान्तों की पूर्ण उपेक्षा करती ही दिखाई दे रही हैं और देश को नए दौर के पूंजीवादी प्रबन्धन में झोंक चुकी हैं। वर्तमान में इस प्रबन्धन का तात्पर्य पूरी तरह कम से कम लागत से अधिकतम मुनाफ़ा कमाना है जिसके लिए श्रमिकों और कच्चे माल की आपूर्तिकर्ताओं, किसानों, कारीगरों आदि को कम से कम मूल्य देकर अथवा उनका विस्थापन कर बाजार से अधिकतम दाम प्राप्त करना उसकी कुशलता का परिचायक है। आपदा प्रबन्धन का अर्थ भी संकट काल में लोगों को सुरक्षित करना नहीं होकर उसमें भी लाभ के अवसर ढूंढना तथा बाजारी संकट उत्पन्न होने पर पूंजी को बचाने या लाभकारी बनाए रखने के उपाय करना है। इस सबके लिए पूंजी के बड़े स्तर पर केन्द्रीकरण और आर्थिक स्रोतों एवं संसाधनों पर एकाधिपत्यों तथा उसकी संरक्षक सरकार की ही आवश्यकता है। तब आज हमारे समाज के बीच उपस्थित भयानक गैरबराबरी और राष्ट्र के अस्तित्व के लिए ही उत्पन्न इस भयानक संकट से निपटने के लिए हम क्या करेंगे! क्या हम एक बार फिर अपने नीति निदेशक सिद्धन्तों की ओर लौट सकेंगे और एक समतायुक्त सर्वोन्मुखी राष्ट्र के निर्माण की नई पहल करने में कामयाब होंगे, यही आज हमारे लिए एक यक्षप्रश्न है।
डॉ. महेश विक्रम सिंह इतिहासकार और सामाजिक आर्थिक विषयों के विश्लेषक हैं। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के इतिहास विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष पद से अवकाश के बाद से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। ‘भारत की पुनर्खोज : इतिहास दृष्टि और युगधर्म’ तथा ‘प्राचीन भारत एतिहासिक द्वैधता और क्या है हमारी विरासत’ इतिहास विषय पर लिखी आपकी चर्चित किताबें हैं।