जरूरी सवाल और संघर्ष का दस्तावेज है रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास धरती कथा
वीरेन्द्र सारंग
वरिष्ठ कथाकार रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास धरती कथा काल्पनिक तथ्यों पर आधारित नहीं है। शिवेन्द्र सोनभद्र के हैं और भी वहां के समाज साहित्य से पूरी तरह परिचित हैं। वे राजनीति में दखल नहीं रखते लेकिन उसमें भी उनकी समझ सार्थक रूप से देखने को मिलती है। धरती कथा उपन्यास की कथा जिस घटना पर आधारित है वह दिल दहलाने वाली है। आज के लोकतंत्रा में ऐसा नरसंहार जो जमीन से बेदखल करने के लिए किया जाए कई सवाल खड़ा करता है। इतना ही नहीं नर संहार बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से किया गया है। 10 लोगों की हत्या कोई मामूली घटना नहीं है। वे 10 लोग कौन हैं? हां वे वही लोग हैं जो अपने उर्वर भूमि पर खेती करते हैं आज से नहीं बाप-दादा के समय से। उन्हें पता ही नहीं कि वह जमीन तो किसी और की है। ऐसी स्थिति में विवाद होना तो तय है। उस नरसंहार की चर्चा पूरे भारत में विस्तारित हुई। घटना कहीं और की नहीं सोनभद्र जिले के किसी गांव की है। या वही जिला है जहां आदिवासी और छोटे किसान रहते हैं।
उपन्यास में जिस गांव की घटना है वह गांव काल्पनिक है बल्कि 100 फीसदी सही है। हल्दीघाटी गांव जंगल के बिल्कुल पास है और जिस भूमि पर विवाद है उस पर मुकदमा भी चल रहा है लेकिन कोई समाधान नहीं। आखिर हमारे किसान कब तक अदालत के चक्कर में अपना पेट काटते रहेंगे जमीन से बेदखल होने के डर से मानसिक पीड़ा झेलते रहेंगे ! सोनभद्र जनपद को बतौर लेखक पड़ताल करें तो पता चलेगा की पूरे जनपद में विस्थापन का दर्द पसरा हुआ है वह भी एक कारण है उत्पीड़न और यातना का। चारों ओर गरीबी पसरी हुई है धरती कथा की कथा जमीन के अधिकार से शुरू होती है और वहीं पर खत्म भी हो जाती है। आखिरकार जमीन का मालिक कौन है? और उस पर अधिकार किसका है? सवाल तो वैसे का वैसे ही और फिर नरसंहार उनका जो भोले-भाले किसान हैं जो खेत को उर्वर बनाते हैं अनाज उत्पादित करते हैं। लगता ही नहीं कि हम लोकतंत्रा में जी रहे हैं ऐसा जान पड़ता है यह किसी राजतंत्रा द्वारा हम किसान लोग कुचले गए हैं तभी तो खेतों में निर्दोष लोगों की इतनी लाशें अपने सवालों के साथ पसरी पड़ी हैं जो आज की सत्ता व्यवस्था पर हमें मुंह चिढाती हैं और कहती हैं कि लोकतंत्रा में क्या किसान सिर्फ मरने के लिए बैठा होता है?
रामनाथ शिवेन्द्र का यह उपन्यास घटना को बखूबी समझाता है और पूरी पड़ताल भी करता है। किसानों की भूमि किससे और कैसे कई हाथों में बिकते बिकते ऐसी जगह पहुंच जाती है जो दबंग है और जो छोटे किसानों को बेदखल करने के लिए बंदूके चलाता है मानो कोई किला फतह करने की योजना बनाई गई हो। ऐसा भी नहीं की आदिवासी किसान प्रतिरोध नहीं करते, गोली के आगे हाथ का क्या विरोध? चीखना चिल्लाना क्या गोली से लड़ पाएगा? अब जो मारे गए हैं उस पर राजनीति भी होगी। क्या यही लोकतंत्रा है?
विपक्ष की एक नेत्राी आती हैं संवेदना व्यक्त करते हुए सवाल खड़े करती हैं लेकिन सत्ता में बैठे लोग क्या कर रहे हैं? सवाल यह भी है कि कोई घटना बिना वजह क्यों घट जाती है? और जब घटना घट जाती है तब सरकार को स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लग जाता है उसके पहले तमाम ऐसे मुकदमे जो वर्षों से तारीखें झेल रहे हैं लेकिन उधर किसी का ध्यान नहीं है। हर घटना के बाद योजनाएं बनेंगी, खडन्जे बिछे्ंगे मकान पक्का हो जाएगा और धीरे-धीरे सब ठीक-ठाक। फिर तब जमीन को नए ढंग से बंदोबस्ती का आदेश भी दिया जाएगा लेकिन कौन जानता है की यहां भी खेल होता है जो आदिवासी मारे गए जिन्होंने उस जमीन को उर्वर बनाया, वह जमीन उन्हें नहीं मिलती उर्वर भूमि को उसे दे दी जाती है जो अधिकारियों को संतुष्ट करता है। आदिवासी चुप नहीं बैठते वे उसके लिए भी आंदोलन करते हैं और पुलिस प्रशासन द्वारा मारे पीटे जाते हैं। किसान सवालों के ढेर पर खड़ा होकर सवाल करता है की ‘लो काट लो मेरा पेट जितना भी चाहो’, वह मुंह चिढ़ाता है सत्ता में बैठे लोगों या बड़े अधिकारियों को। आज भी किसान अपने अधिकार की लड़ाई पीढ़ी दर पीढ़ी लड़ रहा है आखिर कब तक?
उपन्यास इस सवाल पर भी रोशनी डालता है कि समस्याएं कब हल होंगी? किसान केवल सोनभद्र का ही नहीं पूरेदेश का है वैसे सोनभद्र में लगभग 70 फीसदी मुकदमें भूमि विवाद के ही हैं। क्या जमीन सिर्फ तारीखेँ देखने के लिए उर्वर बनी हैं? यह कोई छोटी बात नहीं है। मुकदमे की तारीखें पूरे देश की समस्या हैं। आखिर हमें लोकतंत्रा में समानता क्यों नहीं मिलती सवाल तो पूछे ही जाएंगे जो जरूरी होंगे। उपन्यास के पात्रा सोनभद्र के धरती से जुड़े हुए लगते हैं और भाषा भी सोनभद्र की कुल मिलाकर धरती कथा की कथा जरूरी लगती है। यह उपन्यास बाकायदा पढ़ा जाना चाहिए इसलिए भी अति पिछड़े आदिवासी क्षेत्रा सोनभद्र के कथाकार रामनाथ शिवेन्द्र की दृष्टि व्यापक है।