संविधान की मूल भावना को शिथिल करने की साजिश है शैक्षिक पाठ्यक्रम में मनुस्मृति को शामिल करना

संविधान की मूल भावना को शिथिल करने की साजिश है शैक्षिक पाठ्यक्रम में मनुस्मृति को शामिल करना

जरनल आफ डैमोक्रेसी ( Journal of democracy) के अनुसार भारत वैश्विक लोकतांत्रिक मंदी का उदाहरण है। भारत की हाल ही में हाइब्रिड व्यवस्था में की गई गिरावट दुनिया की निरंकुशता पर एक बड़ा प्रभाव है। भारत के लोकतांत्रिक पतन के तौर-तरीकों से पता चलता है कि लोकतंत्र आज कैसे मर रहा है, किसी नाटकीय तख्तापलट या आधी रात को विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के माध्यम से नहीं, बल्कि, यह विपक्ष के पूरी तरह से कानूनी उत्पीड़न, मीडिया को डराने-धमकाने और कार्यकारी शक्ति के केंद्रीकरण के माध्यम से आगे बढ़ता है। सरकार की आलोचना को राष्ट्र के प्रति बेवफाई के साथ जोड़कर, नरेंद्र मोदी की सरकार इस विचार को कमजोर कर रही है कि विरोध वैध है। भारत आज विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र नहीं रह गया है।

भारत ने दो महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक गिरावट भी देखी हैं, यथा- जून 1975 से मार्च 1977 तक की 21 महीने की अवधि जिसे आपातकाल के रूप में जाना जाता है और 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव के साथ शुरू होने वाली समकालीन गिरावट। मोदी के कार्यकाल के दौरान, प्रमुख लोकतांत्रिक संस्थाएं औपचारिक रूप से अपनी जगह पर बनी हुई हैं। लोकतंत्र को कायम रखने वाले मानदंड और प्रथाएं काफी हद तक खराब हो गई हैं।

2024 के आम चुनाव में मोदी जी का दावा था कि इस बार 400 पार, यह सिर्फ इसलिए कि भारतीय संविधान को बदला जा सके किंतु ऐसा न हो सका तो अब भाजपा द्वारा चोर दरवाजे के जरिए संविधान को कमजोर करने की बराबर कोशिश की जा रही है। ताजा उदाहरण सामने आया है कि नए स्कूली पाठ्यक्रम की रूपरेखा के तहत भाजपा स्कूली शिक्षा में मनुस्मृति के कुछ चुनिंदा पक्षों को शामिल करना चाहती है। किंतु बहुमुखी विरोध होने पर महाराष्ट्र के शिक्षा मंत्री दीपक केसरकर ने कहा कि उनकी सरकार इस शैक्षणिक वर्ष से अपना नया स्कूल पाठ्यक्रम लागू नहीं करेगी और इसके मसौदा प्रस्ताव में मनुस्मृति का संदर्भ एक “त्रुटि” थी।

यह कदम स्कूल शिक्षा के लिए राज्य पाठ्यचर्या रूपरेखा के मसौदे के बाद उठाया गया है, जिसमें प्राचीन भारतीय ज्ञान प्रणालियों को स्कूल शिक्षा में शामिल करने की मांग करते हुए हिंदू ग्रंथ के एक श्लोक का हवाला देकर विवाद खड़ा कर दिया गया था। मंत्री ने कहा कि उन्होंने मसौदा तैयार करने वाले विशेषज्ञ पैनल के प्रभारी से इस पर स्पष्टीकरण मांगा है। उन्होंने कहा, “लोकसभा चुनाव के लिए आदर्श आचार संहिता के कारण मसौदा संचालन समिति से पारित नहीं हो सका और सीधे मेरे पास नहीं पहुंचा, जिससे यह त्रुटि हुई।” उन्होंने कहा कि रूपरेखा अभी भी अपने प्रारंभिक चरण में है। उन्होंने कहा, “अंतिम संस्करण अगस्त में जारी किया जाएगा। उसके बाद किताबों की छपाई में तीन महीने लगेंगे। नतीजतन, इसे अगले शैक्षणिक वर्ष में लागू किया जाएगा, जिससे छात्रों के लिए संपूर्ण और त्रुटि-मुक्त पाठ्यक्रम सुनिश्चित होगा।” इसकी सभी शिक्षाविदों और राजनेताओं ने आलोचना की, जिन्होंने मनुस्मृति के संदर्भ पर विरोध व्यक्त किया, जो उनके अनुसार महिलाओं, दलितों और अन्य हाशिए के समुदायों के खिलाफ भेदभाव करता है।

अब दिल्ली विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रम में मनुस्मृति को शामिल करने जा रहा है। वही मनुस्मृति जिसे 1927 में महाराष्ट्र के कोलाबा में डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने जलाया था। दिल्ली विश्वविद्यालय के लोग तर्क दे रहे हैं कि न्याय के क्षेत्र में मनुस्मृति को पढ़ाना इसलिए जरूरी है ताकि छात्रों की क्षमता बढ़े और भारतीय दर्शन और ज्ञान से उनका जुड़ाव बढ़े। दूसरी ओर  खेद की बात है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी ने अपने सिलेबस से 300 रामायण, कांचा इलियास की किताबें, महाश्वेता देवी के पाठ को यह कहते हुए हटा दिया है कि इससे उन्हें दिक्कत हो रही है। यहाँ यह सवाल उटता है कि मनुस्मृति क्या है और दिल्ली यूनिवर्सिटी इसे क्यों पढ़ाना चाहती है? इसे सिलेबस में शामिल करने के पीछे क्या तर्क है? इससे क्या बदलाव आएगा? भारत में 2024 में एक यूनिवर्सिटी मनुस्मृति की ओर लौट रही है। यह कितना महत्वपूर्ण है?

डा. लक्षमण यादव के अनुसार दिल्ली विश्वविद्यालय अपने विधि संकाय के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में मनुस्मृति को शामिल करने का प्रस्ताव विश्वविद्यालय की सर्वोच्च समिति के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है। यह तर्क देकर, मनुस्मृति को मेधा तिथि के मनुभाष्य की सहायता से जे एन झा द्वारा सेमेस्टर 1 में प्रस्तावित व्याख्यान के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। हम चाहते हैं कि विश्वविद्यालयों में सभी ग्रंथ पढ़ाए जाएं। यादव जी पश्न करते है कि यदि कलम और पुस्तक से गहरे संबंध रखने वाले शिक्षाविद् के रूप में हम चाहते हैं कि यदि आप सत्ता में हैं और मनुस्मृति पढ़ाना चाहते हैं, तो आप बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की पुस्तकें, जाति का विनाश, शूद्र कौन थे और हिंदू धर्म की पहेलियां क्यों नहीं पढ़ाते?

जब 22 जनवरी को इस दिल्ली यूनिवर्सिटी ने यूनिवर्सिटी के मुख्य द्वार पर “जय श्री राम” के नारे वाला बैनर  लगा दिया गया। क्या ये लोग यूनिवर्सिटी में किसी दूसरे धर्म और किसी दूसरे विश्वास के साथ ऐसा कर सकते हैं? हम चाहते हैं कि आप यूनिवर्सिटी में ढेर सारे विचार पढ़ाएँ। लेकिन अंबेडकर के विचार भी पढ़ाएँ। हम चाहते हैं कि आप गांधी और गोडसे के विचार पढ़ाएं। हम चाहते हैं कि आप पाठ्यक्रम में गोलवलकर, हेडगवार और सावरकर को शामिल करें। लेकिन फुले, अंबेडकर और पेरियार को भी शामिल करें। हम चाहते हैं कि आप डॉ. रमन की जाति तोड़ें और हिंदू को हिंदू में शामिल करें। तभी खुली बहस, संवाद और चर्चा होगी। इस देश की गैर-मानवीय परंपरा के अनुसार मनु स्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जिसने वर्ण व्यवस्था की स्थापना की।

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मनुस्मृति को चुनौती देती हैं ये किताबें

विदित हो कि मनुस्मृति ने गैर-मानवीय परंपराओं की स्थापना की। इसीलिए बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर ने इस पुस्तक को जलाया।  इसमें कुछ चीजें इतनी नकारात्मक हैं कि उन्हें जलाने का काम बाबा साहब अंबेडकर ने किया और बाबा साहेब ने ऐसा करके अनेक सवाल खड़े करके हिंदू कट्टरपंथियों को एक संदेश देने का काम किया। लेकिन आजादी के इतने वर्ष बाद भी दुर्भाग्य से भारत में मनु की प्रतिमा राजस्थान हाईकोर्ट के सामने मौजूद है। कारण कि वहां के लोग कहते हैं कि उस समय वहां बार एसोसिएशन में सारे अमीर लोग भरे हुए थे।

आज मनुस्मृति का पालन कौन करता है? परंपरा, अतीत और इतिहास के नाम पर, संस्कृति और दर्शन के नाम पर यदि कोई  अपने विचारों को पूरी दुनिया की व्यवस्था मानते हैं, तो वो कौन सी पीढ़ी बनाना चाहते हैं? यदि आपकी नियत सही है, तो आप मनुस्मृति के साथ-साथ जाति और दासता का विनाश भी शामिल करें। आप महाश्वेता देवी की द्रौपदी, ए.के. रामानुजन की 300 रामायण और कांक्षा इलायचा की पुस्तकों का अनुसरण करके उन्हें पाठ्यक्रम से बाहर नहीं किया जाता। इसका मतलब ये है कि आप पूरी दुनिया की स्कूल व्यवस्था को अपनी विचारधारा का आधार बनाना चाहते हैं। जिस विचारधारा से आरएसएस को नेता बनाया जा रहा है। प्रोफेसर बनाए जा रहे हैं। और ये सभी एक धर्म और विचारधारा का आधार बनेंगे। तो बहस, संवाद, चर्चा कहाँ है?

ये विचारधारा की लड़ाई है। एक तरफ मुस्कराते हुए लोग, अपना वर्ग बनाने के लिए, अपनी सत्ता बनाने के लिए, अपना सांस्कृतिक अधिपत्य बनाने के लिए, अपनी संस्कृति बनाने के लिए, अपनी परंपरा बनाने के लिए, अपना इतिहास बनाने के लिए, अपने विविधता बनाने के लिए, क्योंकि वो कुर्सी पर बैठे हैं। और इसी तरह से वो NCERT की किताब के सिलेबस को बदल रहे हैं। वे मनुस्मृति को विश्वविद्यालय में ला रहे हैं। वे नहीं चाहते कि बाबा साहब डॉ. अंबेडकर का संविधान इस देश में कानून का आधार बने। वे चाहते हैं कि एक ही कानून लागू हो, जिसमें महिला गुलाम हो, पुरुष गुलाम हो, जाति व्यवस्था हो, ब्राह्मण गुलाम हो और विविधता पर आधारित समाज हो। वे बाबा साहब डॉ. अंबेडकर के संविधान के प्रस्तावित समानता पर आधारित समाज नहीं चाहते हैं।

इसका हमारे बच्चों पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। वे बचपन से ही मनुवादी सड़ी-गली व्यवस्था के शिकार हो जाएंगे।  यूं भी कह सकते है कि आरएसएस द्वारा संस्कृति के नाम पर एक धर्म का प्रचार किया जा रहा है। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर की मार्केट बढ़ती जो  जा रही है। खबर तो यह भी है कि हरियाणा में प्राथमिक शिक्षा में सामाजिक ज्ञान की किताब को पूरी तरह से बदलकर मनुवादी सोच पर परिवर्तित करके लागू भी कर दिया गया है।

ख्यात लेखक और इतिहासकार अशोक कुमार यह भी बताते है कि स्थिति यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ के छात्र जो LLB हैं, उनसे कहा गया कि वे अपने कोर्स में मानसिक बीमारी को शामिल करें। इस प्रस्ताव को लेकर काफ़ी विवाद हुआ है। और जब इस पर चर्चा हुई तो लोग कहने लगे कि आरएसएस और भाजपा  किसी भी तरह से संविधान को बदलना चाहते हैं।

खेद की बात है कि तर्क, विवेक, ज्ञान, बुद्धि, करुणा, पाठ्यक्रम से हटाया जा रहा है। पूरे पाठ्यक्रम को सांस्कृतिक हवाले से ब्राह्मणवादी रंग में रंगा जा रहा है। और, कबीर के दोहे से लेकर प्रगतिशील पाठों को पाठ्यक्रम से हटाया जा रहा है। और आपको इस बात का अहसास भी नहीं है।

हम जैसे लोगों की जिम्मेदारी है कि हम आपके साथ सारे जोखिम साझा करें। हम आपको यह बताना चाहते थे कि यह सब किसलिए हो रहा है। हमारे देश के स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में बर्बादी का क्या आलम है, यह जानने की जरूरत है। अगर यह अभी भी नहीं संभला तो आपके स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी, सिलेबस बहुत ही ब्राह्मणवादी हो जाएंगे। फिर पता नहीं, इसे बचाने का मौका मिलेगा या नहीं? इस बारे में गहनता से सोचने की जरूरत है और आरएसएस के इस प्रयास को असफल करने की दिशा में काम करना समय की आवश्यकता है।

यह भी जानने की जरूरत है कि आरएसएस और भाजपा संविधान को सीधे तौर पर न बदल पाने की हालत में इस प्रकार के दूसरे रास्तों से संविधान की मूल भावना को शिथिल करने की दिशा में काम करने लगी है। हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि संविधान को बदलने की भाजपा की साज़िश नाकाम हो गई है।

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