सामाजिक असमानता को बढ़ावा दे रही है शैक्षिक ढांचे की विषमता
अशिक्षा किसी भी देश के ग़रीब और पिछड़ों को निरंतर दास बनाए रखने की एक प्रक्रिया है। सरकार का सबको नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने का प्रावधान है किन्तु व्यावहारिकता मेन स्थिति पूरी तरह से अलग है। शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत नागरिकों को नि:शुल्क शिक्षा, पुस्कालय की व्यवस्था, वैज्ञानिक शिक्षा जैसी अन्य सुविधाएँ प्रदान करने की राष्ट्रीय व्यवस्था तो है किन्तु इसका क्रियात्मक स्वरूप परिदृश्य में कहीं नहीं दिखता है। ऐसे में यह सोचना ही होगा कि क्या देहाती बालक-बालिकाओं को शिक्षा प्राप्त करने के उतने ही अवसर प्राप्त हैं जितने शहरी क्षेत्र के धनी परिवारों के बालक-बालिकाओं को हैं। क्या देहाती क्षेत्रों के स्कूलों में शहरी क्षेत्र के स्कूलों के समान शिक्षा-साधन उपलब्ध हैं? आमतौर पर देहात के सभी स्कूलों की स्थिति कमोवेश एक सी है। कहीं पर्याप्त अध्यापक है तो कमरे नहीं और कहीं पर्याप्त कमरे हैं तो अध्यापक नहीं। सामान्यतः सभी देहाती स्कूलों में अध्यापकों और कमरों, दोनों का ही अभाव है। इस प्रकार ग्रामीण भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है।
कुछ वर्षों पूर्व की बात है कि जब कांग्रेस ने नए भारत की जनता से अनुरोध किया था, “भारत के दलित वर्गों पर जो रूढ़िगत अयोग्यताएँ लगाई हुई हैं, उन्हें हटाने की आवश्यकता न्यायसंगत है क्योंकि ये अयोग्यताएँ अत्यंत अमानुषिक और दमनकारी हैं जिस कारण इन्हें बहुत अधिक कठिनाइयाँ एवं असुविधाएँ सहनी पड़ती हैं।” लेकिन हुआ क्या? यह सबके सामने है। दलितों का न तो आर्धिक स्तर ही सुधरा है और न ही सामाजिक। दलितों की स्थिति जस की तस है। कारण है कि नेता लोग केवल व्यक्तव्यों और भाषणबाज़ी की आधार पर ही दलितों की स्थिति में सुधार का सपना देखते हैं, रचनात्मक कुछ भी नहीं करते। हाँ, दलितों के हक़ में घोषणा-दर-घोषणा ज़रूर करते रहते हैं किन्तु उनका कार्यांवयन क़तई नहीं होता। इस प्रकार राजनेताओं द्वारा दलितों के सुधार के तमाम वादे केवल वादे ही बनकर रह जाते हैं। यहाँ यह जानना भी ज़रूरी है कि दलितों की आर्थिक/शैक्षिक स्थिति में यदि कोई सुधार नज़र आता है तो वह सरकार की नीतियों के कारण नहीं अपितु विश्व स्तर पर आए परिवर्तनों के एक हिस्से के रूप में आया है। आज के संकुचित राजनीति और सामाजिक संस्कृति के चलते सरकार के ‘शिक्षा सबके लिए’ नारे का महत्त्व प्रशासनिक उपेक्षा का पूरी तरह शिकार है। सत्ता पर क़ाबिज़ मुट्ठी-भर लोग नहीं चाहते कि भारतीय समाज सक्षम बनें। शिक्षा-साधनों का अभाव और शिक्षा विभाग द्वारा देहाती बालक-बालिकाओं में शिक्षा के प्रति अरुचि पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार है। ख़ासतौर पर देखा जाए तो भारत में उपेक्षित वर्गों की सामाजिक और आर्थिक कमज़ोरी कारण मूलतः अशिक्षा ही है।
आज़ादी प्राप्ति के इतने वर्ष बाद भी स्कूली बच्चों की शिक्षा का स्तर एक प्रश्नचिन्ह ही बना हुआ है। बच्चों को फटी-पुरानी टाट-पट्टियों पर बिठाने की व्यवस्था क्या आश्चर्यजनक नहीं? अधिकांश देहाती स्कूलों में शौचालय और पेशाब-घर नहीं हैं। नि:शुल्क पुस्तकों और वर्दियों का असमय वितरण तो आम बात है। नन्हें-मुन्हों को सरकारी स्तर से अल्पाहार की वैधानिक व्यवस्था तो है किन्तु इसका वितरण न तो नियमित है और न ही आवश्यक। आया तो आया, नहीं तो नहीं। यह सब स्कूली प्रशासन और ठेकेदारों की मिली-भगत के चलते ही होता है। कई बार तो ऐसी ख़बर सुनने-पढ़ने को मिलती है कि वर्ष-भर का कोटा एक ही महीने में समाप्त कर दिया जाता है। इसके विपरीत शहरी क्षेत्रों में, न केवल समुचित शिक्षा-व्यवस्था है, बल्कि भाषाई अंतर भी विद्यमान है। वहीं देहाती स्कूलों में शिक्षारत देहाती बच्चों को केवल हिन्दी भाषा पढ़ाने के भी पर्याप्त साधन नहीं हैं। इस प्रकार की दोहरी शिक्षा-प्रणाली ग़रीब और वंचित देहातियों के बच्चों के साथ एक साज़िश नहीं तो और क्या है? प्रतिक्रायात्मक दृष्टिकोण से भारत में विद्यमान दोहरी शिक्षा-प्रणाली, भारतीय समाज के लगभग 80/85 प्रतिशत ग़रीब और वंचित देहातियों के बच्चों के साथ एक अप्रत्यक्ष साज़िश ही है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
ग़ौरतलब है कि सरकारी स्कूलों में नियुक्त अध्यापक जितने सुशिक्षित और प्रशिक्षित होते हैं, अध्यापन-कार्य उतना घटिया स्तर का होता है। क्यों? इसका मुख्य कारण उनकी किसी प्रकार की जवाबदेही न होना ही है। यहाँ तक देखा गया है कि सरकारी स्कूलों के अधिकांश अध्यापकों के अपने बच्चे अक़्सर निजी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करते हैं। यह भी पाया गया है कि अधिकांश अध्यापकों के अपने बच्चों का दसवीं और बारहवीं का परीक्षा परिणाम औसत से नीचे ही रहता है। कारण है कि सरकारी स्कूलों के अध्यापक ज़्यादातर ट्यूशन पढ़ाने में ही व्यस्त रहते हैं। अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक रवैया रखने वाले अध्यापक अन्य बच्चों के पठन-पाठन का ध्यान रख पाएँगे, यह एक प्रश्न-चिन्ह ही है। इस स्थिति में सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर सहज ही आँका जा सकता है। सरकारी स्कूलों के ढुलमुल रवैये और निम्नस्तरीय शिक्षा-प्रबन्धों के चलते निजी स्कूलों को अप्रत्याशित बढ़ावा मिला है जो अच्छी शिक्षा के नाम पर मनमाने ढंग से अनाप-शनाप पैसा वसूलते हैं। खेद की बात तो ये है कि सरकारी तंत्र पूर्णरूपेण: निजी स्कूलों साथ खड़ा दिखता है। सरकार सामाजिक हितों को अत्यधिक सस्ती दरों पर ज़मीन का आवंटन करती है और ये स्कूल सरकार और समाज की आँख में धूल झोंक कर पश्चिमी सभ्यता को बढ़ावा देते हैं।
यथोक्त के आलोक में यह ज़रूरी है कि अध्यापकों और अभिवावकों को इस तथ्य से अवगत होना चाहिए कि शिक्षा, मीडिया और राजनीति तीनों विषय बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। शिक्षा एक ऐसा विषय है जो हमारे जीवन के लिए बहुत ज़रूरी है। शिक्षा के बिना हम अपने जीवन को सफल नहीं बना सकते। मीडिया एक ऐसा माध्यम है जो हमें दुनिया के बारे में जानकारी देता है। राजनीति एक ऐसा विषय है जो हमारे देश के भविष्य के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। किन्तु शिक्षा और मीडिया का आचरण राजनीति के आचरण पर निर्भर करता है। बिना हम अपने देश को सफल नहीं बना सकते अथवा असफल। शिक्षा एक व्यापक माध्यम है, जो छात्रों में कुछ सीख सकने के सभी अनुभवों का विकास करता है। शिक्षा का मतलब ज्ञान, सदाचार, उचित आचरण, तकनीकी शिक्षा, तकनीकी दक्षता, विद्या आदि को प्राप्त करने की प्रक्रिया को कहते हैं। इस प्रकार यह कौशलों (skills), व्यापारों या व्यवसायों एवं तंत्रिका विकास, मानसिक, नैतिक विकास और सौन्दर्यविषयक के उत्कर्ष पर केंद्रित है। शिक्षा, समाज एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचली पीढ़ी को अपने ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास है। इस विचार से शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है। बच्चा शिक्षा द्वारा समाज के आधारभूत नियमों, व्यवस्थाओं, समाज के प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है। बच्चा समाज से तभी जुड़ पाता है जब वह उस समाज विशेष के इतिहास से अभिमुख होता है। शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्त्व का विकसित करने वाली प्रक्रिया है। किन्तु यह तब ही सम्भव है जब देश की शहरी और ग्रामीण शिक्षा का स्तर न केवल समान हो अपितु आवश्यक प्रबंध व्यवस्था के तहत उत्तम शिक्षा के सबकों बराबर अवसर प्रदान हों। ग्रामीण भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है।
आज भी ग्रामीण अंचल के बहुत से ऐसे स्कूल हैं जहाँ कमरों व डेस्क-बेंच जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी पूरी तरह से उपलब्ध नहीं हैं। बहुत से स्कूलों में बच्चे बरामदों व पेड़ों के नीचे बैठकर ही पढ़ते नज़र आते हैं। अधिकतर स्कूल तो कक्षा एक से कक्षा पाँच तक के बच्चे लगभग एक ही कमरे में केवाल एक ही अध्यापक द्वारा ही पढ़ाए जाते हैं। कहना अनुचित न होगा कि आजकल केवल ग़रीब परिवारों के बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ने को बाध्य हैं। गर्मी के मौसम में बच्चों को पीने के पानी के लिये भी भटकना पड़ता है। शौचालय स्कूलों में बनाए अवश्य गए हैं, लेकिन पानी के अभाव में उनमें साफ़-सफ़ाई रख पाना मुश्किल हो जाता है। सर्व शिक्षा अभियान के तहत बच्चों को निःशुल्क पुस्तकें उपलब्ध करवाने का प्रावधान है, लेकिन इस दिशा में कोई बेहतर स्थिति दिखाई नहीं देती। शिक्षा सत्र शुरू होने के तीन महीने बाद तक भी पहली से आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को पाठ्य पुस्तकें नहीं मिल पातीं। देश के बहुत से ग्रामीण स्कूल ऐसे हैं जहाँ बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के उद्देश्य से एडूसेट के उपकरण लगाए गए हैं। लेकिन भारी-भरकम ख़र्च से लगाए गए ये उपकरण अधिकांश स्कूलों में मात्र शो-पीस बनकर रह गए हैं। ग्रामीण सरकारी स्कूलों की छवि ग़रीबों और अशिक्षितों के बच्चों के स्कूल वाली बन गई है, जो पूरी तरह शिक्षकों की दया पर निर्भर हैं।
आज भी शिक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा स्कूलों में अध्यापकों के वेतन और प्रशासन पर ही ख़र्च होता है। फिर भी विश्व में बिना अनुमति अवकाश लेने वाले अध्यापकों की संख्या भारत में सबसे अधिक है। ग्रामीण स्कूलों में अक़्सर यह देखने में आता है कि अध्यापक आते ही नहीं हैं।सरकारी स्कूल में रोज़ कोई-न-कोई अध्यापक छुट्टी पर होता है।
संविधान में शिक्षा को समवर्ती सूची में रखा गया है और इसका प्रमुख ज़िम्मा राज्यों पर है। ऐसे में ज़रूरत है कि सभी राज्य अपनी परिस्थितियों के अनुसार इसकी चुनौतियों को अपने ढंग से हल करें। ऐसा हुआ भी है और इसके अलग-अलग परिणाम सामने आए। जिन राज्यों में स्कूली शिक्षा का विकास बेहतर तरीक़े से हुआ, वहाँ ग़रीब बच्चों की शिक्षा संबंधी चुनौतियों को प्राथमिकता दी गई। लेकिन आज भी स्थिति यह है कि प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को अंग्रेज़ी शिक्षा दिलाने के लिये निजी स्कूलों में भेजता है।द हिंदू के अनुसार ग्रामीण भारत में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति को वर्णित करते हुए कहा है कि हाल ही में शिक्षा मंत्रालय ने ग्रामीण भारत में प्रारंभिक शिक्षा की स्थिति-2023 रिपोर्ट जारी की है, जिसमें छात्रों के बीच स्मार्टफोन के उपयोग की व्यापकता पर प्रकाश डाला गया है। ग्रामीण भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है। यह रिपोर्ट NGO ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया (NGO Transform Rural India) और संबोधि रिसर्च एंड कम्युनिकेशंस (Sambodhi Research and Communications) के सहयोग से डेवलपमेंट इंटेलिजेंस यूनिट (Development Intelligence Unit-DIU) द्वारा किये गए सर्वेक्षण पर आधारित थी। इस सर्वेक्षण में 21 राज्यों के ग्रामीण समुदायों में 6-16 आयु वर्ग के स्कूली बच्चों के 6,229 माता-पिता से प्रतिक्रियाएँ एकत्र की गईं।
सर्वेक्षण के मुख्य निष्कर्ष निम्नानुसार हैं:
49.3% छात्रों की स्मार्टफोन तक पहुँच है। 76.7% माता-पिता ने बताया कि उनके बच्चे स्मार्टफोन का उपयोग मुख्य रूप से वीडियो गेम खेलने के लिये करते हैं, जो शैक्षिक गतिविधियों पर मनोरंजन को प्राथमिकता देने का संकेत देता है। इसके अतिरिक्त 56.6% छात्र फ़िल्में डाउनलोड करने और देखने के लिये स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं, जबकि 47.3% छात्र गाने डाउनलोड करने और सुनने हेतु स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं। इसके विपरीत केवल 34% छात्र अध्ययन-संबंधी सामग्री डाउनलोड करने के लिये स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं और केवल 18% छात्र ट्यूटोरियल के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण करने के लिये इसका उपयोग करते हैं।
कक्षा के आधार पर विभेदक सूचना निम्नानुसार है:
कक्षा के विभिन्न स्तरों पर छात्रों की स्मार्टफोन तक पहुँच अलग-अलग होती है। उच्च कक्षाओं (आठवीं और उससे ऊपर) के छात्रों की स्मार्टफोन तक अधिक पहुँच (58.32%) है, जबकि 42.1% छोटे छात्रों (कक्षा I-III) तक पहुँच है। यह इंगित करता है कि मनोरंजन के लिये स्मार्टफोन का उपयोग सभी आयु समूहों में प्रचलित है, जो संभावित रूप से उनकी शिक्षा को प्रभावित कर रहा है।
इस रिपोर्ट में माता-पिता की आकांक्षाएँ और व्यस्तता का भी ज़िक्र करते हुए कहा गया है:
78% माता-पिता अपने बच्चों को स्नातक स्तर या उससे ऊपर की शिक्षा दिलाना चाहते हैं, किन्तु इस संदर्भ में अभिभावकों की अपने बच्चों के साथ सहभागिता काफ़ी कम है। केवल 40% माता-पिता अपने बच्चों के साथ उनकी स्कूली शिक्षा के बारे में दैनिक बातचीत करते हैं, जबकि 32% सप्ताह में कुछ दिन ऐसी बातचीत में संलग्न रहते हैं।
स्कूल से ड्रॉपआउट करने वाले बच्चों के बारे में जो कारण बताए गए हैं- वो है कि लड़कियों के मामले में 36.8% माता-पिता ने उल्लेख किया कि पारिवारिक कार्यों में योगदान देने के कारण उनकी बेटियों को पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। इस बीच 31.6% ने अपने बच्चे की पढ़ाई में रुचि की कमी को स्कूल छोड़ने के लिये ज़िम्मेदार ठहराया और 21.1% का मानना था कि इसमें घरेलू ज़िम्मेदारियाँ भी अहम भूमिका निभाती हैं। 71.8% उत्तरदाताओं के अनुसार, पढ़ाई छोड़ने का मुख्य कारण विषय-वस्तु में रुचि की कमी थी। इसके बाद 48.7% उत्तरदाताओं को परिवार की आर्थिक सहायता करने के लिये लड़कों की आवश्यकता महसूस हुई। 84% अभिभावकों ने नियमित उपस्थिति दर्ज की। गैर-उपस्थिति के दो मुख्य कारण हैं-अल्प सूचना और इच्छा की कमी। इसके अतिरिक्त 40% अभिभावकों द्वारा पाठ्यपुस्तकों के अलावा अन्य आयु-उपयुक्त पठन सामग्री की उपलब्धता की सूचना दी गई, जो घर पर बच्चों की शिक्षा में सहायता के लिये अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
घर पर शैक्षिक माहौल बनाने तथा मनोरंजन और सीखने दोनों उद्देश्यों के लिये स्मार्टफोन के संतुलित उपयोग को बढ़ावा देने हेतु लक्षित प्रयासों की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का वादा संविधान में किया गया है। इसे दस साल में पूरा करने का लक्ष्य भी तय किया गया था, जो पूरा नहीं हो सका। सभी बच्चे स्कूल जाएँ और सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले . . . ये दो धाराएँ न होकर एक-दूसरे से परस्पर संबंधित और अपरिहार्य शर्तें हैं। इनमें से किसी एक को पूरा करके संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। बच्चों की असफलता का दोष केवल स्कूल के संस्थागत कारणों को नहीं दिया जा सकता। दोष प्रायः संसाधनों के अभाव और शिक्षकों के अकुशल रवैये को दिया जाता है। लेकिन यह भी तय है कि केवल इन्हें ही दोषी मानकर इस समस्या का हल नहीं खोजा जा सकता। इस समस्या का समाधान यही है कि अध्यापकों पर संदेह करने और उनके कार्यों की निगरानी के बजाय उन पर भरोसा किया जाए और उन्हें समर्थ और कुशल बनाने की दिशा में क़दम बढ़ाए जाएँ। इसके अलावा पाठ्यक्रम के बोझ को कम करना, पास-फेल की नीति में बदलाव या बाल केंद्रित शिक्षा के बहाने संसाधनों की भरमार के बावजूद यह विचार करना होगा कि कैसे शिक्षा की प्रक्रिया में गाँव और शहर का अंतर कम हो सके। ग्रामीण क्षेत्रों में शैक्षणिक स्तर ऊँचा उठाने के लिये हर हाल में प्राथमिक शिक्षा का स्तर बढ़ाना होगा। लेकिन इस दिशा में न तो जनप्रतिनिधि पर्याप्त रुचि दिखाते हैं और न ही शिक्षा विभाग के अधिकारी। सरकार की ओर से कई तरह की सुविधाएँ देने के बावजूद धरातल पर स्थिति में बहुत बदलाव नज़र नहीं आता।
बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि के संदर्भ में निजी स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों के बच्चों से बेहतर हैं। 2018 के आँकड़े बताते हैं कि पाँचवीं कक्षा के ऐसे बच्चे जो कक्षा 2 की पठन दक्षता रखते हैं, का प्रतिशत सरकारी स्कूलों में 44 और निजी स्कूलों में 66 है। इसके पक्ष में निजी स्कूलों की आधार-संरचना, अध्यापकों की निगरानी और समर्पित प्रबंधन का तर्क पर्याप्त नहीं है। यह ज़रूर है कि निजी स्कूलों के बच्चों के अभिभावक पढ़ाई का ख़र्च उठा सकते हैं। यानी कि उनका सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश घर पर पढ़ने-पढ़ाने में सहयोग देने वाला होता है। घर और स्कूल दोनों जगहों पर सीखने के कारण बच्चे कुशलता को अर्जित कर रहे हैं। दूसरी ओर, गाँवों के निजी स्कूल शहरी निजी स्कूलों की तरह सुविधायुक्त नहीं हैं। वे कम फ़ीस लेते हैं और साधारण संसाधनों से युक्त हैं। सरकारी स्कूलों के बच्चों और अभिभावकों के संदर्भ में इसका अभाव है। गाँवों और शहरों में सांस्कृतिक अंतर भी है एक बड़ा कारण है। असर की इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि ग्रामीण भारत में स्कूल जाने की उम्र वाले बच्चों के लिये स्कूल ऐसी जगह बनता जा रहा है जहाँ बच्चे अपने दिन का बड़ा हिस्सा तो बिताते हैं लेकिन स्कूल जाने का जो प्रयोजन या उद्देश्य है, उसे वे पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
ग्रामीण स्तर पर प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याएँ जस की तस बनी हुई हैं। आज भी ऐसे ग्रामीण स्कूल हैं जहाँ कमरों व डेस्क-बेंच जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी पूरी तरह से उपलब्ध नहीं हैं। बहुत से स्कूलों में बच्चे बरामदों व पेड़ों के नीचे बैठकर ही पढ़ते नज़र आते है। गर्मी के मौसम में बच्चों को पीने के पानी के लिये भी भटकना पड़ता है। शौचालय स्कूलों में बनाए अवश्य गए हैं, लेकिन पानी के अभाव में उनमें साफ-सफाई रख पाना मुश्किल हो जाता है। सर्व शिक्षा अभियान के तहत भी बच्चों को निःशुल्क पुस्तकें उपलब्ध करवाने का प्रावधान है, लेकिन इस दिशा में कोई बेहतर स्थिति दिखाई नहीं देती। शिक्षा सत्र शुरू होने के तीन महीने बाद तक भी पहली से आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को पाठ्य पुस्तकें नहीं मिल पातीं।
एक समय था कि जब निजी स्कूल गिने-चुने ही हुआ करते थे, वह भी शहरी क्षेत्रों में। किन्तु आज यह स्थिति हो गई है कि गाँवों, नगरों व शहरों में या यूँ कहें कि सर्वत्र निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है। अंग्रेज़ी भाषा को जानना कोई बुरा काम नहीं है। विभिन्न भाषाओं का ज्ञान होना दूसरे देशों से सम्पर्क बनाने के लिए एक अच्छा माध्यम है, इसे मानने से इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु यह सुविधा समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए अनिवार्य होनी चाहिए। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि निजी स्कूलों के बच्चे बेहतर है।बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि के संदर्भ में निजी स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों के बच्चों से बेहतर हैं। आँकड़े बताते हैं कि पाँचवीं कक्षा के ऐसे बच्चे जो कक्षा 2 की पठन दक्षता रखते हैं, का प्रतिशत सरकारी स्कूलों में 44 और निजी स्कूलों में 66 है। इसके पक्ष में निजी स्कूलों की आधार-संरचना, अध्यापकों की निगरानी और समर्पित प्रबंधन का तर्क पर्याप्त नहीं है। यह ज़रूर है कि निजी स्कूलों के बच्चों के अभिभावक पढ़ाई का खर्च उठा सकते हैं। यानी कि उनका सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश घर पर पढ़ने-पढ़ाने में सहयोग देने वाला होता है। घर और स्कूल दोनों जगहों पर सीखने के कारण बच्चे कुशलता को अर्जित कर रहे हैं। दूसरी ओर, गाँवों के निजी स्कूल शहरी निजी स्कूलों की तरह सुविधायुक्त नहीं हैं। वे कम फीस लेते हैं और साधारण संसाधनों से युक्त हैं। सरकारी स्कूलों के बच्चों और अभिभावकों के संदर्भ में इसका अभाव है। इसके अलावा, बच्चों की उपलब्धि और सीखने में एक सांस्कृतिक अंतर भी है जो स्कूल में प्रवेश के पहले से सक्रिय हो जाता है। शिक्षा का अधिकार भी इस सांस्कृतिक अंतर को पाटने में असमर्थ है। यहाँ इस तथ्य को मद्देनज़र रखना होगा कि जैसे ही गाँव के निजी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों को मौका मिलता है, वे अपने बच्चे को शहर के स्कूल में प्रवेश दिलाते हैं। अत: शैक्षिक अवसरों की समानता व गुणवत्ता की दृष्टि से गाँवों में बसने वाला भारत ऐसी भौगोलिक इकाई बनता जा रहा है जहाँ शिक्षा के मूलाधिकार की प्रक्रिया और परिणाम में गहरी खाई है। अमीरी और गरीबी ही इसका एकमात्र कारण नहीं है। लिंग, जाति, क्षेत्र, भाषा और धर्म भी इनसे जुड़कर एक जटिल संरचना बना रहे हैं जो इसे बढ़ावा दे रहा है।
निजी स्कूलों के चलते, छोटे-छोटे बच्चों पर अधिक से अधिक कॉपी-किताबों का बोझ ही जैसे अच्छी पढ़ाई का पर्याय बन गया है। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि आधुनिक भारत में शिक्षा के नाम पर दुकानदारी ही पनपी है। सच्चाई तो यह है कि आजकल बच्चों को जो कुछ भी प्रारंभिक शिक्षा के नाम पर पढ़ाया जा रहा है, उससे न केवल उनका बचपन छीना जा रहा है, अपितु बच्चों को सुसंस्कार भी नहीं मिल पा रहे हैं। किताबों के साथ-साथ बस्ते में उनका बचपन भी समा गया है। आर्थिक संकट में फँसे ग्रामिणों के बच्चों की शिक्षा केवल सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर रहती है क्योंकि वे आर्थिक संकट के चलते निजी स्कूलों का ख़र्चा उठाने में पूरी तरह से अक्षम होते हैं। एक दृष्टिकोण से निजी स्कूलों के प्रचलन से निम्न और उच्च वर्गों के बीच का अंतर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में आर्थिक आधार पर वर्तमान ढाँचे से सामाजिक विषमताएँ और भी बढ़ी हैं। सामाजिक असमानता की जड़ें और भी गहरी हुई हैं किन्तु अफ़सोस कि किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं जाता।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।