नफरती एजेंडे की बलिवेदी पर चढ़ा कुंभ का मेला

नफरती एजेंडे की बलिवेदी पर चढ़ा कुंभ का मेला

बादल सरोज 

एक महीने तक चलने वाले कुंभ मेले का आरम्भ हो गया है। कुंभ, उसमें भी इलाहाबाद – जिसे अब प्रयागराज कहने का हुक्म है — का कुंभ पृथ्वी के इस हिस्से का सबसे बड़ा मेला है। मनुष्यता के असाधारण एकत्रीकरण और समावेश के आकार और जुटान की तादाद को देखते हुए यह मेला अपनी मिसाल आप ही है। जन्मना इलाहाबादी जवाहरलाल नेहरू लिखते है कि बिना किसी मुनादी, विज्ञापन या जाहिर सूचना के लाखों लोगों का नियत तारीख पर गंगा किनारे पहुँच जाना दुनिया को विस्मित कर सकता है, मगर यह सदियों में विकसित हुई परम्परा है, जो संस्कृति का अंग बन गयी।

नेहरू के जमाने में लाखों की संख्या भी काफी हुआ करती थी ; अब यह करोड़ों से दसियों करोड़ होने की ओर अग्रसर होती जा रही है। यह सचमुच ही बड़ी, बहुत बड़ी तादाद है। इस बार तो दावा किया जा रहा है कि कोई 45 करोड़, मतलब हिन्दुस्तान की कुल आबादी के एक तिहाई बाशिंदे कुंभ में जाकर डुबकी लगाने वाले हैं। अब दावे तो दावे हैं और ऊंची फेंकने की इस विधा में विश्वगुरुत्व का दावा निर्विवाद है, उसे कोई चुनौती नहीं दी जा सकती!! 

कुंभ परम्परा और पुराण कथाओं का ऐसा मेल है, जो अपनी धार्मिक संलग्नता के बावजूद अबाध निरंतरता के चलते संस्कृति और इतिहास का हिस्सा बन गया है। भारतीय प्रायद्वीप के लिए इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में होने वाले कुंभ के मेले तीन वर्ष के एक निश्चित अंतराल के बाद न सिर्फ मिलने-मिलाने, सुख-दुःख की खबरें साझी करने, एक दूजे की जीवन शैली और रीति-नीति समझने के स्थान और अवसर रहे है, बल्कि दार्शनिक, धार्मिक और सामाजिक मुद्दों पर एक दूसरे का नजरिया जानने, बूझने और बहस मुबाहिसों के केंद्र भी रहे हैं। मेगस्थनीज, फाहियान, ह्वेनसांग से लेकर अल बैरूनी तक भारत आये हर विदेशी इतिहासकार ने इसकी इसी विशिष्टता को दर्ज किया है।

पहली बार कुंभ-मेले के शब्द युग्म का उपयोग करने वाले औरंगजेब के जमाने में लिखे गए मुगलकालीन गजट ‘ख़ुलासत-उत-तवारीख’ में भी इसका वर्णन इसी तरह से दर्ज किया गया है। बुद्ध से सीखते हुए आठवीं-नवीं सदी में बुद्ध के वैचारिक वर्चस्व को ख़त्म करने के लिए ”ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या’ का सूत्र लेकर दक्षिण के मलाबार से निकले शंकराचार्य ने बाकी सबके साथ कुंभ को भी उसका मौजूदा रूप देने में भूमिका निबाही। ये जो अखाड़े निकाले जाते हैं, उन अखाड़ों को मान्यता और अधिकार देने की योजना उन्हीं की थी – इसके पीछे हिन्दू धर्म के एक-दूसरे से भिन्न और कई मामलों में अलग पंथों को साथ लाने का इरादा मुख्य था।

हालांकि काफी समय तक यह अलग-अलग धर्मों के बीच चर्चा-परिचर्चा का केंद्र भी रहा और इसमें बौद्ध भिक्खुओं की भागीदारी होती रही, तब तक जब तक कि शंकराचार्य के अखाड़ों ने उन्हें निर्णायक रूप से खदेड़ा नहीं। हालांकि उनकी इस परिकल्पना को अमल में लाते-लाते कोई छह सदियां लग गयीं, तब जाकर वह अखाड़ों की पेशवाई और उनके शाही स्नान तक पहुंचा। ध्यान दें, कुंभ के विधिवत आगाज़ से जुड़े ये दोनों शब्द पेशवा और शाही फ़ारसी भाषा के शब्द हैं और यह सिर्फ भाषाई मसला नहीं है ; यह समावेशी निरंतरता – इंक्लूसिव इवोल्यूशन – का उदाहरण है। 

इतनी विराट संख्या में लोगों के जमा होने के चलते प्रबंधन और नियोजन में हुकूमतों और सरकारों की भूमिका अकबर के समय से शुरू होने के दस्तावेजी प्रमाण मौजूद हैं, जिन्हें संघी कुनबे के इतिहासकार भी मानते हैं। यह अकबर थे, जिन्होंने कुंभ की सहूलियत के लिए सार्वजनिक शौचालय और घाटों के निर्माण किये तथा दो अधिकारी इस मेले के इंतजाम के लिए नियुक्त किये। इनमे से एक मीर ए बहर था, जो जमीन, पानी और साफ-सफाई की व्यवस्था देखता था और दूसरा मुसद्दी हुआ करता था, जिसके जिम्मे घाटों की जिम्मेदारी हुआ करती थी।

अकबर ने इस मेले के लिए राजकोष से भी रकम का प्रबंध किया था। उन्होंने धार्मिक, दार्शनिक बहसों और चर्चाओं के लिए स्थान और परिसर भी बनवाये। यह परम्परा अंग्रेजों ने भी जारी रखी और 1857 के बाद इन व्यवस्थाओं का रखरखाव कर इनमें इजाफा किया। आजादी के बाद की सरकार ने भी भीड़ नियंत्रण और उसके अनुरूप इंतजाम न सिर्फ जारी रखे, बल्कि 1954 के बजट में बाकायदा 1 करोड़ 10 लाख रूपये का आबंटन आधारभूत मौलिक सुविधाओं के लिए किया।

कुंभ के इतिहास के गहरे कुंड से उठाई बूंदों का यह आचमन आज इस एतिहासिक मेले के कुटिल राजनीतिक इरादों और साम्प्रदायिक, विभाजनकारी, संकीर्ण एजेंडे के लिए किये जाने वाले दुरुपयोग को समझने में मददगार होगा। इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इस 2025 के महाकुंभ में कुंभ की इस मूल भावना का ही तर्पण कर दिया गया है। परम्पराओं की निरंतरता या नियमितीकरण करने की बजाय उनका भौंड़ा विकृतीकरण किया जा रहा है।

इसकी शुरुआत मेला भरने से पहले ही अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष रवींद्र पुरी ने कर दी थी। मोदी के हाथ मजबूत करके हिन्दुत्व की फौलादी एकता की दुहाई देने, सभी विपक्षी दलों को हिन्दू विरोधी बताने, भागवत के चार बच्चे पैदा करने के बयान को सही करार देने, सभी पुरानी मस्जिदों को मन्दिर में बदलने और शाही स्नान में से शाही शब्द हटाने जैसे राजनीतिक बयान देने वाले ये पुरी साहब अखाड़ा परिषद् का विघटन और विग्रह करके जोड़-तोड़ और सत्ता तथा संघ की मदद से बने अध्यक्ष हैं। कुंभ के ठीक पहले तीन फाड़ हुयी इस अखाड़ा परिषद् की धार्मिकता और आध्यात्मिकता कितनी मजबूत है, इसका उदाहरण खुद सीएम योगी की अध्यक्षता में हुई इसकी बैठक में हुई जूतमपैजार और एक दूसरे का लतभंजन करने के पावन कृत्य और उसकी पुलिस थानों में लिखाई गयी अनेक एफआईआर से जाहिर हो गया था। 

तनातनी सिद्धहस्त इस ‘सच्चे सनातनी’ रविन्द्र पुरी ने एलान किया कि मेले में जब दुकानों का आबंटन किया जाए, तो सख्ती के साथ यह प्रावधान किया जाए कि किसी भी मुसलमान को दूकान नहीं दी जाए। इसके बाद तो इस बेसुरे सुर को और बेसुरा बनाने के लिए राजनिष्ठ और संघनिष्ठ महंतों, आचार्यों और स्वयम्भू शंकराचार्यों की लाइन-सी लग गयी। दुकानें न देने से शुरू हुई मुहिम मेले में मुसलमानों के प्रवेश को प्रतिबंधित किये जाने से होती हुई सभी गैर सनातनियों के आने पर रोक की मांग तक पहुंच गयी और इसमें कैलाश विजयवर्गीय से लेकर संगीत सोम जैसे भाजपा नेता भी ताल से ताल मिलाने कूद पड़े । 

संविधान की शपथ लेकर इस वर्ष के कुंभ वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी गर्म किये जा रहे कड़ाह में छौंका लगाने उतरे और इस मुस्लिम विरोधी मसाले में तड़का मारते हुए हिन्दू समुदाय के बाकी पंथों को भी लपेट लिया। कुंभ मेले के एफ एम रेडियो का उदघाटन करते समय उन्होंने कहा कि “सनातन पर उंगली उठाने वाले लोग यहाँ न आयें, तभी अच्छा रहेगा। जो अपने आपको भारतीय मानता है और सनातन परम्परा के प्रति श्रद्धा का भाव रखता है, वह जरूर आये।“ मजेदार बात यह है कि खुद योगी आदित्यनाथ उस नाथ सम्प्रदाय के सबसे बड़े मठ के मठाधीश है, जो अपने मूल से ही ब्राह्मण पंथों, वैष्णव सनातन पंथ का विरोधी रहा है । नाथ पंथ का प्रभाव मूलतः छोटी दलित जातियों जैसे जोगी, कोल, संपेरा, सरवन, बुनकर, रंगरेज इत्यादि में रहा है। आज भी अनेक छोटी दलित जातियां नाथ पंथ से जुड़ी हैं, भले इसके मठाधीश आदित्यनाथ चोला बदल के हों। बहरहाल योगी की बात को और ज्यादा साफ-साफ़ शब्दों में ज्योतिर्मठ पीठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने बोला और आर्य समाजियों को हिदायत दे दी कि वे कुंभ में न आयें।

हालांकि ऐसा करते समय भी धंधे का भान और कारपोरेट का मान ध्यान में रखा गया। ठेले, खोमचे और स्टॉल लगाने वाले भारतीयों पर बमकते रहे, किन्तु स्टीव जॉब्स की एप्पल इंक और अरबों डॉलर की मालकिन लोरेन पावेल जॉब्स के आने पर खुशियां मनाई जाती रहीं। आसाराम जैसे बलात्कारी और यौन दुराचारियों के पंडाल सजाने के लिए महत्वपूर्ण लोकेशन पर जगहें दी जा रही हैं और सेवा संस्थान द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की तीन फूट की मूर्ति लगाए जाने पर कोहराम मचाया जा रहा है।

बाकी लोग महीने भर अलग-अलग तरह के गंगा स्नान करेंगे, किन्तु रामभद्राचार्य 251 कुण्डीय यज्ञ करके उसमें 1 करोड़ 51 लाख आहुतियाँ देकर मंत्रोच्चार की शक्ति से पीओके – पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर – को भारत में शामिल कर लेंगे। विश्व राजनीति में सीमा विवादों का इस तरह से समाधान और अनाधिकृत कब्जों की वापसी का निराकरण इससे पहले शायद ही किसी के विचार में आया होगा, जो इन्होने खोज निकाला है। न चित्रकूट की सैकड़ों एकड़ जमीन पर अनधिकृत आश्रम पसारे बैठे रामभद्राचार्य को पाकिस्तान से कोई मतलब है, ना देश की बीफ बेचने वाली बड़ी दुकानों में से एक के मालिक संगीत सोम को किसी धर्म की ही परवाह है। इनका और इन जैसों का एकमात्र मकसद किसी न किसी बहाने हिन्दू-मुसलमान करके नफरती एजेंडे को बढ़ाना है – जो इधर वे इस तरह के शोशे उछालकर कर रहे हैं, तो उधर उनका पालतू मीडिया कभी किसी कथित खालिस्तानी आतंकी, तो कभी गुमनाम चिट्ठियों में मिली बताई गयी बम धमाकों की धमकियों की अफवाहें फैलाकर किये हुए है। 

हैरत की बात यह है कि इन कथित धर्म ध्वजाधारियों और मीडिया, किसी ने भी आगरा के एक पेठा व्यवसायी द्वारा अपनी 13 वर्ष की बच्ची को एक साधु को ‘दान’ दिए जाने पर अंगुली नहीं उठाई। देवदासी की कुत्सित और कलंकित प्रथा को कुंभ जैसी जगह अमल में लाने पर आपत्ति नहीं की। जनता में उपजे क्षोभ को देखते हुए संबंधित ‘साधू’ के जूनी अखाड़े ने उसे 7 वर्ष के लिए निष्कासित कर, लड़की को वापस लौटा कर अपनी झेंप मिटाई। इस प्रसंग ने एक बार फिर सबको दिखा दिया कि इन सनातनियों के बीच स्त्री की स्थिति क्या है। यह भी सामने आ गया कि इन 14 अखाड़ों में आज भी महिलाओं के किसी भी अखाड़े को शामिल नहीं किया गया है।  

पौराणिक कथाओं के हिसाब से कुंभ मेले के लिए स्थानों का चयन समुद्र मंथन में निकले अमृत के कलश, जिसे कुंभ भी कहा जाता है, से टपकी बूंदों के आधार पर किया गया था – कुनबा अब उन्हीं स्थानों को विष की थोक आपूर्ति का कुण्ड बनाने पर आमादा है। इसके लिए उन सारी सीमा रेखाओं के उल्लंघन और अवहेलनाओं के लिए तत्पर है, जिनके दायरे में रहते हुए ही भारत एक संप्रभुता संपन्न धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बना है। इस मेले के पहले दिन 14 जनवरी को हुई महाआरती में भारतीय सेना के अधिकारियों की, उनकी निजी नहीं, आधिकारिक हैसियत से, भागीदारी इसका एक उदाहरण है ।

यूपी से ही लोकसभा सांसद चन्द्रशेखर रावण ने भी यही बात उठाई है। कुंभ मेले की चाक चौबंद व्यवस्था का हवाला देते हुए उन्होंने पूछा है कि यही प्रशासन और उसका तंत्र इसी तरह की व्यवस्थित मुस्तैदी गरीबों और दलितों की शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में क्यों नहीं उठाता। इतना सारा धन ऐसे मेलों पर फूंक दिया जाता है और उसी गंगा में बिन जले शवों के ढेर सड़ते रहते हैं। उन्होंने खर्च और ऊर्जा दोनों की प्राथमिकता पर सवाल उठाये हैं और इन पर विचार की आवश्यकता बताई है। ध्यान रहे कि योगी और मोदी की सरकारों ने इस मेले के लिए कोई 7 हजार करोड़ रूपयों का प्रत्यक्ष आबंटन किया है, अन्य विभागों और इंतजामों में किया जा रहा खर्चा इससे अलग है और किसी भी हालत में इससे दोगुने से कम नहीं है।

इस सबसे ध्यान हटाने के लिए, खुद को पढ़ा-लिखा और समझदार मानने वाले मध्यमवर्ग को बहलाने के लिए एक शिगूफा इस मेले को डिजिटल महाकुंभ बताने का छोड़ा गया है। इस डिजिटल में क्या, कैसा और कितना डिजिटल होने वाला है, यह तो शिगूफेबाजों को भी नहीं पता, अलबत्ता ब्रोशर में उनके द्वारा दी गयी जानकारी में दावा किया गया है कि इस बार कुंभ के मेले में बिछड़ने की कहावत को सुधारा जाएगा – खोये लोगों को डिजिटली खोजा जाएगा और उसी तरह पाया भी जा सकेगा।

मुमकिन है, इस तरह कुछ खोये हुओं को ढूंढ लिया जाए। मगर इस सबके बीच जो कुंभ खो गया है, उसे कैसे ढूंढा जाएगा? मेलों में मेल-मिलाप, उत्सव और उल्लास की जो परम्परा रही है, वह खो गयी है, उसे खोजने में न जाने कितने कुंभ लगेंगे। शायद उतने ही जितने किसी भीड़ को जलूस में बदलने में लगते है!!

(नोट : यह आलेख डॉ. अम्बेडकर, ओशो सहित अन्य बुक स्टाल्स पर कल हुए हमले के पहले लिखा गया है।)

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