गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है– 14

केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की चौदहवीं किश्त है।
विश्वास अथवा अंधविश्वास… आखिर ये है क्या ?
पुआल (पराली) की राख से मामी के पेट का दर्द ठीक हो गया …
आज मुझे लगभग 1966-67 की एक बहुत पुरानी घटना याद आ रही है। हमारे गांव मे एक लंबे कद की उधेड़ विधवा महिला थी जिसे मैं प्रेम से मामी कहता था। उनके दो बेटे थे। बताया गया था कि उनके पति एक नाई का काम किया करते थे। इसलिए उनके निधन के बाद मामी को गाँव वाले लोग अक्सर ‘नायन’ कहते थे… थीं अपनी ही जाति की यानी ‘जाटव’।
बताता चलूँ कि गावों में ‘मामियां’ अपने ‘भांजों’ से पर्दा किया करती थीं…जैसे किसी छोटे भाई की पत्नी अपने ‘जेठ से।’ आज का तो कुछ पता नहीं। खैर! कहानी कुछ यूं है कि एक दिन वह घर से खेतों में काम करने को जा रही थी कि अचानक उनके पेट में जोरों का दर्द हो गया। वो हमारे घेर के करीब पहुँची ही थी कि वो दर्द के मारे जमीन पर बैठे गईं… दर्द से बेहाल…। संयोगवश मैं अपने घेर में ही था। मैंने फटाफट उठकर मामी का हाल जाना और मज़ाक मजाक में मैंने उन्हें घेर में पड़ी पुआल (पयाल) की राख हाथ में लेकर, मंत्र पढ़ने का झूठमूठ नाटक किया और मामी को फांकने को दे दी। दर्द से परेशान मामी ने बिना किसी ना-नुकर के उसे पानी के साथ फांक लिया। और थोड़ी सी देर बाद ही वह चौंक कर उठीं और मेरे सिर पर हाथ रखकर बोलीं, ‘जीता रै बेटा! तेरा भला हो। मेरै तो एकदम छौंक सा ई लग गया। मेरा दर्द तो कतई ठीक हो गया।‘
लेकिन उनका पेट दर्द ठीक होने की बात सुनकर मैं अचंभित हो गया। वह इसलिए कि मैंने तो महज एक मजाक किया था…राख में मंत्र फूंकने का तो केवल एक नाटक किया था। मैं सोच में पड़ गया और लड़कपन की नादानी पर मामी से मूँह चुराकर मैं हँसा और अपने आप से ही प्रश्न भी किया, ‘बिना किसी दवा के केवल राख खाने से मामी के पेट का दर्द कैसे बंद हो गया।‘ तब मैं यह सोचने लगा कि शायद ग्रामीणों को दवा से ज्यादा टोने-टोटकों में ज्यादा आस्था और विश्वास होता है। इसका मुख्य कारण अशिक्षा तो होता ही है अपितु दूर-दूर तक प्रिशिक्षित चिकित्सकों का उपलब्ध न होना भी है। ऐसे हालात और गरीबी के चलते टोने-टोटकों में विश्वास करना न केवल एक बाध्यता होती है अपितु एक मनोवैज्ञानिक दवाब भी होता है। जैसा की आजकल भी देखने को मिल रहा है आजकल निरंतर उपज रहे बाबाओ के दरबार में ज्यादातर गरीब तबके के लोग/लुगाइयां ही देखने को मिलती हैं। उनके पास न तो पैसा होता और न ही व्यापक चिकित्सा के साधन।
दो सिगरेट पीकर भगत ने किया भैंस का गलघोटू मर्ज…
ठीक ऐसी ही एक और घटना याद आ रही है। शायद ये 1967 की बात है। जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रहा था। ये माँ के मरने के बाद की बात है। हमारे घर पर बस दो भैंस ही रह गई थीं। पशुओं की कुछ सामान्य बीमारियां होती हैं जैसे ज्यादातर पशुओं के गले में गाँठ आदि का पड़ जाना। इस बीमारी को गलघोटू बीमारी के रूप में ज्यादा जाना जाता है। सर्दियों के शुरूआती दिन थे हमारी एक भैंस के गले में इस बीमारी ने घर बना लिया। उसके चारा खाना जैसे काम लगभग बंद हो गए थे। यहाँ यह बात ध्यान रखने की बात है कि पशुओं की बीमारी का इलाज करने वाले खास लोग होते हैं जिन्हें आज भी भगत के रूप में जाना जाता है। और वो दूर-दराज के गाँवों में मिलते थे।
हमारी भी एक भैंस को ये बीमारी हो गई। और इस बीमारी का इलाज करने के लिए जाने जाना वाला भगत गाँव से लगभग 20 किलो मीटर दूर हापुड़ के पास के एक गाँव में रहता था। अब सवाल यह था कि उस भगत को बुलाने या दवा लेने जाए कौन? मुझे ऐसी प्रथाओं से नफरत थी। बड़े भाई मुझे ही भेजना चाहते थे। आखिर उन्होंने मुझे एक लोभ दिया कि अच्छा! मैं तुझे हरिसिंह की साईकिल लाके दे दूँगा…. फिर तो चला जाएगा। हरिसिंह हमारे मामा जी के लड़के यानी हमारे भाई ही थे। उस समय गाँव भर में उन्हीं के पास साइकिल थी। मैंने भी उनकी साइकिल से चलाना सीखा था। हरिसिंह मुझे वैसे भी भाई से ज्यादा प्यार करते थे। साइकिल मिलने पर मेरे अंदर का समाज सुधारक जाने कहाँ चला गया। मैं साइकिल मिलने पर भगत जी के गाँव जाने को तैयार हो गया।
भैंस कुछ ज्यादा ही बीमार थी। हुआ यूँ कि भाई ने मुझे रात के तीन बजे ही उठाकर भगत जी के पास जाने का आदेश दे दिया। मैं भी कपड़े पहने, साइकिल उठाई और चल दिया मंजिल की ओर। अंधेरी रात थी…चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। मैं मन ही मन कुछ घबरा रहा था। उन दिनों ककड़ की सडके बनाई जाती थी। जो सपाट तो बिल्कुल ही नहीं हुआ करती थीं। खैर! मैं डर को संभाले हुए गाँ व से लगभग 10 किलो मीटर दूर कुचेश्वर रोड रेलवे स्टेशन पर पहुँच गया। शायद चार शायद- पाम्च के बीच का समय रहा होगा। देखा कि वहाँ के बस स्टेंड पर कोयले की अंगीठी सुलगाते हुए एक चाय वाले ने मुझे देख लिया और मेरी ओर बढ़ने लगा… मैं उसे देखकर कुछ घबराया भी। किंतु ऐसा था कुछ नहीं… वो बोला,’ बेटा! तुम्हें कहाँ जाना है। अभी तो रात भी बहुत बाकी है।“ मैंने उसे भगत जी के गाँव का नाम बताया तो उसने मुझे आगे न जाने की सलाह दी…. कहा कि आगे का रास्ता सुरक्षित नहीं है। सो तुम अभी कुछ देर अंगीठी पर हाथ-पाँव सेकों… जब जाने का समय हो जाएगा, मैं तुम्हें बता दूँगा। अब मैंने वही सब किया जो उस चाय वाले ने मुझसे कहा था। चाय वाले ने समय को ध्यान में रखकर उस गाँव का रास्ता बताया और कहा कि अब तुम जा सकते हो। मैं रेल की पटड़ियाँ लाँधकर आगे बढ़ा तो देखा कि आगे का रास्ता खेतों की मेंडों पर होकर जाता था। कभी साइकल पर तो कभी पैदल चलकर मैं भगत जी के गाँव पहुँच गया। लगभग नौ बजे होंगे, मैं भगत जी के घर पर था। भगत जी को आने की कहानी सुनाई। उन्होंने मुझसे दो सिगरेट मंगाईं और एक के बाद एक सिगरेट को एकदम से पी गए। फिर घूरे से थोड़ी सी राख उठाई …उसमें एक फूँक लगाई और कागज के एक टुकड़े में पुड़िया बनाकर मुझे थमकर बोले, ‘ घर जाकर इसे भैंस के गले पर मल देना…..बस थोड़ी देर बाद भैंस बिल्कुल ठीक हो जाएगी। मेंने घर लौटकर पुड़िया भाभी को थमा दी। भाभी ने पुड़िया की राख को भैंस के गले पर मल दिया तो देखा कि कुछ देर बाद भैंस ने पानी पिया और चारा खाने लगी। मैं भौचक होकर फिर यही सोचने लागा कि शायद ग्रामीणों को दवा के मुकाबले टोने-टोटकों में ज्यादा आस्था और विश्वास होता है। फिर वैज्ञानिक कारण कुछ भी हो।
टोने-टोटके करके जाना कि टोने-टोटकों का अस्तित्व ...
यदि आप ग्रामीण प्रष्ठभूमि से आते हैं तो आपको भी यह अच्छी तरह मालूम होगा कि अशिक्षा और अंधविश्वास के चलते गाँवों में अलग-अलग बीमारी को ठीक करने वाले भगतों की किस्म भी अलग-अलग होती है। ऐसे ही थे मेरे तथाकथित मामा गिरधारी लोधराजपूत (बदला हुआ नाम) जो केवल और केवल औरतों की छातियों में होने वाले विकार ‘ थदेला’ का उपचार किया करते थे। यदि कोई जिद कर बैठे तो उसकी तसल्ली के लिए वो पशुओं की भी बीमारी पर हाथ आजमा लिया करते थे। अक्सर वो हमारे घर आते रहते थे। सो मुझे उनसे बातचीत करने का अच्छा-खासा समय मिल जाया करता था। मैं यहाँ साफ-साफ स्पष्ट करदूँ कि मेरे मन में भी इन टोने-टोटकों का सच जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी थी। इसलिए मैं मामा गिरधारी लाल जी से इन टोने-टोटकों का सच जानने की विद्या को जानने की जिद करता रहता था किंतु मामा थे कि मुझे हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर कुछ भी बताने को टाल जाते थे। कभी कहते… चल! छोड़ तू इन बातों को… पढ़-लिखकर कुछ बड़ा काम करने की सोच। कहने का अर्थ ये है कि उन्होंने मुझे कुछ भी बतानेन बताने की ठान रखी थी और मैंने कुछ न कुछ उनसे उगवाने की। एक दिन ऐसा आया कि वो मेरी रोजरोज की जिद के सामने टूट गए और बोले कि कल तू घर आना फिर मैं तुझे इस बारे में सब कुछ सिखा दूंगा किंतु शर्त ये है कि तू उस गुर को किसी को भी नहीं बताएगा। मैंने उनकी शर्तों को मान लिया और अगले ही दिन उनके घर जा पहुँचा। पहले तो वो मुझे देखकर चौंके और फिर बोले,’ मैंने तेरे जैसा जिद्दी बालक अभी तक नहीं देखा… आजा बैठ। मैं चारपाई पर बैठ गया और वो मेरे लिए छाछ का एक बड़ा सा पीतल गिलास भी ले आए। मैंने जीभर छाछ पी और फिर अपनी बात पर आ गया।
इस पर वो मेरे मूँह को देखते रहे और बोले, “ अच्छा तो तू मानेगा नहीं… तो सुन… मुझे कोई जादू-मंतर नहीं आता। बस! लोगों को मुझपर विश्वास है और मुझे अपने बुजुर्गों पर। मैं अपने हाथ में दिखावे के लिए चूल्हे में से कुछ राख लेता हूँ और अपने बुजुर्गों/ईश्ट देव का नाम लेकर मरीज को दे देता हूँ वो उसे दर्द वाले स्थान पर मल लेते है और भगवान की कृपा से ठीक हो जाते हैं। उनके हाथ से 10/5 पैसे के बतासे बंटवा देता हूँ। तो उनको भी मानसिक संतुष्टी मिल जाती है और मेरा कुछ भी खर्च नहीं होता। …. अब तुझे ये याद रखना है कि अभी तेरी उम्र बहुत कम है। कुछ करेगा भी तो तुझे बच्चा जानकर तेरी बातों पर कोई विश्वस नहीं होगा। जबकि ये सारा खेल विश्वास का है। इतना भी याद रखना कि ये सच किसी को बताना मत। में तो तेरी जिद के सामने हार गया पर तू ऐसा मत करना। …ठीक है।“ मैंने मामा जी की बात को मानने का आश्वासन तो जरूर दिया लेकिन मन में उनकी बात को आजमाने की लत लगातार बनी रहती थी। और मैं अक्सर ऐसे अवसर की तलाश में लगा रहता था।
उल्लेखनीय है कि मेरे भाई ग्राम प्रधान थे। यही कारण था कि रात के पहले पहर में हमारी दुकड़िया में लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। सब आपस में अपने दुख-सुख को साझा किया करते थे। मैं अक्सर उनके बीच में ही बैठा होता था। उस बैठक में एक दिन हरपाल नाम के एक सज्जन भी थे। गाँव नाते से वह भाई के रिश्ते में आते थे। उन्होंने उस बैठक में अपनी पत्नी की बीमारी की बात करते हुए बताया कि उनकी पत्नी की छाती में ‘थंदेला’ हो गया है जिसमें बहुत ही ज्यादा पीड़ा होती है। उन्होंने अपने दुख को व्यक्त करते हुए बताया कि वो अपनी पत्नी के इलाज के लिए बहुत जगह घूम आए हैं किंतु कोई फायदा नहीं हुआ।

बस! इतना सुनकर मैं अपने जादुई टोटके का असर जानने की कोशिश में लग गया। मैंने हरपाल जी को इशारे से घर के आँगन में बुलाया और भाभी की बीमारी के बारे में सारी जानकारी हासिल कर ली और उनसे बिना कुछ कहे मैं घर के बरामदे में बने चूल्हे के पास गया। चूल्हें में से थोड़ी सी राख उठाई और मामाजी के द्वारा बताई गई क्रिया को अंजाम दिया और कागज के टुकड़े में रखकर अकेले में हरपाल को थमा दी और कहा कि इसे भाभी की उस छाती पर लगा देना जिसमें थंदेला है और ठीक होने पर बच्चों को 10 पैसे के बतासे बाँट देना। हरपाल जी ने मेरी ओर सहजता से देखा और तुरंत अपने घर चले गए। थोड़ी देर बाद वो वापिस आए तो उनके चेहरे पर एक उजास झलक रहा थ। भावावेश में उन्होंने भरी बैठक में खुशी जाहिर करदी और मेरी ओर इशारा करके बोले,” भैया! तेरी कोशिश कामयाब हो गई…अब तेरी भाभी को बहुत ही ज्यादा फायदा है। तो जीवन में कामयाबी पाए।“
इस पर बैठक में बैठे सब लोग मेरी ओर हैरत भरी दृष्टि से देखने लगे और मैं जैसे शर्म के मारे जमीन में गढ़ा जा रहा था। इसका एक मूल कारण मेरा लड़कपन था। तत्पश्चात यह घटना सारे गाँव में हवा की तरह फैल गई। जब भी किसी औरत को इस प्रकार की कोई बीमारी होती तो पहले तो अपनी बीमारी के इलाज के बारे में बात करतीं और ठीक हो जाने पर देवर होने के नाते मजाक करने पर उतर आतीं। यह सिलसिला काफी अरसे तक चलता रहा। सच तो ये है कि मुझे भी इस खेल में मजा आने लगा था। लड़कपन में इतना तो नहीं कि मैं सामाजिक कुरीतियों/कुप्रथाओं/ विश्वास/अविश्वास की गहरे से जानकारी रखता था। हाँ! इतना जरूर था कि मोटा-मोटी मैं पाखंडवाद जैसी प्रथाओं पर मन ही मन उपेक्षा किया करता था। मैं उस समय जो कुछ भी करता रहा, वह महज इस लिए कि चलो! मेरी इस दिखावटी हरकत से किसी का तो भला हो रहा है।
किंतु अब मुझे इतना विश्वास जरूर हो चला था कि देहातों में फैले टोने-टोटकों का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता…. यदि कुछ होता है तो वह है केवल और केवल इलाज करने वाले शख्स में विश्वास का होना होता है। इस माने में धनी और पढ़े-लिखे लोग निसंदेह अंधविश्वास कह सकते हैं किंतु इस अंधविश्वास के कारणों पर मुख्यता से सोचना ही होगा। मैं उन कारणों पर एक छोटी सी पड़ताल भी यहाँ करने का प्रयास कर रहा हूँ। आज मैं कह सकता हूँ कि जब तक मनुष्य के भीतर से ही ज्ञान का उदय नहीं हो जाता और अपने छोटे छोटे कार्यों के लिए दुसरों पर निर्भर रहता है तो लोग ऐसे मनुष्य को लोग मुर्ख बनाएंगे ही। और समय गुजरने के साथ-साथ यह मूर्खता ही अंधविश्वास कही जाती है।
गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर लोग अशिक्षा के कारण किसी भी कार्य का सही निर्धारण नहीं कर पाते और पग पग पर मुर्ख बनने को मजबूर होते हैं। और चालक लोगों के द्वारा ठगे जाते रहते हैं । ऐसे ठग आज हर जगह ही नहीं अपितु काफी संख्या में मठधारी बनते जा रहे हैं। धर्म, राजनीति विज्ञान और व्यवसाय में अंधविश्वास की धारण और भी ज्यादा है। हर क्षेत्र में अंधविश्वास करने वालों की परंपरा विद्यमान है। और जहां जागरुकता नहीं होगी वहां अंधविश्वास होगा ही। वहाँ-वहाँ मुर्ख बनाने की भी परंपरा अग्रगामी होगी। सदियों से लोगों को मानिसिक अंधविश्वास के गुलाम बनाते आ रहे हैं। अंधविश्वास का कोई चेहरा नहीं होता क्योंकि जो मेरे लिए आस्था और विश्वास है वो दूसरों के लिए अंधविश्वास होता है। फिर कोई भी ऐसा तर्क जो विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, उसे अंधविश्वास करार दिया जा सकता है।
अंधविश्वास एक ऐसा विश्वास है जो आस्था के नाम पर सही गलत सोचने की समझ को खत्म कर देता है। व्यक्ति के अपने खुद के दिमाग में ऐसी सोच को पालता है जो उसे तो किसी ख्वाहिश को पूरा करने या बड़े त्याग की भावना से जोड़ देता है लेकिन वास्तविकता से कोई लेना देना नही होता है। जब किसी समस्या का तमाम कोशिसों के बाद भी हल नहीं मिलता तो वह समझने लगता है कि अब परिस्थिति उसके कंट्रोल से बाहर है तो वह उन रास्तों की तालाश में निकल जाते हैं जो व्यवहारिक भले ना हो लेकिन आसान होने चाहिए। इसमें चमत्कार की उम्मीद ही सब कुछ कराती है। अंधविश्वास को पालने-पोसने के दो मुख्य कारक होते हैं, ऐसा लगता है – एक हैं ‘डर’ और दूसरा है ‘ लालच‘। इंसान लालच के चलते या किसी डर के चलते इन टोने-टोटकों के फेर में पड़ता है, ऐसा भी कतई नहीं है, टोने-टोटके का वह भी स्वरूप होता है किसे मैंने अपनाया था।
पारम्परिक रूप से समझे या आधुनिक युग की दृष्टि से यह तो हम सब जानते ही है की हमेशा दो प्रकार की ऊर्जा कार्य करती है, सकारात्मक (positive) और नकारात्मक (negative), जब किसी व्यक्ति विशेष पर नकारात्मक ऊर्जा का ज्यादा प्रभाव होता है तो वह गलत तरीके से व्यवहार करने लगता है, बीमार रहने लगता है, बहकने लगता है, या पागलपन जैसी हरकते करता है। इसके विनाश के लिए भी व्यक्ति टोने-टोटके का सहारा लेता है। समाज में यह भी सुनने को मिलता है कि जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे का अनिष्ट करने की सोचता है तो वह जादू-टोने-टोटकों का सहारा लेता है। तथाकाथित तांत्रिक और योगी इसी मानसिक कमजोरी का लाभ उठाकर जमकर धनार्जन करते हैं। हैरत तो इस बात की है कि इन तांत्रिकों और योगियों को गरीब-निरीह लोगों के मुकाबले तथाकथित बुद्धिजेवियों और नेताओं से ज्यादा बढ़ावा मिलता है।
यहाँ यह सवाल भी उठता है कि क्या टोने टोटके अंधविश्वास की ही बात है ? शायद इतना भर नहीं है। हमारे देश में जब भी किसी को गंभीर बीमारी हो जाती है, डॉक्टर जवाब दे देते हैं, तो लोग बाबा, मुल्ला, मौलवी, तांत्रिक आदि की शरण में चले जाते हैं। वो तमाम तरह के टोने-टोटके करने की सलाह देते हैं और इत्तेफाक से जब वो सफल हो जाते हैं, तो टोना करने वाला व्यक्ति पीड़ित के लिए भगवान से कम नहीं होता। देश में तमाम लोग ऐसे भी हैं, जो इन बातों पर विश्वास नहीं करते, लेकिन यह बात सच है कि आप विश्वास करें या न करें, इन बातों को लेकर डर जरूर लगता है।

वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्याति लब्ध हैं। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक ऐसे यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन खट्टे-मीठे अनुभवों का उल्लेख किया है, जो अलग-अलग समय की अलग-अलग घटनाओं पर आधारित हैं। अब तक उनकी विविध विधाओं में लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।