लोकसभा चुनाव और बहुजन समाज : गिलहरियां कुतर रही हैं अंबेडकर की बुनी हुई चादर
“बड़े ही दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज के दौर में अम्बेडवादियों के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो रहे हैं… खासकर राजनीति के क्षेत्र में। अम्बेडकर की विरासत को आगे ले जाने के नाम पहले सामाजिक और धार्मिक मंच बनते हैं और फिर धीरे-धीरे कुछ समय के अंतराल से ये सामाजिक व धार्मिक मंच राजनीतिक दलों में तबदील हो जाते हैं। ….जाहिर है कि ऐसे लोग न तो समाज के तरफदार होते हैं और बाबा साहेब के। ये तो बस बाबा साहेब का लाकेट पहनकर अपने-अपने हितों को साथने के लिए वर्चस्वशाली राजनीतिक दलों के हितों साधने का साधन बनकर कुछ चन्द चुपड़ी रोटियां पाने का काम ही करते हैं।”
जैसे-जैसे आम चुनाव 2024 नजदीक आ रहा हैं, वैसे-वैसे राजनीतिक अखाड़े में विभिन्न राजनीतिक दलों ने खम ठोकना शुरू कर दिया है। सत्ता पक्ष भाजपा ने NDA के रूप में लगभग 36 छोटे-बड़े दलों का एक धड़ा तैयार कर लिया है। ये बात अलग है कि इस धड़े में अधिकतर वर्चस्वहीन दलों का सम्मिलन है। वहीं विपक्षी दलों ने भी 28 दलों की आपसी सहमति से I.N.D.I.A. नामक धड़े की स्थापना करके भाजपा को कडी टक्कर देने का इरादा कर लिया है। I.N.D.I.A. में शामिल दलों का लोक सभा अथवा राज्य सभा में कम ज्यादा प्रतिनिधित्व है।
बहुजन समाज में बसपा के अतिरिक्त अनेक राजनीतिक दल भी मैदान उतरने का दम भर रहे हैं। विदित हो कि रिपब्लिक पार्टी के बाद बसपा ने बहुजनों के लिए जो काम किया, वैसा अन्य किसी पार्टी या संगठन ने नहीं किया। अन्य दल बहुजन समाज को एक करने के बजाय विभाजित कर, बहुजनों के वोटों को छितराने का काम कर रहे हैं। स्पष्ट रूप से कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियां यही चाहती भी हैं। यह पार्टियां बहुजनों को लोभ-लालच देकर जेबी राजनीतिक पार्टियों का सृजन कराने का काम भी करती हैं ताकी बहुजन (दलित और ओबीसी) समाज के वोट कहीं एकजुट न हो जाएं। कमाल की बात तो ये है कि बहुजनों के राजनीतिक दल आपस में ही एक दूसरे की टाँग खींचने में लगे रहते हैं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि बहुजन समाज के जेबी राजनीतिक दल ही बहुजनों को बाँटने पर तुले हैं।
परिणामत: बहुजन समाज पार्टी भी कमजोर होती जा रही है। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि इसी कारण से ये सारे दल कांगेस अथवा भाजपा के हाथों की कठपुतली बने रहते हैं और बहुजन-हितों को साधने के विपरीत ही काम करते हैं। खास बात ये है सभी के सभी राजनीतिक दल बाबा साहेब अम्बेडकर के नाम की माला जपने लग गए हैं।
बामसेफ द्वारा गठित ‘बहुजन मुक्ति पार्टी’ ( बीएमपी ) भारत में एक राजनीतिक पार्टी है जिसे 6 दिसंबर 2012 को लॉन्च किया गया था, लोकसभा चुनावों में अधिकतर सीटों पर चुनाव लड़ने का दम भर रही है। खबर है कि बीएमपी ने लोकतांत्रिक जनता दल (6 दिसंबर 2012 को स्थापित) के साथ एक विलय का प्रस्ताव किया गया था, लेकिन यह प्रस्ताव व्यक्तिगत हित्तों के चलते कार्यरूप नहीं ले पाया। और इसे अखिल भारतीय पिछड़ा (एससी, एसटी, ओबीसी) और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ (बामसेफ) के राजनीतिक विंग के रूप में स्थापित किया गया। भीम आर्मी के प्रमुख और आज़ाद समाज पार्टी, चंद्रशेखर आज़ाद रावण ने अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर प्रगतिशील जनतांत्रिक गठबंधन बना लिया है। अन्य अनेक जेबी बहुजन राजनीतिक दलों की गिनती करना भी टेड़ी खीर है।
खास बात यह है कि दलों का ऊपरी तौर पर तो इन दलों का उद्देश्य एक ही है किंतु एक मंच पर एकत्र होकर हिंदूवादी शक्तियों से टकराने का काम ये दल नहीं कर पाते। होना तो ये चाहिए कि इन सबको राष्ट्र के नाम पर भारत की अखंडता और गरिमा के लिए खतरा बने कट्टरपंथियों से टकरा कर समतावादी समाज बनाने का काम करना चाहिए। किंतु ये सब अपना-अपना वर्चस्व कायम करने का भाव नहीं पाल पाते। सभी के सभी भी दलम यूं तो अम्बेडरकर वादी होने का दम भरते है किंतु बाबा साहेब के विचारों और आदशों को ठेंगा दिखाकर आपस में ही खींचतान पर लगे रहते हैं। इनके इस प्रकार के काम से बहुजन समाज का हित होने के बजाय अहित ज्यौर ज्यादा हो जाता है।
परिणामत: संविधान के विरोध में हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले आरएसएस, बजरंग दल आदि संगठनों को बढ़ावा और मिल जाता है। और संविधान अवलेहना करके भजपा और इसकी पैत्रिक संस्था आरएसएस एक सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्था भारत में स्थापित न करने में होती नजर होती नजर आ रही। कागजी तौर पर तो भारत के प्रत्येक नागरिक को समानता, स्वतंत्रता, आदि मौलिक अधिकारों के अंर्तगत अपना सर्वांगीण विकास करने का अवसर प्राप्त है, पर व्यावहारिक तौर पर ऐसा नहीं है। और पिछले कुछ वर्षों से देश में कट्टरपंथी राजनीतिक दलों और अनुषांगिक संगठनों के राजनीति में बढ़े प्रभाव के कारण शोषित वर्गो, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिम समुदाय और उनके धार्मिक स्थलों पर योजनाबद्ध हमले हो रहे है। बेकसूर मुस्लिम युवकों को झूठे मुकदमे बना कर जेलों में डाला जा रहा है।
मुझे लगता है कि बुद्ध का यही एक ऐसा विचार रहा होगा जिसने बाबा साहेब को बुद्ध धम्म के अलावा कोई अन्य धम्म अपनी ओर नहीं खींच पाया क्योंकि बाबा साहेब ने भी अपने अंतिम दिनों में ऐसा ही कुछ कहा था कि कोई भी मुझे पूजने की वस्तु न बनाए, अन्यथा इसमें उसका ही अहित होगा। बताते चलें कि 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहेब आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था। इसका खास कारण था कि वे तथाकथित देवताओं के जंजाल को तोड़कर एक ऐसे भारत की कल्पना करते थे जो धार्मिक तो हो किंतु ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने।
उन्होंने ये भी कहा था कि कोई भी किसी बात को महज इसलिए न माने कि वो किसी किताब में लिखी है या फिर किसी अमुक व्यक्ति के द्वारा कही गई है। इसलिए भी नहीं कि वो मैंने कही है… उस बात की सत्यता या तर्क को अपने स्तर पर भी परख लेने की जरूरत है।
बाबा साहेब आंबेडकर ने यह बात 1950 में ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ नामक एक लेख में कहा था कि यदि नई दुनिया पुरानी दुनिया से भिन्न है तो नई दुनिया को पुरानी दुनिया से धर्म की अधिक जरूरत है। उनकी यह तमाम कोशिशें शोषण के सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दासत्व के प्रकट-अप्रकट कारणों को समाप्त करने की दिशा में एक ठोस प्रयास था।
अक्सर यह भी पढ़ने को मिलता है कि बाबा साहेब अंबेडकर के द्वारा बौद्ध धम्म को एक उचित धम्म मानने के पीछे बुद्ध की विचारधारा में छिपी नैतिकता तथा विवेकशीलता थी। बाबा साहेब अपने एक प्रसिद्द लेख ‘बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स’ में लिखते हैं कि भिक्षु संघ का संविधान एक लोकतांत्रिक संविधान था। स्वयं बुद्ध केवल भिक्षुकों में से एक भिक्षु ही थे। वह तानाशाह कभी नहीं रहे। कहा जाता है कि उनकी मृत्यु से पहले उनसे दो बार कहा गया कि वह संघ पर अपना नियंत्रण रखने के लिए किसी व्यक्ति को संघ का प्रमुख नियुक्त कर दें। लेकिन हर बार उन्होंने तानाशाह बनने और संघ का प्रमुख नियुक्त करने से इंकार कर दिया। कहा भिक्षु संघ ही प्रमुख है।
आज जिस विषय पर मै विचारने का प्रयास कर रहा हूँ, वह सीधे तौर पर हमारे रहन-सहन, हमारी संस्कृति और आज के गतिशील जीवन के मूल्यों से सम्बंधित विषय है। कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बुद्ध और बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों को आत्मसात न कर पाने के कारण आज भी हम अनेक परम्परागत विचारों और शैलियों से उभर नहीं पाए हैं। रुढिवादिता आज भी हमारे जहन में डर बनाए हुए है। इसका कारण मुझे तो केवल और केवल यह लगता है कि हम बुद्ध और बाबा साहेब अम्बेडकर के अनुयाई होने का दावा तो करते हैं किंतु उनके आदर्शो को हम स्वीकार करने में अभी लगभग दूर ही हैं। यह बात अलग है कि तथाकाथित अम्बेडकरवादियों की एक लम्बी कतार मंचों से बड़ी-बड़ी बात करती है लेकिन आचार-व्यवहार में जहाँ की तहाँ है। यह जानते हुए भी कि कि परम्पराएं हमारे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि विकास के लिए न केवल बाधक हैं अपितु कष्टकारी भी हैं, हम इन को छोड़ कर हम अपने जीवन मूल्यों को बचा सकने का प्रयास क्यों नहीं करते? यही आज का मूल प्रश्न है। कमाल की बात तो ये है कि बाबा साहेब अम्बेडकर को हिन्दूवादी शक्तियां अपनी ओर ठीक वैसे ही उन्होंने मुसलमान सांई बाबा को अपनी ओर खींचकर कमाऊ देवता की भूमिका में अंगीकार कर लिया। अब वो शक्तियां बाबा साहेब को अपने पाले में खींचकर राजसत्ता के शिखर को चूमने के प्रयास में जुटी हैं। और हम नाहक ही उछ्ल-कूद रहे हैं बुद्ध और बाबा साहेब के नाम पर।
पूरे विश्व में ‘बुध्द’’ ही ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने कहा था कि मेरी पूजा मत करना, ना ही मुझसे कोई उम्मीद लगा के रखना कि मैं कोई चमत्कार करूंगा…….। दु:ख तुमने पैदा किया है और उसको दूर भी तुम्हें ही करना पड़ेगा। मै सिर्फ मार्ग बता सकता हूँ क्योंकि मै जिस मार्ग पर चला हूँ उस रास्ते पर तुम्हे स्वयं ही चलना पडेगा। मैं कोई मुक्तिदाता नही, मैं केवल और केवल मार्गदाता हूँ। और ऐसा संदेश ही बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी दिया है ऊपरी तौर पर आज हम नित्यप्रति होने वाले अनेक आयोजन बुद्ध रीति अथवा बाबा साहेब अम्बेडकर विचारों के अनुरूप और उनको साक्षी मानकर सम्पन्न करते हैं किंतु कार्यविधि में कोई अन्तर देखने को नहीं मिलता। हिन्दू धर्म के रीति-रिवाजों की छाया ही हर कार्यक्रम में देखने को मिलती है। तथागत बुद्ध और बाबा साहेब की पूजा ठीक उसी प्रकार की जाती है जैसे हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। यह गर्व की बात मानी जा सकती है कि आज शहरों के मुकाबले गावों में बुद्ध और बाबा साहेब की मूर्तियां स्थापित की जा रही हैं किंतु ये नवनिर्मित बुद्ध विहार अथवा अम्बेडकर भवन पूजा-पाठ के हिसाब से परम्परागत हिन्दू मन्दिरों का रूप ही लेते जा रहे हैं।… यह दुख की बात ही नहीं अपितु समाजिक विकास के लिए अति घातक है। ऐसे कर्मकाण्डों से बचने के लिए हमें पहले अपनी औरतों को वैचारिक और मानसिक रूप से शिक्षित करके उनके मन से तथाकथित भगवान के डर से मुक्त करने की जरूरत है। आज हमें बुद्ध जैसे भिक्षु की ही जरूरत है न कि बुद्ध और अम्बेडकर के नाम पर माला जपने वाले झुंडों की।
बड़े ही दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज के दौर में अम्बेडवादियों के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो रहे हैं… खासकर राजनीति के क्षेत्र में। अम्बेडकर की विरासत को आगे ले जाने के नाम पहले सामाजिक और धार्मिक मंच बनते हैं और फिर धीरे-धीरे कुछ समय के अंतराल से ये सामाजिक व धार्मिक मंच राजनीतिक दलों में तबदील हो जाते हैं। ….जाहिर है कि ऐसे लोग न तो समाज के तरफदार होते हैं और बाबा साहेब के। ये तो बस बाबा साहेब का लाकेट पहनकर अपने-अपने हितों को साथने के लिए वर्चस्वशाली राजनीतिक दलों के हितों साधने का साधन बनकर कुछ चन्द चुपड़ी रोटियां पाने का काम ही करते हैं। मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूँ, इस सच्चाई का सबको पता है किंतु इनमें से अधिकतर लोग वो हैं जो अम्बेडकर विरोधी दलों की गुलामी कर रहे दलितों नेताओं के चमचों में शामिल हैं। गए वर्षों में भाजपा नीत सरकार के दौर में दलितों के खिलाफ न जाने कितने ही निर्णय हुए… वो अलग बात है कि बाद में सरकार ने दलितों की नाक काटकर अपने ही रुमाल से पौंछने का काम किया। एक जानेमाने तथाकथित दलित नेता ने तो 2018 में अपने बेटे को ही दलित/ अल्पसंख्यक/ पिछड़ा वर्ग के द्वारा आयोजित सामुहिक बन्द में उतार कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने का काम किया। भाजपा में शामिल दलित नेता ही नहीं, कांग्रेस में शामिल दलित नेता भी ऐसी दलित विरोधी गतिविधियों पर सवाल करने से हमेशा कतराते रहे हैं। और तो और ये दलित नेता अपने आकाओं के क्रियाकलाप की समीक्षा न करके दलित राजनीति के सच्चे पैरोकारों के पैरों में कुल्हाड़ी मारने का काम करते हैं। बाबा साहेब का ये कहना कि मुझे गैरों से ज्यादा अपने वर्ग के ही पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया,ऐसे में यह सही ही लगता है।
वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है कि किस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं