लोकतंत्र के हनन की कीमत राजनीति और मीडिया को एक दिन चुकानी ही होगी
डिजिटल तकनीक ने पत्रकारिता को बिल्कुल एक नए फलक पर लाकर खड़ा कर दिया है। डिजिटल तकनीक,सोशल मीडिया के असर से जहां पत्रकारिता ने रफ्तार पकड़ी है तो विश्वसनीयता की कसौटी पर कसने की चुनौतियां पहले से ज्यादा बढ़ गई हैं। रफ्तार की प्रतिस्पर्धा से नए खतरों का अंदेशा भी बढ़ा है और तकनीक के सहारे पत्रकारिता दोधारी तलवार बन गई है। ———————-राहुल सांकृत्यायन
सोशल मीडिया के असर ने पत्रकार और पत्रकारिता को कहीं ज्यादा जवाबदेह बनाया है। अब पत्रकारिता पहले से ज्यादा जीवंत हुई है। दूसरे सिरे पर बैठा पाठक केवल पढ़कर चुपचाप बैठे रहना वाला नहीं रहा। वो न केवल कहीं अधिक प्रतिक्रियावादी हुआ है बल्कि किसी समाचार में अगर जरूरी लगे तो बदलाव की वजह तक बनने की हिम्मत रखता है। वो अपनी मर्जी से अपने स्रोत को चुन सकता है और उस पर प्रतिक्रिया देने की आजादी रखता है। पत्रकारों के सामने तथ्यों, तस्वीरों की विश्वसनीयता परखने की चुनौतियां तकनीक के इस युग में पहले से कहीं अधिक बढ़ गई हैं। अब वो जमाना नहीं रहा जब हम पत्रकारिता को केवल कलम और स्याही के लिए जानते थे।
विदित है कि आज पत्रकारिता कदम से कदम मिलाकर चल रही है। स्थानीय पत्रकारिता का दायरा भी अब ग्लोबल हो चुका है। भारत के एक छोटे कस्बे की खबरें अब रूस में बैठा भारतवंशी भी पढ़ रहा है। न केवल पढ़ रहा है बल्कि उस पर अपनी प्रतिक्रया भी दे रहा है। अखबारों और चैनलों की अपनी वेबसाइट हैं, जहां लाखों लोग हर रोज किसी भी समाचार को पढ़ने-जानने के लिए उत्सुक तो होते हैं किंतु अखबारों और तथाकथित मूल चौनलों द्वारा परोसी जा रही खबरों से पाठक को निराशा ही लगती है। आप खुद सोचिए कि क्या यह संभव है कि हम हर रोज कम से कम 50 रुपए खर्च कर हर अखबार खरीद सकें और उसे उतनी ही तसल्ली से पढ़ सकें जितना की हम एक अखबार पढ़ते हैं। किसी भी सामान्य आदमी के लिए यह संभव नहीं है। तकनीक के विकास के साथ-साथ पत्रकारिता और पत्रकार भी कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं।
एक समय था जब पत्रकारों को अपनी खबर प्रकाशित कराने के लिए या तो दफ्तर जाना पड़ता था अथवा फैक्स का सहारा लेना पड़ता था, लेकिन आज के इस तकनीकी युग में पत्रकार भी बहुत आगे निकल चुके हैं। पत्रकारिता ने खुद को बेहतर करने के लिए तकनीक का बेहतर उपयोग किया है। आज के समय में समाचारों के स्रोत बदलें हैं। खबरों का संयोजन और उनका प्रकाशन भी बेहतर हुआ है। पहले हम किसी भी समाचार को पूरी तरह से जानने के लिए अगले दिन का इंतजार करते थे, लेकिन अब हमें महत्वपूर्ण खबरें उसी वक्त पता चल जाती हैं, जिस दिन वो सुर्खियों में आती हैं। पत्रकारिता में तकनीक ने बहुत सारे बदलाव किए हैं।
तकनीक के विकास के बाद रेडियो की दुनिया में बहुत ही बड़ा बदलाव आया है। शुरुआत में रेडियो में लाइव की सुविधा नहीं थी, लेकिन तकनीक ने उसे भी आसान किया और आज हम रेडियो पर किसी भी घटना के बारे में लाइव जानकारी सुन सकते हैं। बीते सालों में रेडियो की दुनिया में जो बड़ा बदलाव आया वो है एफ एम (फ्रिक्वेन्सी मॉड्यूलेशन) और ए एम (एम्प्टीट्यूड मॉड्यूलेशन), जिसने रेडियो की रटी रटाई दुनिया में खासा बदलाव किया है। अगर हम भारत की बात करें तो यहां आल इण्डिया रेडियो 1956 में अपने पूर्ण अस्तित्व में आया।
फोटो पत्रकारिता की दुनिया में भी बदलाव आया है। किसी भी समाचार की विश्वसनीयता को स्थापित करने के लिए हमें फोटो की आवश्यकता होती है। लेकिन जैसा की हम देख चुके हैं कि एक वक्त में अखबार छापना ही अपने आप में बड़ी बात थी, तो उनमें फोटो कैसे प्रयोग में लाए जाते? लेकिन तकनीक ने यहां भी अपना कमाल दिखाया और आज हम खबरों के साथ फोटो देखकर उसकी विश्ववसनीयता को सुदृढ़ करने के साथ-साथ समाचार को आकर्षक बना सकते हैं। आधुनिक फोटो पत्रकारिता की शुरुआत 1925 के दौर में शुरू हुई। इसकी शुरुआत जर्मनी में हुई। सबसे पहले शुरुआत 35 एमएम के कैमरे से हुई। इस कैमरे की मदद से 35 एमएम के फॉर्मेट में फोटो क्लिक की जा सकती थी। पत्रकारिता और फोटोपत्रकारिता को हम एक दूसरे का पूरक भी कह सकते हैं। फिर 1950 में 120 फॉर्मेट के कैमरे का अविष्कार हुआ जिसने तस्वीरों की दुनिया को और भी आकर्षक बना दिया जिसकी मदद से समाचारों के प्रयुक्त किए जाने वाले फोटो और भी बेहतर हो गए । इस कैमरे के अविष्कार से फोटो पत्रकारों को भी फोटो क्लिक करने में आसानी हुई। फोटो पत्रकारिता का स्वर्णिम काल 1935 से 1975 को मान सकते हैं, क्योंकि इस दौरान छपाई की तकनीक भी बेहतर तरीके से विकसित हो रही थी, और इसी दौरान टीवी ने भी लोगों के घरों में जगह बनानी शुरू कर दी थी। फिर रील वाले कैमरे का अविष्कार हुआ जो पूरी तरह से मैनुअल हुआ करते थे।
लेकिन तब भी मुश्किलों का दौर खत्म नहीं हुआ था, क्योंकि समाचार उसी दिन प्रकाशित होने होते थे, अन्यथा उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती। जिसके लिए हर फोटो को उसी दिन बना कर देना होता था, जिस दिन समाचार को प्रकाशित होना होता था। फिर आया दौर डिजिटल कैमरों का जिसमें फोटो पत्रकार यह भी देख सकता था कि फोटो सही आई है या फिर नहीं। इन कैमरों में चिप लगे होते हैं, जिनकी मदद से समाचार के प्रयोग में लाई जाने वाली फोटो को बनाने की जगह उन्हें सिर्फ अपने कंप्यूटर में ट्रांसफर करना होता और उन फोटो में थोड़ा बहुत बदलाव कर के उन्हें प्रकाशित करने योग्य बना दिया जाता है। फोटोग्राफी की दुनिया में बदलाव ने पत्रकारिता को जहां एक नया आवश्यक अंग दिया है वहीं उसकी विश्ववसनीयता को भी एक नई पहचान मिली किंतु असली-नकली फोटोग्राफी के प्रश्न भी भयंकर रूप से सामने आने लगे हैं।
टीवी का अविष्कार 19 वीं सदी के आखिर में और 20 वीं सदी की शुरुआत में हुआ, लेकिन इस प्रयोग लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने के लिए 1930-40 के दौर मे ही शुरू हो सका। पत्रकारिता के टीवी युग ने समाचार और उसके प्रति अपनी रुचि रखने वालों को एक ऐसा माध्यम दिया जिसकी मदद से वो खबरों को तुरंत जान सकते थे। जिसके लिए न तो उन्हें अगले दिन के अखबार का इंतजार करना पड़ता है और न ही रेडियो के बुलेटिन का। इधर कोई घटना घटी नहीं की उधर हम उसे टीवी पर देख सकते हैं, वो भी लाइव। टीवी पत्रकारिता ने रिपोर्टिंग को भी आसान बना दिया। इसकी मदद से पत्रकार घटना स्थल से ही सीधी रिपोर्टिंग कर के दर्शकों को दिखा सकते हैं।
हां! आज पत्रकारिता के लिए एक नई दुनिया है। जिसने समाचारों की तेजी को और भी गति दी है, वहीं उसके स्रोत भी बदले हैं। एक समय था पत्रकार किसी भी समाचार को पाने के लिए विभिन्न एजेंसियों और अन्य स्रोतों के भरोसे रहना होता था, आज समाचार संकलन के स्रोत पूरी तरह बदल चुके हैं। आज के डिजिटल युग ने पत्रकारिता को बहुत ही आसान कर दिया है तो चुनौतीपूर्ण भी।। बीते कुछ दशक में पत्रकारिता को कई ऐसे तकनीकी साधन मिले हैं जिनकी मदद से पत्रकार सूचनाओं को तुरंत अपने संज्ञान में लेकर समाचार का रूप में पेश कर सकता है। इन साधनों में खासकर सोशल मीडिया ज्यादा मददगार साबित हो रहा है।
पत्रकारों को फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइट्स ने खबरों का जहां नया स्रोत दिया हैं वहीं विश्ववसनीयता का नया पैमाना भी। तकनीक ने खबरों के स्रोत बदलने के साथ-साथ पत्रकारों को एक नया माहौल दिया है। अगर कोई पत्रकार छुट्टी पर है और उसे अपने आस-पास घटी किसी घटना की जानकारी अपने संस्थान तक पहुंचानी है तो वो अपनी मोबाइल से ही फोटो क्लिक कर के वाट्सएप या फिर अपने लैपटॉप की मदद से उसे समाचार का रुप देकर प्रकाशित करने के लिए भेज सकता है।
आज के इस तकनीक युग ने पत्रकार और पाठक के बीच की दूरी को कम किया है। समाचार पत्रों, टीवी चैनलों और विभिन्न रेडियो चैनल्स के फेसबुक और ट्विटर पर आने के बाद पत्रकार और जनता के बीच की दूरियां कम हुईं है। अब यह आवश्यक भी नहीं कि कोई पत्रकार हमेशा अपने साथ एक फोटोपत्रकार या फिर वीडियो जर्नलिस्ट लेकर चले। वो अब खुद ही मीडिया कन्वर्जेंस के इस युग में सारे काम अकेले कर सकता है।
यथोक्त के आलोक में यह लिखते हुए खेद हो रहा है कि आजादी के पचत्तर वर्ष बाद भी देश में पत्रकारिता की जो तस्वीर सामने आई है, इतनी भयावह और शर्मनाक है कि देखते-सुनते नहीं बनती। सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला है। संत्री से लेकर मंत्री तक भ्रष्टाचार की लपेट में हैं। सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक भ्रष्टाचार सिर चढ़ कर बोल रहा है। किंतु देश का मूल मीडिया केवल और केवल सरकार की चापलूसी में लगी रहती है और जनता की खबरों को पर्दे के पीछे धकेल देता है। इस प्रकार पिछ्ले काफी वर्षों से मीडिया का गैर- जिम्मेदाराना चरित्र भी उजागर होने लगा है।
राजनैतिक भ्रष्टाचार की तरह अख़बारी तंत्र का भ्रष्टाचार भी नया नहीं रह गया है। एक ऐसा समय था जब अधिकारी और राजनेता भी अख़बारों से डरते थे। आज की पत्रकारिता का चरित्र, माना, और उन्मुक्त हुआ है किंतु पहले जैसा प्रभाव कतई नहीं रहा है। आज की पत्रकारिता प्रभावी कम, तमाशाई ज्यादा हो गई है। मध्यस्ता करने लगी है आज की पत्रकारिता। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने तो जैसे तमाम मान्यताएं ताक पर उठ कर रख दी हैं। गैर-जिम्मेदार अधिकारियों और राजनेताओं की काली करतूतों पर परदा डालने का काम करता है। इसका मूल कारण है कि के मूल धारा के मीडिया पर पूंजीपतियों का कब्जा हो गया है। कई राजनीतिक दलों के अपने-अपने मीडिया चैनल भी हैं। कहने का अर्थ ये है कि गैर-जिम्मेदार अधिकारियों और राजनेताओं की ढाल बनकर भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। पत्रिकारिता भी राजनैतिक दलों की भाँति दलगत होकर रह गई है। स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता को लील गई है आज की पत्रकारिता। वहीं सत्ताधीश राजनीतिक दल ने भी टीवी और अखबारी मीडिया पर पूरी तरह से अपना सिकंजा कस रखा है।
अभी हाल ही में जुलाई 2024 के आखिरी दिनों में एक ऐसा वाकया सामने अक अजब ही का वाकया सामने आया है। नई संसद बनने के बाद, 2014 के बाद से एक ऐसा समय आ गया था जब पत्रकार संसद में जाते थे, पत्रकारों के कमरे में जाते थे। बाकी राजनीतिक नेता अलग-अलग पार्टियों के दफ्तरों में जाते थे। नेताओं से मिलते थे। वे गलियों में घूमते थे। सबकी मीटिंग होती थी। वरिष्ठ पत्रकार जो संसद के लिए एक खास समय पर रिपोर्टिंग करते थे, उन्हें सेंट्रल हॉल का पास मिल जाता था। वे सेंट्रल हॉल में बैठते थे। ऐसा माहौल था। इसे प्रेस की आज़ादी कहते हैं। लेकिन मोदी जी के आते ही सब बंद हो गया। पत्रकारों की आवाजाही बंद हो गई। और अब नया संसद भवन बन गया है। उसके सामने, 20 बाय 40 के कांच के कंटेनर में, सरकार ने उसमें कुर्सी रखी, उसमें एक दरवाजा लगाया, सभी पत्रकारों को उसमें बैठाया और कांच से देखने को मजबूर किया कि संसद में कौन आ रहा है और कौन आ रहा है। अगर आप किसी अनजान घर में जाते हैं, या अगर आप चिड़ियाघर जाते हैं आप कांच में कैद जानवरों को देखते हैं। ठीक इसी तरह, आप पत्रकारों को आते-जाते हुए देखते हैं।
जब राहुल गांधी और अखिलेश संसद के लिए आ रहे थे, तो सबने हाथ हिलाया, तो वे अंदर चले गए। सबने अपना दर्द बताया। और जब संसद में राहुल गांधी स्पीकर महोदय से पत्रकारों का दर्द बताने लगे तो स्पीकर ने कहा, इन्हें बेचारे मत कहो। वह सही थे। क्योंकि हमारा वक्ता खुद बेचारा/ गरीब है। वह इतना गरीब है कि वह दाएं और बाएं की गलतियों को गलत नहीं कह सकता। और विपक्ष की सही बातों को भी गलत साबित करने की कोशिश हो रही है। यह असंभव काम है। अगर स्पीकर को यह करना पड़े तो वह बेचारा है। वो गरीब है क्योंकि सरकार चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के सहारे है। सच तो ये है कि यह सरकार पूंजीपतियों की सरकार है। लेकिन जब राहुल और अखिलेश ने पत्रकारों की स्थिति पर आवाज उठाई तो स्पीकर महोदय ने पत्रकारों को तुरंत पत्रकारों को अपने कमरे में बैठक के लिए बुलाया। और उनसे एक बैठक के बाद पत्रकारों को पिंजरे बाहर करने का निर्णय लिया।
आज सामाजिक हितों की बात तो सरकार जोरों से उठाती है किंतु गहराई से देखें तो पत्रिकारिता और राजनीति दोनों मिलकर देश को खा रही हैं। समाज में आए दिन मारकाट, लूटपाट, बलात्कार और समाज के दलित और निरीह तबके के साथ उत्पीड़न की वारदातें बलवती जा रही हैं। उन पर घड़ियाली आँसू बहाकर ही, ये आज के राजनेता और पत्रकार अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि राजनेताओं और पत्रकारों के संबंध मधुर भी हैं और तनावपूर्ण भी। ये तनाव जब और बढ़ जाता है, तब राजनेता कुछ बताना नहीं चाहता और पत्रकार उसे कुछ न कुछ कहने के लिए उकसाता है। अनावश्यक रूप से किसी को उकसाना और उकसाने के लिए प्रयुक्त वाक्य का तरीका ही समस्त विवादों की जड़ है।
पत्रकारों के साथ बदसलूकी की बात सब कर रहे हैं किंतु ऐसी स्थिति क्यूँ और कैसे उत्पन्न हुई, यह जानने का प्रयास कोई नहीं करता, आखिर क्यों? इसकी जाँच की जानी चाहिए। आज मूल धारा का मीडिया पूरी तरह से राजनीतिक होकर रह गया है। किंतु यदि भविष्य में भी मीडिया अमर्यादित बना रहेगा, अपने पाले के गर्क में डूबा रहेगा, उकसाऊ भाषा का सहारा लेता रहेगा तो स्थिति और भी भयावह हो सकती है। स्मरण रहे कि आत्म-हत्या करने वाले से, आत्म-हत्या के लिए उकसाने वाला ज्यादा जिम्मेदार होता है। राजनेता और पत्रकार दोनों को ही संयम से काम लेना होगा। मर्यादाओं के अतिक्रमण पर अंकुश लगाना ही होगा अन्यथा लोकतंत्र के हनन की कीमत राजनीति और मीडिया को भी एक न एक दिन चुकानी ही।
तेजपाल सिंह तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन से भी ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं| हिन्दी अकादमी द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। आप साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक, आजीवक विजन के प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी रहे हैं। 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।