गांधी से नफरत दिखाने और सिखाने वाली सावरकर की कहानी
फिल्म समीक्षाः स्वातंत्र्यवीर सावरकर
एक्टर रणदीप हुड्डा बतौर निर्देशक अपनी पहली कोशिश में बुरी तरह से चूक गए हैं। स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर की बायोपिक बनाते हुए उन्होंने उनके जीवन की कथा को कुछ ऐसे अंदाज में पेश किया है कि न केवल गांधीवादी नाराज हैं, बल्कि सावरकर प्रेमियों को भी कई बातें गले नहीं उतरेंगी। जब बॉलीवुड किसी ऐतिहासिक विषय या प्रसिद्ध हस्ती पर फिल्म बनाए, तो उसके किसी प्रकार की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। रणदीप हुड्डा की इस फिल्म में एक बार फिर यह बात सच साबित हो गई है।
फिल्म का फोकस एक समय के बाद वीर सावरकर के जीवन पर कम और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विरोध पर अधिक हो जाता है। यही नहीं, आश्चर्य तब होता है जब रणदीप हुड्डा लगातार इस बचकानी और वाट्सएपनुमा कोशिश में दिखाई देने लगते हैं कि सावरकर देश के सबसे बड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। रणदीप की यह अंधभक्ति न तो इतिहास से न्याय करती है और न ही वीर सावरकर का उद्धार करती। खुद रणदीप हुड्डा ने सावरकर की भूमिका निभाई है और पर इसमें भी पर्दे पर काफी हद तक कमजोर साबित हुए हैं। देखिए, फिल्म पर विस्तार से बात करता यह वीडियो…
रवि बुले हिन्दी साहित्य के ख्यातिलब्ध कथाकार, फिल्म निर्देशक और फिल्म समीक्षक हैं।
आईने सपने और बसंत सेना तथा यूं न होता तो क्या होता इनके चर्चित कहानी संग्रह तथा दलाल की बीवी इनका बहुपठित उपन्यास है । फिल्म आखेट के निर्देशक के रूप में इन्होंने हिन्दी सिनेमा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। मराठी भाषा के कुछ महत्वपूर्ण साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी आपने किया है।