कवि अपनी निजता को लोक-सत्ता में लीन किए रहता है
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ विभिन्न संस्कृतियों, कलाओं, धर्मों एवं भाषाओं का संगम है जिसमें विविध समुदायों, वर्गों के लोग जीवन यापन करते हैं। सबका जीवन समान और सुचारू रूप से चल सके इसलिये एक संविधान का निर्माण किया गया है; जिसमें सम्पूर्ण देशवाशियों के लिए एक सामान व्यवस्था है एवं दलित, शोषित, उपेक्षित, गरीब, असहाय और पीड़ित वर्ग के हितो के रक्षा के लिए बहुत से कानून है। परन्तु आश्चर्य होता है कि ये लोग शोषण मुक्त नहीं है। जिसकी लड़ाई आजाद भारत में भी चल रही है। बहुत से संगठनिक, राजनीतिक,साहित्यिक आन्दोलन देश के कोनें-कोनें चल रहे हैं। अपने हक़ के लिए हर कोई आवाज उठा रहा है। मानव-मानव में समानता के लिए जद्दोजहद चल रही है। सभी यह चाहते हैं कि सामान अधिकार और सम्मान मिले। इसी लड़ाई को समाज में सदियों से बेबस और बदतर जिन्दगी जी रहे दलित वर्ग लड़ रहे हैं। उन्होंने अपनी आवाज साहित्य के विभिन्न विधाओं के माध्यम से उठाया है। कविता उसी सबमें एक सशक्त विधा है, जिसने दलित समाज के लोगों के अंदर चेतना का संचार किया है। इन शोषित लोगों ने अपने दुःख दर्द को कहने के लिए स्वयं की भाषा, सौन्दर्य का निर्माण किया। तब हिन्दी साहित्य के प्रबल समर्थकों ने दावा किया कि दलित हित में हिन्दी साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है। परन्तु कितने भी दावे किये जाय, नारे लगाये जाय, सब व्यर्थ है। क्योंकि दलित रचनाकारों ने सिद्ध कर दिया है कि उसमें वह संवेदना नहीं है जो दलित साहित्य में है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि व्यावसायिकता कविता को लील जाती है। ज्ञात हो कि मानव की मुक्तावस्था ही कविता को जन्म देती है। अनुभूतियों का वह स्तर जहाँ पहुँचकर मानव स्वयं को भूल जाता है – अपनी निजता को लोक-सत्ता में लीन किए रहता है, वहाँ मानव जैसे कवि को जाता है। संकुचन समाप्त प्राय: हो जाता है। यूँ जानिए कि प्रत्येक बच्चा जन्मजात एक कवि होता है, यदि उसे होने दिया जाए। कविता कवि की अपनी ही बात हो, आवश्यक नहीं। कविता अनुभूति-योग का परिणाम भी हो सकती है। यह आवश्यक नहीं कि कवि की अपनी पीड़ा की अनुभूति किसी और को हो, किंतु औरों की पीड़ा कवि की पीड़ा हो सकती है।
जगत एक है किंतु इसके रूप अनेक हैं। ठीक इसी प्रकार कवि एक है – हृदय एक है, किंतु भाव अनेक हैं। इस विभिन्न प्रकार की भावनात्मकता का निर्वाह, परिष्कार और कार्य-व्यापार को तभी समझा जा सकता है, जब यह भावनात्मकता जगत के भिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो जाए; जगत की बात करे। काव्य-दृष्टि में भाव-पक्ष मूल होता है – विषय अलग-अलग हो सकते हैं। परिणामत: सभ्यता और संस्कृति के परिवर्तन के साथ-साथ कवियों के लिए भी भाव-पक्ष में परिवर्तन हो अथवा न हो, यह सवाल हमेशा बना रहता है। जाहिर है, काम अवश्य बढ़ जाता है।
समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, गैर-बराबरी और कट्टरता का काव्यात्मक रूप में बखान भर करते रहना कविता नहीं कही जा सकती – अपितु समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, गैर-बराबरी और कट्टरता के बखान के साथ-साथ उनके निराकरण के लिए दिशा देने; उनसे निबटने के लिए भाव-भूमि प्रस्तुत करने से कविता समग्र होती है। किंतु व्हाटएप और फेसबुक के आने से साहित्य की गरिमा को खासी चोट लगी है। लोगों का आम आरोप है कि फेसबुक खराब कविताओं से भरा हुआ है। प्रस्तुत हैं हिंदी भाषा और कविता की वर्तमान स्थिति पर संजय कुंदन विचार। कहना उचित ही लगता है कि एक तरफ हिंदी में कविता के अंत की बात की जाती है, दूसरी तरफ कवियों की बाढ़ आ गई है। । । । । लिख कौन रहा है, मध्यवर्ग के लोग, जैसे कोई स्कूल टीचर है या कुछ और। जिसके पास यह क्षमता है कि अपनी किताब खुद छपवा सके। उसे लगता है कि उसकी एक किताब आ गई तो वह भी नामी लेखकों के ग्रुप में आ गया है। गौर करने की बात है आज रचना की हैसियत गिरी है, किताब की नहीं। किताब का आज भी महत्व है। आदमी किताब पढ़कर ही इम्तिहान पास करता है, नौकरी पाता है। हम सब किताब पढ़कर ही बड़े हुए हैं। लेकिन ऐसे लोग फेसबुक पर ज्यादा हैं। । । । फेसबुक एक तरह का क्लब है। इस पर लिख रहे ज्यादातर लोग कविता का मर्म नहीं जानते। कविता को लेकर उनके भीतर कुछ भ्रमात्मक वाक्य बैठे हुए हैं जैसे कि कविता भावनाओं की अभिव्यक्ति है। उनके लिए कविता का फॉरमैट क्या है- छोटी-बड़ी लाइन। अब छंद का मामला खत्म हो गया है। सो ऐसे लोगों के लिए कविता लिखना बहुत आसान हो गया है। अब कोई मन की भावना इस तरह लिख सकता है कि ‘काले बादल छाये रहे, बारिश होती रही, मन भीगता रहा।’ अब इस पर ढेरों लाइक्स आ गए। लिखने वाला प्रसन्न हो गया। कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति तो है नहीं। वह उससे आगे की चीज है। लेकिन यह फेसबुक पर लिख रहे अनेक लोगों को पता ही नहीं है। दरअसल वे पढ़ते नहीं हैं इसलिए वे अच्छी कविता समझ नहीं पाते। तकनीक ने कविता को भ्रमों से भर दिया है। हालांकि फेसबुक पर अच्छे कवि भी लिखते हैं। कुछ अच्छी कविताएं भी समय-समय पर दिखाई दे जाती हैं।
कुंदन जी आगे कहते है कि अच्छी कविताओं का कम होना हमारे समय की दिक्कत है। अच्छी कविताएं अच्छे कवियों के पास भी कम हैं। ज्यादातर संग्रहों में प्राय: चार-पांच ही अच्छी कविताएं होती हैं। एक बार सत्यजीत राय से किसी ने पूछा था कि आपने फिल्म बनाना किससे सीखा। उन्होंने कहा, बायसिकिल थीफ के डायरेक्टर डेसिका से। उनका कहना था कि यह फिल्म उन्होंने पचास बार देखी। एक-एक शॉट को कई बार देखा। अब बताइए, आज कौन इस तरह सीखने को तैयार है। लोगों को लगता है सीखने की जरूरत ही क्या है।
ज्यादातर कवियों द्वारा कहा जाता है कि पाठक कम हो गए हैं। क्या कोई ऐसा वक्त था जब कविता के ढेरों पाठक थे? पहले तो छापेखाने भी आज जितने नहीं थे। चांद जैसी पत्रिका पढ़े-लिखे घरों में आती थी। बच्चों की कई पत्रिकाएं छपती थीं, पर ऐसा भी नहीं था कि वे लाखों में बिकती थीं। पहले तो लेखक खुद ही अपनी किताब छपवाते थे। हिंदी प्रदेश की आबादी 60 करोड़ है, उसका एक प्रतिशत 60 लाख हुआ। उसका एक प्रतिशत 60 हजार हुआ। इतने लोग तो पढ़ते ही होंगे। हां, सभी लोग एक ही कवि को नहीं पढ़ते। कोई अज्ञेय को पढ़ता है तो कोई रघुवीर सहाय को। इस तरह एक कवि की पांच-छह हजार किताब बिकती है। लेकिन यह बात प्रकाशक बताते नहीं। लखनऊ के पुस्तक मेले में मैंने अपनी किताब का पेपरबैक संस्करण देखा तो भौंचक रह गया। मुझे इसके बारे में पता ही नहीं था। वैसे बांग्ला और ओडिया में हिंदी की तुलना में कई गुना ज्यादा किताबें बिकती हैं। आखिर इसकी वजह क्या है? इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि आजादी की लड़ाई हमने हिंदी और भारतीय भाषाओं में लड़ी, लेकिन आजादी के बाद हमने उन्हें छोड़ दिया। सारा काम अंग्रेजी में होने लगा। इस तरह हम तो आजाद हो गए, लेकिन हमारी अपनी भाषा गुलाम हो गई।
यदि ये कहा जाए कि हिंदी को राजभाषा करार देने के बाद प्रशासनिक स्तर पर हिन्दी के कार्यांवयन पर खासी गिरावट आई है। क्योंकि सरकारी कार्यालयों मूल लेखन पहले अंग्रेजी में किया जाता है और फिर उसका हिन्दी में अनुवाद प्रसारित किया जाता है। अब तो अधिकतर हिंदी प्रेमियों ने यह भी कहना शुरू कर दिया है कि हिंदी को मिला राजभाषा का दर्जा वापस ले लिया जाए। हिंदी अपनी ताकत के बूते अपनी जगह बना लेगी। लगता है कि यहाँ थोड़ा विषयांतर हो गया है, मैं पुन: कविता की ओर लौटता हूँ।
बड़े दुःख की बात है कि आजकल कुछ अच्छे और संभावनापूर्ण कवि भी ज़रूरी संवेदना और प्रतिभा से संपन्न होने के बावज़ूद कविता में अपने कथ्य की कंगालियत को अपनी शैली के नीचे छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। यह वैसा ही प्रयत्न है जैसे कोई व्यक्ति अपने अंधेपन को रंगीन चश्मे के नीचे छिपाकर लोगों को खुद के दृष्टि संपन्न होने का भरोसा दिलाने की अनावश्यक प्रयास करे। कई कवि तो इस प्रयास के दौरान गूढ़ दर्शन का ऐसा घटाटोप उत्पन्न करते हैं कि पाठक अस्पष्टता के अतल महासागर में डूबता-उतरता रहता है। वह अपने हाथ पैर मारकर किनारे तो आना चाहता है परंतु कविता उसे किनारे आने ही नहीं देती। या यूँ कहें कि पाठक को कहीं किनारा दिखता ही नहीं। मैंने ऐसे कवियों को अपनी अज्ञानता का उत्सव मनाते हुए , मूढ़ता के समक्ष दंडवत करते देखा है। इन्हें अपनी कविता की अपेक्षा पाठकीय की सच्ची-झूठी प्रसंशा से अधिक प्यार है।
इस बारे में माननीय फूलचंद गुप्ता फेसबुक पर ‘कुपोषित कविता’ शीर्षक से लिखते हैं,” कविता कवि की संतान होती है और हर कवि काव्य-सृजन के पूर्व प्रसव-पीड़ा का अनुभव करता है। मुझे इस बात की सच्चाई में यकीन है। किंतु इधर देखने को मिला है कि कुछ कवि कविता को जन्म देने के पश्चात अपनी इस प्रिय संतान के प्रति अपना दायित्व नहीं निभाते। सृजन के बाद कविता का भी संतान की तरह ही लालनपालन करना होता है। उसे नहलाना-धुलाना होता है। साफ-सुथरा करना-रखना पड़ता है। उसे सजाना-सँवारना होता है। उसका जतन से पोषण करना होता है। किंतु अक्सर कवि ये काम नहीं करते। फलतः कविता कुरूप और कुपोषित रह जाती है। फिर जैसा कि स्वाभाविक है, रेलवे पटरी या पुल के नीचे जिस तरह पड़े-पड़े कुपोषण के शिकार बच्चे दम तोड़ देते हैं , कुपोषित कविता भी डायरी या किताब के पन्नों में पड़े-पड़े दम तोड़ देती है। कुछ कवि तो ऐसे भी हैं जो अपनी संतति- कविता को पूरे समय तक गर्भ में रहने ही नहीं देते। उन्हें बड़ी जल्दी होती है महाकवि बन जाने की। फलस्वरूप वे कविता की प्रिमैच्योर डिलीवरी कर देते हैं। कविता-भ्रूण का अभी पूरी तरह विकास भी नहीं हुआ होता, भ्रूण की देह में अभी प्राण भी नहीं आया होता इसके पूर्व ही कवि स्वयं सिजेरियन कर कविता को बाहर निकाल लेते हैं। ऐसी कविता कैसी होगी ? अधमरी या मरी हुई। भाई मेरे! प्रसवपीड़ा को पूरी तरह महसूस करो। उस सृजन-पीड़ा को भोगो। उसका आनंद लो। पीड़ा का आनंद! आनंद दायक पीड़ा! इंतज़ार करो। जब कविता का स्वाभाविक जन्म होगा , कविता स्वस्थ , सुडौल और सर्वांगीण सुंदर होगी।“
माननीय प्रभात गोस्वामी जी कवि/लेखक की पीड़ा पर कुछ इस प्रकार अपने विचार प्रकट करते हैं कि जब भी कोई लेखक अपना काम पूरा करके उसे किसी समाचार पत्र या अखबार में प्रकाशित करने के लिए भेजता है तो उसकी चिंता बहुत बढ़ जाती है। आजकल हर लेखक को लेखन में जन्म से दोगुनी पीड़ा होती है। पहली बार तब, जब वह अपने काम को जन्म देता है, और दूसरी बार तब, जब उसका काम किसी अखबार या अखबार में उसका पहला पन्ना भरता है। इंतज़ार के पल कितने कठिन होते हैं ये सिर्फ एक लेखक ही समझ सकता है। एक लेखक रात में बाथरूम जाता है और अपना मोबाइल खोलकर ई-पेपर का इंतज़ार करता है। इंतज़ार करना कितना कठिन होता है यह केवल एक लेखक ही समझ सकता है। आजकल लिखना लिखने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। इसे प्रकाशित हो जाने के बाद इसे विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रकाशित करना भी उसकी चिंताओं में शमिल है चिंता यह भी है कि अगर हमारे पसंदीदा लेखक की रचना पहले प्रकाशित होगी तो हमारी बारी कब आएगी? इसी चिंता में हर लेखक/कवि दुबला हो जाता है। किसी के बाल सफेद हो रहे हैं तो किसी का शुगर लेवल बढ़ रहा है।
फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, ट्विटर और अन्य प्लेटफार्म पर रचनाएँ भेजने के इस युग में आज के लेखक बहुत व्यस्त हैं। वैसे भी, हर कवि/लेखक का ध्येय प्रकाशित होना तो होता ही है। यह पहली बार नहीं था कि उनका काम किसी अखबार या अख़बार में प्रकाशित हुआ हो। लेकिन हर बार उसे ऐसा लगता है जैसे यह पहली बार प्रकाशित हुआ हो। लेखक लिखने को लेकर जितना गंभीर है, उतना ही गंभीर इस बात को लेकर है कि उसकी प्रतिक्रियाओं में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। जैसे ही उनका कोई लेख/कविता प्रकाशित होती है , तो उन्होंने सुबह जल्दी उठकर लगभग 4। 30 बजे विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर अपना काम प्रकाशित करके साहित्यिक समुदायों में वितरित करना भी लेखक/कवि की पीड़ा होती है। उनका ध्यान लगातार अपने मोबाइल पर लगा रहता है कि कब उसके मोबाइल पर प्रतिक्रियाओं का पहाड़ आना शुरू हो जाए। सब एक दूसरे को फोन करते रहते हैं किअरे! क्या हुआ? आज क्या हुआ? साढ़े तीन घंटे हो गए और अभी तक मेरी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया नहीं आई है। ये केसे हो सकता हे? यह देने और लेने का युग है। जब हम आपकी रचनाओं पर प्रतिक्रिया करते हैं तो हमारी रचनाओं पर प्रतिक्रिया देना आपकी जिम्मेदारी नहीं है।
दरअसल लेखक/ कवि मुक्त-भाव होता है। कोई रोता है तो कवि भी रोता है। कोई हँसता है तो कवि भी हँसता है। समय के साथ-साथ चलता है कवि। समंदर सा ठहराव भी कवि में होता है। प्रेम-प्रीत और वियोग – दोनों को जीने का दम कवि में होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो वो कवि कतई नहीं हो सकता, कुछ और ही होता है। किंतु बाहरी अनुभूति और चमक-धमक का ज्यूँ का त्यूँ बखान करना कविता में कोई अर्थ नहीं है। वस्तुत: कवि तमाशबीन नहीं होता, भावुक और सहृदय होता है। यह बात अलग है कि आजकल के कुछेक मंचीय कवि नाम कमाने के चक्र में फँसकर कविता के मूलाधार को ठिकाने लगाने से बाज नहीं आते।
दरअसल कवि का मूल भावुकता है। कभी वर्षा भी उसे नहीं भिगो पाती तो कभी वो सर्दी में भी ग्रीष्म के प्रचंड आतप में तपता है। कभी मधुमास में पतझर तो कभी पतझर में मधुमास का अनुभव करता है। अलग-अलग परिस्थियाँ कवि की भावुकता को प्रभावित करती हैं। कवि की दृष्टि सृष्टि के क्षेत्र को घटा-बढ़ा देती हैं। कवि की दृष्टि यदि सजीव है तो उजड़ा जंगल भी हरा-भरा सा लगता है, यानी सौन्दर्य-बोध को प्रबलता प्रदान करता है। कवि की दृष्टि यदि निर्जीव है तो सब-कुछ गुड़-गोबर सा हो जाता है। हास-परिहास तो क्या, क्रांति का भाव तक उत्पन्न नहीं होता। अब चाहे इसे कवि की अनुभूति कहें अथवा तथ्य, सजीवता कहें अथवा निर्जीवता, इसी से कविता जन्म लेती है।
आमतौर पर कविता का व्यावसायिक होने का आज सवाल ही कहाँ हैं। और जहाँ रचना व्यावसायिक हो जाती है तो देश, काल और परिस्थिति का अर्थ व्यावसायिकता की चादर में ढक जाता है। व्यावसायिक होकर कवि, कवि नहीं, शब्दों-अर्थों का व्यावसायी हो जाता है। सुख-समृद्धि और सम्पन्नता ही व्यावसायिक कविता का उद्देश्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में कवि की भावुकता और संवेदनशीलता मृत-प्राय: हो जाती है।
उपर्युक्त कथन के मद्देनज़र, सजीव और निर्जीव कविता में अंतर करना सहज और सरल हो जाता है। अत: सूक्ष्म और मार्मिक पाठक को अति-सचेत रहना पड़ता है। अपना मार्ग स्वयं ही तलाशना होता है। सजीव कविता में ही जीवन-प्रवाह को गति मिलती है किंतु व्यावसायिक कविता से जीवन-प्रवाह क्षीण और अशक्त-सा होने लगता है। व्यावसिकता ज्ञान और विचार, दोनों की विशालता और अस्मिता की रक्षा करने का सामर्थ्य नहीं पालती। अर्थात व्यावसिकता कविता को ही नहीं, समूचे काव्य-साहित्य को लील जाती है। अत: गद्य हो या पद्य, साहित्य को व्यावसिकता की बेड़ियों से मुक्त होना ही चाहिए।
कविता समसामयिक हो, प्रासंगिक हो, वस्तुनिष्ठ हो तो बात ही कुछ और होती है। जहाँ हर ओर चीख-पुकार हो या यूँ कहें कि फुफकारते काल-चक्र में कविता (साहित्य) फुफकारेगा नहीं तो और क्या करेगा। अम्बेडकरवादी कविता (साहित्य) इस तथ्य का प्रमाण है। अम्बेडकरवादी कविता (साहित्य) की दशा और दिशा पर बहस छिड़ना कोई नई बात नहीं है। सामाजिक असमानता और वर्तमान पीढ़ी में समानता के प्रति व्याप्त व्याकुलता ही अम्बेडकरवादी कविता (साहित्य) का मूल है। सच्चाई तो ये है कि हारे-थके लोग ही सच्चा साहित्य रचते हैं। शेष तो सुगलखोरी करते हैं।
आज मुक्त-छन्द कविता पर नाना-प्रकार से उंगलियाँ उठ रही हैं। वर्तमान दौर में दो तरह से कविता हो रही है। एक मन से , दूसरी मस्तिष्क से यानी लिखी जा रही है। ऐसा होना स्वभाविक ही लगता है। समग्र साहित्य ने समय के साथ-साथ खुद भी करवट बदली है। भक्ति-काल और छायावाद के बाद कविता मुक्त छन्द में लिखी जाने लगी। शिक्षा का क्षेत्र जो बढ़ गया। शिक्षा के प्रचार और प्रसार के साथ-साथ मन के बजाय मस्तिष्क ने ज्यादा काम करना शुरू जो कर दिया जो व्यावहारिक/स्वाभाविक ही है। अक्सर कहा जाता है कि आज कविता भी गद्य में लिखी जा रही है। क्या कविता पर भी किसी का ‘पेटेंट’ है कि कविता ऐसे लिखो? समय परिवर्तन के चलते न जाने कितने आयाम बदलते चले जाते हैं, फिर कविता(साहित्य) पर ये सवाल क्यों? आज कविता में छ्न्द-विधान का सवाल उठाना प्रासंगिक नहीं है। छ्न्द-विधान की परिधि में रहकर कविता करना शायद आज के कवि के वश की बात नहीं है, क्योंकि आज की कविता नितांत मन की बात नहीं है, दिमाग की भी है। फिर भी यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि छ्न्द-विधान आदि शर्तों की तलाश साहित्य-शिक्षकों अथवा आलोचकों की आवश्यकता हो सकती है, रचनाकार की नहीं। किंतु कविता को प्रत्येक मायने में व्यावसायिकता से परे तो होना ही चाहिए
वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है कि किस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं