गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-18

केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की अट्ठारहवीं किश्त है।
पापा को आने दे फिर बताती हूं…..
इससे पूर्व मैं अपनी कहानी कहने पर आऊं, कुछ सांसारिक सोचों का उल्लेख इसलिए करना चाहता हूँ क्योंकि मेरी प्रस्तुत कहानी भी इन्हीं विचारों के इर्दगिर्द घूमती नजर आ रही है। पिता द्वारा किये गए कर्मों का परिणाम चाहे जैसा भी हो, लेकिन अपने बच्चों के प्रति पिता के प्रयासों का उद्देश्य हमेशा उचित और प्रेरक होता है। कहा जाता है कि पिता की सोच का यह अकाट्य सत्य है कि जो बिना आँसू, बिना आवाज के रोता है, वो पिता होता है ; जो बच्चों की किस्मत के छेद अपनी बनियान में पहन लेता है, वो पिता होता है। माँ तो बच्चे को 9 महीने अपनी कोख में रखती है किंतु जो उस बच्चे को 9 महीने अपने दिमाग अपने दिमाग में ढोता है, वो पिता होता है, जो अपनी आँखों में बच्चों के सपने संजोता है, वो पिता होता है। पिता निवाला होता है, पिता अपनी औलाद से हारकर मुस्कराने वाला होता है। पिता करते है, पर कहते नहीं।
बेटी की विदाई पर पिता की संवेदनाएं भावुक होती हैं। बेटी की विदाई पर पिता की कठोरता भावुकता में बदल जाती है। पिता खुद को सहेजता है ताकि कठोरता का पर्दा थोड़ी और ठहर जाए। बेटी की विदाई पर पिता और मां दोनों का दिल बराबर दुखता है। बेटी की विदाई पर पिता को यह लगता है कि अब वह बेटी पर पहले की तरह अधिकार नहीं जता पाएगा। बेटी की विदाई पर पिता को यह लगता है कि अब बेटी की नई ज़िंदगी कैसी होगी, इस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रहेगा। बेटी की विदाई पर पिता को यह लगता है कि अब बेटी की ज़िंदगी किसी और की अमानत है। बेटी की विदाई पर पिता को यह लगता है कि अब बेटी के जीवन भर की पूंजी किसी और की ज़िंदगी है। बेटी की विदाई पर पिता को यह लगता है कि अब बेटी के नाज़ुक कंधों पर दो परिवारों का मान-सम्मान की ज़िम्मेदारी है।
हर बाप घर के बेटे को धमकाता है, कभी-कभी मारता है, पर वही बाप अपनी बेटी की हर गलती को नकली दादागिरी दिखाते हुए, नजर अंदाज कर देता है। यदि कभी गुस्से में बेटी को ज्यादा डाँट दिया या हल्का सा थप्पड़ मार भी दिया तो तुरन्त ही मूंह छिपाकर खुद भी रोने लगता है। बेटे ने कुछ मांगा तो एक बार डांट देता है, पर अगर बिटिया ने धीरे से भी कुछ मांगा तो बाप को सुनाई दे जाता है और जेब में रूपया हो या न हो पर बेटी की इच्छा पूरी करने की हर संभव कोशिश करता है।
दुनिया उस बाप का सब कुछ लूट ले तो भी वो हार नही मानता, पर अपनी बेटी के आंख के आंसू देख कर खुद अंदर से बिखर जाए उसे बाप कहते हैं। बेटी भी जब घर में रहती है, तो उसे हर बात में बाप का घमंड होता है। किसी ने कुछ कहा नहीं कि वो बेटी तपाक से बोलती है, “पापा को आने दे फिर बताती हूं।” बेटी घर में रहती तो माँ के आंचल में है, पर बेटी की हिम्मत उसका बाप होता है।
कुछ ऐसी ही यही कहानी मेरी बेटी की शादी की भी है। हुआ यूं कि एक दिन बिना किसी पूर्व सूचना के लड़का, लड़के के बुजुर्ग पिता और लड़के का बड़ा भाई अचानक मेरे बैंक कालोनी (दिल्ली) वाले घर पर आ पधारे। मुझे उनके आने का आशय समझने में इस लिए कोई शंका इसलिए नहीं थी क्योंकि कुछ दिन पूर्व लड़के देखने के लिए उनके घर होकर आ चुका था। खैर! बिना किसी ओपचारिकता के मैंने उन्हें अपने छोटी सी बैठक में ससम्मान बिठा लिया। उस कमरे में एक सोफा और एक साधारण सा दीवान पड़ा था। बड़े सोफे पर पर मेरे होने वाले समधी और अन्य दो कुर्सियों पर एक-एक करके दोनों भाई बैठ गए। दीवान पर मैं और मेरी डौगी – गौरी बैठ गए। पहले मैं स्वयं पानी लेकर आया और दूसरी बार मेरे बेटी रेणुका चाय-नाश्ता लेकर आई तो लड़के के पिता जी ने सहसा बेटी को अपने पास सोफे पर ही बिठा लिया। कुछ अंग्रेजी में सवाल किए तो पाया कि उस दिन बेटी ने संकेतों में ही सही लेकिन अंग्रेजी में ही उत्तर दिए। इसके बाद वहाँ से चली गई।
उसका जाना था कि लड़के के पिता जी ने मेरी हाथ मिलाने की मुद्रा में अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया किंतु मैं सोचों खोया चुपचाप बैठा रहा। मुझे शांत देखकर उन्होंने मेरे मौन को तोड़ने के मंशा से मेरे कंधे पर हौले से धौल जमाई। उन्होंनें बेटी को अपनाने का संकेत दिया। अब मेरी बारी थी। मैंने खुले स्वर में कहा कि सर! मेरे पास शादी के निम्मत केवल डेढ़ लाख रुपय हैं जैसे भी चाहे उस पैसे का उपयोग करालें, इसमें मुझे कोई परहेज नहीं है। यदि अब आपको ‘हां’ करनी तो कहें….इतना कह मैंने भी अपना हाथ उनकी ओर बढ़ा दिया।

उन्होंने झट से मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘दरअसल! मेरी बड़ी बहू विदेश की है, वो केवल अंग्रेजी ही समझती है… आपकी बेटी में उसको समझाने जितनी अंग्रेजी आती है। मुझे बस! इतना ही चाहिए था, वो मुझको मिल गया। बेशक! आप इतने भी पैसे खर्च न करें किंतु ‘ना’ न कहें।’ अब आप सोच रहे होंगे कि मैंने उनके सामने पैसे की सीमाबंदी क्यों की। कारण था कि उनका आर्थिक लेवल मुझसे ज्यादा था, बेशक मैं उस समय बैंक में अधिकारी था। दूसरी बात ये थी कि शादी के बाद बेटी के ससुराल वाले गाहे-ब-गाहे बेटी को दहेज का ताना कस ही देते हैं- इसलिए अपने आर्थिक बजट का हवाला देकर मैनें उनका मुंह बंद करने का उपक्रम किया था।
बात 18 अप्रैल 1998 की है। मेरी बेटी की शादी थी। घर में अकेला ही पुरुष होने के नाते सारे काम मुझे ही देखने पड़ रहे थे। निमंत्रनण पत्र बाँटने से लेकर शादी हेतु तमाम तामझाम की व्यवस्था करने में कुछ न कुछ भूलचूक हो जाना मेरे लिए एक व्यावहारिक अवस्था थी। मुझसे भी अनजाने में बहुत सी गलतियाँ जरूर हुई होंगी, ऐसा मानने में मुझे कतई भी गुरेज नहीं है। किसी को मैं निमंत्रण पत्र देना भूल गया तो किसी को गृहणी के हस्तक्षेप के चलते चाहकर भी नहीं बुला पाया। वैसे परिवार के कामों में कुछ न कुछ अप्रत्याशित अवरोध उत्पन्न करना ज्यादातर गृहणियों की आदत में सुमार होता ही है।
यह भी कि पिता और बेटी का रिश्ता बहुत ही महीन होता है। यह भी देखा गया है कि बेटी की विदाई के वक्त बाप ही सबसे आखिरी में रोता है। ….क्यों? क्योँकि बाकी सब भावुकता में रोते हैं किंतु पिता उस बेटी के बचपन से विदाई तक के बीते हुए पलों को याद कर करके रोता है। माँ बेटी के रिश्तों पर तो बात अक्सर होती ही रहती है, किंतु बाप और बेटी का रिश्ता जैसे समुद्र से भी गहरा होता है। पर परिलक्षित नहीं होता। बेटी की जब शादी में विदाई होती है तब वो सबसे मिलकर रोती तो है, पर जैसे ही विदाई होती है तो बाप से जाकर लिपट जाती है, और ऐसे कसके पकड़ती है अपने बाप को जैसे माँ अपने बेटे को। खैर बाप खुद रोता भी है, और बेटी की पीठ ठोक कर हिम्मत भी देता है, कि बेटा चार दिन बाद आ जाऊँगा, तुझको लेने और खुद जान बूझकर निकल जाता है, किसी कोने में और उस कोने में जाकर वो बाप कितना फूट फूट कर रोता है, ये बात सिर्फ एक बेटी का बाप ही समझ सकता है।
खैर! बेटी की विदाई हो गई। औरतें घर के भूतल पर बने घर में चलीं गईं। और बेटी की विदाई के बाद मेरे अपनों को शादी न बुलाए जाने का मनों बोझ मेरे सिर पर लद गया। मैं भारी मन से मकान के प्रथम तल पर चला गया। जैसे-जैसे बीते समय की बातें याद आती गईं, वैसे-वैसे मेरी आँखे नम होती चली गईं। मेरी मूंहबोली बहन – अनारों ने शायद मेरे चेहेरे को पढ़ लिया था, मेरी हालत देखकर वह भी मेरे साथ-साथ ऊपर आ गई और मेरे कंधे पर हाथ रखकर बैठ गई।
अब मेरी सिसकियां बंध गईं थी। मैं चुपके से उठा और ऊपर वाली रसोई में गया… शराब के दो पैग गटागट गटक गया और बहन के पास आकर बैठ गया… मेरे सिसकियां और तेज होती गईं। बहन मेरी जहनी हालत के बारे में कुछ-कुछ पता था- बोली, मैं जानती हूँ … तू क्यों रो रहा है…अब भूल जा सब बातों को… बेटी शांति से विदा हो गई… बस! यही सोच और खुद को सम्भाल। किंतु संभलना कैसा? मैं विगत के अंधियारे में और ढूबता चला गया और आँखों में आंसू संझोए चुपचाप दीवार का सहारा लेकर फर्श पर ही बैठा रहा। जाने कैसे-कैसे ख़याल दिमाग में आते रहे और अनमने मन से बेटी के भविष्य को लेकर चिंता ग्रस्त हो कुछ सांसारिक/ पारवारिक सोचों में डूब गया।
मैं उठ कागज कलम लाया और बेटी की विदाई पर कविता लिखकर किसी न किसी तरह मन को हल्का किया । कविता कुछ यूँ है –
कविता :: रणक्षेत्र
मेरी बेटी! / अब तेरी देह / रणक्षेत्र बन गयी है / हो सके तो इस देह को /सहेजकर रखना /सहेजकर रखना अपनी फ्रॉक/ इस फ्रॉक में/ तेरे बचपन की गंध बसी है/ बसा है माँ-बाप का प्यार;
प्यार तो इन साड़ियों में भी/ कम नहीं है / जो तेरी ससुराल से आई हैं/ पर फ्रॉक वाला प्यार /इन साड़ियों में कहाँ / इन साड़ियों में तेरी देह की भूख भी छिपी है छिपी है रणक्षेत्र की गंध /गंध उन्माद की / प्रमाद की;
फ्रॉक /इन सबसे परे की चीज है /संवेदना में सनी है /फ्रॉक ममत्व का भार ढोती है /रणक्षेत्र से बची है /प्रमाद की गंध से नहीं /अल्हड़पन से सनी है ;
मेरी बेटी! इस अन्तर को समझना / यथा-योग्य आचरण करना / फ्रॉक को मत भूल जाना।
यथोक्त के आलोक में एक सामाजिक मान्यता है कि जब तक बाप जिंदा रहता है, बेटी मायके में हक़ से आती है और घर में भी ज़िद कर लेती है और कोई कुछ कहे तो डट के बोल देती है कि मेरे बाप का घर है। पर जैसे ही बाप मरता है और बेटी आती है तो वो इतनी चीत्कार करके रोती है कि, सारे रिश्तेदार समझ जाते है कि बेटी आ गई है। और वो बेटी उस दिन अपनी हिम्मत हार जाती है, क्योंकि उस दिन उसका बाप ही नहीं उसकी वो हिम्मत भी मर जाती हैं। आपने भी महसूस किया होगा कि बाप की मौत के बाद बेटी कभी अपने भाई- भाभी के घर वो जिद नहीं करती जो अपने पापा के वक्त करती थी, जो मिला खा लिया, जो दिया पहन लिया क्योंकि जब तक उसका बाप था, तब तक सब कुछ उसका था। यह बात वो अच्छी तरह से जानती है। अब आगे कुछ और सोचने की हिम्मत जैसे मैं खो चुका था।, बस इतना ही कहना चाहता हूं कि बाप के लिए बेटी उसकी जिंदगी होती है, पर वो कभी बोलता नहीं। बाप-बेटी का प्रेम समुद्र से भी गहरा होता है।
जीवन और मृत्यु के बीच का सफर….
मेरे बच्चों नें न तो दादी माँ से और न ही नानी से अनुपम कहानियां सुनी। सच कहूँ तो उन्होंने हमसे भी कोई कहानियां नहीं सुनी। कभी-कभी यह सोचकर मलाल भी होता है और सुकून भी मिलता है क्योंकि अल्प सुविधाएं मिलने के बावजूद मेरे सब बच्चों ने स्नाकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त कर ली और अपने स्तर पर ही अच्छे-अच्छे प्रतिष्ठानों में नौकरी प्राप्त कर ली। सच कहूं तो उनकी नौकरी लगवाने में मेरा कोई हाथ नहीं रहा। ईस बारे में मुझे उनकी प्रसंशा करनी ही होगी। हाँ! उनके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए जो कुछ मैं कर सका, वह मैंने जरूर किया। यह बात अलग है कि वे जो भी अच्छा–बुरा कार्य करते हैं, परिवार का मुखिया होने के नाते उसका जिम्मेदार मुझे ही को ठहराया जाएगा। हालाँकि उनका अभी तक तो किसी गलत संगत में होने का कोई प्रमाण मेरे पास नहीं हैं।
हाँ! मेरी सबसे छोटी बेटी बिना हमारी किसी सहमति के अपनी मर्जी से 2008 में मुम्बई के एक अनजान युवक के साथ रिलेशन में रहने लगी और 2011 में मुम्बई में ही कोर्ट मैरिज कर ली किंतु वह सफल न हो सकी। ब्रेकअप कई मुहाने पर है। वैसे भी देखा गया है इस प्रकार की शादियों का सफर कम ही होता है। कोर्ट में मुकदमा चल रहा है। यह बात अलग है कि मेरी बेटी आजकल शिखा अपने मैरीटल हाउस, मुम्बई में ही रह रही है। परिणाम भविष्य के गर्भ में है।
किंतु उसके घर से मुम्बई जाने के बाद मेरे जीवन में जो बदलाव आया वो जानलेवा सिद्ध हुआ। यूँ कभी-कभार पहले भी मैं लेखन कार्य करते समय शराब पी लिया करता था किंतु शिखा की इस हरकत के चलते मैं शराब पीने का जैसे आदी हो गया। शराब पीने की केपेसिटी भी बड़ गई। बिना शराब पिए मैं लगभग पागल-सा रहने लगा था। किन्तु मैंने अपने भीतर के सच को किसी के सामने नहीं आने का अथक उपक्रम किया। हां! इस दौरान लिखने का दौर निर्बाध चलता रहा।
मेरे साथ अच्छी बात ये थी कि पीकर मै किसी से कोई बात नहीं करता था। लेखन कार्य करके चुपचाप सो जाता था। किंतु मेरी सेहत पर शराब पीने का इतना विपरीत प्रभाव पड़ा कि मेरा लीवर की सेहत इतनी खराब हो गई कि पेट में पानी भर गया और पेट फूलकर फुटबाल जैसा हो गया। 16 जुलाई 2012 को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। लगभग एक माह अस्पताल में रहना पड़ा। और अगस्त माह के प्रथम सप्ताह में जब घर आया था तो मेरा शारीरिक वजन केवल 44 किलो रह गया था। जीने की कोई न तो को आशा ही शेष रही थी और मेरी जीने की तमन्ना भी न रह गई थी। बस! मैं मर ही जाना चाहता था। लेकिन हुआ इसका उल्टा… घर आने के बाद दिन-प्रति-दिन तिल-तिल मेरा वजन बढ़ने लगा और मैं मौत की दुनिया से बाहर आ गया। और आजतक मैं मौत के उसी कुएं में चक्कर लगा रहा हूँ। न जीवित ही हूँ और मृत ही।
किंतु आज जब मैं उम्र का अस्सीवां पायदान पार कर चुका हूँ तो जीवन ने अजीब ही करवट ले ली है। मेरी बेटी 45 वर्ष की कम उम्री में ही एक विधवा का जीवन जी रही है और दो बच्चियों का लालन-पालन कर रही है। अच्छी बात ये है कि उसकी ससुराल और मायके में केवल 10/15 मिनट का ही पैदल रास्ता है। आशय ये है कि उसका और बच्चों का आना-जाना बहुत ही सहत है। एक दिक्क्त भी है कि बेटी का जेठ–कुमार पाल गौतम बहुत ही कलुषित मानसिकता वाला लोलुप व्यक्ति है।
बेटी के सास-ससुर और दामाद की मृत्यु के बाद वह बेटी के हिस्से के मकान को भी हड़पनी की जुगत बिठाता रहता है। अच्छी बात ये रही कि दामाद की मृत्यु के बाद जब मैं बेटी के घर गया तो मैंने ज्यादा रंज मनाने के बदले मैंने बेटी को बस्स एक ही बात कही, बेटी! अब तुझे किसी का सहारा न लेकर अपने आप को एक मजबूत आदमी की तरह जीने की आदत बनानी है जो आगे की जिंदगी सहज और सरल हो जाएगी। मेरी इस सीख का प्रभाव यह देखने को मिल रहा है कि जब-जब उसका जेठ उसके खिलाफ कोई साजिश करता है, वो उसका मुकाबला वह स्वयं ही करने में सक्षम हो निकली है।
अब मुझ भी यह महसूस होने लगा है कि मेरे जीने के दिन अब उतने नहीं बचे हैं जितने मैंने जी लिए हैं। इस अहसास ने मेरे जीवन में कई बदलाव ला दिए हैं। अब किसी प्रियजन की विदाई पर रोना स्वत: ही छूट गया लगता है, क्योंकि मैंने स्वीकार कर लिया है कि हर किसी की बारी आएगी, मेरी भी। मैंने अब भविष्य की चिंता करना भी जैसे छोड़ दिया है।
अब मेरी कोशिश अपने लिए समय निकालने की होती है। अब मैं समझ चुका हूँ कि दुनिया का चक्र किसी के जाने नहीं रुकता। समय के साथ-साथ सब कुछ बदलता रहता है। कोई अनावश्यक बहस करता है, तो अपनी मानसिक शांति को प्राथमिकता देता हूँ। कोशिश रहती है कि कम से कम बोला जाए। जीते जी अपनी संपत्ति का बच्चों में बंटवारा कर दिया है। मेरी मृत्यु के बाद मेरा अंतिम संस्कार किस तरह से किया जाए, इसके बारे में लिखने के साथ-साथ बच्चों को बातों-बातों में बता भी दिया है। अब किसी प्रतिस्पर्धा में नहीं हूँ और जीवन को सरलता से जीने की कोशिश में रहता हूँ। बीमारी के कारण यूं तो मुझ पर कई पावंदियां चस्पा हैं फिर समय बिताने के लिए अपने आपको ज्यादातर लेखन में ही व्यस्त रहता हूँ।

वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्याति लब्ध हैं। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक ऐसे यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन खट्टे-मीठे अनुभवों का उल्लेख किया है, जो अलग-अलग समय की अलग-अलग घटनाओं पर आधारित हैं। अब तक उनकी विविध विधाओं में लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।