राजनीतिक मोहरे में तब्दील होती आस्था का मंगलगान और दलित वोट के आखेट का संधान

राजनीतिक मोहरे में तब्दील होती आस्था का मंगलगान और दलित वोट के आखेट का संधान

हर साल की तरह इस वर्ष भी वाराणसी में महान संत रविदास की जयन्ती भव्यता के साथ मनाई गई। संत रविदास के देश भर में बड़ी संख्या में अनुयाई हैं। इन अनुयाइयों में वैसे तो तमाम जातियों के लोग शामिल हैं पर यह कहना गलत नहीं होगा कि उनमें सबसे ज्यादा वो जातियाँ हैं जिन्हें हिन्दू धर्म व्यवस्था में आखरी और अस्पृश्य की पायदान पर रखा गया है।

संत रविदास के जीवन काल का एकदम सटीक कोई प्रमाण नहीं मिलता है।  साहित्यिक साक्ष्यों के आकलन के अनुसार उनका जन्म 1388 माना जाता है। कुछ लोग 1398 भी मानते हैं। संत रविदास को संत रैदास के नाम से भी जाना जाता है। यह कबीर के समकालीन सामाजिक क्रांति के कवि और संत थे। मध्ययुग में जब हिंदूधर्म के अंदर जातीय तौर पर ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ स्थापित करने का  प्रयास किया जा रहा था तब संत रविदास ने उस पूरी सोच को चुनौती दी थी और मुखर होकर कहा था कि

उस समय में यह कहना सहज नहीं था। उन्होंने जातीय पाखंड पर बड़ा हमला कर दलित समाज को मुख्यधारा में ससम्मान स्थापित करने का बड़ा प्रयास किया था। संत रविदास ने हाशिये की जातियों को सम्मान दिलाने के साथ जातीय घृणा की खाइयों को पाटने और धार्मिक अंधविश्वास को पाटने में अविस्मरणीय योगदान दिया था।

बनारस(अब वाराणसी) में जन्में रविदास जी के भजन और दोहे बहुत ही प्रभावी थे। संपूर्ण उत्तर भारत में दलित, वंचित, उपेक्षित जातियों नें उन्हें अपने नायक की तरह मान-सम्मान दिया और आज भी संत रविदास के प्रति आस्था विद्यमान है।

यह बात जितना आम आदमी जानता है उतना ही सरकार भी जानती है। यही वजह है वैचारिक रूप से एकदम विरोधी खेमें में खड़ा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) और उसकी समर्थित भाजपा सरकार भी संत रविदास के प्रति अपनी गहरी आस्था का उद्गार करती दिख रही है।

पिछले कुछ वर्षों से यह एक ट्रेंड बन रहा है कि संघ और भाजपा अपनी विरोधी विचारधारा के नायकों के सामने नतमस्तक होते दिख रहे हैं। संघ महात्मा गांधी की आलोचना करता है उसके तमाम समर्थक गांधी के हत्यारे का महिमा मंडन करते हैं इस सबके बावजूद दुनिया के सामने भाजपा नीति सरकार के प्रधानमंत्री वैश्विक मंच पर गांधी पर पुष्पांजलि अर्पित करते दिखते हैं। आश्चर्य तब होता है जब एकदम विरोधी विचारधारा के नायक शहीद भगत सिंह और हिन्दी साहित्य के बहुपठित कथाकार प्रेमचंद को भी संघ अपने खेमें में खड़ा करता दिखता है। 

सरकार का पूरा मीडिया तंत्र जहां एक ओर भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने के ख्वाब बुनने में लगा हुआ है वहीं सरकार को यह भी पता है कि देश में मंहगाई और बेरोजगारी के आंकड़े जिस तरह से बढ़ रहे हैं उससे नवयुवाओं का सरकार से मोहभंग हुआ है। सरकार अपनी जिस योजना का सबसे ज्यादा बखान कर रही है वह उसकी राशन योजना है। राशन योजना के लोक लुभावने प्रचार खूब किए जा रहे हैं। वजह साफ है कि इस योजना के माध्यम से सरकार अपनी तमाम असफलताओं को छुपाना चाहती है।  

क्या है इस राशन योजना का सच ?

सरकार मुफ्त राशन की योजना को हर बार बढ़ा रही है और सरकारी आंकड़ों के अनुसार 80 करोड़ लोग इस योजना के लाभार्थी हैं। सवा अरब आबादी वाले देश में 80 करोड़ लोग जब हाथ में कटोरा लेकर सरकार की मुफ्त राशन योजना की कतार में खड़े हैं दूसरी तरफ सरकार यह भी ढिंढोरा पीट रही है कि देश दुनिया की पाँचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। ऐसे में यह सवाल सहज ही सामने आता है कि जब सवा करोड़ आबादी वाले देश में 80 करोड़ लोग आश्रित हैं तब वह पूंजी किसके पास है जिसके दम पर देश को दुनिया की पाँचवी ताकतवर अर्थव्यवस्था कहा जा रहा है। निश्चित रूप से देश की अर्थव्यस्था महज मुट्ठी भर लोगों के हाथ में केन्द्रित है। जिसमें ज़्यादातर सरकार के करीबी उद्योगपति हैं।

पूंजी के इस आसमान वितरण में सरकार के अपनी पार्टी के प्रति भी कुछ  स्वार्थ होंगे, यही वजह है कि सरकार, सरकारी संस्थानों को भी तेजी से निजी हाँथों में सौंपने में लगी हुई है। पूंजी के इस आसमान वितरण के खतरे उनके लिए भी कत्तई कम नहीं हैं जो सरकार का झण्डा उठाकर घूम रहे हैं और दूसरी पंचवर्षीय पूरा करने के बाद तीसरी बार भी सरकार को सत्ता पर वापस बैठाने के कमर कसे हुये हैं। वह धार्मिक भीरू के तौर पर काम कर रहे हैं। उन्हें वर्तमान में सरकार की धार्मिक अतिरंजना मोहक लग रही है। उनकी आस्था को सत्ता लगातार अभिसिंचित कर रही है। वह लोग अभी इस बात से बेखबर हैं कि आंकड़ों में दिखाया जा रहा देश का भविष्य उनका भविष्य नहीं है। उनका भविष्य उनके बच्चों का भविष्य हैं जो लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा है। उसके हिस्से की नौकरियाँ खत्म की जा रही हैं यहाँ तक की उनके सपने भी खत्म किए जा रहे हैं। सत्ता के प्रधान सेवक देश के युवाओं को कभी रोजगार के रूप में पकौड़ी तलने का कारोबार बताते हैं तो कभी डिजिटल एप्प को शेयर कर कमाने का हुनर सिखाते हैं।

रविदास जयंती के अवसर पर भी उन्होने काशी के युवाओं को कुछ रोजगार के टिप्स दिए, जिसमें वह गाइड बन कर कमा सकते हैं, स्केच कर कमा सकते हैं और फोटोग्राफी करके कमा सकते हैं। यह दिखाता है वह देश के युवाओं को कमवाने के प्रति कितने चिंतित रहते हैं। पर वह यह जिक्र नहीं करते कि उनकी सरकार युवाओं के लिए क्या कर रही है? निजीकरण और संविदा कर्मचारी के रूप में उनका क्या भविष्य होगा?  

अगर यह सवाल उनसे पूछा जाय तो शायद उनका जवाब मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो की कहानी टोबा टेक सिंह के नायक टोबा टेक सिंह के संवाद “ओपड़ दी गुड़ गुड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी दाल उफ़ दी लालटैन” जैसा कुछ हो सकता है।  इसका मतलब शायद आप नहीं समझे होंगे दरअसल, इसका मतलब कोई भी नहीं समझ सकता है। इस तरह के संवाद तब बोले जा सकते हैं जब बोलने वाला पागल हो या पागल बना रहा हो। 10 सालों से इसी तरह की चीजें अलंकृत कर देश के सामने वह रखते रहे हैं जो ध्वन्यात्मक रूप से अच्छी लगती हैं पर सोचने-समझने पर उनका कोई सार्थक पहलू नजर नहीं आता है। वैसे तो हमारे प्रधानमंत्री जी किसी प्रश्न के उत्तर में टोबा टेक सिंह जैसा कुछ नहीं बोलेंगे, उनके पास बोलने के लिए बहुत कुछ है वह लगातार एकतरफा तौर पर बोल सकते हैं, उन्होंने अपने लिए बोली के आयामों को एक खास अंदाज और भंगिमा के साथ मोडीफाई या फिर यूं समझिए मोदीफाई कर लिया है जिसके सहारे वह चाय बनाने से लेकर विज्ञान तक पर अपने अंदाज में बहुत कुछ बोल सकते हैं और कमाल यह है कि उनकी गल्प थ्योरी पर हमारे वैज्ञानिक भी आह की बजाय वाह करते दिख सकते हैं। फिलहान जो प्रश्न पूछने की बात है तो वह खुद से प्रश्न पूछने को अपनी तौहीन समझते हैं। हाँ उत्तर देने की जहमत तब उठा सकते हैं जब उनके सामने बहुत रसीले किस्म के प्रश्न हों जैसे की आप आम काट कर खाते हैं या चूस कर?

कुल मिलाकर यह समझिए की वह सिर्फ अपने मन की बात आपको सुना सकते हैं आपके मन का प्रश्न सुनना उन्हें कत्तई पसंद नहीं है। फिलहाल यह उनकी अपनी नीति और तरीका  है पर रविदास के प्रति जिस उदार आस्था का प्रदर्शन उन्होंने किया है उसके मायने थोड़े जटिल हैं। इसलिहाज से जटिल हैं कि उनकी पार्टी का मातृ संगठन आर एस एस जिस विचारधारा के साथ खड़ा है वह रविदास के विचारों से  पूरी तरह अलग है। संत रविदास के कुछ दोहे पढ़कर इस बात को सहज रूप से समझा जा सकता है।

  1.  जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात। 
    रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥
  2. रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच
    नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच
  3. मन चंगा तो कठौती में गंगा

वह इसी समाज के वोट अपने पाले में करने के लिए मुफ्त राशन योजना का पिटारा भी नहीं बंद कर रहे हैं। अपने अधिकारों से पृथक आज भी इन्हीं समाज के लोग सरकार के मुफ्त राशन पर आश्रित हैं। मुफ्त शिक्षा, उपयुक्त रोजगार, मुफ्त चिकित्सा देने की बात सरकार नहीं करती है। सरकार नहीं चाहती है दबे पिछड़े समाज के लोग आत्मनिर्भर बनें वह उन्हें आश्रित बनाए रखना चाहती है ताकि उसकी सत्ता की कुर्सी अपने कंधे पर उठाए रखें। संत रविदासके माध्यम से भी सरकार की मंशा यही है कि दलित समाज उसके वोट बैंक में तब्दील हो सके। अब यह इस समाज को सोचना है कि उसे एक बेहतर सम्मान का भविष्य शिक्षा और आत्मनिर्भरता के माध्यम से हासिल करना है या परजीवी की तरह मुफ्त राशन योजना का लाभ लेते रहना है।    

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