सत्ता और राजनीति के दबाव में गायब हो रहा है मानवाधिकार का प्रश्न
मानवाधिकार पर बात करने से पूर्व यह जानना अत्यावश्क है कि मानवाधिकार क्या है। एक वाक्य में कहें तो मानवाधिकार हर व्यक्ति का नैसर्गिक या प्राकृतिक अधिकार है। इसके दायरे में जीवन, आज़ादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार आता है। इसके अलावा गरिमामय जीवन जीने का अधिकार, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार भी इसमें शामिल हैं।
आज विश्वभर में राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक,आर्थिक अराजकता का माहौल है और समाज में मानवाधिकारों का विमर्श उग्र होता देखाई दे रहा है। यह बात अलग है कि मानवधिकारों का यह विमर्श कोई सकारात्मक जगह नहीं बना पा रहा है। अनेक अध्ययनों ने यह सिद्ध किया है कि जिन देशों में राजनैतिक/ धार्मिक/ सामाजिक/ आर्थिक अराजकता का माहौल नगण्य होता है और वे देश जो धर्मनिरपेक्ष होते हैं एवं अल्पसंख्यकों, महिलाओं और बच्चों के अधिकारों का सम्मान करते हैं तीव्र गति से आर्थिक विकास करते हैं जबकि धर्मांधता को प्रश्रय देने वाले देशों में आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जाता है और निर्धनता बढ़ने लगती है। क्या देश के मौजूदा आर्थिक संकट का संबंध भी हमारी बढ़ती धार्मिक संवेदनशीलताओं से है?…क्या मानवाधिकारों के प्रति असंवेदनशीलता किसी ताकतवर राष्ट्र की पहली पहचान है? क्या राष्ट्रीय सुरक्षा तभी मजबूत हो सकती है जब हम मानवाधिकारों के प्रश्न को गौण बनाते हुए मुट्ठी भर आतंकवादियों या अलगाववादियों के खात्मे के लिए लाखों आम लोगों के साथ भी वैसा ही कठोर व्यवहार करें जैसा किसी संदिग्ध अपराधी के साथ किया जाता है? क्या हमारा आदर्श धार्मिक कानून के द्वारा संचालित होने वाले वे देश हैं जिनका रिकॉर्ड मानवाधिकारों के संबंध में अत्यंत खराब रहा है? क्या हमारी प्रेरणा वे देश हैं जो धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करते हैं? ऐसे सवालों का उठना स्वाभाविक ही है।
खबर है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने पिछले कुछ महीनों में हमारे देश में बढ़ रही हिंसा और बलात्कार की घटनाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ होने वाली हिंसा और भेदभाव के मामलों, एक्टिविस्टों पर भीड़ के हमलों व इनकी पुलिस प्रताड़ना तथा पुलिस एवं सुरक्षा बलों की ज्यादतियों को संरक्षण दिए जाने की प्रवृत्ति पर अनेक बयान जारी किए हैं। किंतु भारत सरकार इन रिपोर्टों और बयानों को दुर्भावनापूर्ण बताकर ख़ारिज करती रही है और इसे देश के आंतरिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप बताती रही है। सरकार के अपने तर्क हो सकते हैं।…किंतु सरकार के तर्क तर्कसंगत ही हों, ये जरूरी तो नहीं।
कहा तो ये भी जाता है-दरअसल राजनीतिक नेतृत्व की असफलता का खामियाजा आम लोगों और सुरक्षा बलों दोनों को भुगतना पड़ता है। चाहे वे आतंकवादी या अलगाववादी हों या नक्सली-यह सभी आम लोगों को डरा धमकाकर उनका समर्थन हासिल करते हैं और आम लोगों के बीच जा छिपते हैं। यह आम लोगों में व्याप्त असंतोष को अपनी हिंसा की विचारधारा के समर्थन में प्रयुक्त करने में निपुण होते हैं। सुरक्षा बलों को ऐसी परिस्थितियों में काम करने को कहा जाता है जो उनके लिए सर्वथा अपरिचित होती हैं। उनके लिए निर्दोष आम आदमी, नक्सली या आतंकी की स्पष्ट पहचान करना कठिन हो जाता है। आतंकवादी और नक्सली आम लोगों को सामने रख अपनी गतिविधियां करते हैं ताकि आम लोग मारे जाएं और सुरक्षा बलों की बदनामी हो तथा जनता में असंतोष फैले।
कुल मिलाकर यह राजनीतिक नेतृत्व की असफलता का परिणाम होता है कि सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन अथवा धार्मिक सांस्कृतिक भेदभाव के कारण हिंसा और अलगाववादी ताकतों को जमीन मिलती है। जब चर्चा, विमर्श और संवाद का सेतु भंग होता है तो सुरक्षा बलों का प्रयोग अपने ही देश के नागरिकों पर करने की नौबत आती है। जब हिंसा होती है तो उभय पक्षों द्वारा सीमाएं लांघी जाती हैं। सरकार के आदेशों का पालन सुरक्षा बलों के लिए आवश्यक है। आम लोग और अंतरराष्ट्रीय समुदाय सुरक्षा बलों को एक पृथक इकाई की भांति देखते हैं जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें ऐसी कठिन परिस्थितियों में कार्य करने को सरकार द्वारा बाध्य किया जाता है जिसमें गलतियों की संभावनाएं अधिक होती हैं। जब हम सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन की चर्चा करते हैं तो उस सरकार की मंशा और नीतियों पर भी बहस होनी चाहिए जिसके अधीन ये कार्य कर रहे हैं।
जब हम मानवाधिकारों की रक्षा पर विमर्श करते हैं तो न्याय पालिका हमें अंतिम शरण स्थली के रूप में दिखाई देती है। किंतु पिछले कुछ समय से कुछ राजनीतिक दलों, धार्मिक-सांस्कृतिक संगठनों और सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ समूहों द्वारा न्याय पालिका पर भी यह निरंतर दबाव बनाने की चेष्टा की जा रही है कि वह ऐसे फैसले ले जो बहुसंख्यक वर्ग को स्वीकार्य हों, सरकार विरोधी न हों और सरकार की देशहित और राष्ट्रभक्ति की परिभाषा से संगत हों।
स्थिति ऐसी बन जाती है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मानो यह बीड़ा उठाते हैं कि अपनी सेवा निवृत्ति के पहले राम-जन्मभूमि विवाद पर फैसला सुना देंगे, जनहित के अन्य अनेक मुद्दों पर वरीयता देते हुए लगातार 40 दिनों तक 5 जजों की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई करती है और जब फैसला बहुसंख्यक समुदाय की आशाओं और उम्मीदों के अनुसार आता है तो मीडिया इन न्यायाधीशों का प्रशस्तिगान करते करते इन्हें रामभक्त की संज्ञा देने की सीमा तक पहुंच जाता है, लेकिन हमें इस पूरे घटनाक्रम में कुछ भी असंगत नहीं लगता। हम पर इतना दबाव बना दिया जाता है कि हम न्यायपालिका से एक खास निर्णय की अपेक्षा करने लगते हैं। ऐसा ही दबाव न्यायाधीशों पर भी बनाया जाता है कि वे जन आकांक्षाओं के अनुरूप निर्णय दें। पता नहीं वे इस दबाव का सामना किस प्रकार करते होंगे। न्याय यदि लोकप्रियता की कसौटी पर भी खरा उतरना चाहे और सरकारी फैसलों का समर्थक बन जाए तो उसे अन्याय में बदलते देर नहीं लगेगी। जन आकांक्षाओं पर खरा उतरना नेताओं के लिए आवश्यक हो सकता है, न्यायाधीशों को तो न्याय की कसौटी पर ही खरा उतरना होता है।
वर्तमान परिदृश्य चिंताजनक है और मानवाधिकारों की सुरक्षा करने के लिए हमें गहन आत्ममंथन करना होगा। क्या हम एक ऐसे धैर्यहीन, हिंसाप्रिय और आक्रामक तथा अराजक समाज में बदलते जा रहे हैं जिसका विश्वास लोकतंत्र और न्याय प्रक्रिया में नहीं है। हो सकता है कि हमारी न्याय प्रणाली दोषपूर्ण हो, यह भी संभव है कि भ्रष्टाचार का दीमक हमारी संस्थाओं को खोखला कर रहा हो, यह भी हो सकता है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर धनबल और बाहुबल का आधिपत्य स्थापित हो गया हो किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम लोकतांत्रिक व्यवस्था को नकार दें और स्वयं कानून और पुलिस का स्थान ले लें अथवा स्वयं को अनुशासित करने के लिए किसी तानाशाह की तलाश करने लगें जिसे लोकतांत्रिक स्वीकृति देकर हम और निरंकुश बना दें। मॉब लिंचिंग की बढ़ती प्रवृत्ति यह दर्शाती है कि हम अराजक कबीलाई समाज बनने की ओर अग्रसर हैं।
विदित हो कि हैदराबाद में गैंगरेप के आरोपियों के एनकाउंटर पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए जोधपुर के एक कार्यक्रम में चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ने कहा कि न्याय कभी भी आनन-फानन में नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि न्याय बदले की भावना से किया जाए तो अपना वह अपना मूल चरित्र खो देता है। यह देखना एक भयंकर अनुभव था कि किस प्रकार हमारा सभ्य समाज इस एनकाउंटर को लेकर आनंदित था। चाहे वह दिल्ली का निर्भया कांड हो या कठुआ, उन्नाव, मुजफ्फरपुर और हैदराबाद में हुई बलात्कार की घटनाएं इन सब में क्रूरता की सीमाएं लांघी गई हैं। न्याय प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण रेप पीड़ितों को न्याय मिलने में विलंब हुआ है।
कई बार आरोपियों को राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण भी मिला है। रेप पीड़ित युवतियों की सामान्य पृष्ठभूमि के कारण धन और शक्ति के समक्ष शरणागत होने वाले पुलिस तंत्र ने आरोपियों को सजा दिलाने से अधिक उन्हें संरक्षण देने में रुचि दिखाई है। यदि आरोपी रसूखदार हैं तो उन्होंने पीड़ित महिलाओं और उनके परिजनों पर हिंसक और जानलेवा हमले भी किए हैं और उनकी हत्या तक की है। लेकिन इस विषम परिस्थिति का किसी फिल्मी क्लाइमेक्स की भांति सरल और सस्ता हल नहीं निकाला जा सकता। इस तरह की प्रायोजित मुठभेड़ों को प्राकृतिक न्याय की संज्ञा देना जल्दबाजी और भोलापन है। मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा किसी घटना विशेष को लेकर लोगों की संवेदनाओं को कृत्रिम रूप से उद्दीप्त करना और फिर उन्हें गलत दिशा देकर हिंसा को स्वीकारने और महिमामंडित करने के लिए प्रेरित करना चिंतनीय और निंदनीय है।
ऐसा लगता है कि लोगों को सुनियोजित रूप से हिंसा का आश्रय लेने के लिए मानसिक प्रशिक्षण दिया जा रहा है। हिंसक भीड़ को एक जाग्रत समाज के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और भीड़ की हिंसा को जनक्रांति की तरह प्रदर्शित किया जा रहा है। हो सकता है आने वाले समय में निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए हिंसा की अभ्यस्त इस भीड़ का प्रयोग किया जाएगा, इस भीड़ का निशाना निर्दोष लोग होंगे-शायद वे तर्कवादी हों, धार्मिक अल्पसंख्यक हों, वंचित समुदाय के लोग हों या वैचारिक असहमति रखने वाले बुद्धिजीवी या शायद वे हमारी आपकी तरह सीधी राह पर चलने वाले डरे-सहमे, हताश, हारे हुए शहरी हों। तब हम इन घटनाओं का विरोध करने की स्थिति में नहीं होंगे क्योंकि हमारी सोच को हिंसा करने, हिंसा देखने और हिंसा सहने के लिए कंडिशन्ड कर दिया गया होगा।
भारत का एक बड़ा हिस्सा अभी भी अशिक्षा और अज्ञान के अंधकार में डूबा है। आदिवासियों तक स्वतंत्रता और लोकतंत्र का प्रकाश पहुंच नहीं पाया है और यदि पहुंचा भी है तो उसका लाभ लेकर, पुराने छोटे शोषकों का स्थान लेने, नए कॉरपोरेट शोषक वनों तक पहुंच गए हैं जो आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन सब उनसे छीनने पर आमादा हैं। लाखों वंचितों के लिए अभी भी सामंतशाही का दौर समाप्त नहीं हुआ है। शोषण और दमन के वे इस तरह अभ्यस्त हैं कि स्वतंत्रता और सहानुभूति मिलने पर वे घबरा जाते हैं कि कहीं यह मालिक की कोई नई रणनीति तो नहीं। हमारी पूरी व्यवस्था पर पितृसत्ता की गहरी पकड़ है। चाहे शोषक वर्ग हो या शोषित वर्ग-स्त्री की नियति में कोई विशेष अंतर नहीं देखा जाता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी जाग्रत और अपने मानवाधिकारों के प्रति सजग समाजों के मुद्दे ही उठाता है। कई बार मानवाधिकारों के विमर्श के पीछे अंतरराष्ट्रीय राजनीति की जटिलता और कुटिलता छिपी हुई होती है। किंतु पीढ़ियों से शोषित हो रहे उन लोगों की चर्चा कभी नहीं होती जिनके मानवाधिकारों का सर्वाधिक हनन होता है।
व्यापक दृष्टिकोण तो ये है कि राजनीति दबाव में ही मानवाधिकारों का हनन किया जाता है। प्रशासन की जो जनविरोधी भूमिका होती है, उसमें सिर्फ प्रशासन का ही दोष नहीं होता अपितु प्रशासन राजनीतिक दबाव में ही मानवाधिकार का हनन करता है।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।