कैंडीडेट और कन्वेशिंग से ही तय होगा इस बार पूर्वाञ्चल का चुनाव

कैंडीडेट और कन्वेशिंग से ही तय होगा इस बार पूर्वाञ्चल का चुनाव

चुनाव से पहले चुनाव की हवा चलती है।  चुनाव की हवा बहुत कुछ तय करती है  कि चुनावी नदी को कौन पार करेगा। लोकसभा चुनाव का पहला चरण बीत चुका है पर देश की सत्ता का रास्ता तय करने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल में जिस तरह से चुनाव को लेकर चुप्पी छाई हुई वह चकित कर रही है।

दरअसल इस बार से पहले के चुनावों  में पूर्वाञ्चल की लौ पर ही उत्तर प्रदेश की राजनीति पका करती थी पर इस बार पश्चिम उत्तर प्रदेश में राजनीतिक आग भले ही धधक उठी है पर पूर्वाञ्चल अब भी चुप्पी साधे हुये है। इस चुप्पी की वजह समझने का जब प्रयास किया तो जो बात सबसे मुखर होकर सामने आई उसके आधार पर कहा जा सकता है कि इस बार पूर्वाञ्चल तटस्थ राजनीति के मोड और मूड में दिख रहा है और सबसे बड़ी बात यह है इसी पूर्वाञ्चल से सत्ता का नेतृत्व करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू भी लगभग खत्म हो चुका है।

मोदी के परम भक्त आज भी भले ही माइक और मीडिया के दम पर यह चिल्ला रहे हैं कि आयेगा तो मोदी ही पर जमीनी हकीकत यह है कि पार्टी के कार्यकर्ताओं  के अलावा आम आदमी ने पूरी तरह से जुबान सी रखी है। यह तटस्थता राजनीति और समाज दोनों के लिए बेहतर नहीं कही जा सकती है।

पिछले एक दशक से उत्तर प्रदेश बहुत हद तक मोदी मय हुआ पड़ा था। हर तरफ मोदी का जादू किसी तिलस्म सा फैला हुआ था। 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने कुछ हद तक इस तिलस्म को तोड़ने में सफलता जरूर अर्जित की थी पर वह इतनी मजबूत हिस्सेदारी नहीं हासिल कर सके थे कि प्रदेश की सत्ता तक पहुँच पाते। इस बार भी भाजपा का मुख्य मुक़ाबला अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से ही है। अखिलेश यादव को कांग्रेस का साथ भी मिला हुआ है पर यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन लगभग खो दी है। ऐसे में बहुत हद तक भाजपा के खिलाफ अखिलेश यादव ही विपक्ष के सेनानायक हैं।

फिलहाल जिस तरह से जनता में चुप्पी छाई हुई है उससे यह तो साफ हो जाता है कि भाजपा का जो जादू आम मतदाता के मन में छाया हुआ था वह अब खत्म हो चुका है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि नरेंद्र मोदी का मायाजाल जो दशक भर से पूर्वाञ्चल की राजनीति के केंद्र में था वह अब टूट चुका है। अब जनता मंदिर मस्जिद के उलझावे से बाहर आ चुकी है। बेरोजगारी और मंहगाई से त्रस्त  युवा समाज अब  सत्ता से जवाब मांगने के मूड में दिख रहा है।

पार्टी कोई भी हो पर पूर्वाञ्चल की पूरी राजनीति इस बार के चुनाव में बदली हुई दिख रही है। कभी पूर्वाञ्चल की राजनीति माफिया नेताओं यानी के बाहुबलियों के कंधे पर सवार रहा करती थी पर इस बार पूर्वाञ्चल की चुनावी लड़ाई में बाहुबल के कंगूरे गिरे हुये दिख रहे हैं। कुछ जगहों पर बाहुबल के खणहर बहुत सीमित स्तर पर अपना प्रभाव जरूर दाल पाएंगे पर यह प्रभाव इतना व्यापक नहीं होगा कि बाहुबल के दम पर चुनावी नाव से पार उतरा जा सके।

गाजीपुर और मऊ दो सीटों पर मुख्तार की मौत का कुछ हद तक प्रभाव जरूर देखने को मिलेगा पर यह प्रभाव पुराने प्रभाव की तरह नहीं होगा। ऐसे में यकीनन पूर्वाञ्चल विकास के मुद्दे पर वोट करेगा। ऐसे में जहां सत्ता पक्ष के लिए मुश्किल पेश आएगी वहीं सत्ता के खिलाफ लंबे समय से विकास, रोजगार और मंहगाई के मुद्दे पर संघर्ष कर रहे अखिलेश यादव को फायदा मिल सकता है।

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वाराणसी को छोड़कर पूर्वाञ्चल की शेष संसदीय सीटों पर इस बार भाजपा को किसी जादू और लहर का साथ ना मिलने से उम्मीदवार एनडीए उम्मीदवार संकट में दिख रहे हैं। जातीय राजनीति का ककहरा भी इस बार वैसे ही नए लिबास में दिख रहा है जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर बार नए लिबास में प्रकट हो जाते हैं। एनडीए का एकमात्र चेहरा वही हैं उन्हीं के जादू के दम पर भाजपा ने दो बार लोकसभा और उत्तर प्रदेश में दो बार विधानसभा का चुनाव जीता है पर इस बार का चुनाव उनके लिए कठिन होता दिख रहा है।

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सुप्रीम कोर्ट के दबाव में स्टेट बैंक को जिस तरह से इलेक्टोरल बॉन्ड का खुलासा करना पड़ा उससे भी मोदी कि छवि अप्रत्याशित रूप से खराब हुई है। एक तरह से यह कहना गलत नहीं होगा कि जनता के दिमाग में उन्होंने अपनी जो पारदर्शी छवि बना कर काँच के फ्रेम में जड़ी हुई थी उस पर सुप्रीम कोर्ट ने पत्थर मार कर तोड़ दिया है।

जो जनता प्रधानमंत्री जी के वादों को अब तक भूलकर उनकी मीडिया और अन्य टूल के माध्यम से रची गई आभा में खोई हुई थी वह उनके शेष गुनाहों पर भी परदा डाल ही देती पर कोविड वैक्सीन कंपनी से जिस तरह से भाजपा ने चन्दा लिया है उससे जनता को यह भी समझ में आ गया कि प्रधानमंत्री ने आपदा को अवसर बदलने का जो खेल खेला था उसमें उन्होंने आम आदमी की जिंदगी को दांव पर लगाने से भी गुरेज नहीं किया था। कोविड वैक्सीन  के खतरे भी धीरे-धीरे जनता के सामने आ रहे हैं। अब आम आदमी को अपने वैक्सीनेशन के प्रमाणपत्र से डर लगने लगा है। इस डर में जब वह उस प्रमाणपत्र पर प्रधानमंत्री की तस्वीर देखता है तो वाजिब सी बात है कि उसके मन में प्रधानमंत्री जी के प्रति गुस्सा भी आता है। यह गुस्सा फिलहाल अभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रव्यापी गुस्से में तब्दील नहीं हुआ है। बावजूद इसके यह गुस्सा इस चुनाव में भाजपा के तमाम लोक लुभावने प्रचारतंत्र पर भारी पड़ सकता है।

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जनता के मन में उभरा यह गुस्सा ही है जिसने इस बार ठीक चुनाव से पहले मोदी मैजिक के गुब्बारे की हवा निकाल दी है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा के पक्ष में कुछ है तो वह मायावती का नेपथ्य से मिल रहा सहयोग है। मायावती चुन-चुन कर विपक्ष के सामने ऐसे प्रत्याशी उतार रही हैं जो समाजवादी और कांग्रेस के उम्मीदवारों का वोट काटकर भाजपा उम्मीदवार की चुनावी राह आसान कर सकें।

पिछले लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने मायावती को जिस तरह से सम्मान दिया था, निर्ममता से कहा जाय तो मायावती वह सम्मान डिजर्व नहीं करती हैं। अखिलेश यादव ने पिछले चुनाव मायावती को आगे रखा ताकि प्रदेश में दलित और पिछड़े समाज का एक साझा विकसित हो सके जो काम तीन दशक पहले बसपा नेता कांशीराम और समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव ने किया था। मायावती को अखिलेश के इस समर्पण का भरपूर फायदा मिला था जबकि अखिलेश यादव की पार्टी को मायावती के साथ का कोई लाभ नहीं मिला था। इसके बावजूद चुनाव के बाद मायावती ने अखिलेश के साथ अपना गठबंधन तोड़ लिया था। 

फिलहाल पूर्वाञ्चल की आवाम ने अब तक जिस तरह से  चुनाव को लेकर चुप्पी साध रखी है उससे यह तो तय है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल में  चुनाव का पलड़ा किसी के लिए अब तक भारी नहीं हुआ है। कैंडीडेट और कन्वेशिंग से ही इस बार पूर्वाञ्चल का चुनाव तय होगा।   

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