हंगामा क्यों बरपा, सरकार ही तो बनाई-गिराई है!
राजेंद्र शर्मा के चार व्यंग्य
भई अडानी जी के साथ तो बहुत ही अन्याय हो रहा है। पहले भी बेबात उनके नाम पर हल्ला होता रहता था। बेचारे हवाई अड्डा खरीदें, तो इसका शोर कि सारे हवाई अड्डे अडानी के नाम क्यों कर दिए। बंदरगाह खरीदें, तो इस पर शोर कि सारे बंदरगाह एक ही बंदे के नाम क्यों कर दिए। बंदा सीमेंट में हाथ डाले, तो शोर। बंदा धारावी के विकास में हाथ डाले, तो शोर। और तो और, बंदा किसानों को चार पैसे दिलाने के लिए, उनकी पैदावार खरीदने में हाथ डाले, तो भी शोर और अनाज जमा कर के रखने के लिए साइलो बनाने में पैसा लगाए, तो भी शोर।
अगला खदान हथियाए, बिजली बनाए, कोयला विदेश से ढोकर लाए, हर चीज में शोर। खबरिया चैनल खरीदने में हाथ डालने तक पर नाहक शोर। और अब बेचारे के जरा-सा सरकार बनवाने में हाथ डालने की कहानी क्या सामने आ गयी, मोदी जी के विरोधी ऐसे उछल रहे हैं, जैसे भाड़ में से चने के दाने उछलते हैं।
और तथ्य क्या हैं? शरद पवार की पार्टी तोड़कर अलग हुए और एक बार फिर उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचे एनसीपी नेता, अजित दादा ने एक पत्रकार को सिर्फ इतना बताया है कि 2019 में महाराष्ट्र में सरकार बनवाने के लिए, अडानी जी के घर पर बैठक हुई थी। बैठक में अमित शाह मौजूद थे, शरद पवार मौजूद थे, अडानी मौजूद थे, देवेंद्र फड़नवीस मौजूद थे, अजित पवार मौजूद थे, सब मौजूद थे। बाद में शरद पवार ने भी इसकी पुष्टि की है कि अडानी के घर पर ऐसी बैठक हुई तो थी। बस विरोधी इतनी-सी बात का बतंगड़ बना रहे हैं। महाराष्ट्र के चुनाव में इसको शोर मचा रहे हैं कि मोदी जी की पार्टी और अडानी का रिश्ता क्या कहलाता है?
2014 के चुनाव से पहले मोदी जी अडानी के हवाई जहाज में देश भर में घूमते थे। 2014 के चुनाव के बाद से अडानी जी विदेश यात्राओं में भी मोदी जी के आगे-पीछे घूमते हैं। सीबीआई-ईडी वगैरह भी अडानी जी के आगे-पीछे घूमती हैं। कभी सीबीआई-ईडी आगे, तो अडानी पीछे ; कभी सीबीआई-ईडी पीछे, तो अडानी आगे। पर अब तो अडानी जी सीधे अपनी मर्जी की सरकारें बनवा रहे हैं, विरोधियों की सरकारें गिरवा रहे हैं, वगैरह, वगैरह।
यह तो हुई भोजन की बात। इसके अलावा किसी बात का कोई साक्ष्य छोड़ो, अजित पवार या शरद पवार ने दावा तक नहीं किया है। अडानी का अन्न होने से क्या हुआ, मन तो बाकी नेता लोग का था? सरकार बनाने की बातचीत में अडानी जी ने कोई बोली लगाई हो, ऑफर दिया हो, सुझाव तक दिया हो, इसका कोई जिक्र नहीं है। फिर हंगामा है क्यों बरपा…? अडानी जी क्या इस देश के नागरिक नहीं हैं? क्या देश का संविधान अडानी जी को बाकी नागरिकों के समान अपनी मर्जी की सरकार बनवाने का अधिकार नहीं देता है?
ऐसी डेमोक्रेसी किस काम की, जिसमें एक नागरिक को अपनी मर्जी की सरकार बनवाने का अधिकार ही नहीं हो। हरेक नागरिक अपनी-अपनी औकात के हिसाब से अपनी मर्जी की सरकार बनाने की कोशिश करता है। कोई वोट डालकर, तो कोई दूसरों का वोट छीनकर और कोई वोट से चुने जाने वालों को फुटकर, तो कोई थोक में खरीदकर। बंदे को भी अपनी मर्जी की सरकार बनवाने का, कोई दूसरी सरकार बन जाए तो उसे गिराने का, आदि, आदि का जनतांत्रिक अधिकार है।
वैसे भी इसमें प्राब्लम क्या है? जिसके पास जो कुछ है, मदर ऑफ डेमोक्रेसी जी की सेवा में लगा रहा है। जिसके पास वोट है, वोट लगा रहा है, जिसके पास नोटों के गट्ठर हैं, वह नोटों के गट्ठर लगा रहा है। टैंपो में भर-भरकर नोटों के बोरे! क्या जरूरी है कि अगला पिछले दरवाजे से ही पैसा पहुंचाए, फिर भले ही पैसा अगले दरवाजे से बांटा जाए! चुनावी बांड आखिरी, कोशिश थी। बस अब और नहीं। बहुत साल हुआ यह छुपम-छुपाई का खेल। अब और नहीं। अब बिल्कुल भी नहीं। अब तो जो कुछ भी है खुले-खजाने है। पारदर्शिता वक्त की पुकार है।
सुना है, विधायकों के लिए पचास खोखा का रेट तय हो गया है, पश्चिम से दक्षिण तक। उत्तर से पूर्व तक को इस रेट के दायरे में लाना होगा। वह दिन दूर नहीं, जब देश भर में एक रेट हो जाएगा–एक देश, एक रेट। एमआरपी तय होना बहुत जरूरी है, विधायकों की भी और सांसदों की भी।
और जो बोली लगाएगा, माल को ठोक बजाकर देखकर ही बोली लगाएगा। बाजार का कायदा भी तो एक चीज है। खरीददार, माल देख-परखकर ही खरीदता है। हमेशा सौदा कोई एजेंट ही क्यों पटाए। सौदा बड़ा हो, तो क्यों न मालिक खुद बोली बोलने की रिंग में उतर जाए। अपना हाथ जगन्नाथ। आखिर, आत्मनिर्भरता भी तो एक चीज होती है। जिसे अडानी जी का यह जनतांत्रिक अधिकार मंजूर नहीं हो, वह अर्बन नक्सल! अंबेडकर ने लिखी हो तो क्या, लाल किताब तो लाल किताब ही होती है, जी!
किसी की दिवाली, किसी का दिवाला!
दिवाली की अगली दोपहर थी। रात का खुमार अभी पूरी तरह से टूटा नहीं था। लक्ष्मी जी ने उबासियों के बीच उलूक को आवाज लगायी। पहली एक-दो आवाजों का तो कोई प्रत्युत्तर ही नहीं मिला। खीझकर कुछ तीखे सुर में उन्होंने आवाज लगायी, तो दूर से सुस्त से सुर में जवाब आया—जी आया। जब तक दरवाजे से— जी आज्ञा, का प्रश्र सुनाई दिया, लक्ष्मी जी कई उबासियां ले चुकी थीं। लक्ष्मी जी ने कुछ लढ़ियाते हुए पूछा — लगता है नींद पूरी नहीं हुई। रात भर की कृपा वृष्टि की ड्यूटी के बाद, थकान तो हो ही जाती है। फिर तेरी उम्र भी तो बढ़ रही है। वर्ना मुझे तो लगता है कि इस साल काम पिछले साल से तो कम ही रहा था। इस साल दिवाली पिछले साल के मुकाबले हल्की जो रही। क्या तुझे नहीं लगा, इस बार दिवाली में वैसी रौनक नजर नहीं आयी।
उलूक को अपनी राय देने की कोई जल्दी नहीं थी। उसने पहले देवी का रुख भांपने की कोशिश की। फिर धीमे सुर में अपनी असहमति जताते हुए कहने लगा — वैसे देखा जाए, तो रौनक वाली आप की बात भी गलत नहीं है। पर इस बार रौनक किसलिए कम नजर आयी? दिल्ली में बम-पटाखों पर पाबंदी लगा दी गयी, इसलिए। दिल्ली की हिंदू-विरोधी सरकार ने, दिवाली की रौनक कम करने के लिए पटाखों वगैरह पर पाबंदी जो लगा दी। बहाना यह कि दिल्ली में और आस-पास के इलाकों में भी वायु प्रदूषण पहले ही बहुत ज्यादा हो चुका था। दिवाली पर पटाखे भी चलाने दिए जाएं, तब तो फिर भगवान ही मालिक है। बस लगा दी पाबंदी। अदालत ने उस पर अपनी मोहर भी लगा दी। वह तो जागे हुए हिंदुओं ने साफ-साफ कह दिया कि हम फेफड़ों के डर से अपने त्योहार की रौनक कम नहीं होने देंगे। पट्ठों ने नागरिक अवज्ञा सत्याग्रह जैसा ही कर दिया और पटाखे चला-चलाकर पाबंदी के ही चिथड़े उड़ा दिए, वर्ना इन हिंदू-विरोधियों ने तो दिवाली हल्की क्या, खोटी ही कर दी थी। फिर भी भारतवर्ष में क्या एक दिल्ली ही है? इत्ती बड़ी यूपी भी तो है, जहां राम राज तो चल ही रहा है, राम जी की नगरी, अयोध्या भी है। दिल्ली की रौनक की हम नहीं कह सकते, पर अयोध्या में रौनक पिछली बार से ड्योढ़ी ही थी, कम किसी भी तरह से नहीं।
लक्ष्मी जी ने आधे मन से कुछ कहने की कोशिश की, पर उलूक की जुबान गति पकड़ चुकी थी। अयोध्या कैसे सरकारी दीपों से जगमग हो रही थी, इसका वर्णन चल रहा था। फिर दो-दो गिनीज बुक स्तर के विश्व रिकार्डों की बात आयी, तो उलूक ने जोश में अपनी जगह पर ही उछलना शुरू कर दिया। सबसे पहले तो 25 लाख से ज्यादा दीप एक साथ जलाने का विश्व विश्व रिकार्ड कायम कर सनातन संस्कृति का जयघोष हुआ है। इसके साथ ही साथ, एक साथ 1,121 लोगों के पवित्र आरती करने का, एक अलग रिकार्ड कायम हुआ है। यानी दो-दो विश्व रिकार्ड इस बार की दिवाली के नाम रहे हैं। और आप को दिवाली फीकी लग रही है, उसमें रौनक कम दिखाई दे रही है! हिंदू देवी होकर भी हिंदुओं के कारनामे पर पीठ ठोकने में कोताही! उलूक के अतिरिक्त जोश से लक्ष्मी जी कुछ खीझ सी गयीं। सनातन संस्कृति के जयघोष वाली बात तो उन्हें जरा भी नहीं जंची। चिढ़कर बोलीं – हां! लगता है कि इस साल भी एक रिकार्ड बुझे हुए दीयों से घर में उपयोग के लिए कडुआ तेल इकट्ठा करने वाले गरीब बच्चों की गिनती का भी बन गया होगा। उसका सर्टिफिकेट लिया कि नहीं? तनिक आकाश मार्ग से जाकर देखो तो, हमारी यह परंपरा भी सुरक्षित तो है!
उलूक के सुर में जोश की जगह अब रुंआसेपन ने ले ली। बताने लगा कि बुझे या लगभग बुझे दीयों से तेल जमा करने की यह परंपरा जरूर इस बार कुछ कमजोर पड़ी है। 25 लाख दियों का विश्व रिकार्ड बनने के बाद, सरकार ने जलते दियों को ही झाडू से बुहरवा कर फिंकवा दिया। न बुझे हुए दिए रहेंगे और न गरीबों के बुझे दियों से तेल इकट्ठा करने की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वाइरल होंगी। लक्ष्मी जी कुछ विकृत-तोष से बोलीं, फिर भी तस्वीरें तो सोशल मीडिया पर वाइरल हो रही हैं। अब उलूक ने भी चिढ़कर कहा, वाइरल तो रोक के बावजूद दिल्ली में चले पटाखों की तस्वीरें भी हो ही रहे हैं।
लक्ष्मी जी ने उलूक के सिर पर हाथ फेरकर समझाया, तू काहे को दु:खी होता है। दिवाली जैसी भी हो, हमारे हिस्से में तो एक दिवाली ही है। दिवाली पर ही हमारी पूछ है, मेरी भी और तेरी भी। और दिवाली चाहे पिछले साल से हल्की हो या और भी धमाकेदार हो, हमारी दिवाली हर हाल में अपनी जगह रहेगी। मैं तो सिर्फ इतना कह रही थी कि इस बार दिवाली थोड़ी हल्की सी लगी। सिर्फ पटाखों की ही बात नहीं थी। पटाखों के पीछे तो सरकारों से लेकर अदालतें और समाजसेवी संस्थाओं तक सब पड़ी ही हुई हैं। पर बाजारों में भी तो इस बार दिवाली की पहले जैसी रौनक नहीं दिखाई दी।
उलूक के मुंह से बरबस निकल गया — रौनक कैसे दिखाई देती, महंगाई का हाल आप को नहीं पता है क्या? तेल पकाने का हो या जलाने का, सब में आग लगी हुई है। वही हाल दालों का है और सब्जी-भाजी का भी। टमाटर के दाम तो फलों से ऊपर हो रखे हैं। दवा-दारू की तो पूछे ही मत। उसके ऊपर से दिवाली के बीस खटराग और जिनका कमाई का कोई हीला ही नहीं है, उन करोड़ों बेरोजगारों की भी तो सोचिए? गरीबों के लिए तो ये दिवाली नहीं, दिवाला था।
अब लक्ष्मी जी के पलटने की बारी थी। कहने लगीं, सब का टैम ऐसा खराब ही थोड़े ही है। ऐसे लोग भी तो हैं, जिनकी किस्मत अच्छी है। पैसे से पैसा बना रहे हैं और बेहिसाब बना रहे हैं। सच पूछ तो वे ही हमारे सच्चे पुजारी हैं और उनकी दिवाली, साल में एक दिन वाली नहीं, पूरे साल वाली है। देखा नहीं कैसे दिवाली के बाद दूसरी दिवाली आ गयी, पर मुकेश भाई के छोटे बेटे की शादी के जश्र खत्म होने में ही नहीं आ रहे हैं। और इतने मालदार न सही, फिर भी अरबपति भी हजारों-लाखों में हैं। इनकी हर दिन दिवाली है। जब तक अमीर रहेंगे, हमारी पूजा होती रहेगी।
हाय बुलडोजर : शोक पत्री
हम भगवाइयों के प्रिय बुलडोजर भैया नहीं रहे। 12 नवम्बर को हृदयाघात से उनका असमय निधन हो गया। खासे तंदुरुस्त थे। पलक झपकते ही‚ मजबूत से मजबूत इमारतों को धूल चटा देते थे। पर सुप्रीम कोर्ट में हुई बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर पाए। सबसे ऊँची अदालत की फटकार से दिल का जबर्दस्त दौरा पड़ गया। वकीलों की सारी कोशिशों के बावजूद‚ बड़े भैया को बचाया नहीं जा सका। उठावनी‚ महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव नतीजों के बाद होगी।
बुलडोजर भैया पर योगी जी का विशेष स्नेह था। वैसे, भैया प्रिय तो सभी भगवा मुख्यमंत्रियों के थे। सिर्फ मुख्यमंत्रियों के ही नहीं‚ नीचे वालों के भी। जिलाधीशों के भी‚ नगर पालिका प्रमुखों के भी। सच पूछिए तो सभी भगवाइयों के और सिर्फ देश में ही नहीं‚ विदेश में भी। सुना नहीं, कैसे अमेरिका के एक शहर में तो भगवाई पंद्रह अगस्त के जुलूस में बुलडोजर ही ले आए थे। पर अमेरिका वालों के अजब–गजब कानून‚ जुलूस में बुलडोजर लेकर निकलने पर शहर की सरकार ने भाइयों पर जुर्माना ही ठोक दिया। खैर! इंग्लैंड के एक प्रधानमंत्री को तो बुलडोजर इतना पसंद आया कि गुजरात में बुलडोजर की फैक्टरी के दौरे पर‚ भाई बुलडोजर पर सवारी करने ही निकल पड़े।
यह दूसरी बात है कि बुलडोजर की तरह‚ अगले की प्रधानमंत्री की कुर्सी की उम्र भी काफी कम निकली। फिर भी योगी जी जितना प्रेम बुलडोजर को और किसी ने नहीं दिया होगा। उनके स्वागत में बुलडोजर आने लगे। उनके जुलूसों में बुलडोजर अपने करतब दिखाने लगे। और तो और योगी जी ने अपना नाम ही बदल कर बुलडोजर बाबा रख लिया। भ्रम फैलाते हैं वो लोग, जो कहते हैं कि योगी जी को उतना ही प्रेम एन्काउंटर से भी है। बेशक‚ एन्काउंटर से प्रेम है‚ मगर उतना नहीं। वरना नाम बदल कर क्या एनकाउंटर बाबा नहीं रखतेॽ बुलडोजर भैया को गरीबों के‚ दलितों के‚ अल्पसंख्यकों के घरों–दूकानों पर तांडव करने में बहुत मजा आता था। अब वैसा तांडव कैसे होगाॽ डर–डर के‚ अदालत की शर्त देख–देख कर अब क्या तांडव होगाॽ तांडव की हमारी धार्मिक परंपरा खतरे में है। हाय भैया तुम तो बीच में ही छोड़ कर चले गए। हिन्दू राष्ट्र छोड़ो‚ ‘एक देश एक चुनाव’ तक का इंतजार नहीं किया। हाय‚ बुलडोजर भैया हाय!
दस बच्चों की मौत पर योगी की चुप्पी !
अब ये तो एकदम से सिलेबस से बाहर वाली बात हो गयी। बेचारे योगी जी देश भर में घूम-घूमकर हिंदुओं को जगाने में लगे हुए थे, बंटोगे तो कटोगे। मोदी जी भी उनके सुर में सुर मिला रहे थे — एक रहोगे तो सेफ रहोगे। इसी बीच झांसी सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के बच्चों के वार्ड में आग लग गयी और बंटोगे-कटोगे के बीच में अचानक जलोगे आ टपका। योगी जी चकरा गए। ऐसे अचानक से सिलेबस से बाहर से कुछ भी आ जाये, तो कोई भी चकरा ही जाएगा। आखिर, जलोगे की तुक मिलाएं भी तो किस से? कानपुर में उप-चुनाव के लिए रोड शो करते हुए, योगी जी सबसे ज्यादा इसी उधेड़-बुन में रहे होंगे कि जलोगे की तुक किस से मिलाएं। बेशक योगी हैं, अपने मन को समझा लिया होगा — शो मस्ट गो ऑन। फिर भी एक बेचैनी-सी तो रही ही होगी। आखिर, दस-दस बच्चे मर गए और उससे भी ज्यादा घायल हो गए, पर उन्हेंं एक तुक नहीं मिल रही, जलेंगे की तुक किस से मिलाएं। इसी चक्कर में बेचारे ‘बटेंगे तो कटेेंगे’ का अपना एलान भी भूल गए। जलोगे की तुक के बिना लय जो बिगड़ गयी।
अब प्लीज इसकी तुलना नीरो के बांसुरी बजाने से करने की कोशिश कोई न करे। नीरो की बांसुरी और योगी जी की चुनाव दुंदुभी में जमीन-आसमान का अंतर है। पहली बात तो यही है कि नीरो, उसका रोम सब विदेशी हैं, जबकि हमारे योगी जी शुद्घ से शुद्घ स्वदेशी हैं। इतने स्वदेशी कि उन्हें भूरे अंगरेज कहने वाले भी सोच में पड़ जाएंगे कि ऐसा कह सकते हैं या नहीं। दूसरे नीरो को बांसुरी बजाने का शौक था, जबकि योगी जी के पास बांसुरी-वांसुरी जैसी फालतू चीजों के लिए टैम ही कहां है। अलबत्ता मोदी जी के नक्शे कदम पर चलते हुए, उन्हें चुनाव युद्घ की दुंदुभी बजाने का शौक जरूर है। तीसरी बात यह है कि नीरो को बांसुरी बजाने की प्रेरणा रोम शहर के जलने से मिली थी, झांसी भी स्मार्ट सिटी सही, पर ये मामला तो शहर के एक अस्पताल के भी एक वार्ड और वह भी बच्चों के वार्ड के जलने का ही था। जाहिर है कि दोनों प्रेरणाओं के बीच कोई तुलना संभव नहीं है।
बेचारे योगी जी मरजानी यूपी को देश में ही नहीं, दुनिया भर में नंबर वन बनवाने में जुटे हुए हैं कि नहीं। इसी दीपावली को अयोध्या में 35 लाख दिए एक साथ जलवाकर विश्व रिकार्ड बनाए थे या नहीं? अभी देव दीपावली पर काशी में दीये जलाने का ऐसा ही रिकार्ड बनाया है या नहीं? देश भर में जहां भी चुनाव प्रचार करने जाते हैं, ‘बटोगे तो कटोगे’ की पुकार से चेताने के अलावा यूपी के अपने रामराज्य का खुद अपने मुंह से बखान करते हैं या नहीं? केरल तक को यूपी के स्वास्थ्य के मॉडल से सीखने का रास्ता दिखाते हैं या नहीं? अर्थव्यवस्था को ट्रिलियनों में पहुंचाने का सपना दिखाते हैं या नहीं? विधानसभाई उप-चुनाव में नौ की नौ सीटें जीतने पर दांव लगाते हैं या नहीं? इस सब के सामने दस-बारह बच्चों की असमय मौत और वह भी सरकारी अस्पताल में मामूली लोगों के बच्चों की मौत, किस गिनती में आती है? इसलिए, शो मस्ट गो ऑन। ‘बटेंगे तो कटेंगे’ का प्रचार मस्ट गो ऑन एंड ऑन एंड ऑन। बस जरा जलेंगे के लिए कोई अच्छी सी तुक मिल जाए।
राजेन्द्र शर्मा
लेखक व्यंगकार, वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर पत्रिका के संपादक हैं ।