दलित,राष्ट्रपति तो बनाए गए किंतु प्रधान मंत्री नहीं….. क्यों?
भारत में राष्ट्रपति को पहले नागरिक का दर्जा प्राप्त है। भारत के राष्ट्रपति के पास बहुत अधिकार नहीं होते हैं। लेकिन कुछ औपचारिकाताओं के लिए राष्ट्रपति की ज़रूरत पड़ती है। कोई भी अधिनियम उनकी मंज़ूरी के बिना पारित नहीं हो सकता। वो वित्त बिल को छोड़कर किसी भी बिल को पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं लेकिन ऐसा कम ही होता है। अपने पाँच साल के कार्यकाल में रामनाथ कोविंद ने कोई भी बिल सरकार को नहीं लौटाया। इनमें बहुचर्चित कृषि बिल भी शामिल है।
भारत में पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने से क्या कुछ बदलने वाला है, इसको लेकर कई तरह के लेख लिखे गए हैं। लेकिन दलित राष्ट्रपति के बाद भारत में दलितों के लिए क्या कुछ बदला ये सवाल बीबीसी ने बीजेपी के एससी मोर्चा के अध्यक्ष लाल सिंह आर्य से पूछा। जवाब में लाल सिंह आर्य एक पूरी लिस्ट गिनाते हैं। वे कहते है , “सबसे पहले तो दलितों में आत्मविश्वास बढ़ा है।” ”दलितों को सरकारी योजनाओं का लाभ आज से पहले इतना कभी नहीं मिला। आज सरकारी योजनाओं का लाभ 30-35 फ़ीसदी दलितों को मिल रहा है। ये लाभ पहले मिले होते तो मोदी सरकार को शौचालय योजना, आवास योजनाएं, आयुष्मान योजना जैसे कार्यक्रम चलाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।”
”मोदी सरकार में 12 दलित मंत्री हैं। इससे पहले दलितों को ये सम्मान किसी सरकार में नहीं मिला। अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में छह दलित मंत्री बने थे।” बीजेपी में 2018-19 में चार दलित सांसदों को राज्यसभा भेजा, इसके अलावा इस बार मनोनीत चार सांसदों में से एक अनुसूचित जाति से है। बीजेपी अकेली ऐसी पार्टी है, जहाँ संगठन में दलितों के लिए पद आरक्षित हैं। दलित बाहुल ज़िले में तीन में से एक महामंत्री दलित बनता है।
वह कहते हैं, ”दलितों के सबसे बड़े नेता भीमराव आंबेडकर का बीजेपी ने एक नहीं पाँच-पाँच राष्ट्रीय स्मारक बनाए। वह कांग्रेस पर आरोप लगाते है कि कांग्रेस ने एक भी नहीं बनाया। पहला स्मारक महू, इंदौर में बनाया जो आंबेडकर का जन्म स्थान है। दूसरा दिल्ली के 26 अलीपुर रोड में बनाया। तीसरा दीक्षा भूमि नागपुर, चौथा चैत्र भूमि मुंबई में और पांचवां लंदन में, जहाँ अंबेडकर पढ़ने गए थे। जहाँ वो रहते थे, उसे ख़रीद कर शिक्षा भूमि बनाने का काम हमारी सरकार ने किया।” लाल सिंह ये भी कहते हैं कि ऊपर गिनाए गए क़दम प्रतीकात्मक नहीं हैं। प्रतीकात्मक तब होते जब बीजेपी केवल घोषणाएं करती और उन पर अमल नहीं करती। लेकिन हमने घोषणाएं करने के साथ-साथ उनको सम्मान देने का काम भी किया।
इस पर लाल सिंह आर्य कहते हैं, “राष्ट्रपति सरकार के मुखिया हैं, तो ये सारे काम उन्हीं के नेतृत्व में हुए ना। संसद में इन कामों की चर्चा करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद हमेशा कहते थे, ‘मेरी सरकार ने ऐसा किया’। तो हम कैसे कहें कि वो हमसे अलग थे।” बीजेपी के दावे अपनी जगह हैं। नीचे दिए कुछ आंकड़ों के ज़रिए आप भारत में दलितों की स्थिति के बारे में बेहतर समझ पैदा कर सकते हैं। भारत में दलितों की आबादी 16।6 फ़ीसदी है। पंजाब, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में दलितों की आबादी 20 फ़ीसदी से ऊपर है। जहां तक दलितों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराध की बात है, तो एनसीआरबी के आँकडों के मुताबिक़ पिछले पाँच सालों में केवल 2018 में कमी देखी गई थी। दलितों के रोज़गार और शिक्षा के आँकड़े भी पिछले पांच सालों में बहुत नहीं बदले हैं। लेकिन पांच सालों में इसके वोटिंग पैटर्न में बदलाव देखने को मिला है।
दलितों की राजनीति करने वाली पार्टी बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश में केवल एक विधायक ही इस बार जीत कर आ सका। कभी राज्य में उनकी सरकार थी। देश भर में अनुसूचित जाति के लिए 84 लोकसभा सीटें आरक्षित है। 2014 में बीजेपी को इसमें से 40 सीटों पर जीत मिली थी। 2019 में बीजेपी ने इसमें 5 सीटें और जोड़ी और ये आंकड़ा 45 पहुँच गया। यहां यह सवाल उठता है कि दलितों की राजनीति के चलते देश को एक नया दलित राष्ट्रपति तो मिल जाएगा। लेकिन क्या इससे दलितों को कोई ख़ास फ़ायदा होगा? संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को कोई ख़ास अधिकार नहीं होते। कुछेक मामलों को छोड़ दिया जाए तो राष्ट्रपति को वो करना ही होता है जो सरकार चाहती है। भारतीय राष्ट्रपति की कमोबेश वही स्थिति होती है जो इंग्लैंड में महारानी की होती है। कहने को वो मोनार्क हैं लेकिन उन्हें भी कोई अधिकार नहीं होते।
1950 में जब भारत में संविधान बना तो इंग्लैंड की ही तर्ज़ पर राष्ट्रपति के पद की अवधारणा की गई थी। लेकिन जब आख़िर में संविधान बनकर तैयार हुआ तो इस पद को राष्ट्रपति कहा गया, जो सिर्फ़ नाम के ही होता हैं, किंतु राष्ट्रपति को कोई विशेष अधिकार नहीं होता। एक दलित के राष्ट्रपति बनने से दलितों को कोई फ़ायदा होगा ऐसा नहीं है, लेकिन ऐसा करने से पार्टी को दलितों के वोटों की शक्ल में फ़ायदा ज़रूर पहुंचता है और सत्ता रूढ़ दल का यही मूल मकसद होता है। सरकार किसी दलित को राष्ट्रपति बनाने का जितना शोर मचाती है उतना कि किसी गैरदलित को राष्ट्रपति बनाने पर नहीं। दुख तो इस बात है कि दलित जातियों गैरदलितों की इस जालसाजी का शिकार हो जाती है। हकीकत को जाने बिना ही हवा में उडने लगती है और अपने सामाजिक हितों को भुलाकर अपने वोट को यूँ ही बरबाद कर देते हैं।
यथोक्त के आलोक में मूर्मू जी पहले बने दलित दलित राष्ट्रपति से समाज को कितना फायदा हुआ या कोविंद जी कितनी राजनीतिक अवहेलना का झेलनी पडी इसका अंदाजा तो सिर्फ जनता ने ही महसूस किया लेकिन कोविंद जी अपने निजी हितों को ही साधते रहे, समाज को सिरे से भुला दिया। कोविंद को कोई जानता नहीं, हमने भी उनका नाम नहीं सुना था, ना उनकी कोई भारी भरकम शख्सियत है नो कोई भारी क्वालिफ़िकेशन है। उन्हें तो वही करना है जो सरकार कहेगी। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति सरकार को मशविरा दे सकते हैं, सरकार से पुनर्विचार करने के लिए कह सकते हैं। लेकिन अगर सरकार इनकार कर दे तो उन्हें हस्ताक्षर करने ही होंगे। भारत में संविधान के विरुद्ध भी सरकार कुछ कहती है तो राष्ट्रपति को उसे मानना होता है, इमरजेंसी के दौरान भी तो यही हुआ था।
कांग्रेस के दौर में पहली बार देश को के आर नरायनन के रूप में पहला दलित राष्ट्रपति मिला था जिन्होंने अपने दमदार प्रतिद्वंदी पूर्व चुनाव आयुक्त टी।एन।शेषन करारी शिकस्त दी थी। इस चुनाव में नारायणन को 95 फीसदी मत हासिल हुए। शिव सेना के अतिरिक्त सभी दलों ने नारायणन के पक्ष में मतदान किया। इससे पहले देश में कोई भी दलित राष्ट्रपति नहीं बना था।नारायणन लंबे समय के लिए राजनयिक रह चुके थे तो उन्होंने अपना अलग स्टाइल रखा था लेकिन उसके कारण आगे के लिए कोई नज़ीर बनी हो ऐसा नहीं था। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम बेहद क़ाबिल थे और हर बिल पर सरकार को मशविरा देते थे। लेकिन सोनिया गांधी को एक महिला को राष्ट्रपति बना कर लाना था तो वो प्रतिभा पाटिल को ले आईं। उन्होंने कलाम को दूसरी बार राष्ट्रपति नहीं बनाया। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और नारायणन भारत के लोकप्रिय राष्ट्रपति रहे हैं। उन्होने सरकार को सलाह भी दी और राष्ट्रपति धर्म को भी निभाया किंतु रामनाथ कोविंद जी सरकार के हाथों जैसे कठपुतली बने रहे। न सरकार को कोई सलाह ही दी और न ही दलितों के हित में कोई बात की। पार्टियां अधिकतर ऐसे नेताओं को ही राष्ट्रपति बनाती हैं जो सरकार जीहजूरी करते रहें। डॉ राधाकृष्णन और ज़ाकिर हुसैन अकादमिक धारा से थे, नरायनन तो कलाम भी अकादमिक थे।
अब देश एक और आम चुनाव की दहलीज़ पर है। भारतीय जनता पार्टी जीतती है तो प्रधानमंत्री कौन होगा, ये नरेंद्र मोदी के अनेक बयान स्पष्ट कर ही चुके हैं। विपक्ष में बैठे इंडिया गठबंधन में मल्लिकार्जुन खरगे को लेकर कुछ बात हुई है, लेकिन अभी कुछ तय नहीं। जो भी होगा, समय के गर्भ में है। लेकिन इस सवाल का वज़न तो अपनी जगह है ही कि अब तक कोई दलित नेता प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सका। जवाब निबंधात्मक है।
उल्लेखनीय है कि दलित राष्ट्रपति कोविंद जी को नए संसद भवन के शिलान्यास पर भी नहीं बुलाया गया था और अब जनजाति की राष्ट्रपति माननीय मुर्मू जी को नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में आने तक का निमंत्रण दिया गया जबकि इन दोनों को राष्ट्रपति बनाने वाली मोदी सरकार ही रही है। क्या यह लोकतंत्र की हत्या की धनक नही,? विदित हो कि ये दोनों ही भारतीय दलित जातियों से आते हैं।
विपक्ष ने नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधा। एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले ने कहा कि देश में लोकतंत्र नहीं है। विपक्ष की मौजूदगी के बिना नए संसद भवन का उद्घाटन संपन्न नहीं हो सकता। भाजपा ने अपना बचाव करते हुए कहा कि विगत में सेंगोल को सबसे पहले अंग्रेजों द्वारा सत्ता हस्तातंरण के प्रतीक के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरू को सौंपा गया था। फिर नए भवन के इस उद्घाटन मौके पर विपक्ष को आपत्ति क्यों है। पीएम मोदी ने यह भी कहा कि गुलामी के बाद हमारे देश ने बहुत कुछ खोकर अपनी नई यात्रा शुरू की थी। यह यात्रा कितने ही उतार-चढ़ावों से होते हुए, कितनी ही चुनौतियों को पार करते हुए आज आजादी के अमृतकाल में प्रवेश कर चुकी है। आजादी का यह अमृतकाल विरासत को सहेजते हुए, विकास के नए आयाम गढ़ने का अमृतकाल है। उनकी इस बात का क्या मतलब है? क्या यह देश में आजादी मोदी जी के सत्ता में आने के बाद ही मिली है?
आज भाजपा सरकार ढोल पीट रही हई कि राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को मिली राम मंदिर के गृहनगर में प्रवेश कराया गया, जैसे कोई बहुत बडा एहसान किया हो।कौ किंतु मुर्मू जी को राममंदिर के उद्घाटन के समय पूछा तक नहीं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू राम मंदिर का दर्शन करने गईं। उन्होंने गर्भ गृह में खड़े होकर भगवान राम की पूजा की।
उनकी तस्वीरें देखने के बाद कई दलित महिलाएं खुश हैं। कि आखिरकार एक आदिवासी महिला को गर्भ में प्रवेश का अधिकार मिल ही गया। क्या ये तस्वीरें खुश होने के लिए हैं? क्या हमें मंदिर में प्रवेश करते ही प्रसन्न होना चाहिए? इससे पहले अगर आपको याद हो तो जब वह दिल्ली के एक मंदिर में गई थीं तो उन्हें गर्भ गृह में प्रवेश नहीं करने दिया गया था। उनकी पूजा बाहर से की जाती थी। जब बीजेपी नेता मंदिर गए तो उन्हें गर्भ गृह में प्रवेश की इजाजत दी गई।
पुजारियों ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति होते हुए भी आदिवासी महिला होने के कारण उन्हें गर्भ गृह में प्रवेश नहीं दिया जायेगा। लेकिन इस बार यह एक नई शुरुआत है। राष्ट्रपति मुर्मू ने राम मंदिर के गर्भ गृह के दर्शन किये हैं। उन्होंने भगवान राम की पूजा की है। हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले राम भक्तों के लिए यह अच्छी बात है कि राष्ट्रपति ने गर्भ गृह का दौरा किया है। लेकिन सामाजिक न्याय के लोग, जो बाबा साहब डॉ। अंबेडकर को मानते हैं, जो बिरसा फुले अंबेडकर को मानते हैं, क्योंकि मंदिर और मस्जिद के बीच कोई लड़ाई नहीं है, जब वे देखते हैं कि राष्ट्रपति मुर्मू एक पीड़ित, एक व्यक्ति से मिलने जा रहे हैं। जातिवाद का शिकार या जिसके साथ अन्याय हुआ है, वे मंदिर जाने के बजाय उसके पास जाएं और उसे न्याय दिलाएं, प्रशासन से कहें कि उसके लिए काम करें, तो यह हमारे लिए अधिक सुखद होगा, अधिक न्यायपूर्ण होगा ।
लेकिन राष्ट्रपति मुर्मू की अपनी आस्था है, उनकी अपनी राय है क्योंकि उनकी बौद्ध धर्म में आस्था है। जब उन्हें राष्ट्रपति घोषित किया गया तो वह मंदिर गईं। उसके बाद हम देखते हैं कि वह सभी मंदिरों में जाती हैं। लेकिन राष्ट्रपति के मंदिर में जाने से दलित समाज को कुछ हासिल नहीं होगा। सवाल ये है कि जब राष्ट्रपति मंदिर गए हैं तो क्या उन पर अत्याचार बंद हो गया है? क्या आदिवासी समुदाय के प्रति अन्याय बंद हो गया? क्या जल, जंगल और जमीन के लिए उनकी लड़ाई मजबूत हुई है? क्या संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी महिलाएँ सवर्ण महिलाओं की तुलना में 14 वर्ष पहले मर जाती हैं, क्योंकि वे कुपोषित हैं, उनके पास साफ़-सफ़ाई की सुविधा नहीं है, उनके पास अच्छा भोजन नहीं है, सभी प्रकार की सुविधाएँ मौजूद नहीं हैं। 14 साल पहले मर जाओ। तो क्या मंदिर जाने से वो सारी समस्याएं हल हो जाएंगी? दलित समाज पर अत्याचार के मामले दिन पर दिन बढ़ते ही जा रहे हैं।
बाबा साहेब अम्बेडकर और मान्यवर कांशीराम जी का कहना था कि हमारी लड़ाई मंदिर-मस्जिद के लिए नहीं, बल्कि स्कूल-कॉलेजों के लिए है। इसलिए आज हमें स्कूल और कॉलेजों में जाकर यह देखने की जरूरत है कि किस तरह से हमारे बच्चों को स्कूल और कॉलेजों में परेशान किया जा रहा है, कैसे उनकी छात्रवृत्तियां रोकी जा रही हैं, कैसे नई शिक्षा नीति में हमारे बच्चों की सभी प्रकार की सुविधाएं छीन ली गई हैं, शिक्षा बाजारीकरण हो गया है, हमारे बच्चे महंगी फीस देकर पढ़ नहीं पा रहे हैं, सरकारी स्कूल, सरकारी कॉलेज, विश्वविद्यालय बंद किये जा रहे हैं, नष्ट किये जा रहे हैं। तो ये हमारे लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।