बेरोजगारी खत्म करने के बजाय क्यों दिया जा रहा है मुफ्त राशन के वितरण पर जोर
अमीर व्यक्ति सोचता है कि हर बुराई की जड़ गरीबी है। और आम आदमी सोचता है कि पैसा हर बुराई की जड़ है। ‘एक औसत कमाई वाले व्यक्ति की सोच है कि अमीर आदमी खुशकिस्मत या बेईमान होता है। यह जगजाहिर है कि पैसा खुशियों की गारंटी नहीं देता, उससे जिदंगी आसान जरूर हो जाती है। अमीर कोई भी कार्य करने से पहले सबसे पहले अपना फायदा देखता है, जबकि गरीब मन की शांति को प्राथमिकता देता है। अमीर व्यक्ति दिमाग से काम लेता है जबकि गरीब व्यक्ति दिल से काम लेता है। गरीब व्यक्ति मौके को नहीं पहचान पाता जबकि अमीर व्यक्ति इसे बहुत जल्दी पहचान जाता है।
यह भी कि सत्ता लोभी लोगों यानी तानाशाही प्रवृति के लोगों की सोच यह होती है कि जब भी सत्ता हाथ लगे तो सबसे पहले सरकार की धन संपत्ति, राज्यों की जमीन और जंगल पर अपने दो तीन विश्वसनीय धनी लोगों को सौंप दें। 95% जनता को भिखारी बना दें उसके बाद सात जन्मों तक सत्ता हाथ से नहीं जाएगी। और शिक्षा को इतनी मंहगी करदो वह इसलिए कि शिक्षा जितनी महंगी होगी। जनता उतनी ही अनपढ़ होगी। जनता जितनी अनपढ़ होगी।। धर्म का धंधा उतना ही आगे बढ़ेगा। और जनता भूख की आग में जलकर गुलाम और मूड़ बनी रहेगा।
अर्थ ये हुआ कि अशिक्षा किसी भी देश के ग़रीब और पिछड़ों को निरंतर दास बनाए रखने की एक प्रक्रिया है। सरकार का सबको नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने का प्रावधान है किन्तु व्यावहारिकता इसके क़तई प्रतिकूल है। शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत नागरिकों को नि:शुल्क शिक्षा, पुस्कालय की व्यवस्था, वैज्ञानिक शिक्षा जैसी अन्य सुविधाएँ प्रदान करने की राष्ट्रीय व्यवस्था तो है किन्तु इसका क्रियात्मक स्वरूप एकदम उलट है। तब यह सोचना ही होगा कि क्या देहाती बालक-बालिकाओं को शिक्षा प्राप्त करने के उतने ही अवसर प्राप्त हैं जितने शहरी क्षेत्र के धनी परिवारों के बालक-बालिकाओं को हैं। क्या देहाती क्षेत्रों के स्कूलों में शहरी क्षेत्र के स्कूलों के समान शिक्षा-साधन उपलब्ध हैं? आमतौर पर देहात के सभी स्कूलों की स्थिति कमोवेश एक सी है। कहीं पर्याप्त अध्यापक है तो कमरे नहीं और कहीं पर्याप्त कमरे हैं तो अध्यापक नहीं। सामान्यतः सभी देहाती स्कूलों में अध्यापकों और कमरों, दोनों का ही अभाव है। और इस अशिक्षा का कारण देश के गरीब तबके को रोजी-रोटी का अभाव है।
क्या आपने वो घर देखे हैं, वो लोग देखे हैं जो राशन के लिए कतार में खड़े होते हैं? वो अनाज सिर पर रखकर दूर-दूर तक ले जाते हैं। भारत में 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन दिया जाता है, जैसा कि सरकार द्वारा बताया जाता है। सरकार का यह भी कहना है कि उसने अपने 10 साल के कार्यकाल में 25 करोड़ लोगों को गरीबी के रेखा से बाहर निकाला है। तब तो 140 करोड के देश में 105 करोड लोग भुखमरी की चपेट में रहे हैं। यह है विश्वगुरू भारत की सामाजिक स्थिति। आबादी के इतने बड़े हिस्से को पेट भरने के लिए अनाज कैसे मिलता है? वे इसे कैसे ले जाते हैं? आपने इसकी बहुत सी तस्वीरें देखी होंगी। यह मीडिया का युग है। क्या आपने गोदी मीडिया के चैनलों पर इस आम आदमी की हालत देखी है? भारत सरकार उन्हें मुफ्त अनाज दे रही है। सबसे सस्ता अनाज 3 रुपए किलो चावल और 2 रुपए किलो गेहूं है। कोरोना के दौरान मुफ्त अनाज दिया जा रहा है। 5 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह। यह उपलब्ध होगा। इसे मोदी की ओर से गारंटी के तौर पर पेश किया जा रहा है। कांग्रेस ने कहा कि अगर उनकी सरकार आई तो वह जरूरतमंद लोगों को हर महीने 10 किलो मुफ्त अनाज देगी।
इसका मतलब ये हुआ कि ये चुनाव किसी न किसी तरह से बड़ा मुद्दा है। लेकिन आपने टीवी चैनलों पर राशन की दुकानों पर कितनी रिपोर्ट देखी? हमने प्रधानमंत्री आवास योजना पर एक वीडियो देखी जिसमे र इस योजना के तहत बने घरों और उनमें रहने वाले लोगों की दयनीय स्थिति के बारे में देखा। लोगों को देखिए। और हमेशा ऐसी चीजें देखने की आदत डालिए जो दिखाई नहीं देती। कितनी सफाई से पीएम मोदी ने मुफ्त अनाज की गारंटी को अपनी गारंटी में बदल दिया है। हर जगह होर्डिंग है कि ये मोदी की गारंटी है। सभी योजनाओं पर राजनेता दावा करते हैं। इसमें कोई खास बात नहीं है। लेकिन अगर कोई यह सोचे कि मुफ्त अनाज योजना मोदी की निजी गारंटी है, तो दिक्कत है। फिर तो यह कहना चाहिए कि देश की आबादी को सस्ता अनाज मिलना चाहिए। यह किसी की गारंटी नहीं है।
दरअसल ये गारंटी मनमोहन सिंह की सरकार ने हमेशा के लिए हिंदुस्तान के लोगों को दी थी। सरकार कोई भी हो, आपको सस्ता अनाज मिलेगा। ये मनमोहन सिंह की गारंटी थी, जिसे अब मोदी की गारंटी बताकर जनतां को बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस के राज में राशन सड़ता रहा। आदिवासी इलाकों में बच्चे भूख से मर गये। और कांग्रेस ने अनाज की दुकानों पर ताला लगा दिया था। और उस समय सोनिया सरकार के प्रधानमंत्री डॉ।
मनमोहन सिंह ने प्रेस से पूछा कि अनाज गीला हो रहा है, सड़ रहा है, कृपया इसे गरीबों में बांट दें। उन्होंने कहा कि इतने बड़े देश में यह संभव नहीं है, हम ऐसा नहीं कर सकते। मोदी का कमाल देखिए कि अपने झूठ के पीछे मनमोहन सिंह के काम को अपने नाम कर लिया। आज देश में मुफ्त राशन योजना चल रही है।
मनमोहन सिंह की सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून बनाया, जिसके तहत हर सरकार को अनाज उपलब्ध कराना होगा। यह संसद द्वारा बनाए गए कानून से मिलता है। और ये कानून मोदी सरकार ने नहीं, बल्कि मनमोहन सिंह ने बनाया है। सितंबर 2013 में, मनमोहन सिंह की सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून नामक एक कानून पारित किया। क्या आप जानते हैं इस कानून का विरोध किसने किया? जिसने इसका विरोध किया आज यह योजना उन्हीं के नाम से जानी जाती है। और पूरा देश मान रहा है कि ये मोदी की गारंटी है। देश की जनता यह नहीं जानती कि मनमोहन जी द्वारा यह योजना बनाई गई थी, उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। और उन्होंने मनमोहन सिंह को लिखा था कि ये योजना काम नहीं करेगी।
उपरोक्त के संदर्भ में, यह अगस्त 2013 की खबर है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर इसका विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि यह खाद्य सुरक्षा कानून लोगों को बेवकूफ बना रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि इस योजना में लाभार्थियों की संख्या तय की गई है। लेकिन किसी को यह नहीं बताया गया है कि कोई व्यक्ति पात्र है या नहीं। आज प्रधानमंत्री जी अपने भाषणों में बार-बार इस योजना का जिक्र करते हैं। वो मुफ़्त राशन की बात करते हैं। 80 करोड़ भारतीयों को मुफ़्त राशन मिल रहा है। हक़ीकत क्या है? हक़ीकत ये है कि इस योजना को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून कहते हैं। और ये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून सितंबर 2013 में संसद में पारित हुआ था, तब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। और उस कानून का विरोध किसने किया? सिर्फ़ एक मुख्यमंत्री ने किया। 7 अगस्त 2013 को गुजरात के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा कि वो इस खाद्य सुरक्षा कानून का विरोध करते हैं।
लेकिन 8 साल बाद प्रधान मंत्री बनने पर मोदी जी ने उसी कानून को नया नाम दे दिया और प्रधानमंत्री मुफ्त राशन योजना का श्रेय ले रहे हैं। यही इस कानून का उद्देश्य था। चाहे राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार, मापदंड के नाम पर खाना देने से इनकार नहीं कर सकती। राज्य सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह अपनी आबादी के एक बड़े हिस्से को बहुत सस्ता भोजन उपलब्ध कराए। इसीलिए चावल की दर 3 रुपए प्रति किलो तथा गेहूं की दर 2 रुपए प्रति किलो निर्धारित की गई। 2 प्रति किलो। भारत के संविधान में भोजन का अधिकार नहीं है। लेकिन इसे भोजन के अधिकार के संदर्भ में परिभाषित किया गया था। और सरकार ने गारंटी दी कि गांवों में 75% आबादी को और शहरों में 50% आबादी को सस्ता भोजन दिया जाएगा। सस्ता भोजन का मतलब है 3 रुपये किलो चावल और 5 रुपये किलो प्याज। दो प्रति किलो गेहूं। आज इसी कानून के आधार पर 5 लोगों के परिवार को 25 किलो सस्ता खाना दिया जा रहा है। इस योजना से अमीर उद्योगपतियों को फायदा हुआ है। राहुल गांधी जिनके बारे में वो बार-बार अपने भाषणों में कहते हैं कि देश की सिर्फ 1% आबादी अमीर हो रही है और 70% आबादी गरीब हो रही है।
अब आप सोचिए कि यह योजना 2013 से चल रही है, लेकिन फिर भी पोषण के स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। भारत की आम जनता की हालत बहुत ख़राब है। भारत सरकार इस सच्चाई पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं करती। लेकिन पोषण के मामले में भारत 125 देशों में 111वें स्थान पर है। यानी जिन गरीबों को मुफ्त भोजन दिया जाता है, उनके स्वास्थ्य, उनके पोषण पर चर्चा होनी चाहिए और इस योजना का विस्तार बहुत जरूरी है। जो भी हो, आज यह मोदी की गारंटी है या किसी की, लेकिन यह काम तो मनमोहन सिंह का था। उनके समय में मनरेगा कानून बना, जिसके बारे में मोदी जी ने कुछ नहीं कहा। लेकिन जब कोरोना का हमला हुआ, तो पहले से बने इस कानून ने आबादी के बड़े हिस्से को काम दिया। खाद्य सुरक्षा कानून ने भोजन दिया। और दिन-रात प्रधानमंत्री मोडी जी मनमोहन सिंह अपनी योजनाओं का श्रेय लेते रहे थे। लेकिन दुर्भाग्य से आज भी लोगों को यह नहीं पता कि जो अनाज वो मोदी के थैले में भरकर ले जा रहे हैं, उस थैले पर मनमोहन सिंह की भी फोटो हो सकती है। लेकिन मनमोहन सिंह ने ऐसा कोई थैला नहीं बांटा। मनमोहन सिंह ने अपने समय में कभी नहीं सोचा होगा कि करोड़ों रुपए के थैले बनेंगे। इस पर प्रधानमंत्री मोदी जी की तस्वीर होगी, जिससे यह योजना उनके नाम से जानी जाएगी। और थैले बनाने वाले तबके को इस योजना का व्यापक लाभ मिलेगा।
2013 में जब अनाज सुरक्षा गारंटी कानून बना तो 2011-12 की जनगणना के मुताबिक यह तय हुआ कि आबादी का कितना हिस्सा इसके दायरे में आएगा। लेकिन उसके बाद मोदी सरकार जनगणना नहीं करा पाई। ज़ॉड्रेज़ और रितिका खेड़ा जैसे अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जनसंख्या की गणना नहीं की गई थी। इस वजह से गरीबों को इस योजना का लाभ नहीं मिला, लेकिन कोई इसके बारे में बात नहीं करता। खबर तो छपी जरूर थी, लेकिन मुद्दा ये नहीं है। मुफ्त अनाज योजना का असली नाम अनाज सुरक्षा गारंटी अधिनियम है। याद रखें, यह अपने आप में दुनिया की एक क्रांतिकारी योजना थी, जिसमें सरकार ने कम कमाई पर अधिक काम करने वाले गरीब भारतीयों की थाली की कुछ जिम्मेदारी ली। कुछ जिम्मेदारी सरकार को दी गई। चावल और गेहूं मुफ्त में या 3 रुपये या 2 रुपये की कीमत पर दिए गए। इसका मतलब यह नहीं है कि मुद्रास्फीति ने उन पर बोझ नहीं डाला। फल, सब्जियां, तेल, मसाले महंगे हो गए। थालियों में पोषण कम हो गया। चुनाव देखकर राज्य सरकारों ने नमक और तेल की चीजें तो जोड़ दीं, लेकिन जल्द ही गायब कर दीं।
शुभांगी देवदोमे की एक रिपोर्ट के अनुसार वो बता रही हैं कि इस योजना के गरीब भारतीय कहां रहते हैं और कैसे रहते हैं। उनका दैनिक संघर्ष कैसा है? आज आपको जानकर हैरत होगी कि मुफ्त अनाज योजना सत्ता दल के वोट बटोरने का साधन बन गया है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के बरेली से एक वीडियो वायरल हुआ था। इसमें दो होम गार्ड पुलिस गार्ड को बेरहमी से पीट रहे थे। क्यों? क्योंकि मुफ्त राशन लेने के बावजूद उन्होंने बीजेपी को वोट नहीं दिया था। अब अगर किसी को इसे रोकना भी है तो उसे संसद में जाकर इस कानून को खत्म करना होगा और रोजगार के अवसर प्रदान कराने का काम करना होगा जिससे लोग मुफ्त के राशन पर रहकर अपनी कमाई से राशन लेकर अपना जीवन यापन कर लेंगे। किंतु सरकार का बेरोजगारी दूर करने के बजाय मुफ्त राशन के वितरण पर बल ज्यादा दे रही है। ताकी सत्ता दल का एक वोट बैंक निरंतर बना रहे यहाँ यह सवाल है, “क्या आप इन्हें भोजन के बजाय वोट के रूप में देखना चाहेंगे? अक्सर लोग कहते हैं कि राशन मिल रहा है तो पीएम मोदी को वोट मिल रहा है। लेकिन वे कभी अपनी जिंदगी में झांककर नहीं देखते कि राशन के अलावा उन्हें कुछ और नहीं मिल रहा है। मुफ्त राशन के बाद भी उनकी आर्थिक वृद्धि वहीं रुकी हुई है।”
यह जानने की बात है कि जब यह योजना 2023 में समाप्त होने वाली थी, उस समय आगामी लोकसभा चुनाव के कारण नवंबर में यह घोषणा की गई कि 2024 के अंत तक और अगले 5 वर्षों तक भी मुफ्त राशन मिलेगा। मेरे गरीब भाइयों-बहनों, मैं देश के गरीब भाइयों-बहनों को दूर से कहना चाहता हूं, मैंने एक निर्णय लिया है। बीजेपी सरकार अगले 5 साल तक मुफ्त राशन योजना बढ़ाएगी। विदित हो कि चुनाव की मजबूरियों और मुफ्त राशन की समय सीमा के बीच गहरा संबंध है। सच तो यह है कि बीजेपी ने इस योजना को राजनीति का हथियार बना लिया है। उन्हें जितना मंदिर पर भरोसा है, उतना ही मुफ्त राशन पर भी। किंतु सरकार का कहना है कि पिछले 10 साल में देश की 25 फीसदी गरीबी कम हुई है।
इसके उलट, आमतौर पर जब मुफ्त राशन की बात आती है तो उसका विज्ञापन, बयान और रुपये का आंकड़ा सामने आता है। 80 करोड़ आपके सामने रखे हैं। अब मुफ्त राशन में लोगों को सिर्फ 2 चीजें ही दी जाती हैं। दिल्ली और यूपी में इस महीने 3 किलो गेहूं और 2 किलो चावल दिया गया। वहीं हरियाणा में हर परिवार को 4 किलो गेहूं और 1 किलो बाजरा दिया गया। कुछ महीने पहले यूपी में चावल कम हुआ और बाजार भी जाने लगा। हाल ही में सरकार ने मोटे अनाजों की व्यवस्था और उनकी उपज को बहुत महत्वपूर्ण बताया है। हर जगह बाजरे के बिस्कुट और अन्य अनाज की बिक्री बढ़ी है। आपको यह जानकर हैरत होगी कि इस सबके बाद भी भारत में बच्चों में कुपोषण की समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। पोषण के लिए सरकार ने मुफ्त राशन में गेहूं कम कर बाजरा देने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
चलते चलते यहाँ लोकतंत्र की मूल भावना को जानना जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र की चार प्रमुख समस्याएं निम्न हैं – (i) देश की एकता और पूर्णता बनाए रखना। (ii) उच्च एवं न्यायिक स्थिति पर व्यापक भ्रष्टाचार। (iii) महंगाई, बेरोजगारी, जलवायु परिवर्तन, आंतरिक सुरक्षा जैसी समस्याएं। (iv) सत्ता में महिलाओं की कम भागीदारी, अशिक्षा, अंधधुंध चुनावी खर्च आदि राजनीतिक समस्याएं। लोकतंत्र के समक्ष कुछ चुनौतियां भी है। भारत का लोकतंत्र निरक्षरता, गरीबी, महिलाओं के खिलाफ भेदभाव, जातिवाद और सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति के अपराधीकरण और हिंसा की चुनौतियों का सामना कर रहा है। लोकतंत्र की मुख्यत: दो शर्तें है। लोकतन्त्र में ऐसी व्यवस्था रहती है की जनता अपनी मर्जी से विधायिका चुन सकती है। लोकतन्त्र एक प्रकार का शासन व्यवस्था है, जिसमे सभी व्यक्ति को समान अधिकार होता हैं। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमे राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। लोकतांत्रिक भारत से पता चलता है कि चुनाव के माध्यम से प्रतिनिधियों को चुनने के लिए, भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी भी पंथ के बावजूद, बिना किसी भेदभाव के वोट देने का अधिकार है। जाति, धर्म, क्षेत्र और लिंग। भारत की लोकतांत्रिक सरकार जिन सिद्धांतों पर आधारित है वे हैं स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय। किंतु आज के लोकतंत्र को देखते हुए ऐसा कुछ भी होता नहीं लग रहा है। जनता को यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी देश का शासक अगर अपनी जनता से ज्यादा अपने वस्त्रों पर ध्यान दे तो समझ लीजिए कि उस देश की बागडोर एक बेहद कमजोर, सनकी और डरे हुए इंसान के हाथों में है। ( माइकल नास्त्रेडाम्स (एक यूरोपियन दार्शनिक)।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।
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Good mood and good luck to everyone!!!!!