गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-9
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की नौवीं किश्त है।
एक प्रेम कहानी ऐसी भी…
यह एक अकेली ऐसी घटना है जिसे सार्वजनिक करते हुए, मैं गर्व और शर्म दोनों एक साथ महसूस कर रहा हूँ …..। गर्व तो भाभी के अगाध प्रेम पर और शर्म अपनी नादानगी पर। यह वाकया कुछ ज्यादा मार्मिक तो है ही अपितु भाभी की मेरे प्रति अगाध प्रेम की अदभुत घटना भी है। उन दिनों शायद……मैं नौवीं कक्षा में था…. बारिशों का मौसम था। सभी जानते हैं कि जब गाँवों में स्त्री/पुरुष/बच्चे यानी सबको शौंच के लिए गाँव से सटे खेतों या खुले जंगल में जाना पड़ता था। आज कुछ हालात बदले तो हैं लेकिन सरकार द्वारा बनवाए शोचालय पानी की कमी के कारण अक्सर बंद ही पड़े रहते हैं। अभी भी काफी संख्या में स्त्री-पुरुष शौंच के लिए खेतों में ही जाते हैं।
इस कारण होता यूँ था कि कई नासमझ पुरुष या महिला या फिर बच्चे जंगल में जाने वाली पगडंडियों या नजदीकी खेतों की मेंड़ों पर ही जल्दी-जल्दी में शौंच कर आते थे। अत: पगडंडियों या नजदीकी खेतों की मेंड़ों पर बदबूदार सड़ांध हो जाती थी। ज्यादातर पैरों में जूते नहीं होते थे…नंगे पैर ही जंगल में आना-जाना पड़ता था। ऐसे माहौल में न जाने कब मेरे शिश्न को कोई गंदगी छू गई और उसपर फंगस सी आ गई….. थोड़ी-2 जलन होने लगी…जोरों की खुजली भी। हुआ यूँ भी कि मैंने अपने किसी दोस्ती के कहने पर जालिम लोशन नामक खाज-खुजली नाशक दवाई को अपनी शिश्न पर लगा लिया था जिससे शिश्न का अगला भाग लगभग स्किन रहित हो गया। कपड़े की छुहन भीं असहनीय पीड़ा देती थी। इस वजह से यहाँ तक हुआ कि स्कूल जाना भी बन्द हो गया। न पाजामा पहना जाता था……पेंट तो होती ही नहीं थी। बस! भाई की आधी धोती को तहमद के रूप में लपेट कर और टाँगे फैलाकर चलना मेरी मजबूरी हो गया था। जब ऐसा करते हुए कई दिन बीत गए तो भाभी से रहा नहीं गया। पूछ ही बैठी – “ क्या हो गया है तुझको? कई दिन से स्कूल नहीं जा रहा। धोती लपेटे घूमता रहता है…दिखा क्या हुआ है…. टाँगे फैलाकर घूमता रहता है….. जो कुछ ज्यादा हो गया तो… कहाँ से लाऊँगी तेरे लिए डाक्टर!. इतना सुनने पार मेरी सिट्टी-पिट्टी गोल हो गई। मुझसे न कुछ कहते बना और न कुछ दिखाते ही। मैंने लड़खड़ाती आवाज में कहा – “नहीं….नहीं…. कुछ नहीं हुआ..बस! इतना ही कहते बना मुझसे। “कुछ नहीं हुआ तो फिर स्कूल क्यों नहीं जाता? ये धोती क्यों लपेट रखी है? टाँगे फैलाकर क्यूँ चलता है? हम तो पागल हैं…. हमें तो जैसे कुछ पता ही नहीं है…. जल्दी से इधर आ…… मैं देखती हूँ क्या हुआ है” भाभी ने तपाक से कई सवाल दाग दिए। मैं अवाक भाभी का मुँह देखता रहा…. जैसे मुझे साँप सूँध गया हो। इससे पहले कि मैं कुछ कहता…… भाभी मेरी ओर झपटी और मेरी धोती एक झटके में ही खोल दी……और बोली कि किसे दिखाएगा ये सड़ी हुई छौंगनी …. मेरे सिवा और कौन है तेरा इस घर में? मैं धोती को समेटने की कोशिश की,… किंतु सब बेकार। भाभी ने तपाक से मेरे शिश्न को हाथ में लेकर देखा….मुझे आँखों से घुड़का….लपककर कमरे में गई… सरसों का तेल लेकर आई…. और फटाफट लगा दिया मेरी इन्द्री पर…..। इसके बाद कई दिनों तक मैं खुद ही तेल लगाने लगा और …ठीक होने के बाद मैंने कालिज जाना शुरू कर दिया। है न भाभी के अगाध प्रेम की एक ममत्व भरी कहानी?
शादी की चौसर पर भाई ने अकेले ही खेल कर दिया….
व्यक्ति किसी भी परिवार का एक अभिन्न अंग होता है और यह सूत्र जैसे भी हो पूरी ज़िन्दगी हिचकोले खाते हुए बराबर बना रहता है। छोटा परिवार हो या बड़ा, ज़िन्दगी भर किसी न किसी तरह हर मोड़ आपके साथ खड़ा होता है। बहुत बार परिवार के सदस्यों की कमर से कमर भी भिड़ी होती है। यह सब घर के हालात पर निर्भर होता है। कहा जाता है कि बच्चों के लिए पहला स्कूल उसका परिवार होता है, जहाँ व्यक्ति ज़िन्दगी के विभिन्न आयामों को सीखता है। किंतु यह उक्ति मुझ पर इसलिए लागू नहीं होती कि मेरे माता-पिता का मेरे बचपन के लगभग 13वें वर्ष में ही देहान्त हो गया था। यह भी कहा जाता है कि हमारी संस्कृति और सभ्यता की पहचान के बारे में मूल ज्ञान, हमारे परिवार से ही आता है। मगर मैं ऐसा कतई नहीं मानता क्योंकि कोई भी मनुष्य परिवार से कम, परिवेश से ज्यादा प्रभावित होता है, ऐसा मेरा मानना है। यह भी माना जाता है बच्चों को सभी अच्छी-बुरी आदतें और शिष्टाचार अपने परिवार से ही मिलते हैं किंतु मेरी दृष्टि में यह उक्ति भी अक्षरश: सही नहीं है, इसमें भी देश, काल और परिस्थिति का बहुत बड़ा योगदान होता है। हाँ! यह इन उक्तियों पर वो लोग जरूर विश्वास कर सकते हैं, जो केवल परंपरागत बातों में उलझे रहते हैं और अपने बच्चों को पिंजरे का तोता समझते हैं। मैं जानता हूँ कि वो लोग इस सच से सहमत नहीं भी होंगे जिन्होंने किताबी ज्ञान के इतर कुछ भी देखने की कोशिश ही नहीं की होगी। और न इसकी कोई जरूरत ही समझी होगी अथवा जरूरत ही नहीं पड़ी होगी । कारण कि आज के समाज में आर्थिक सम्पन्नता सबसे बड़ी सफलता मानी जाती है। फिर वह सफलता चाहे जैसे भी मिले।
मैं भी उनमें से एक हूं। दिल्ली में नौकरी की तलाश में आया था और नौकरी मिलने के बाद दिल्ली का ही होकर रह गया। इसलिए कहना गलत नहीं होगा, आजकल लोग छोटे- छोटे परिवारों विभाजित हो गए हैं और यह स्थिति अब केवल शहरों में ही नहीं, गाँवों में भी देखने को मिलती है। फिर भी परिवार का होना बहुत आवश्यक हैं क्योंकि परिवारजन जिन्दगी के हर क्षेत्र में एक दूसरी की मदद करते हैं, स्वरूप चाहे जो हो । हमें एक व्यक्तिगत पहचान के साथ एक पूर्ण व्यक्ति बनाने में और हमारी व्यक्तित्व को विकसित करने के पीछे परिवार का किसी न किसी तरह से हाथ होता हैं।
यहाँ सबसे पहले मुझे अपनी शादी के बारे में बात करना जरूरी लगता है। सच तो ये है कि मैं शादी करना ही नहीं चाहता था। किंतु माँ के देहांत के बाद भाई की महज एक ही प्राथमिकता थी कि मेरी शादी करके वो खुद अपने दायित्व से मुक्त हो जाएं। इस हेतु उन्होंने पहली बार आठवीं कक्षा में ही मेरी शादी तय कर दी थी। उस समय उनके सामने मेरे लिए बोलना भी मुश्किल था। खैर! एक बार दुस्सहास करके रिश्ता तोड़ने के मकसद से मैंने लड़की वालों को उनके द्वारा दिए गए ग्यारह रुपये एक लिफाफे में रखकर डाक से लड़की वाले को वापीस भेज दिए जिसकी जानकारी मेरे भाई-भाभी को कोई खबर न थी। और इस तरह शादी करने से साफ मना कर दिया । मामला बिना किसी तू-तू मैं-मैं के यहीं समाप्त हो गया।
दिल्ली आने के बाद, मैंने किसी को भी दिल्ली में रहने का पता तक नहीं दिया था। फिर भी यहाँ-वहां से पूछ-ताछ करके एक दिन बड़े भाई साहब शादी का प्रस्ताव लेकर दिल्ली आ धमके। जब मैंने शादी करने से मना कर दिया तो वो बिना कुछ कहे गाँव वापिस चले गए । कुछ दिन बाद कुछ यूँ हुआ कि भाई साहब ने मेरे गाँव के पड़ोसी कस्बे सठला के एक पंडितजी को शादी का प्रस्ताव लेकर दिल्ली मेरे पास भेज दिया। पंडित जी रेलवे से ड्राईवर के पद से रिटायर्ड थे। मैं उन्हें मामा जी कहकर सम्बोधित किया करता था। उन्होंने शादी की रट लगाते हुए सारी रात सोने नहीं दिया। जब भी शादी से मना करता तो वो शादी के लाभों की कोई नई कहानी सुनाने लगते। आखिर दिन निकला। खाना बनाया। मामा जी को खिलाया। वो खाना खाकर फिर शादी की बात करने लगे। शादी का राग सुनते-सुनते मेरा दिमाग पक चुका था। …मैने हंसी की मुद्रा में मामा जी से कहा कि अब तो मामा जी! आपने खाना खा लिया न, अब आप जा सकते हैं। इतना सुन कर वो बिना कुछ और कहे वापिस गाँव चले गए।
जब मुझे बिना देखे ही लड़की वालों ने सगुन दे दिया तो…
बात यहीं खत्म हो जाती तो बेहतर होता। कुछ महीनों बाद खबर मिली कि मेरे बड़े भाई ने मुझे कोई बिना सूचना दिए मेरी सगाई का सगुन ले लिया। जब एक खत के जरिए मुझे इसकी सूचना दी तो मैं यह जानकर सकते में आ गया और रोते हुए ये खबर रामभज जीजा जी को बताई। उन्होंने भी साफ कह दिया कि भई! अब मैं क्या कर सकता हूँ। मेरी मंशा तो ये थी कि तेरी शादी यहीं से करा सकूँ। चलो! अब भाई ने सगुन के पैसे ले लिए हैं तो ले लिए। मैं एक दम निराश और हतास था और असहाय भी।
मैं मानता हूं कि समय के साथ अपने विगत को भुलाकर लोग आगे बढ सकते हैं लेकिन जीवन में सब कुछ भुलाया नहीं जा सकता। कुछ लमहे ऐसे भी होते हैं जिनके साथ हम हमेशा जीना चाहते हैं। जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि मैं शादी नहीं करना चाहता था किन्तु माँ-बाप न होने के कारण भाई को तो मेरी शादी करके अपने दायित्व की इतिश्री करने की जल्दी थी किंतु यह समझ नहीं आया कि लड़की वालों को इतनी क्या जल्दी थी कि बिना लड़के यानी मुझे देखे बिना ही मेरी गैरहाजरी में गाँव में ही मुझे अपनाकर चले गए। और न भाई ने मुझे कुछ बताने की जरूरत समझी। शायद लड़की वालों को भी लड़की को विदा करने की जल्दी रही होगी। कारण चाहे जो भी हो।
फलत: 13.05.1973 को मेरी शादी करदी गई। पत्नी आ गई। कुछ दिनों बाद मैं उसे दिल्ली लेने गया तों गाँव से लौटते समय भाभी का मिजाज कुछ उखड़ा-उखड़ा देखकर लगा कि शायद मेरी भाभी और पत्नि के बीच कुछ न कुछ अनबन जरूर हुई होगी। भाभी ने शादी में मिले बर्तन-भांडे कमरे के अंदर से ही बाहर फैंकने शुरु कर दिए। …..कहा- इन्हें भी ले जा …तेरी ससुराल से आए हैं। खैर! भाभी ने जो भी कहा, मैंने उसे हंसी में उड़ा दिया। पत्नी को ले कर दिल्ली चला आया। यह वह घड़ी थी जब मुझे शादी के परिणामों का आगाज हो गया था।
पारिवारिक विकास के पथ पर….
जब मैं अपनी पत्नी को दिल्ली लेकर आया था, उस समय मैं दिल्ली की गोविंद्पुरी में एक कमरे के मकान पर किराए पर रहता था। समय के साथ कदमताल करते हुए जीवन की यात्रा अनवरत चलती रही। यह भी कि उस समय मैं भारतीय स्टेट बैंक की बदरपुर शाखा में टंकक लिपिक के पद पर कार्यरत था। आफिस साईकिल से आया-जाया करता था। गोविंदपुरी माई पानी-बिजली की भारी समस्या थी। रोजाना भौर के 4/5 बजे पानी लाने के लिए लाइन में लगना पड़ता था। जिसके लिए हम पति-पत्नी और मकान मालिक काम किया करते थे। वैसे भी सब मिलकर रहते थे। जब मकान मालकिन को मेरे पत्नी के गर्भवती होने का पता चला तो उन्होंने मेरी पत्नी से पानी भरने जैसे भारी काम करने से दूर ही रखा। अंतत: 20 अक्तूबर 1974 को मकान मालकिन की देखरेख में घर पर ही हमारे पहले बच्चे का जन्म हुआ। ‘मनोज’ आज पचास पार कर गया है। दूसरा बेटे ‘विवेक’ के जन्म भी जैसे ’ कुछ जल्दी ही हो गया था।
निजी मकान बनाने का सपना
मकान बनाने की प्रक्रिया को लम्बी न करके मैं संक्षेप में ही खुलासा कर देना चाहता हूं ताकि पाठकों के लिए यह मुद्दा सरल हो जाए। इधर-उधर किराये के मकान में रहते-रहते अपना मकान बनाने की ललक तो हर किसी के मन में बनी रहती है। जाहिर है मेरे मन में भी थी। मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी की सोच इस ओर ज्यादा थी। बैंक की नोकारी जारूर थी किंतु उस समय एक लिपिक का वेतन 400/500 रुपए ही हुआ करता था। सच कहूं तो 1976 में धनाभाव के कारण मकान बनाने या खरीदने की मेरी हैसियत कतई नहीं थी। मन में सोचकर ही रह जाता था। जाहिर है कि कभी-कभी मकान बनाने की बात को लेकर पति-पत्नी में विवाद भी हो जाया करता था।
उल्लेखनीय है कि उस समय हम जिस मकान में किराए पर रहते थे, उस मकान की मालकिन भी मेरी पत्नी के पक्ष मॆं रहती थी। अब मुझे दो महिलाओं के बीच मैँ फंसा तो महसूस करता था किंतु उनका विरोध भी खुलकर इसलिए नहीं कर पाता था कि वो दोनों ही उत्तम भविष्य के सपने देखती थीं। खैर! एक समय ऐसा आया कि गोविंदपुरी के पास ही तुगलकाबाद एक्स्टेशन नामक कच्ची कालोनी में रिहायशी उद्देश्य से प्लॉट काटे जा रहे थे। उस समय वहाँ जमीन के रेट कुल 27 रुपये गज थे। हमारी मकान मालकिन ने मेरी पत्नी को तुगलकाबाद एक्स्टेशन के बारे में न केवल बताया अपितु पत्नी को वहाँ घुमाकर भी ले आई। बस! फिर क्या था उसी दिन शाम को घर आते ही पत्नी ने प्लॉट खरीदने की रट लगा दी।
धनाभाव में मेरे मना करने का पत्नीश्री पर कोई असर नहीं हुआ और वह प्लॉट खरीदने की जिद पर न केवल अड़ी रही अपितु लड़ने-झगड़ने पर उतारू हो गई। इतना ही नहीं, मकान मालकिन भी उसकी ओर हो गई। वही उसे उकसा भी रही थी, वही मुझे भी समझाने की कोशिश में लगी रहती थी। असल में वो हमें किराएदार न मानकर अपने परिवार का ही हिस्सा समझती थी। किंतु मेरी अपनी जेब खाली थी। नई-नई नौकरी थी। 1974 में बैंक की नौकारी का पहला वेतन मुझे 323/27 रुपये मिला था। अब इतने वेतन में दाल-रोटी तो आराम से चल रही थी किंतु बचत के नाम पर कुछ रुपये ही बच पाते थे। मेरी पैसे की तंगी वाली बात भी उन दोनों के गले नहीं उतरी। मैंने उन्हें साफतौर पर बता दिया था कि मेरे पास केवल 900/- रुपये ही हैं। तो उन दोनों ने एक स्वर में कहा कि बाकी पैसे किसी से उधार ले लो। ये अच्छा मौका है कि अपना घर हो जाएगा वरना जीवन भर किराए के मकान में ही रहना पड़ेगा। मुझे उन दोनों ने ऐसे मुहाने पर लकर खड़ा कर दिया कि चाहकर भी मैं उनकी बात को न टाल सका और तुगलकाबाद एक्स्टेशन में 500/- रूपए बयाने के रूप में देकर मैंने 125 गज के प्लाट का सौदा कर लिया।
इस हेतु मैं बैंक कर्मचारियों के आर्थिक कमैटी से कुछ उधार लिया किंतु प्लाट की कीमत से वह भी कम पड़ गया। हारकर बाकी पैसों के जुगाड़ के लिए अपने एक रिश्तेदार से पास गया (नाम व रिश्ता जानकर नहीं दे रहा हूँ।) और मकान बनाने के लिए पाँच हजार रुपए उधार मांगे। हुआ यूं कि उन्होंने कहा कि मेरे पास तो पैसे हैं नहीं … किसी से मांग कर लाता हूँ। उन्होंने 5000/- रुपए का जुगाड़ तो कर दिया लेकिन मुझे केवल 2500/- रुपये ही दिए और 2500/- उन्होंने अपने पास रख लिए। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि यह रकम वह 5% प्रति माह के ब्याज पर लाया हू । किंतु ध्यान देने वाली बात यह कि उन्होंने पूरे 5000 रुपए का ब्याज मुझे ही देने की शर्त भी लगा दी। लिया भी।
इस प्रकार 1976 में खरीदे गए प्लाट में एक बड़ा सा कमरा बना लिया। उसी में खाना बनाना सोना सब कुछ होता था। पहाड़ी इलाका था। पानी की बड़ी किल्लत थी। किंतु हुआ यूं कि केवल हमारे प्लाट में ही हेंड पंप लग पाया था। नतीजतन आस-पड़ोस के लोग भी हमारे घर से ही पानी भरा करते थे।
अपने मकान में शिफ्ट करने के कुछ ही दिनों बाद….
मेरे घर के मुख्य द्वार पर कोई दरवाजा नहीं था। जब लोग पानी भरके चले जाते तो मुख्य द्वार पर खाट खड़ी कर दी जाती थी। एक दिन हुआ यूं कि मेरे आफिस जाने के बाद आस-पड़ोस के लोग पानी तो भरकर ले गए किंतु मुख्य द्वार पर खाट खड़ी नहीं की।… पत्नी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। बस! इस गलती का खामियजा हमें उस रूप में मिला कि बड़े बेटे मनोज, जो अभी तीन वर्ष से भी कम आयु का था, से छोटे बेटे ‘विवेक’ का घर के दरवाजे पर ही ट्रक से एक्सीडेंट हो गया और उसकी मौके पर ही मौत हो गई। बामुश्किल इस मकान में 15/20 दिन ही रह पाये होंगे और यह घटना घट गई।
इस घटना के पूर्व मैं बेहद ही खुश था कि नौकरी के साथ-साथ मकान भी बन गया, दो पुत्र भी हो गए और परिवार भी पूरा हो गया। लेकिन इस घटना के बाद सारी खुशी काफूर हो गई।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।