जातीय त्रासदी का विद्रूप चेहरा दिखाता है नाटक ‘गोरिल्ले’

डॉ भगवत प्रसाद
गोरिल्ले विनोद सरोज द्वारा लिखा और निर्देशित किया गया नाटक है। ग्रामीण परिवेश की घटनाओं से प्रेरित होकर लिखे गए इस नाटक में भारतीय जाति व्यवस्था के तमाम स्याह पक्ष बहुत ही संवेदना के साथ रचे गए हैं।
कहानी वर्तमान में पीड़ितों को ज़ुल्म के ख़िलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करने हेतु फ्लैश बैक में नब्बे के दशक में ले जाती है । समय 1984 अक्टूबर और नवम्बर का है जिस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी की हत्या होती है । उस समय इस गांव के दलित अशिक्षित थे । आज भी जबकि शिक्षा का अधिकार दे दिया गया है फिर भी इन्हें उचित शिक्षा नहीं मिल पा रही है। उच्च वर्ग के लोग चिंतित हैं कि उनके बच्चों से कहीं यह निम्न वर्ग के बच्चे आगे न निकल जाएं ।

आज भी ये उच्च जातियां अपना वर्चस्व बरकरार रखना चाहती हैं । यही कारण है कि आज भी ख़बरें आती रहती हैं कि उच्च जाति का व्यक्ति किसी दलित को पीटा, उस पर पेशाब किया, मंदिर में गया तो उसे थूक चटा कर भेजा । दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने पर पीटा गया, मूंछ रखने पर जान से मार दिया गया वगैरा वगैरा । 14 अगस्त को राजस्थान में एक 9 साल के दलित मेघवाल बच्चे को पीटकर मार डाला गया क्योंकि उसने पानी की मटकी में हाथ लगा दिया था । मामला जालौर ज़िले के सायला पुलिस थाने इलाके के सुराणा गांव का है । यही नहीं वर्चस्व के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाले डॉ अंबेडकर से भी ये उच्च वर्चस्ववादी जातियां इतना नफरत करती हैं कि उन पर आधारित गीत गाने और उनका लॉकेट पहनने के कारण चित्रकूट में मजरा ककुरहली के प्राथमिक स्कूल के एक बच्चे को उमेश तिवारी द्वारा पीटा गया और जाति सूचक गालियां दी गईं ।
नाटककार विनोद सरोज अपने नाटक की शुरुआत एक सच्ची घटना से प्रेरित हो कर एक उच्च वर्ग के अध्यापक द्वारा दो निम्न वर्ग के बच्चों को पेड़ में रस्सी से बाँध कर पिटाई से करते हैं । जो उन्हें डंडे से पीट रहा है और साथ – साथ उन्हें गालियाँ भी दे रहा है और जातिसूचक शब्दों से अपमानित भी कर रहा है । इसका बस इतना सा कारण था कि क्लास की घंटी ना छूटे इस चक्कर में जल्दी पानी पी कर क्लास में पहुँचने के लिए उन्होंने अध्यापकों वाले मटके से पानी पी लिया था।
इसी से दूसरे दृश्य में ग्रामीण आक्रोशित हैं लेकिन लाचार भी हैं । क्योंकि वो जानते हैं कि उनको प्रताड़ित करने वाले मज़बूत हैं, शासन – प्रशासन दोनों उन्हीं के साथ हैं । तब उन्हें प्रेरणा मिलती है रघु काका से जो नब्बे के दशक में अपने साथ हुई घटना को बस्ती के लोगों को बताते हैं । यहां से कहानी फ्लैश बैक में चलती है । रघु काका सबको अतीत में ले जाते हैं जहां इस बस्ती में दलित हैं, मुस्लिम परिवार भी हैं, सभी ग़रीब हैं ।

उच्च वर्ग के लोग ही सम्पन्न हैं, राजनैतिक रूप से भी वही मज़बूत हैं । इन गरीबों पर उनका अत्याचार है । उनकी शासन – प्रशासन में पकड़ है । इसी के सहारे इन निरीह लोगों पर ज़ुल्म करते हैं, इनकी बहन बेटियों के साथ बलात्कार करते है । ऐसी ही एक घटना मुस्लिम नाबालिक लड़की अमीना के साथ गैंग रेप से होती है । बड़ी हिम्मत करके बस्ती के लोग थाने में उनके ख़िलाफ रिपोर्ट लिखवाने जाते हैं पर उनकी कोई सुनवाई नहीं होती बल्कि गालियाँ दे कर भगा दिया जाता है क्योंकि यह जिनके ख़िलाफ रिपोर्ट लिखवाने गए थे वो लोग उच्च वर्ग के और रसूक वाले थे ।
इसी बस्ती में दिल्ली से एक लड़का आनन्द कुमार आता है । जिसके पिता इन्ही सब प्रताणना से तंग आ कर करीब बीस साल पहले यह बस्ती छोड़ कर दिल्ली भाग गए थे । वह पढ़ा लिखा है और अपने अधिकारों के प्रति सजग है । वो बस्ती के लोगों को भी जागृत करता है और उन्हें जीवन में शिक्षा का महत्व बताकर पढ़ने के लिए प्रेरित करता है और अपने ज़ुल्म के ख़िलाफ गोरिल्ला वार की तर्ज पर लड़ने को तैयार करता है इस तरह वे अपने से सशक्त लोगों से बदला लेने में सफल होते हैं । कहानी फ़्लैश बैक से वापस वर्तमान में आती है और रघु काका के द्वारा अमीना के साथ हुई घटना और गोरिल्ला वार के तर्ज पर लिए गए बदले कि इस कहानी से युवा उत्साहित होते हैं और संघर्ष करने के लिए गोरिल्ला वार की रणनीति अपनाने के लिए तैयार होते हैं ।
मंचन के लिए तैयार नाटक अपनी प्रस्तुति में सफल रहा और इसे सफल बनाने में सभी बाईस कलाकारों का योगदान रहा । सभी कलाकार अपनी सहभागिता पूरे शिद्दत के साथ की । कुछ कलाकार लंबे समय से नाट्य कर्म से जुड़े रहे तो कुछ पहली बार मंच पर आए, फिर भी तारीफ़ के हक़दार रहे । मंच सज्जा नाटक की व्याख्या करने में सफल रही । चूंकि नया लिखा गया नाटक और उसकी प्रथम प्रस्तुति रही फिर भी नाटक में कसाव था । प्रकाश संचालन कुछ एक खामियों को छोड़कर बढ़िया था। म्यूजिक, रूप सज्जा और वस्त्र सज्जा नाटक का बाखूबी साथ दिया और भाव प्रवण था।निर्देशन सफल रहा क्योंकि प्रस्तुति नाटक की व्याख्या करने में सफल रही।

जैसा कि सबकुछ ठीक होने के बाद भी हर एक प्रस्तुति में कुछ न कुछ खामियां रह जाती हैं और फिर लिखकर तैयार नाटक पहली बार प्रस्तुति के लिए आया इसलिए कुछ खामियां आना स्वाभाविक था जिसे विनोद जी ने ख़ुद समझा और उसमें कुछ सुधार करने के लिए प्रतिबद्ध है । इससे पता चलता है कि हर लेखक, निर्देशक और कलाकार अपनी हर प्रस्तुति से हर बार कुछ न कुछ सीखता रहता है ।
अंत में यह कह सकते हैं कि लेखक और निर्देशक विनोद सरोज ने सामयिक सामाजिक मुद्दों को लेकर जो खामियां दर्शाने की कोशिश की उसमें वे सफल रहे और दर्शकों के प्रतिक्रिया ने इस बात पर मोहर लगा दी । इस प्रस्तुति की प्रमुख भूमिकाओं में – वंशिका सिन्हा, काजल राजपूत, चन्दन कुशवाहा, रोहित शर्मा, आस्तिक कुंडू, सौरभ शुक्ला, धीरू पाण्डेय, आर्यन रजक, मोहम्मद ज़ीशान, अमित झा, विनीत यादव, लकी, अनुराग यादव, मीनू भगत, अमृता अमल, अनीस सिंह और डॉ भगवत प्रसाद थे । जिन्होनें अपने सधे अभिनय से अपने – अपने किरदारों को मंच पर जीवन्त कर दिया ।

समीक्षा लेखक
डॉ भगवत प्रसाद अभिनेता एवं नाट्य समीक्षक हैं
