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गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-15

गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-15

मुझे लगता है कि व्यर्थ से लगने वाले सपने मनुष्य के जीवन का हिस्सा होते है। सपने हास-परिहास और खौफ से जुड़े होते हैं और जुड़े होते हैं हमारी अवचेतन चेतना से।  सपने जिनके माध्यम से हमारी इच्छाएं सहजता से तृप्त होती रहती हैं, जो सपनों से बाहर की जिंदगी में शायद ही पूर्ण हो सके। सपनों को अक्सर हम समझ नहीं पाते। सपने हमारे मस्तिष्क में चलायमान ही नहीं होते अपितु हमारी दैनिक जीवन चर्या और कार्य कलापों से जुड़े होते हैं। हम कोशिश के बावजूद,  सपनों की बनावट को समझ नहीं पाते हैं। आश्चर्य से केवल सोचते ही रह जाते हैं कि सपने आपस में क्यों और कैसे हमारी मानसिक चेतना से जुड़ जाते हैं। अक्सर हम सपनों को ‘भानुमति का कुनबा’ समझ बैठते हैं। जिन्हें ‘कहीं की ईंट तो कहीं का रोड़ा की तरह जोड़ा गया, मालूम पड़ता है। पर मैं अक्सर सोचता हूँ कि मेरे सपनों को पढ़ने के बाद तो इस ओर ध्यान केन्द्रित कर सोचना मानो मजबूरी ही हो जाएगा कि विभिन्न असम्बद्ध घटनाओं से जुड़े सपनों का जोड़ क्या है।  कैसे विभिन्न तरह की इच्छाएं, आकांक्षाएं और भय बिना किसी वजह के एक साथ कैसे जुड़ जाते हैं। मैं समझता हूँ कि सपने किसी एक सूक्ष्म से अहसास से जुड़े होते हैं। अक्सर हम उस अहसास को पहचान नहीं पाते हैं। शायद इसलिए कि हम सपनों के अर्थ आगे-पीछे के जीवन में तलाशना शुरू कर देते हैं। सपनों में अधिकांशतः हमारी तृप्त / अतृप्त इच्छाएं और संतोष-असंतोष से उपजा आक्रोश घुला-मिला रहता है।

इस प्रकार मैं दिन विशेष की वास्तविक घटनाओं और  सपनों को आधार बनाकर बहुत कुछ शब्द-चित्रों के रूप में लिखता रहा हूँ। वह इसलिए क्योंकि मुझे लगा कि जीवन के इस पहलू को एक पृथक पहचान के तहत साहित्य की जमीन पर रोपा जा सकता है। फिर मुझे मेरे दैन्नदिनी जीवन से घुले-मिले सपने अर्थहीन भी  नहीं लगते थे। मुझे लगा कि  यदि मैं सपनों पर आए लेखन पर कुछ नया या नए तरीके से सोच सकता हूँ  तो मैं  सपनों में आई घटनाओं और प्रतिक्रियात्मक घटनाओं के माध्यम से मनुष्य की मूल संवेदनाओं के गहरे अर्थ को पाठकों के सामने परोस सकता हूँ। क्योंकि सपने प्राय: मनुष्य को चेतन अवस्था की चालाकियों से काफी हद तक मुक्त होते हैं। सपनों में प्रेम और क्रोध के शुद्ध रूप  देखे जा सकते हैं। यह भी कि सपनों में बेबस  मनुष्य के पास  अधिकतम शक्ति और स्वतंत्रता भी उपलब्ध होती है। इस प्रकार के लेखन में से कुछ-कुछ वाकयात मैं संस्मरण के रूप में उद्धृत किए गए हैं।

तेरह मार्च दो हज़ार आठ की बात है। बतादूँ कि मेरा आफिस नई दिल्ली के संसद मार्ग पर था। आज ऑफिस में ऐसा काम आ पड़ा कि मझे ऑफिस में ही रात के लगभग नौ बज गये। घर आते-आते रात के ग्यारह बज गए। घर आया तो देखा कि मेरे देरी से घर आने पर मेरी पत्नी  मुझ पर बुरी तरह बरस पड़ी, “कहां रहते हो,  इतनी रात  गए घर  आए हो, और भी तो हैं  जो तुम्हारे साथ एक ही ऑफिस में काय करते हैं।  सभी तो सांझ के छः बजे  घर आ जाते हैं। पता नहीं, तुम्हारा ऑफिस कैसा है कि रोजाना ही देरी से घर आते हो।अब! भला  उसे कोई कैसे समझाए कि मेरे और उनके पद में कुछ  तो अन्तर है। वे चपरासी हैं, मैं ऑफीसर। दरअसल! भारत की सामाजिक व्यवस्था कोई  माने न माने, समग्र भारतीय समाज एवं भारतीय तंत्र अपने-अपने अलग (प्रतिकूल) स्वरूप के धनी  हैं। कहने को एक, किन्तु व्यवहार एकदम भिन्न-भिन्न। खैर! उसकी चिल्ल-पौं का जवाब तो मेरे पास न था। शायद, मेरे जैसे जाने कितने पति होंगे जिनके पास अपनी-अपनी पत्नियों के ऐसे भिन्न-भिन्न प्रकार के बिन-सिर-पैर के सवालों के जवाब नहीं होंगे… कहने को कोई कुछ भी कहे। किन्तु सारे के सारे मर्द  डींगे मारने से बाज नहीं आते  जबकि सब के सब अपनी-अपनी पत्नियों के सामने बौने नजर आते हैं।

 इसी उधेड़-बुन में रात के लगभग बारह बज चुके थे। अब न कुछ कहने की शक्ति थी और न ही कुछ सोचने की। बस मैं त करते-करते , यकायक नींद के आगोस में सो गया। सोया ही था कि सपनों ने घेर लिया। सपने में मेरठ से मेरे दप्तर का एक चपरासी अचानक घर आया और एक चिट्ठी पकड़ाकर दरवाजे से ही लौट गया। पत्र खोला तो जाना कि मुझे अगले दिन ही एक कार्यशाला में भाग लेना है।  अगले ही पल चपरासी भागा-भागा फिर मेरे पास आया और सूचना दी कि कल होने वाली कार्यशाला का कार्यक्रम रद्द हों ग्या है। इतना सुनने पर अचानक .सपना टूटा तो मेरे आसपास कोई भी न था। इतना होने पर किसी का भी चिन्ताग्रस्त होना नितांत स्वभाविक है।  अब मैं अपने घर पर सही सलामत था। पर मन ही मन अब भी भयभीत था।

शाम का समय था। आकाश में घने काले बादल छाये थे। चहुंओर अंधेरा पसरा था। रात के लगभग नौ बजे होंगे। मैं, पत्नी और बच्चों के साथ मकान के ऊपरी तल पर था। बड़ा बेटा अभी कॉलेज से नहीं लौटा था। मैं उसके इन्तजार में था कि वो घर आए तो सोऊं। इन्तजार में रात के साढ़े नौ बज चुके थे। बड़ा बेटा अभी भी नहीं आया। सोचा, एक कप चाय ही पी लेता हूं, उसका तो रोज का ही ऐसा मामला है। यह सोच, उठा और भू-तल पर बनी रसोई में चला गया। स्वयं चाय बनाई और पीकर पुनः ऊपर के कमरे में लौट गया। पत्नी और बच्चे तो पहले से ही ऊपर थे। ऊपर जाकर देखा कि सब आपस में बतिया रहे थे। बात-बात में समय गुजर रहा था। अब रात के दस बज चुके थे। बड़ा बेटा अभी भी नहीं आया। बातों का सिलसिला जारी रहा। कभी यहां की, कभी वहां की। अब कॉलेज से बेटा भी आ गया।  उसके आते ही पत्नी ने नीचे जाकर दरवाजा खोला। वह सीधा ही ऊपर आ गया। उसके आने पर कविता बात छिड़ गयी। उसने आते ही अपने टीचर की एक छोटी सी मुक्त-छन्द कविता सुनाई। उसका अर्थ पूछा किंतु कविता इतनी खुली नहीं थी कि सीधा अर्थ दे सके। एक पहेली जैसी थी। खुद कुछ नहीं बोलती थी। उसका अर्थ जैसे उसके गर्भ ही में छिपा था। इससे पहले मैं कुछ बोलता, मुक्त-छन्द कविता को लेकर अज्ञेय और लीलाधर जगूड़ी जैसे कई अन्य कवियों के विषय में बातें हुईं। छायावाद की महादेवी वर्मा भी पता नहीं कैसे संदर्भ से जुड़ गयीं। दरअसल! कविता होती ही गतिमान है। कहीं से कहीं पहुंच ही जाती है। पाठक और कवि एक  ही कविता को अलग-अलग अर्थ दे सकते हैं। मैं धीरे से उठके रसोई में गया। एक चाय और बनाई घूंट-घुट कर चुपचाप पी गया। एक साथ खाना खाया और अपने-अपने बिस्तर पर जाकर सो गया और मेरी पत्नी भी।

थोड़ी देर बाद नींद क्या आई कि अब में स्वप्न लोक में था। नींद में जागा था। दिसंबर 1998 18 तारीख थी। ठिठुरन भरी रात थी। तीन-चार दिन की लगातार बारिश के बाद, आज थोड़ा-सा सूरज निकला भी, तो बेअसर गर्मी बढ़ गये। पंखे तक चलाने पड़ गये। अचानक बादल उमड़ आये। घने काले घनदार सहसा जोरों की बारिश शुरू हो गई। आनन-फानन में भाग-दौड़कर पर टंगे लत्ते-कपड़े उठाए। इसी बीच बिजली गुल हो गई। तुरन्त का भी गई। घर के सारे बल्ब जले थे। आधी रात बीत चुकी थी। अचारक मेरे एक मित्र आ धमके। उनके साथ एक कम-उम्री मैला कुचैला लड़का भी था। घर के सब जने जगे थे। उन्हें इतनी रात गए देखकर सब चकित हो गए। दरअसल! मेरा मित्र आज पहली बार देर रात को मेरे घर आया था। वह भी मैले-कुचैले लड़के के साथ। लड़के के नंगे शरीर पर घनी चीटियां चिपकी थीं। उसे चीटियां हटाने को कहा कि सारे घर में बरसाती चींटियां भर गईं। अलग-अलग रंगों की। कुछ के पंख थे, कुछ के नहीं। हम सबके आंख-कान-मुंह पर चिपक गईं। काटती थीं तो जलन होती थी। सब के सब उन्हें हटाने को हाथ-पैर फैंक रहे थे। किन्तु सब बेअसर। आकाश में अभी भी बादल थे। इस प्रकार के मंजर को देखकर मेरी नींद टूट गई। तब कहीं सपने से मुक्त हुआ।

            दस अक्तूबर 2004 की रात थी। मैं सकुशल ऑफीस से घर आ पहुंचा था। सब कुछ सामान्य था। बच्चों से कुछ बातचीत हुई। पत्नी ने खाना लगा दिया। मैंने खाना खाया  और चुपचाप सो गया। इसलिए भी कि यह घटना मेरे लिए बड़ी अजीब थी। इससे पूर्व कभी भी ऐसा नहीं हुआ था कि घर आते ही खाना मिल जाए।

खाना क्या खाया कि कब नींद आई, कुछ पता नहीं। हां! नींद आते ही अजीबों-गरीब सपने ने मुझे घेर लिया। सपना कुछ इस प्रकार था। सपने की बात करने से पहले मैं इतना बताता चलूँ कि मैं नौकरी-पेशा होने के कारण मैं दिल्ली में रहता हूँ। पत्नी बच्चों के साथ मेरे पैत्रिक-स्थान यानी कि गांव में रहती है। छोटा-सा गांव है मेरा। घर-परिवार के सब लोग मिल-जुलकर रहते हैं। आज छुट्टी का दिन है। मन ही मन बहुत गहरे से मनोविनोद समेटे हुए, मैं पत्नी व बच्चों से मिलने गांव जा पहुंचा।

मैंने झेंपकर घर में प्रवेश किया। घर में घुसते ही लगा कि वो मेरा पुश्तैनी घर नहीं है। एक बाड़ा है। बाड़े में एक झौंपड़ी है। एक छोटा-सा आंगन है। छोटे से आंगन को पत्नी ने ऐसा सजा-संवार रखा है कि देखते ही बनता है। घर में पानी का साधन तक न होते हुए भी, उसे नाली के गंदे पानी से नाना प्रकार के फूलदार पौधों को सींच-सींचकर आंगन को क्यारी के बीचों-बीच गुलाब के फूल की डालियां लगा रखी हैं। सब डालियों  को हरा-भरा बना रखा है उसने । क्यारी की डौलियों पर मूली-सलजम  पर हरे-लाल पत्ते साफ़ नज़र आ रहे थे। पर फूल नहीं थे। इस बीच मैंने अपनी पत्नी से पानी की मांग की। वह गुस्से में तो थी। किंतु पानी देने के बदले मेरी पत्नी ने मुझ पर एक के बाद एक अनेक प्रश्न दागने शुरू कर दिए। चिल्लाकर बोली, “क्या करने आए हो यहां? दिल्ली में ही रहना था ना… यहां क्या है तुम्हारा? यही है ना कि शरीर यहां खींच लाया है।”

मैं मूक दर्शक बना उसकी बातें सुनता रहा। मुझे लगा कि  शायद उसकी बातों में महज खीज ही नहीं अपितु एक हकीकत भी है। मुझे उसके दर्द का अहसास हुआ। सोचा, मैं शहर में, ये छोटे-छोट बच्चों को लेकर गांव में क्यूं?  में  इस प्रकार के प्रश्नों में स्वत: ही उलझा हुआ था कि अचानक वह बोली, “क्या दिल्ली में पानी नहीं मिलता?” मैं चुप होकर उसकी बातें सुनता रहा। उसने पुनः प्रहार किया, “क्यूँ कहां गई वो दिल्ली वाली अब?  साथ ले आते उसे। कम से कम पानी तो पिला ही देती। अब मेरे हाथ के पानी से प्यास थोड़े ही मिटने वाली है।” मैंने देखा कि वह इतना शोर-शराबा करने के बाद मूँह मोड़कर हंसी की मुद्रा में दिख रही है। उसने मेरी ओर देखा तो लगा कि यकायक को बिल्कुल सहज एवं शांत हो गई है। बोली, “अच्छा छोड़ो इधर-उधर की बातें। एक ध्यान रखना कि चौपाल के पास वाले कुंए की ओर बिल्कुल मत जाना। वहां हरे रंग की एक कुतिया घूमती रहती है। गांव वालों को खूब पहचानती है। उनके संग-साथ हंसती-खेलती है।… तुम अजनबी हो। यदि तुम उसकी आंखों चढ़ गए तो तुम्हें बकसने वाली नहीं…। ग़र उसकी आंखों चढ़ गए तो फाड़ खाएगी। और हां ! उसका काटा हुआ कोई भी कभी जिन्दा नहीं रहा।” इतना कह वो भीतर चली गई। पानी का गिलास लाई। ….मुझे थमा दिया। मैं एक ही सांस में पानी गटक गया। खाली गिलास पत्नी को थमा, मैं हरे रंग की कुतिया के बारे में सोचने लगा। अभी तक तो मैंने काली, भूरी और चितकबरी कुतिया के बारे में ही सुना था। देखा भी था। पर ये हरे रंग की कुतिया हमारे उजाड़ गांव में कहां से और कैसे आ गई। एक बार सोचा कि पत्नी मजाक कर रही होगी। शायद इसलिए कि मैं कम से कम आज तो घर से बाहर न जाऊं।

अगस्त 2007 की दो तारीख थी। सांझ के छह बज चुके थे। सोचा चलो अब घर चलें। ऑफिस से निकला तो देखा कि आकाश एकदम साफ था। बस सूरज छितराए बादलों से घिरा था। देखते ही देखते अचानक आकाश बादलों से भर गया। हल्की-फुलकी बूंदा-बांदी होने लगी। किन्तु इतनी भी नहीं कि कदम ठहर जाएं। जिन्दगी पूरी तरह गतिमान थी। ठहरी कतई नहीं थी। बूंदा-बांदी कुछ कम हुई तो सड़कों पर आवाजाही बढ़ गई। खुले छाते बन्द हो गए। हवा में ठंडक बढ़ गई। अब क्यूकि मैं रोज़ाना घर से दफ्तर व दफ्तर से घर रेल (ट्रेन) से आता-जाता था। ऑफिस से रेलवे स्टेशन पैदल-पैदल ही तिलक ब्रिज स्टेशन पहुंच गया। किन्तु आज लोकल ट्रेन ही नहीं, अपितु दूरगामी रेलगाड़ियां भी एक से दो घंटे तक लेट चल रहीं थीं। ऐसी हालत में बारास्ता तिलक ब्रिज (दिल्ली) से बुलन्दशाहर तक जाने वाली गाड़ी (ट्रेन) भी दो घंटा लेट थी। फिर हुआ यूँ कि  मैं हापुड़ वाली ट्रेन का इंतजार न करके मैं नई दिल्ली स्टेशन पर पहुंच गया था। अचानक घोषणा हुई कि शकूरबस्ती से गाज़ियाबाद जाने वाली ई.एम.यू. प्लेटफॉर्म संख्या सात पर आएगी। मैं जैसे-जैसे प्लेट फार्म संख्या सात पर गया किन्तु ये गाड़ी रोजमर्रा की जगह से कुछ आगे जाकर ठहरी । भाग-दौड़कर उसमें सवार हो गया। लगभग आधा घंटा बैठे रहने के बाद गाड़ी का भोंपू तो बजा किन्तु गाड़ी नहीं चली। फिर दोबारा भौंपू बजा तब गाड़ी चली। पर बाप रे! गाड़ी इतनी धीमी गति से चल रही थी कि लगभग दो घन्टे में साहिबाबाद पहुंची। मैं ट्रेन से उतरा। रिक्शा लिया। दस रुपये के स्थान पर बीस रुपये दिये। तब कहीं घर आ पाया। बिना हाथ-मुंह धोए, कुंद मन से खाना खा भी लिया। पलंग पर लेटा तो नींद की झपकी आ गई। झपकी के साथ ही सपने ने घेर लिया।

 सपने में अब मैं ताहिरपुर चौक पर था, अपने कुछ साथियों के साथ। इनमें से एक के हाथ में दारू की दो बोतलें थीं। मैंने पूछा कि यार! ये क्या है। उन्होंने कहा कि यार! कल होली है ना। अब क्यूंकि तूने होली पर पीने की मना कर रखी है, तो मैंने सोचा कि आज ही पी लेते हैं। आज मेरे मुंह से भी ‘ना’ नहीं निकली। वे सड़क के बीचों-बीच ही बैठकर दारू पीने का मन बनाने लगा किंतु  इस पर मैंने मना कर दिया और कहा कि यहां नहीं, कहीं ठिकाने से बैठते हैं। वे नहीं माने। मैं उन्हें छोड़कर चल दिया। देखा कि वो भी मेरे पीछे-पीछे आ रहे थे।  एक के हाथों में बोतलें और एक के हाथ में गिलास। चलते-चलते एक मंदिर के पास आ पहुंचे। मैंने पुजारी से कुछ कानाफूसी की तो  वह सहसा उल्लास में कह उठा -“अरे! क्या हुआ? मंदिर आपका ही तो  है। छत खाली पड़ी है। आराम से खाओ-पीओ। किन्तु मेरा ख्याल भी रखना।” हम छत पर चले गए। खाना-पीना शुरू हो गया। किन्तु फिर भी मैं मन ही मन व्यथित था कि कल होली है और दारू की एक बोतल भी नहीं है मेरे पास।

… वैसे, जरूरत भी क्या है? कल अगर घर से निकले तो पिलाने वालों की कमी थोड़े ही है। वैसे भी मैं होली वाले दिन घर से निकलता कहाँ हूँ। पीता भी नहीं। न किसी को घर में आने देता। इसी बीच किसी बात पर किसी से तनातनी हो गई। सबके सब इधर-उधर हो गए। अचेतन अवस्था में अब मैं पुन:  साहिबाबाद रेलवे स्टेशन पर था। नितान्त अकेला। देखा कि प्लेट-फारम  पर बैंक-चैकस का एक बंडल पड़ा है। ठीक से बन्द भी नहीं है। यह सोचकर कि कहीं कोई इसे उठाकर न ले जाए, मैं उसके पास खड़ा हो गया। हक्का-बक्का-सा इधर-उधर देखने लगा। रात का समय था। लगभग बारह बज चुके थे। अच्छी बात ये थी कि बत्तियां जल रहीं थीं। अचानक एक सुन्दर-सी युवती आ धमकी। उसने मेरी और देखकर थोड़ी दूरी पर स्थित मिट्टी के ढेर को लोहे की एक छड़ी से कुरेदा।  एक बक्शा निकाला और उसे खोलने का प्रयास करने लगी। इसी बीच उसने मेरी ओर देखा। मैं उससे चैकों के बारे में कुछ पूछने को ही था कि उसका चेहरा-मोहरा धीरे-धीरे ऐसा बदला कि किसी राक्षसी से कम न था।  बोली, “ मुझे हाथ लगाकर देख, तेरा खून पी जाऊंगी। जिन्दा नहीं छोडूंगी तुझे”।  मुझे देखकर वो फिर बड़बड़ाने लगी, “आज तू आ गया। ..क्या तेरे घर में कोई औरत नहीं है? क्या उसे भी ऐसे ही बुरी नज़र से ताकता है?  देख! रम्भा, देख इसे… अकेला खड़ा है प्लेटफार्म पर, मुर्गी की तलाश में ।”  न जाने क्या-क्या बके जा रही थी वो। और मुझे बोलना तो क्या, सुनना भी दूभर हो रहा था। इसी बीच छक छक करती हुई एक रेलगाड़ी आ गई। जोरदार सीटी बजी। और सपने का  यह क्रम टूट गया। किन्तु नींद पूरी तरह नहीं टूटी।

  मैं अभी भी स्वप्न में था। स्वप्न में ही घर की ओर बढ़ने की कोशिश की । किन्तु बेकार। मेरे पांव चलने की बजाय, पीछे की ओर घिसट रहे थे। थक-हार कर, मैं सड़क के डिवाइडर पर बैठ गया। कुछ संभला तो देखा कि एक विक्षिप्त-सा आदमी सड़क के बीचों-बीच लकड़ी का एक बड़ा सा लट्ठा (पोल) सड़क पर कुछ इस तरह से डालकर लेटा हुआ था कि यदि लट्ठे से कोई वाहन टकरा भी जाए तो उसे कोई चोट न पहुंचे, बेशक किसी और को चोट आ जाए। हुआ भी ऐसा ही, एक मोटर साइकिल सवार ने बिना कोई चिन्ता किए अपनी मोटर साइकिल तेजी से आगे बढ़ा दी। किन्तु गाड़ी लकड़ी के लट्ठे से टकराकर डिवाइडर से जा टकराई। एक व्यक्ति को भारी चोट आ गई। जिसके चलते मोटर साइकिल के आगे चल रहा एक भारी-भरकम शरीर वाला मोटर साइकिल-सवार पूरे तेवर के साथ रुका और अपनी मोटर-साइकिल खड़ी करके उस पर प्रहार करने को ही था कि पहले ने फिल्मी अंदाज में ज़मीन पर लुढ़ककर विरोधी पर ऐसा प्रहार किया कि उसकी लात विरोधी की कमर पर ऐसे लगी कि वो तिलमिलाकर रह गया। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने पुनः हिम्मत की। और पहली मोटरसाइकिल वाले पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। अब दोनों ने एक दूसरे को बाहों में कस रखा था। पर हैरत की बात ये थी कि उपस्थित जनों ने अनाचार विरोधी का साथ तो दिया ही नहीं अपितु उसकी जेब से कैमरा ही नहीं अपितु उसके बैग में रखी अन्य वस्तुओं को भी यहां-वहां कर दिया। मैं डेढ़-पसली का आदमी कर भी क्या सकता था?  सड़क के किनारे चुपचाप खड़ा हो, यह सब कुछ देखता रह गया। न पुलिस आई। न कोई सामाजिक ठेकेदार। सबके-सब अपनी-अपनी राह चले गए। मैं इधर-उधर देखने लगा। चहूंओर वीरान ही वीरान था। कुछ भी तो नजर नहीं आ रहा था। पर था उनींदा ही। स्वप्न-दर-स्वप्न आना मेरे लिए अचरज की बात थी। मैंने जाना इस तरह सपनों का आना-जाना, सीधे-सीधे मानसिकता का हिस्सा है, इसमें कोई किसी प्रकार की आशंका की बात नहीं थी। पता नहीं, कब सपने में उभरे विचारों से उभर पाया ?

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