राजशाही सत्ता की ओर बढ़ती भाजपा सरकार और तानाशाही पिंजरे में कसमसाता लोकतंत्र
माना जाता है कि हर अमीर व्यक्ति सोचता है कि हर बुराई की जड़ गरीबी है और आम आदमी सोचता है कि पैसा हर बुराई की जड़ है। एक औसत कमाई वाले व्यक्ति की सोच है कि अमीर आदमी खुशकिस्मत होने के साथ-साथ बेईमान भी होता है। मनोवैज्ञानिक सोच के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पैसा खुशियों की गारंटी नहीं देता, उससे जिदंगी आसान जरूर हो जाती है। किंतु अमीर होने के लिए न जाने कितने अच्छे-बुरे काम भी करने होते हैं। गरीब आदमी के पास पैसे की खुशी जरूर नहीं होती किंतु खाली पेट भर जाने भर से वह आराम की नींद ले लेता है, किंतु अमीर सब कुछ होने के बावजूद नींद भर नहीं सो पाता क्योंकि वह और धन की तलाश में हमेशा डूबा रहता है। सारांशत: अमीर कोई भी कार्य करने से पहले अपना फायदा देखता है, जबकि गरीब मन की शांति को प्राथमिकता देता है। अमीर व्यक्ति दिमाग से काम लेता है जबकि गरीब व्यक्ति दिल से काम लेता है। गरीब व्यक्ति मौके को नहीं पहचान पाता जबकि अमीर व्यक्ति इसे बहुत जल्दी पहचान जाता है।
किसी भी देश अथवा स्थान पर शासन करने की प्रणालियों को कई श्रेणियों में विभाजित किया गया है। राजतंत्र, प्रजातंत्र, गणतंत्र तथा तानाशाही इत्यादि कई सारी शासन प्रणालियां हैं। ऐसी प्रणाली कि जिसमें केवल एक व्यक्ति ही शासन का अधिकारी होता है, ऐसे शासन प्रणाली को राजतंत्र कहा जाता है। राजतंत्र में राजा ही प्रजा का सर्वेसर्वा होता है। अगर दुनिया में सबसे पुराने शासन पद्धतियों के बात की जाए, तो उसमें राजतंत्र सबसे प्राचीन है। आधुनिक युग में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में भी आजादी से पहले राजतंत्र हुआ करता था। कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्राचीन समय में लगभग हर देश में राजतंत्र कायम था, जो आज कुछ प्रतिशत में लोकतंत्र में परिवर्तित हो चुका है। राजतंत्र को भी दो श्रेणियों में बांटा गया है, जिनमें राजशाही तथा पूर्ण राजशाही का समावेश होता है। पूर्ण राजशाही को तानाशाही का ही एक रूप माना जा सकता है।
जिस प्रकार लोकतंत्र अथवा प्रजातंत्र में शासन व्यवस्था सीधे जनता के हाथ में होती है और लोग ही देश के तथाकथित तौर पर सर्वे सर्वा माने जाते हैं। उसी तरह राजतंत्र में भी शासन केवल राजा के हाथों में होता है। आज भी दुनिया के कई देशों में राजशाही शासन व्यवस्था है। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन व्यवस्था है। यह वाक्य अब्राहम लिंकन द्वारा लोकतंत्र के परिभाषा के रूप में कहा गया प्रसिद्ध वाक्य है। इसके विपरीत राजतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था होती है जिसमें केवल राजा को ही शासन करने का एकाधिकार प्राप्त होता है। राजतंत्र में प्रजा की कोई भी भागीदारी सत्ता में नहीं होती है।
विदित हो कि लोकतंत्र में सत्ता को चुनने के लिए एक चुनाव प्रणाली होती है जिसके तहत जनता ही मतदान करके अपने नेताओं को चुनटी है, जो केंद्र में सरकार बनाते हैं। और राजतंत्र में प्रजा अपने राजा को नहीं चुनती है। यहां कोई भी मतदान प्रणाली नहीं होती, जिससे कि प्रजा अपने शासक को चुन सके। यह सिर्फ राजवंशों द्वारा ही तय किया जाता है कि राजा कौन बनेगा।
लोकतंत्र में चुनाव में जीते हुए लोग जब शासन व्यवस्था संभालते हैं, तो वे ऐसे नियम और कानूनों का प्रावधान करते हैं, जिससे कि लोगों का कल्याण हो सके। इन नियम कानूनों के लिए सरकार पूरी तरह से जनता के प्रति जवाबदेह होती है, किंतु राजतंत्र में राजाओं की कोई भी जवाबदेही अपने प्रजा के प्रति नहीं होती है। वह जब चाहे तब कोई भी नियम कानून बना सकते हैं और तोड़ सकते हैं, इसमें प्रजा की कोई भी भूमिका नहीं होती।
इसका सीधा सा अर्थ ये होता है कि लोकतंत्र में शासन करने वाली सरकार पूरी तरह से लोगों के प्रति उत्तरदाई होती है। यदि सरकार किसी भी अपेक्षा पर खरी नहीं उतरती है, तो उसे जनता को जवाब देना पड़ता है। इसके अलावा यदि लोग चाहे तो शासकों को अपने पद से हटवा भी सकते हैं। किंतु राजतंत्र में राजा अथवा रानियां किसी भी प्रकार से प्रजा के प्रति उत्तरदायि नहीं होती। यहां तक कि लोगों को इतनी शक्ति नहीं होती, कि वह राजा को उसके पद से हटा सके।
लोकतंत्र में सामान्यत: सभी की भागीदारी एक समान होती है, चाहे वह किसी भी तबके का हो। अर्थात ऐसी शासन व्यवस्था में किसी के साथ भी पक्षपात नहीं किया जाता और सभी लोगों को समानता का अधिकार दिया गया है। राजतंत्र में समानता नहीं देखी जाती है। यहां अधिकतर उन्हीं लोगों को सम्मान दिया जाता है, जो राजवंश से ताल्लुक रखते हैं अथवा अमीर घराने के होते हैं। आम जनता को उतनी समानता नहीं प्राप्त होती है। लोकतंत्र में शासन के चार प्रमुख स्तंभ न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया। इनमें न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा गया है, ताकि सभी को निष्पक्ष न्याय मिल सके। लेकिन राजतंत्र में राजा ही कानून बनाने वाला, उसे लागू करने वाला और लोगों को न्याय देने वाला होता है। कई बार इसी कारण राजा निष्पक्ष न्याय नहीं कर पाता है। देश का शासन संभालने के लिए लोकतंत्र में हमेशा चुनाव होते रहते हैं, जिसमें कई पार्टियां अथवा पक्ष और विपक्ष दोनों ही एक साथ सत्ता में बने रहते हैं। इस तरह शासन की बागडोर पर किसी का एकाधिकार नहीं रहता है। लेकिन राजशाही शासन व्यवस्था में राजा का शासन पर एकाधिकार होता है और राजवंश से ताल्लुक रखने वाले लोग ही अगले शासक चुने जाते हैं।
स्मरणीय है कि भाजपा नीत भारत सरकार को अपने पहले टर्म में आर्थिक मसलों, खासकर महंगाई के मोर्चे पर अधिक सवालों का सामना नहीं करना पड़ा था। किंतु भाजपा की सरकार फिलहाल रोजी-रोटी के मसले से पूरी तरह से घिर गई है तब ही तो पी एम मोदी ने एलान किया है कि फ्री में मिलने वाला राशन अब अगले 5 साल तक के लिए और बढ़ा दिया गया है जिसका देश के 80/81 करोड़ जरूरतमंदों को भोजन की गारंटी देने वाली इस योजना का लाभ होगा। इससे साफ जाहिर होता है कि देश आधी से ज्यादा आबादी भूख से लड़ने को मजबूर है। क्या इस पर यह सवाल करना नहीं बनता कि भारत में अति गरीब लोगों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है। फिर हमारे प्रधान मंत्री जी इस प्रकार की घोषणाएँ करके किस प्रकार का एहसान जताने का प्रयास करते हैं? क्या उन मतदाताओं पर जिनके मतों के बल वो प्रधान मंत्री पद पर आसीन हो पाए हैं? क्या गरीबों को दिए जाने की कीमत की भरपाई जनता से वसूले करों से नहीं की जाती?
रही किसानों की बात तो भारत में किसान आत्महत्या 1990 के बाद पैदा हुई स्थिति है जिसमें प्रतिवर्ष दस हज़ार से अधिक किसानों के द्वारा आत्महत्या की रपटें दर्ज की गई है। 1997 से 2006 के बीच 1,66,304 किसानों ने आत्महत्या की थी। विदित हो कि भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलों का नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का मुख्य कारण माना जाता रहा है। मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियाँ, समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फँसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएँ की है। ऐसा कहा जाता है कि सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा। देश में हर महीने ७० से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किसानों को आत्महत्या की दशा तक पहुँचा देने के मुख्य कारणों में खेती का आर्थिक दृष्टि से नुकसानदायक होना तथा किसानों के भरण-पोषण में असमर्थ होना है। किसानों द्वारा एम एस सी को कानूनी दायरे में लाने के लिए आयोजित आंदोलन को कमजोर करने के लिए हरियाणा राज्य और केंद्रीय सरकार ने पूरा जाल बिछा रखा है। किसानों के साथ इतना अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है, जैसा कि किसी दुश्मन पड़ोसी देश के साथ किया जाता है। किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए सड़कों पर न केवल बड़े-बड़े सिमेंटिड दीवारें खड़ी कर दी गई, अपितु सड़कों पर जगह-जगह सरियों के कांटे बिछा दिए गए हैं। क्या इसे किसी तानाशाह के व्यवहार से अलग करके देखा जा सकता है?
उल्लेखनीय यह भी है कि खेती आजकल घाटे का धंधा बन गई है। दुनिया का और कोई धंधा घाटे में नहीं चलता, पर खेती हर साल घाटे में चलती है। किसानों के लिए पानी का संकट काफी गंभीर रूप ले चुका है। पानी ज़मीन के काफ़ी नीचे पहुंच गया है, मिट्टी उपजाऊ नहीं रही और जलवायु परिवर्तन किसानों पर सीधा दबाव डाल रहा है। अत: किसानों के अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। किसान अब किसानी करना नहीं चाहता। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि किसान को अपनी उपज का यथोचित दाम नहीं मिलता क्योंकि उसकी उपज की कीमत सरकार तय करती है जो वर्षों से की भी नहीं गई। किसानों का आंदोलन भी सरकार की मनमानी के चलते जैसे पूरी तरह से विफल हो गया। इसके ठीक उलट, पूंजीपति / उद्योगपति अपने उत्पाद की कीमत अपने स्तर पर मनमानी रूप से निर्धारित करते हैं। सरकार का इस बारे में कोई हस्तक्षेप नहीं होता। पूंजीपतियों/उद्योगपतियों के उत्पादों की बढ़ी किमतों का भार प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अंतिम पायदान के उपभोक्ता पर ही पड़ता है। यही कारण है कि किसान हमेशा घाटे में और पूंजीपति/उद्योगपति लाभ में रहता है। दलितों / महिलाओं और अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले अत्याचार की गिनती करना जैसे संभव ही नहीं है। सरकार है कि इस ओर से मुँह मोड़े हुए है। मणीपुर की घटना का तो उल्लेख ही क्या किया जाए?
भाजपा के शासन काल में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो बैंकों का कर्ज चुकाए बिना ही विदेश भाग गए और बैंक मुँह ताकते रह गए। सरकार ऐसे लोगों पर कोई कार्रवाई करने का मन नहीं रखती। 8 वर्ष पहले विजय माल्या 9000 करोड़ का कर्ज लेकर विदेश भाग गए या भगाए गए? माल्या ने कर्ज न लौटाने का दोष उलटे बैंकों पर ही मढ़ दिया ,”बैंकों ने उस खतरे को भांपने के बाद ही लोन दिया था। लोन देने का फैसला बैंकों का था, हमारा नहीं । ईडी ने 17 बैंकों को नोटिस देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करदी। हैरत की बात है कि राज्यसभा सांसद के रूप में ये माल्या का दूसरा टर्म है। पहली बार 2002 में और इसके बाद 2010 में। दूसरी बार वो कर्नाटक से बतौर इंडिपेंडेट कैंडिडेट इलेक्ट हुए थे। एक पंक्ति में कहें तो भारत के 25 सबसे बड़े विलफुल डिफॉल्टर (Willful Defaulters) पर देश की विभिन्न बैंकों का लगभग 58,958 करोड़ रुपये बकाया है। उल्लेखनीय है कि देश के अनेक पूंजीपतियों पर अपना बकाया वसूलने के लिए न तो बैंक ही दवाब बनाते हैं न ही सरकार। बड़े लोन वाले पूंजीपतियों के लोन को या तो सरकार माफ कर देती है या फिर कर्ज लेकर विदेश भाग जाने का उपक्रम करते हैं। ऐसे जाने कितने ही मामले हैं। सत्तासीन राजनीतिक दल इस लिए भी शांत रहता है क्योंकि उनको चुनाव लड़ने के लिए पूंजीपति ही तो आर्थिक मदद करते हैं। विदित हो कि बैंकों में जमा अधिकतर धन उन गरीब लोगों का ही होता है जो अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अपनी बचत को बैंकों में जमा करते हैं।
“प्लेटो सत्ता के शीर्ष पर जिन विशेषज्ञों को चाहते थे, वे विशेष रूप से प्रशिक्षित दार्शनिक होने चाहिए। उन्हें उनकी ईमानदारी, वास्तविकता की गहरी समझ (आम लोगों से कहीं ज़्यादा) के आधार पर चुना जाना चाहिए।” किंतु लोकतंत्र में ऐसा होता नहीं है। ज्यादातर मतदाता अपना नेता चुनते समय उम्मीदवार के रूप रंग, जाति, समुदाय, राजनीतिक दल विशेष आदि को नहीं भुला पाते। फिर होता यह है कि लोकतंत्र में धीरे-धीरे सत्ता का स्वरूप बदलता जाता है और लोकतंत्र में तानाशाही पनपने लगती है। इस तरह की सरकार के स्वरूप में अभिजात्य वर्ग का शासन कायम हो जाने का डर बना रहता है। फिर होता यह है कि सत्ता जनता के हितों को साधने और “बेहतरीन लोगों की सरकार” चुनने में बेअसर होती चली जाती है। उल्टे होता ये है कि सत्ताधारी पक्ष सता में आने के तुरंत बाद अगले चुनाव को जीतने और अपनी पूरी ज़िंदगी नेता बनने के लिए तैयारी करने में व्यस्त रहते हैं। और सत्ता गणतंत्र को चलाने की ज़िम्मेदारी को सार्थक रूप से निभा पाती और समाज के लिए बुद्धिमतापूर्ण फ़ैसले नहीं ले पाती। यदि जनता के हक में कुछ निर्णय लिए भी जाते हैं तो अपने आप को सत्ता में बनाए रखने के भाव से लिए जाते हैं। परिणामत: आदर्श समाज हमेशा पतन की कगार पर खड़ा रहता है।
गंभीरता से देखा जाय तो आज हमारे लोकतंत्र की स्वायतता तानाशाही में बदलती जा रही है। सरकार पर किसी का कोई अंकुश नहीं रह गया है। सरकार बिना पगहा के बैल की तरह आरचरण करने में लगी है। स्वतंत्र कहे जाने वाली तमाम सरकारी ईकाइयां सरकार के इशारे पर केवल और केवल विपक्ष के नेताओं पर ही दंण्डात्मक कार्यवाही करने पर उतारू रहती है। हाँ! अपवाद स्वरूप सत्ता पक्ष के नेताओं पर भी एक-दो केस दायर कर विपक्ष के इस आरोप को नकारने का असफल प्रयास करती है कि सरकार की ई डी, सी बी आई, आयकर आदि विभाग सत्तापक्ष पर भी नजर रखते हैं।
उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ महीनों से राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों में जांच एजेंसी ईडी ने लगातार सक्रियता दिखाई है। वह एक के बाद एक कई छापे मार रही है और गिरफ्तारियां भी कर रही है। हालांकि ईडी के निशाने पर लगभग सारे विपक्षी नेता और राजनीतिक दल ही रहे हैं । इसी वजह से इस मुद्दे पर राजनीति तेज हो गई। विपक्षी दल ईडी को सरकार और बीजेपी का टूल बताने लगे हैं। सरकार ईडी को स्वतंत्र एजेंसी बताकर उसके कदमों को डिफेंड तो कर रही है, लेकिन आंकड़े गवाह हैं कि ईडी की ओर से की गई कार्रवाई में बाढ़ सी आ गई है। विपक्ष के अधिकाधिक कद्दावर नेताअओं को ई डी के जरिए जेलों में डाला जा रहा है। हैरत की बात ये है कि सत्ताधारी पक्ष के किसी भी नेता के खिलाफ ई डी का कोई भी उदाहरण नहीं है।
सरकार और बीजेपी विपक्षी दलों के नेताओं पर कसते ईडी के शिकंजे को करप्शन के खिलाफ बड़ी कार्रवाई के रूप में प्रॉजेक्ट कर रही है। वहीं विपक्षी दल इस मसले पर जनता की सहानुभूति लेने की कोशिश कर रहे हैं। विपक्ष इसे अपने नेताओं को परेशान करने या विपक्ष शासित राज्य को अस्थिर करने की साजिश का हिस्सा बता रहा है। कुल मिलाकर संकेत साफ हैं कि आने वाले समय में ईडी की तमाम कार्रवाई अगले आम चुनाव में बड़ा मुद्दा बन सकती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही रहेगा कि क्या चुनावों में भ्रष्टाचार निर्णायक मुद्दा बन सकता है? इसका परिणाम क्या होगा या जनमानस पर इसका असर क्या होगा? इस मामले में अब तक के ट्रेंड विरोधाभासों से भरे रहे हैं। 2014 के बाद विपक्षी नेताओं के खिलाफ ईडी के मामलों में 4 गुना उछाल पाकर , 95 फीसदी का आंकड़ा छू गया है। ईडी (ED) की केसबुक में विपक्षी राजनेताओं और उनके करीबी रिश्तेदारों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी देखी गई है। विपक्षी नेता भी लगातार इसे लेकर आवाज उठाते रहे हैं।
तानाशाही, सरकार का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति या एक छोटे समूह के पास प्रभावी संवैधानिक सीमाओं के बिना पूर्ण शक्ति होती है। तानाशाही , सरकार का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति या एक छोटे समूह के पास प्रभावी संवैधानिक सीमाओं के बिना पूर्ण शक्ति होती है। तानाशाही शब्द लैटिन शीर्षक तानाशाह से आया है , जो रोमन गणराज्य में एक अस्थायी मजिस्ट्रेट को नामित करता था जिसे राज्य संकटों से निपटने के लिए असाधारण शक्तियां प्रदान की जाती थीं। हालाँकि, आधुनिक तानाशाह प्राचीन तानाशाहों के बजाय प्राचीन तानाशाहों से मिलते जुलते हैं। ग्रीस और सिसिली के अत्याचारों के बारे में प्राचीन दार्शनिकों के वर्णन आधुनिक तानाशाही को चित्रित करने की दिशा में बहुत आगे जाते हैं। तानाशाह आमतौर पर निरंकुश राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिए बल या धोखाधड़ी का सहारा लेते हैं, जिसे वे धमकी, आतंक और बुनियादी नागरिक स्वतंत्रता के दमन के माध्यम से बनाए रखते हैं । वे अपने सार्वजनिक समर्थन को बनाए रखने के लिए बड़े पैमाने पर प्रचार की तकनीकों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदाय के बीच बीते पाँच महीनों से जारी हिंसक संघर्ष के बीच गत दिनों मणिपुर की दो महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न का एक भयावह घटना क्रम सबने देखा है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब संसद के मॉनसून सत्र से पहले मीडिया से बात करने आए तो उन्होंने भी मणिपुर की घटना का ज़िक्र करते हुए केवल कहा कि उनका हृदय पीड़ा से भरा हुआ है। लेकिन मणीपुर का दौरा आज तक नहीं किया। पीएम मोदी ने आगे कहा कि देश की बेइज्जती हो रही है और दोषियों को बख़्शा नहीं जाएगा। यह पहली बार था कि जब प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर में जारी हिंसा पर कुछ कहा। विपक्ष मणिपुर पर पीएम मोदी के न बोलने को लेकर लंबे समय से सवाल उठा रहा था।
सुप्रीम कोर्ट द्वार इलेक्ट्रोरल बाँड पर रोक लगाने के बाद भाजपा की भौंए तन गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि इलेक्तट्रोरल बोंड के जरिए राजनीतिक दलों को पूंजीपतियों द्वारा दिए गये चंदे के बारे में यह जानना चाहिए कि कि बीजेपी को कौन सी कंपनी चंदा दे रही है। उसका मालिक किसका दोस्त कहा जाता है। उस कंपनीयों को मोदी सरकार ने अपनी नीतियों से क्या-क्या दिया? चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में भाजपा द्वरा की गई खुल्ल्म्खुल्ला हेराफेरी , क्या राजशाही की मार्ग प्रशस्त नहीं करती? सरकार की इस प्रकार की गतिविधियों के चलते यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर 2024 में BJP जीती तो 2024 का आमचुनाव अंतिम चुनाव होगा। 2024 के बाद आने वाले वर्षों में शायद ही कोई आमचुनाव होगा और नरेंद्र मोदी जी ‘नरेंद्र पुतिन’ बन जाएंगे। इस प्रकार की सोच केवल राजनीतिक दलों की ही नहीं अपितु आम जनता का भी ऐसा ही विचार है।
अफसोसनाक सत्य है भाजपा सरकार आम चुनाव 2024 को जीतने के लिए तमाम प्रशासनिक अधिकारियों और फौजी अफसरों का राजनीतिक प्रयोग करने में नहीं हिचक रही है। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के कुकृत्य पर कोई एक्सन लेने में मौन दिखाई देती है। क्या सरकार के इस तरह के प्रयोग तानाशाही की ओर बढ़ते कदम के रूप में नहीं देखे जाने चाहिएं?
आजकल भारतीय लोकतंत्र में धीरे-धीरे सरकार के मुखिया यानी प्रधानमंत्री में राजशाही के गुण अवतरित होते जा रहे हैं। राजतंत्र की तरह लोकतंत्र की राजा भी यह सोचने लगा है कि जब भी सत्ता हाथ लगे 95% जनता को भिखारी बना दें और उसके बाद सात जन्मों तक सत्ता को अपने हाथ से न जाने दे। कहा तो ये जाता है कि जब सत्ता हाथ लगे तो सबसे पहले सरकार की धन संपत्ति, राज्यों की जमीन और जंगल पर अपने कुछेक विश्वसनीय धनी लोगों को सौंप दें और 95% जनता को भिखारी बना दे। उसके बाद सात जन्मों तक सत्ता हाथ से नहीं जाएगी। ऐसा आजके भारत में होता हुआ भी दिख रहा है। यूं भी कहा जा सकता है कि भाजपा के शासन काल में भारतीय लोकतंत्र राजशाही की बाहों में फंसकर बुरी तरह कसमसा रहा है।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।