चुनाव आयोग के चंगुल में जबह होता लोकतन्त्र

चुनाव आयोग के चंगुल में जबह होता लोकतन्त्र

इस बार के चुनाव में और खासतौर पर महाराष्ट्र के चुनाव में जितना पैसा बहाया गया है, इससे पहले कभी नहीं बहाया गया था। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव प्रक्रिया के दौरान, पिछले चुनाव के मुकाबले सात गुना ज्यादा पैसा पकड़ा जाना इसी की ओर इशारा करता है। महाराष्ट्र की राजनीति के जानकार, एक वरिष्ठ पत्रकार ने तो 34,000 करोड़ की राशि का उल्लेख किया है, जो एक बड़े औद्योगिक समूह द्वारा इस चुनाव में, जाहिर है कि सत्तापक्ष के माध्यम से लगाई गयी है।

अब जबकि महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभाई चुनाव और उनके साथ ही पंद्रह राज्यों में दो लोकसभाई तथा 48 विधानसभाई उपचुनावों के नतीजे आ चुके हैं, हाल के चुनावों के अनुभव की रौशनी में एक बार फिर यह सवाल पूछना अप्रासांगिक नहीं होगा कि जनतंत्र के रूप में हमारे किधर जाने के लक्षण हैं? ठीक-ठीक किधर के सवाल पर फिर भी असहमतियां हो सकती हैं, विवाद हो सकते हैं, लेकिन इतना तय है कि लक्षण अच्छे नहीं हैं। हाल के चुनावों मे प्रमुखता से उभरकर आई तीन प्रवृत्तियों को देखते हुए कम से कम इतना तो कहना ही पड़ेगा।

पहली जो प्रवृत्ति निकल कर आई है, वह है खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक प्रचार और धर्म पर आधारित दुहाइयों के ज्यादा से ज्यादा नया नार्मल बना दिए जाने की। बेशक, पिछले आम चुनाव में ही यह खेल अपने शीर्ष पर पहुंच चुका था, जब खुद प्रधानमंत्री ने, उनके विरोधी ‘मंगलसूत्र भी छीन लेंगे, मुसलमानों को दे देंगे’ की दुहाई का सहारा लिया था और ‘आरक्षण छीन लेंगे, मुसलमानों को दे देंगे’ की दुहाई का तो चुनाव में आखिर-आखिर तक और बार-बार सहारा लिया था। बेशक, उस समय इस पर काफी शोर मचा था और चुनाव आयोग से कई-कई शिकायतें भी की गयी थीं। लेकिन, प्रधानमंत्री और उनके खेमे को किसी रोक-टोक का सामना नहीं करना पड़ा, न चुनाव आयोग की ओर से और न किसी अन्य संवैधानिक संस्था की ओर से। इतना ही नहीं, ज्यादा आलोचनाएं होने पर चुनाव आयोग ने अपनी जिम्मेदारी को टालने की एक अभूतपूर्व कसरत करते हुए और एक झूठी समानता रचते हुए, प्रमुख नेताओं के आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन करने की सारी शिकायतें, क्रमश: भाजपा और कांग्रेस के अध्यक्षों को भेज दीं, जवाब देने के लिए और अपने-अपने स्टॉर प्रचारकों को हर प्रकार के उल्लंघन से बचने के लिए समझाने के लिए। दिलचस्प यह था कि यह भी तब किया गया, जब महीने भर से ज्यादा लंबी चुनाव प्रक्रिया अपने छोर पर पहुंच रही थी। नतीजा यह कि दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के अध्यक्षों के जवाब आते-आते ही चुनाव निकल गया और जाहिर है कि उसके बाद तो चुनाव आयोग ने गंगा ही नहा ली।

रत्ती भर हैरानी की बात नहीं है कि इस चुनाव में उन्हीं प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सांप्रदायिक दुहाई को और आगे बढ़ा दिया गया है। जहां पिछले चुनाव में मंगलसूत्र छीन लेंगे, आरक्षण आदि छीन लेगे और ‘उन्हें’ यानी मुसलमानों को दे देंगे की खुली सांप्रदायिक दुहाई थी, तो इस चुनाव में उसे रोटी, बेटी और माटी, सब छीने जाने के खतरे की दुहाई में और आगे बढ़ा दिया गया है। इतना ही नहीं है। इस सांप्रदायिक दुहाई को इस अर्थ में भी और आगे बढ़ाया गया है कि अब दावा भावी खतरे का नहीं किया जा रहा था कि ‘छीन लेंगे’। अब दावा चालू खतरे का था; अब कहा जा रहा था—’छीन रहे हैं।’ जाहिर है कि इस और सांप्रदायिक दुहाई का सहारा लिए जाने के अन्य सभी मामलों में भी, इस बार भी न तो चुनाव आयोग ने कुछ रोक-टोक करने की जेहमत उठायी और न किसी और संवैधानिक संस्था ने। हां! एक बार फिर चुनाव आयोग ने अपनी ओर से कागज का पेट भरने के लिए, आम चुनाव के समय की अपनी तिकड़म को ही दुहराते हुए, आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन की शिकायतें मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टियों—कांग्रेस और भाजपा—के अध्यक्षों को जवाब देने के लिए भेज दीं। इन शिकायतों का जवाब भी चुनाव प्रचार की आखिरी तारीख तक मांगा गया था। यह दूसरी बात है कि राजनीतिक पार्टियों ने इस तारीख में भी विस्तार मांग लिया और इस तरह एक बार फिर गेंद को चुनाव के बाद के आकाशी शून्य में उछाल दिया गया है।

बेशक, इस बार झारखंड में हुई एक अलग सी किंतु इसी से संबंधित घटना का जिक्र करना भी यहां जरूरी हो जाता है। यह किसी से छुपा नहीं है कि किस तरह संघ-भाजपा-एनडीए ने इस बार झारखंड के चुनाव में ‘बंगलादेशी घुसपैठ’ का झूठा और सांप्रदायिक हौवा खड़ा करने को, अपना मुख्य चुनावी हथियार बनाने की कोशिश की है। इसी के हिस्से के तौर पर और इस सिलसिले में भाजपा के चुनाव घोषणापत्र से लेकर प्रधानमंत्री तक के दावों को आगे बढ़ाते हुए, झारखंड भाजपा ने एक बहुत ही आपत्तिजनक और उकसावेपूर्ण सांप्रदायिक वीडियो अपने आधिकारिक चैनल से जारी किया था। जाहिर है कि यह मोदी राज में चुनाव आयोग के गांधी के बंदर बनकर, सत्ता पक्ष की करतूतों पर आंख, कान, मुंह बंद कर के बैठे रहने की प्रवृत्ति का ही एक और उदाहरण था कि सत्ताधारी पार्टी के हौसले इतने बढ़ गए कि इस बार उसने अपने आधिकारिक हैंडल से ऐसा भड़काऊ वीडियो जारी कर दिया। वीडियो के वायरल होने के बाद और जाहिर है कि देश ही नहीं, बाकी दुनिया में भी सवाल उठने के बाद, चुनाव आयोग ने राज्य भाजपा से न सिर्फ जवाब मांगा बल्कि अंतत: अपनी ओर से ‘कठोर’ कार्रवाई भी की; आयोग ने यह वीडियो तो हटवा ही दिया!

सब कुछ ठीक न होने का दूसरा लक्षण महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के आखिरी दिन अपने शीर्ष पर था, जब मुंबई के उपनगर विरार में भाजपा के एक राष्ट्रीय महासचिव, विनोद तावड़े के कथित रूप से नोट बांटते हुए रंगे हाथों पकड़े जाने का वीडियो वाइरल हुआ। वीडियो में नोटों के बंडल लहराए जा रहे थे जो कथित रूप से तावड़े के पास से मिले थे। वंचित बहुजन अघाड़ी के जिस नेता ने नोट पकड़वाने वाली कार्यकर्ताओं की भीड़ का नेतृत्व किया था, उसने तावड़े के पास से मिली एक डायरी में करोड़ों रुपए बांटे जाने का विवरण मिलने की भी बात कही। यह पूरा प्रकरण चूंकि वीडियो पर दर्ज हुआ था, चुनाव आयोग को भी आखिरकार तावड़े के मामले में तीन एफआईआर दर्ज करानी पड़ी है। कहने की जरूरत नहीं है कि तावड़े ने अपने पास से कोई भी पैसा पकड़े जाने से इंकार किया है। इस खास मामले में अंतत: क्या होता है, इससे अलग यह हमारे जनतंत्र की उस गहरी बीमारी को रेखांकित तो करता ही है, जिसे जानते और मानते सभी हैं, लेकिन जिसके उपचार के लिए कुछ भी करने को मुख्यधारा की राजनीति तैयार नहीं है।

एक बात तय है कि इस बार के चुनाव में और खासतौर पर महाराष्ट्र के चुनाव में जितना पैसा बहाया गया है, इससे पहले कभी नहीं बहाया गया था। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव प्रक्रिया के दौरान, पिछले चुनाव के मुकाबले सात गुना ज्यादा पैसा पकड़ा जाना इसी की ओर इशारा करता है। महाराष्ट्र की राजनीति के जानकार, एक वरिष्ठï पत्रकार ने तो 34,000 करोड़ की राशि का उल्लेख किया है, जो एक बड़े औद्योगिक समूह द्वारा इस चुनाव में, जाहिर है कि सत्तापक्ष के माध्यम से लगाई गयी है। इस राशि की बात छोड़ भी दें तब भी इतना तय है कि चुनावी चंदे की व्यवस्था के सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवैध घोषित कर के बंद कराए जाने बावजूद, मुख्यधारा की पार्टियों के और खासतौर पर सत्ता पक्ष के चुनावी खर्चों में रत्तीभर कमी आना तो दूर, उल्लेखनीय बढ़ोतरी ही हो रही है। हैरानी की बात नहीं है कि एडीआर के संस्थापक ने तो चुनावी खर्च की वर्तमान सीमाओं की व्यवस्था को ‘एक मजाक’ तक कहना शुरू कर दिया है। जाहिर है कि चुनाव में खर्चे के पहलू से बराबरी के मौके या ईवन ग्राउंड का न सिर्फ अब कोई मतलब नहीं रह गया है, कथित चुनाव सुधार के नाम पर चुनाव आयोग द्वारा उठाए गए सारे रस्मी कदमों ने इसे और बेमानी बनाने में ही मदद की है। इस माने में चुनाव, जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति से बहुत दूर, सिर्फ बड़े पैसे से ही खेला जा सकने वाला खेल होकर रह गया है।

तीसरा लक्षण भी इतना ही खतरनाक है। यह तीसरा लक्षण खासतौर पर उत्तर प्रदेश में हुए 9 विधानसभाई सीटों पर हुए उपचुनाव में सामने आया है, जहां कम से कम चार चुनाव क्षेत्रों से, जिनमें अंबेडकर नगर में कटेहरी, मुरादाबाद में कुंदरकी, मुजफ्फरनगर में मीरापुर और कानपुर में सीमामऊ शामिल हैं, मतदाताओं को खासी संख्या में वोट डालने से ही रोके जाने की शिकायतें सामने आई हैं। ये शिकायतें इसलिए और भी खतरनाक हो जाती हैं कि इन सभी मामलों में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को मतदान से रोके जाने की ही शिकायतें हैं। कोढ़ में खाज यह कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों को मतदान से रोकने का काम इनमें से हर जगह पर खुद पुलिस-प्रशासन द्वारा और जाहिर है कि सत्ताधारी पार्टी व सरकार के इशारे पर ही किया जा रहा था। एक वायरल वीडियो में तो बाकायदा एक दारोगा को रिवाल्वर तानकर मुस्लिम महिलाओं को धमकाते भी देखा सकता है। एक अन्य वीडियो में एक पत्रकार द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या मतदान के लिए आने वाले लोगों पर लाठियां बरसाई गयी थीं, दारोगा को यह कहते सुना जा सकता है कि ‘गलती करेंगे तो पिटेंगे’। चुनाव आयोग तक को पांच पुलिस अधिकारियों को सस्पेंड करने के आदेश देने पड़े हैं।

यह सब इसलिए और भी अनिष्टïकर है कि यह सब कोई पहली बार नहीं हुआ है। आम चुनाव के दौरान भी उत्तर प्रदेश में ही और कुछ अन्य स्थानों पर भी ऐसा ही हुआ था, पुलिस की भूमिका समेत। रामपुर संसदीय क्षेत्र से तो इसके अनेक वीडियो भी वायरल हुए थे। वास्तव में इस दांव की आजमाइश और भी पहले, संभल तथा रामपुर के उपचुनावों में हो चुकी थी। संसदीय चुनाव के बाद से इसका दुहराया जाना और कम से कम चार अलग-अलग जिलों के विधानसभाई क्षेत्रों में दोहराया जाना, यही इशारा करता है कि यह बीमारी कितनी तेजी से फैल रही है। मुसलमानों के साथ इस तरह का सौतेला बर्ताव ही अगर सामान्य हो जाता है तो, हमारे जनतंत्र को सौतेली मां बनाने के लिए काफी होगा। पहले दो लक्षणों के साथ मिलकर तो यह पक्के तौर पर उसे जनतंत्र की सौतेली मां बना देता है। हैरानी की बात नहीं है कि दुनिया ने हमारे जनतंत्र को ‘आंशिक जनतंत्र’ से लेकर ‘निर्वाचित तानाशाही’ तक कहना शुरू कर दिया है। चुनाव आयोग इस गिरावट में बाधक बनने के बजाय, गिरावट का साधन ही बना हुआ है। अनुपातिक प्रतिनिधित्व समेत गहरे चुनाव सुधारों के बिना, जनतंत्र की मां के नाम पर उसकी सौतेली मां का राज होने से नहीं रोका जा सकता है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।

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